गुरुवार, 12 सितंबर 2013

वैदिक ग्रंथों में वर्ण - व्यवस्था

वैदिक ग्रंथों में वर्ण-व्यवस्था

वैदिक ग्रंथों के अनुसार वर्ण-व्यवस्था गुण-कर्म-स्वभावानुसार होती है, जन्म से नहीं | क्षत्रिय,
वैश्य और शुद्र कुल में उत्पन्न होकर भी वह ब्राह्मण हो सकता है | छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित जाबाल ऋषि अज्ञात कुल के, महाभारत में
विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल के होने पर
भी ब्राह्मण हो गये | अब भी जो उत्तम स्वभाववाला है वही ब्राह्मण के
योग्य और मुर्ख शुद्र के योग्य होता है और आगे भी ऐसा ही होगा | रज-
वीर्य के संयोग से ब्राह्मण शरीर नहीं बनता अपितु-
स्वध्यायेन जपैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः |
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्यीयं क्रियते तनु; || -मनु० २ |२८
पढ़ने-पढ़ाने विचार करने-कराने, नानाविधि होम के अनुष्ठान, सम्पूर्ण
वेदों को शब्द, अर्थ, सम्बन्धपूर्वक तथा स्वरोच्चारण के साथ पढ़ने-पढ़ाने,
पौर्णमास आदि यज्ञों के करने, धर्म से सन्तानों की उत्पत्ति, पञ्च
महायज्ञों और अग्निष्टोमादि यज्ञों के करने, विद्वानों का संग एवं सत्कार
करने, सत्यभाषण, परोपकार आदि सत्कर्म और शिल्पविद्या आदि पढ़कर
दुष्टाचार को छोड़कर श्रेष्ठाचार में वर्त्तने से यह शरीर ब्राह्मण
का किया जाता है |
जो कोई रजवीर्य के योग से वर्णाश्रम व्यवस्था माने और गुण-कर्मों के
योग से न माने तो उससे पूछना चाहिए कि जो कोई अपने वर्ण को छोड़
नीच, अन्त्यज अथवा क्रिश्चयन या मुसलमान
हो गया हो तो उसको भी ब्राह्मण क्यों नहीं मानते? वह
यही कहेगा कि उसने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये, इसलिए वह ब्राह्मण
नहीं है | इससे यह सिद्ध हुआ है कि जो ब्राह्मणादि उत्तम कर्म करते हैं वे
ही ब्राह्मण आदि और जो नीच भी उत्तम गुण-कर्म-स्वभाववाला होवे
तो उसको भी उत्तम वर्ण में गिनना चाहिए और जो उत्तम वर्णस्थ होकर
नीच काम करे तो उसे नीच वर्ण में गिनना चाहिए | वेद में भी गुण-कर्म-
स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था का वर्णन है -
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः |
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यांशूद्रो अजायत || -यजु० ३१ | ११
परमात्मा की इस सृष्टि में जो मुख के सदृश सबमें मुख्य, अर्थात् सर्वोत्तम
हो वह ब्राह्मण, जिसमें बल-वीर्य अधिक हो वह क्षत्रिय, कटी के
अधो भाग और जानु के ऊपर वाले भाग का नाम ऊरू है | अतः जो सब
देशों में व्यापार के निमित्त ऊरू के बल से आए-जाए वह वैश्य और पग
अर्थात् नीचे अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला शूद्र है |
चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष या स्त्री होँ वे
उसी वर्ण में गिने जाएँ | महर्षि मनु ने भी कहा है-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् |
क्षत्रीयाज्ज्तमेवं तू विद्याद्वैश्या त्तथैव च || -मनु० १० | ६५
जो शूद्रकुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण-
कर्म-स्वभाववाला हो तो वह शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाए |
वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकुल में उत्पन्न हुआ हो, परन्तु
उसके गुण-कर्म-स्वभाव शूद्र के तुल्य होँ तो वह शूद्र हो जाए |
इसी प्रकार क्षत्रिय या वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण अथवा शूद्र
के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है |
इस विषय में आपस्तम्ब के निम्नलिखित दो सूत्र द्रष्टव्य हैं-
धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ |
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ ||
अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम-उत्तम वर्ण को प्राप्त
होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है, जिस-जिस वर्ण के वह योग्य
होता है | अधर्माचरण से पूर्व-पूर्व अर्थात् उत्तम-उत्तम वर्णवाला मनुष्य
अपने से नीचे-नीचे वर्णों को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जाता है
|
जैसे पुरुष अपने गुण कर्मों के अनुसार अपने वर्ण के योग्य होता है,
वैसी ही व्यवस्था स्त्रियों के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए |
वर्ण-व्यवस्था के लाभ
गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था होने से सब वर्ण अपने-अपने गुण-
कर्म और स्वभाव से युक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं | वर्ण-
व्यवस्था के ठीक परिपालन से ब्राह्मण के कुल में ऐसा कोई व्यक्ति न रह
सकेगा जोकि क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के गुण-कर्म-स्वभाववाला हो |
इसी प्रकार अन्य वर्ण अर्थात् क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी अपने शूद्ध
स्वरूप में रहेगें, वर्णसंकरता नहीं होगी |
गुण-कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था में किसी वर्ण
की निन्दा या अयोग्यता का भी अवसर नहीं रहता |
ऐसी अवस्था रखने से मनुष्य उन्नतिशील होता है, क्योंकि उत्तम
वर्णों को भय होगा कि यदि हमारी सन्तान मुर्खत्वादि दोषयुक्त
होगी तो वह शूद्र हो जाएगी और सन्तान भी डरती रहेगी कि यदि हम उक्त
चाल-चलनवाले और विद्यायुक्त न होंगे तो हमें शूद्र होना पड़ेगा |
गुण-कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था होने से नीच वर्णों का उत्तम वर्णस्थ होने
के लिये उत्साह बढ़ता है |
गुण-कर्मों से वर्णों की यह व्यवस्था कन्याओं की सोलहवें और
पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करनी चाहिए और इसी क्रम
से अर्थात् ब्राह्मण का ब्राह्मणी और शूद्र का शूद्रा के साथ विवाह
होना चाहिए तभी अपने-अपने वर्णों के कर्म और परस्पर
प्रीति भी यथायोग्य रहेगी |
वर्णों के कर्तव्य
इन चारों वर्णों के कर्तव्य-कर्म और गुण ये हैं | ब्राह्मण-
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा |
दानं प्रतिग्रहश्चेव ब्राह्मणानामकल्प्यत् || -मनु० १ | ८८
शमो दमस्तपः शौचं क्षन्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिवयं ब्रह्मकर्मस्वभावजम् || -गीता० १८ | ४२
ब्राह्मण के पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान
लेना- ये छह कर्म हैं, परन्तु इनमे दान लेना नीच कर्म है | इनके साथ
ही (शमः) मन से बुरे काम की इच्छा भी न करनी उसे अधर्म में कभी प्रवृत
न होने देना (दमः) आँख, नाक, कान आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से
रोककर धर्म में चलाना (तपः) सदा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान
करना (शौच) जल से बाहर की अपवित्रता और राग-द्वेष आदि को दूर कर
भीतर से पवित्र रहना, (क्षान्ति) निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ में
हर्ष-शोक छोड़कर धर्मानुष्ठान में दृढ रहना (ज्ञान)
वेदादि शास्त्रों को सांगोपांग पढ़के पढ़ाने का सामर्थ्य और विवेक-
सत्यासत्य का निर्णय, जो वस्तु जैसी हो अर्थात् जड़ को जड़ और चेतन
को चेतन मानना, (विज्ञान) पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त
पदार्थों को जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, (आस्तिक्य) वेद, ईश्वर,
मुक्ति, पुनर्जन्म, धर्म, माता-पिता आदि की सेवा को न छोड़ना और
इनकी निन्दा कभी न करना- ये कर्म और गुण ब्राह्मण-वर्णस्थ मनुष्यों में
अवश्य होने चाहिएँ |
क्षत्रिय- प्रजानां रक्षणम् दानमिज्याध्ययनमेव च |
विषयेश्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः || -मनु० १ | ८९
शोर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् |
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् || -गीता० १८ | ४३
(प्रजारक्षण) न्याय से प्रजा का पालन, (दान) विद्या और धर्म
की वृद्धि के लिये सुपात्रों को दान देना, (इज्या) अग्निहोत्र आदि यज्ञ
करना वा कराना, (अध्ययन) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़वाना,
(विषयेश्वप्रसक्तिः) विषयों में न फँसकर जितेन्द्रिय रहके सदा शरीर और
आत्मा से बलवान् रहना, (शौर्य) अकेला होने पर भी सैकड़ों, सहस्त्रों से
भी युद्ध करने में भयभीत न होना, (तेजः) सदा तेजस्वी, दीनता रहित होना,
(धृतिः) धैर्यवान् होना, (दाक्ष्यम्) राजा और प्रजा-सम्बन्धी व्यवहार और
सब शास्त्रों में अति चतुर होना, (युध्ये चाप्यपलायनम्) युद्ध से पीठ न
दिखाना, निर्भय और निःशंक होकर इस प्रकार से युद्ध
करना कि अपनी विजय होवे और आप बचें | इसके लिए भागने और शत्रुओं
को धोखा देने से जीत होती हो तो वैसा ही करना, (दानम्)
दानशीलता रखना, (ईश्वरभावः) पक्षपातरहित होके सबके साथ यथायोग्य
बर्त्तना, विचार के दण्ड देना, प्रतिज्ञा पूरी करना- ये ग्यारह क्षत्रिय
वर्ण के कर्म और गुण हैं |
वैश्य- पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च |
वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च || -मनु० १ | ९० (पशुरक्षा) गाय
आदि पशुओं का पालन और वर्धन, (दानम्) विद्या और धर्म
की वृद्धि करने-कराने के लिए धनादि का व्यय करना, (अध्ययनम्)
वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, (वाणिक्पथम्) सब प्रकार के व्यापार
करना (कुसीदम्) एक सैकडे में चार, छह, बारह, सोलह, वा बीस आनों से
अधिक व्याज और मूल से दुगुना अर्थात् एक रूपया दिया हो तो सौ वर्ष में
भी दो रुपये से अधिक न लेना, न देना और (कृषि) खेती करना- ये वैश्य के
गुण-कर्म हैं |
शुद्र- एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् |
ऐतेषामेव वर्णानां शुश्रुषामनसूयया || -मनु० १ | ९१
शूद्र को योग्य है कि निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़के
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करते हुए अपने जीवन का निर्वाह
करे | यही एक शूद्र का गुण-कर्म है |
ये चार वर्ण प्रत्येक देश और समाज के लिए आवश्यक हैं | इनके
बिना राष्ट्र में सुव्यवस्था हो ही नहीं सकती | आधुनिक भाषा में
इनका नामकरण इस प्रकार किया जा सकता है- १. अध्यापक=Teachers,
२. रक्षक= Warriors, ३. पोषक= traders, और ४. सेवक= Servant.

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