गुरुवार, 19 सितंबर 2013

पुरातन भारतीय ग्रंथों में विमान अर्थात वायुयान सम्बन्धी विवरण

पुरातन भारतीय ग्रंथों में विमान अर्थात वायुयान सम्बन्धी विवरण
पुरातनभारतीय ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तरित वर्णन है। सैनिक क्षमताओं वाले विमानों के प्रयोग, विमानों की भिडन्त, तथा ऐक दूसरे विमान का अदृष्य होना और पीछा करना किसी आधुनिक वैज्ञिानिक उपन्यास का आभास देते हैं लेकिन वह कोरी कलपना नहीं यथार्थ है।
प्राचीन विमानों के प्रकार
प्राचीन विमानों की दो श्रेणिया इस प्रकार थीः-
    मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की तरह पंखों के सहायता से उडान भरते थे।
    आश्चर्य जनक विमान, जो मानव निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडन तशतरियों’ के अनुरूप है।
विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ
भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया। प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्हों ने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उन में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-
1.     ऋगवेद- इस आदि ग्रन्थ में कम से कम 200 बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों (वैज्ञिानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणत्या तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण, रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई सन्देह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी। याता-यात के लिये ऋग वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-
    जल-यान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 6.58.3)
    कारा – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 9.14.1)
    त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋग वेद 3.14.1)
    त्रिचक्र रथ – यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। (ऋग वेद 4.36.1)
    वायु रथ – रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 5.41.6)
    विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 3.14.1).
2.     यजुर्वेद में भी ऐक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिस का निर्माण जुडवा अशविन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्हो मे राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।
3.         विमानिका शास्त्र –1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की ऐक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारदूाज रचित माना जाता है। इस का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों के विषय इस प्रकार थेः-
    विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।
    विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं।
    इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं।
    ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।
4.         यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूाजरचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूाजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया हैः-
    अन्तरदेशीय – जो ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
    अन्तरराष्ट्रीय – जो ऐक देश से दूसरे देश को जाते
    अन्तीर्क्षय – जो ऐक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते
इन में सें अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं। उदाहरणार्थ सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-
    पूर्णत्या अटूट, अग्नि से पूर्णत्या सुरक्षित, तथा आवश्यक्ता पडने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही ऐक दम से स्थिर हो जाने में सक्ष्म।
    शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।
    शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड कर लेने की क्षमता।
    शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।
    शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।
    निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।
    आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।
    चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।
    स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।
    हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बडा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णत्या नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।
विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ फाईटर और उडन तशतरी का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारदूाजकोई आधुनिक ‘फिक्शन राईटर’ नहीं थे परन्तुऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित कर सकता है कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञिानक माडल का विचार कैसे किया। उन्हों ने अंतरीक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती बाडी का ज्ञान भी पूर्णत्या हासिल नहीं कर पाये थे।
5.         समरांगनः सुत्रधारा – य़ह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं।
लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।
समरांगनः सुत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था।  पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-
    रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।
    सुन्दरः –सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।
    त्रिपुरः –त्रिपुर तीन तल वाले थे।
    शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।
दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।
ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।
सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं
6.         कथा सरित-सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।
कोटिल्लय के अर्थ शास्त्र में अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सोविकाओं का उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उडाते थे । कोटिल्लय  ने उन के लिये विशिष्ट शब्द आकाश युद्धिनाह का प्रयोग किया है जिस का अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलेट) आकाश रथ, चाहे वह किसी भी आकार के हों का उल्लेख सम्राट अशोक के आलेखों में भी किया गया है जो उस के काल 256-237 ईसा पूर्व में लगाये गये थे।
उपरोक्त तथ्यों को केवल कोरी कल्पना कह कर नकारा नहीं जा सकता क्यों कल्पना को भी आधार के लिये किसी ठोस धरातल की जरूरत होती है। क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इस विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं ? आज तकनीक ने भारत की उन्हीं प्राचीन ‘कल्पनाओं’ को हमारे सामने पुनः साकार कर के दिखाया है, मगर विदेशों में या तो परियों और ‘ऐंजिलों’ को बाहों पर उगे पंखों के सहारे से उडते दिखाया जाता रहा है या किसी सिंदबाद को कोई बाज उठा कर ले जाता है, तो कोई ‘गुलफाम’ उडने वाले घोडे पर सवार हो कर किसी ‘सब्ज परी’ को किसी जिन्न के उडते हुये कालीन से नीचे उतार कर बचा लेता है और फिर ऊँट पर बैठा कर रेगिस्तान में बने महल में वापिस छोड देता है। इन्हें कल्पना नहीं, ‘फैंटेसी’ कहते हैं।
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पुरातन भारतवर्ष में विमान शास्त्र
साधारणतया यह माना जाता है कि पक्षियों की तरह आकाश में उड़ने का मानव का स्वप्न राइट बंधुओं ने १७ दिसम्बर, १९०३ में विमान बनाकर पूरा किया। और विमान विद्या विश्व को पश्चिम की देन है। इसमें संशय नहीं कि आज विमान विद्या अत्यंत विकसित अवस्था में पहुंची है। परन्तु महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था। न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी। इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वाङ्गमय में मिलते हैं।
विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ‘इन्द्रविजय‘ नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था। पुराणों में विभिन्न देवी-देवता, यक्ष, विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं, इस प्रकार के उल्लेख आते हैं। त्रिपुरासुर यानी तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था, जो पृथ्वी, जल व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया। रामायण में पुष्पक विमान का वर्णन आता है। महाभारत में श्रीकृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है। भागवत में कर्दम ऋषि की कथा आती है। तपस्या में लीन रहने के कारण वे अपनी पत्नी की ओर ध्यान नहीं दे पाए। इसका भान होने पर उन्होंने अपने विमान से उसे संपूर्ण विश्व का दर्शन कराया।
लेकिन मैकाले की आङ्ग्ल शिक्षा नीति से शिक्षित भारतीय जन भी इन तथ्यों को अविश्वास की नजर से देखते हैं , क्योंकि आज देश में न तो कोई प्राचीन अवशेष मिलते हैं जो यह सिद्ध करें कि प्राचीन काल में विमान थे, न ऐसे ग्रंथ मिलते हैं जिनसे यह ज्ञात हो कि प्राचीन काल में विमान बनाने की तकनीक लोग जानते थे।
केवल सौभाग्य से एक ग्रंथ उपलब्ध है, जो बताता है कि भारत में प्राचीन काल में न केवल विमान विद्या थी, अपितु वह बहुत प्रगत अवस्था में भी थी। यह ग्रंथ, इसकी विषय सूची व इसमें किया गया वर्णन विगत अनेक वर्षों से देश-विदेश में अध्येताओं का ध्यान आकर्षित करता रहा है।
सन्‌ १९५० में गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण‘ के ‘हिन्दू संस्कृति‘ अंक में श्री दामोदर जी साहित्याचार्य ने ‘हमारी प्राचीन वैज्ञानिक कला‘ नामक लेख में इस ग्रंथ के बारे में विस्तार से उल्लेख किया था।
महर्षि भरद्वाज ने ‘यंत्र सर्वस्व‘ नामक ग्रंथ लिखा था, उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है। इस पर बोधानंद ने टीका लिखी थी। आज ‘यंत्र सर्वस्व‘ तो उपलब्ध नहीं है तथा वैमानिक शास्त्र भी पूरा उपलब्ध नहीं है। पर जितना उपलब्ध है, उससे यह विश्वास होता है कि पूर्व में विमान एक सच्चाई थे।
वैमानिक शास्त्र के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख हैं अगस्त्य कृत-शक्तिसूत्र, ईश्वर कृत-सौदामिनी कला, भरद्वाज कृत-अंशुबोधिनी, यंत्र सर्वस्व तथा आकाश शास्त्र, शाक्टायन कृत- वायुतत्व प्रकरण, नारद कृत-वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि। विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानंद लिखते हैं-
निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनि:।
नवनीतं समुद्घृत्य यंत्रसर्वस्वरूपकम्‌॥
प्रायच्छत्‌ सर्वकोकानामीपिस्तार्थफलप्रदम्‌॥
नानाविमानवैतित्र्यरचनाक्रमबोधकम्‌।
अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैयुर्तम्‌॥
सूत्रै: पश्चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌।
वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवता स्वयम्‌॥
अर्थात्‌-भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यंत्र सर्वस्व नाम का एक मक्खन निकाला है, जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है। उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण है जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गये हैं। यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पांच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है।
ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भरद्वाज मुनि विमान शास्त्र के उनसे पूर्व हुए आचार्य तथा उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं। वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार थे।
(१) नारायण कृत-विमान चंद्रिका (२) शौनक कृत- व्योमयान तंत्र (३) गर्ग कृत-यंत्रकल्प (४) वाचस्पतिकृत-यान बिन्दु (५) चाक्रायणीकृत- खेटयान प्रदीपिका (६) धुण्डीनाथ- वियोमयानार्क प्रकाश
इस ग्रंथ में भरद्वाज मुनि ने विमान का पायलट, जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया है।
विमान की परिभाषा
नारायण ऋषि कहते हैं-जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेगपूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है।
शौनक के अनुसार-एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके, विश्वम्भर के अनुसार- एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं।
रहस्यज्ञ अधिकारी (घ्त्थ्दृद्य)-भरद्वाज मुनि कहते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभांति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है क्योंकि विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना, चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना- इसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है। अत: जो इन रहस्यों को जानता है वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है। इन बत्तीस रहस्यों में कुछ प्रमुख रहस्य निम्न प्रकार हैं।
(३) कृतक रहस्य- बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार विश्वकर्मा, छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्र के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बनाना, इसमें हम कह सकते हैं कि यह ‘हार्डवेयर‘ का वर्णन है।
(५) गूढ़ रहस्य-यह पांचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने की विधि दी गई है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गई रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा, वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण में रहने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बंध बनाने पर विमान छिप जाता है।
(९) अपरोक्ष रहस्य-यह नवां रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गई रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
(१०) संकोचा-यह दसवां रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ते समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।
(११) विस्तृता-यह ग्यारहवां रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा करना। यहां यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।
(२२) सर्पागमन रहस्य-यह बाईसवां रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख से जो तिरछे फेंकने वाला केन्द्र है उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति सांप के समान टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है।
(२५) परशब्द ग्राहक रहस्य-यह पच्चसीवां रहस्य है। इसमें कहा गया है कि सौदामिनी कला ग्रंथ के अनुसार शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बातचीत सुनी जा सकती है।
(२६) रूपाकर्षण रहस्य- इसके द्वारा दूसरे विमान के अंदर सब देखा जा सकता है।
(२८) दिक्प्रदर्शन रहस्य-दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा ध्यान में आती है।
(३१) स्तब्धक रहस्य-एक विशेष प्रकार के अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग बेहोश हो जाते हैं।
(३२) कर्षण रहस्य-यह बत्तीसवां रहस्य है। इसके अनुसार अपने विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्रवानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्की की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार से उस शक्ति को फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।
महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पांच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊंचाई पर विभिन्न आवर्त्त दृद्ध ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म का उल्लेख करते हैं और उस-उस ऊंचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊंचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहां कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।
आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है-
(१) रेखा पथ- शक्त्यावृत-
ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म दृढ ड्ढदड्ढद्धढ़न्र्‌
(२) मंडलपथ - वातावृत्त-
ज़्त्दड्ड
(३) कक्ष पथ - किरणावृत्त-
च्दृथ्ठ्ठद्ध द्धठ्ठन्र्द्म
(४) शक्ति पथ - सत्यावृत्त-
क्दृथ्ड्ड ड़द्वद्धद्धड्ढदद्य
(५) केन्द्र पथ - घर्षणावृत्त-
क्दृथ्थ्त्द्मत्दृद
वैमानिक का खाद्य-इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो, इसका वर्णन है। उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज तो विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे। अत: युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है।
एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गई है कि वैमानिक को खाली पेट विमान नहीं उड़ाना चाहिए। इस संदर्भ में बंगलोर के श्री एम.पी. राव बताते हैं कि भारतीय वायुसेना में सुबह जब फाइटर प्लेन को वैमानिक उड़ाते थे तो कभी-कभी दुर्घटना हो जाती थी। इसका विश्लेषण होने पर ध्यान में आया की वैमानिक खाली पेट विमान उड़ाते हैं तब ऐसा होता है। अत: १९८१ में वायु सेना में खाना देने की व्यवस्था शुरू की।
विमान के यंत्र- विमान शास्त्र में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है? इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है-
(१) विश्व क्रिया दर्पण-इस यंत्र के द्वारा विमान के आस-पास चलने वाली गति-विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक (ग्त्ड़ठ्ठ) तथा पारा (थ्र्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌) आदि का प्रयोग होता था।
(२) परिवेष क्रिया यंत्र- इसमें स्वचालित यंत्र वैमानिक (ॠद्वद्यदृ घ्त्थ्दृद्य द्मन्र्द्मद्यड्ढथ्र्‌) का वर्णन है।
(३) शब्दाकर्षण यंत्र- इस यंत्र के द्वारा २६ कि.मी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।
(४) गुह गर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती थी।
(५) शक्त्याकर्षण यंत्र- विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और वह उष्णता वातावरण में छोड़ना।
(६) दिशा दर्शी यंत्र- दिशा दिखाने वाला यंत्र।
(७) वक्र प्रसारण यंत्र-इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।
(८) अपस्मार यंत्र- युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।
(९) तमोगर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। इनके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।
उर्जा स्रोत- विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भारद्वाज उल्लेख करते हैं। (१) वनस्पति तेल, जो पेट्रोल की भांति काम करता है। (२) पारे की भाप (ग्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌ ध्ठ्ठद्रदृद्वद्ध) प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किये जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमरीका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया। परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा के रूप में उपयोग किया जा सकता है। आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है। (३) सौर ऊर्जा-इसके द्वारा भी विमान चलता था। (४) वातावरण की ऊर्जा- बिना किसी अन्य साधन के सीधे वातावरण से शक्ति ग्रहण कर विमान, उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरती है उसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। अमरीका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं। यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापक विचार हुआ था।
विमान के प्रकार- विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते है। मंत्रिका प्रकार के विमान, जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी, वह सतयुग और त्रेता युग में संभव था। इसमें २५ प्रकार के विमान का उल्लेख है। द्वापर युग में तांत्रिका प्रकार के विमान थे। इनके ५६ प्रकार बताये गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे, इनके २५ प्रकार बताये गए हैं। इनमें शकुन, रूक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे।
उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएं व प्रश्न हमारे सामने आकर खड़े होते हैं। समस्या यह कि आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान, जो संस्कृत में अभिव्यक्त हुआ, उसकी शब्दावली, उनका अर्थ तथा नियमावली हम जानते नहीं। अत: उसमें निहित रहस्य को अनावृत (क़्ड्ढड़दृड्डड्ढ) करना पड़ेगा। दूसरा, प्राचीनकाल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए, इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से, गूढ़ रूप में, अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी। अत: उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है, जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों।
विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं
दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई भाग ऐसा है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके। यदि ऐसा कोई भाग है तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं? क्या उनमें कुछ सफलता मिली है?
सौभाग्य से उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर हां में दिए जा सकते हैं। हैदराबाद के डा. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा, तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में से कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने हेतु लगने वाली मिश्र धातुओं को बनाने की जो विधि लोहाधिकरण में दी गई है, उनके अनुसार मिश्र धातुओं का निर्माण संभव है या नहीं, इस हेतु प्रयोग करने का विचार उनके मन में आया। प्रयोग हेतु डा. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी.एम.बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातु, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प लिया और उनके परिणाम आशास्पद हैं। अपने प्रयोगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है। इडद्ध/ऊ
प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह। विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड में भी नहीं गलती।
दूसरी धातु जो बनाई है उसका नाम है पंच लौह। यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर और भारी है। तांबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है जबकि अमरीका में भी अमरीकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ट मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत तक संभव है, यह माना है। इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है।
तीसरी धातु है आरर। यह तांबा आधारित मिश्र धातु है जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है। इस धातु में ङड्ढद्मत्द्मद्यठ्ठदड़ड्ढ द्यदृ थ्र्दृत्द्मद्यद्वद्धड्ढ का गुण है। बी.एम. बिरला साइंस सेन्टर (हैदराबाद) के डायरेक्टर डा. बी.जी. सिद्धार्थ ने इन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी १८ जुलाई, १९९१ को एक पत्रकार परिषद्‌ में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियां, पत्ते, गौंद, पेड़ की छाल आदि का भी उपयोग होता है। इस कारण जहां इनकी लागत कम आती है, वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं। उन्होंने कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेगें तो यह देश के भविष्य के विकास की दृष्टि से अच्छा होगा। उपर्युक्त पत्रकार परिषद्‌ को ‘वार्ता‘ न्यूज एजेन्सी ने जारी किया तथा म.प्र. के नई दुनिया, एम.पी.क्रानिकल सहित देश के अनेक समाचार पत्रों में १९ जुलाई को यह प्रकाशित हुए।
इसी प्रकार आई.आई.टी. (मुम्बई) के रसायन शास्त्र विभाग के. डा. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया। ये थे चुम्बकमणि, जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन (रिफ्लेक्शन) को अधिगृहीत (कैप्चर) करने का गुण है। पराग्रंधिक द्रव-यह एक प्रकार का एसिड है, जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है।
इसी प्रकार महर्षि भरद्वाज कृत अंशुबोधनी ग्रंथ में विभिन्न प्रकार की धातु तथा दर्पणों का वर्णन है। इस पर वाराणसी के हरिश्चंद्र पी.जी. कालेज के रीडर डा. एन.जी. डोंगरे ने क्ष्दड्डत्ठ्ठद ग़्ठ्ठद्यत्दृदठ्ठथ्‌ च्ड़त्ड्ढदड़ड्ढ ॠड़ठ्ठड्डड्ढर्थ्न्र्‌ के सहयोग से एक प्रकल्प लिया। प्रकल्प का नाम था च्ण्ड्र्ढ द्मद्यद्वड्डन्र्‌ दृढ ध्ठ्ठद्धत्दृद्वद्म थ्र्ठ्ठद्यड्ढद्धत्ठ्ठथ्द्म ड्डड्ढद्मड़द्धत्डड्ढड्ड त्द ॠथ्र्द्मद्वडदृड्डण्त्दत्‌ दृढ ग्ठ्ठण्ठ्ठद्धद्मण्त्‌ एण्ठ्ठद्धठ्ठड्डध्र्ठ्ठत्र्ठ्ठ.
इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण को बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी (जमशेदपुर) में किया तथा वहां के निदेशक पी.रामचन्द्र राव, जो आजकल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसका नाम प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह है। इसकी विशेषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्र्ारेड प्रकाश को जाने देता है। इसका निर्माण इनसे होता है-
कचर लौह- च्त्थ्त्ड़ठ्ठ
भूचक्र सुरमित्रादिक्षर- ख्र्त्थ्र्ड्ढ
अयस्कान्त- ख्र्दृड्डड्ढद्मद्यदृदड्ढ
रुरुक- क़्ड्ढड्ढद्धडदृदड्ढ ठ्ठद्मण्‌
इनके द्वारा अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया। प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन हाइग्रोस्कोपिक है। हाइग्रोस्कोपिक इन्फ्र्ारेड वाले कांचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश हट जाता है और वे बेकार हो जाते हैं। आजकल क्ठ्ठक़२ यह बहुत अधिक हाईग्रोस्कोपिक है। अत: इनके यंत्रों के प्रयोग में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है जबकि प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्रारेड सिग्नल्स में (२ द्यदृ ५छ) (१थ्र्उ१०-४क्थ्र्‌) तक की रेंज में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महर्षि भरद्वाज प्रणीत ग्रंथ के विभिन्न अध्यायों में से एक अध्याय पर हुए कुछ प्रयोगों की सत्यता यह विश्वास दिलाती है कि यदि एक ग्रंथ का एक अध्याय ठीक है तो अन्य अध्याय भी ठीक होंगे और प्राचीनकाल में विमान विद्या कपोल-कल्पना न होकर एक यथार्थ थी। इसका विश्वास दिलाती है। यह विश्वास सार्थक करने हेतु इस पुस्तक के अन्य अध्याय अपनी सत्यता की सिद्धि हेतु साहसी संशोधकों की राह देख रहे हैं।
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यदि विमान की चर्चा केवल रामायण या अन्य पुराणों में ही मिलती तो हम इसे उन ऋषियों या कवियों की कल्पनाशक्ति मान लेते। विमान की चर्चा, अंतरिक्ष यात्रा की विश्वसनीय-सी चर्चा वेदों में है और वह भी फुटकर नहीं, बल्कि ऐसी है कि महर्षि भारद्वाज ने वेदों का निर्मंथन कर ‘यंत्र सर्वस्व’ नामक इंजीनियरी ग्रंथ उसमें से नवनीत की भाँति निकाल डाला (वैमानिक प्रकरणम्, पृ0 2, वृहद विमान शास्त्र) (दसवां श्लोक)। ‘यंत्र सर्वस्व’ ग्रंथ में इंजीनियरी आदि से संबंधित, चालीस प्रकरण हैं। ‘यंत्र सर्वस्व’ के इस वैमानिक प्रकरण के अतिरिक्त विमान शास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथ हैं जिनमें छः ऋषियों के ग्रंथ प्रसिद्ध हैं: नारायण कृत ‘विमान चंद्रिका’, शौनक कृत ‘व्योमयान’, गर्ग कृत ‘यंत्रकल्प’, वाचस्पति कृत ‘यानविंदु’, चाक्रायणि कृत ‘खेटयान प्रदीपिका’, तथा घुंडिनाथ कृत ‘व्योमयानार्क प्रकाश’। महर्षि भारद्वाज ने न केवल वेदों तथा इन छः ग्रंथों का भी मंथन किया वरन् अन्य अनेक ऋषियों द्वारा इन विषयों पर रचित ग्रंथों का भी मंथन किया था। इसमें आचार्य लल्ल (‘रहस्य लहरी’), सिद्धनाथ, विश्वकर्मा (पुष्पक विमान का आविष्कर्ता), छायापुरुष, मनु, मय आदि के ग्रंथों की चर्चा है। ‘बृहद विमान शास्त्र’ में कुल 97 विमान से संबद्ध ग्रंथों का संदर्भ है। और भी अनेकों से जानकारी ली गई है। महर्षि भारद्वाज के ‘बृहद विमान शास्त्र’ (बृ0वि0शा0) में जो वर्णन है, अचरज होता है कि उसमें विमानों के इंजीनियरी निर्माण की विधियों का वर्णन है। अतएव इसके पूर्व कि हम भारत की प्राचीन पंरपरा में विमानों के अथवा उनके ज्ञान के अस्तित्व पर कोई भी निर्णय लें उनका अध्ययन आवश्यक हो जाता है।
अब यदि किसी विमान शास्त्र की बात कर रहे हैं, तब इसके पहले कि विमान बनाने की कौन-सी विधियाँ वर्णित हैं, हम यह जानना चाहते हैं कि वह ‘बृहद विमान शास्त्र’ कब लिखा या रचा गया था। और सबसे पहली कठिनाई है जो बृ.वि.शा. के अध्ययन द्वारा निष्कर्ष निकालने में आती है वह कालगणना की है। हमारे वेदों की कालगणना भी धुँधलके में है-उसके विषय में कच्चा अनुमान ही लग सकता है। दो बड़ी घटनाओं के विषय में विज्ञान ने तिथियाँ निर्धारित की हैं-एक तो सिंधुघाटी की सभ्यता जिसका काल लगभग 1900-3250 ईसापूर्व है, तथा दूसरा, विशाल सरस्वती नदी का लोप लगभग 1900 ईसा पूर्व हुआ। एक तीसरी बड़ी घटना जो अब अनेक पाश्चात्य पुरातत्व वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं वह यह कि ‘आर्य’ भारत में बाहर से नहीं आए थे, तथा सिंधु घाटी सभ्यता आर्य सभ्यता का ही एक रूप है। वेदों का रचनाकाल ईसापूर्व लगभग 4000 से ईसापूर्व लगभग 3100 तक का है। वेदों को व्यवस्थित रूप देना महर्षि व्यास लगभग ईसापूर्व 3100 में प्रारंभ करते हैं। (वैदिक आर्यन एंड द ओरिजिन्स ऑफ सिविलिजेशन-राजाराम एंड ‘फाली’)। महर्षि भारद्वाज अपने ग्रंथ में वैदिक ऋषियों के अतिरिक्त महाभारतकाल के व्यास तथा पराशर, सूत्रकाल (ईसापूर्व 500 से 800 तक) के आपस्तंब तथा कात्यायन को उद्धृत करते हैं। ईसापूर्व चौथी शती में भारत में जस्ता ‘जिंक’ निकालने की विधि, तथा ईसापूर्व तीसरी शती में उत्कृष्ट इस्पात बनाने की सफल विधि स्थापित हो चुकी थी। चूँकि प्रस्तुत बृ.वि.शा. में धातु निकालने की विधि तुलनात्मक रूप से अत्यधिक पिछड़ी है अतएव इसका रचनाकाल ईसापूर्व 500 के पहले ही तथा ईसापूर्व 800 के बाद ही हो सकता है (इसका सही-सही निर्धारण करने की आवश्यकता है)।
विमानों (वेदों की भाषा में इस शब्द में अंतरिक्ष यान भी सम्मिलित हैं) के निर्माण की प्रौद्योगिकी (और संभवतः परमाणु उर्जा सयंत्रों के निर्माण की प्रौद्योगिकी) आज के विकसित विश्व की जटिलतम तथा कठिनतम प्रौद्योगिकी है। हमारे अनुभव में, यह प्रौद्योगिकी किसी भी देश में उद्योग के समुद्र में, एकल द्वीप के समान नहीं मिलती। इसके साथ वाष्प एंजिन, अंतर्दाह एंजिन, जेट एंजिन, द्रव-चालिकी (हाइड्रॉलिक्स), इलेक्ट्रॉनिकी, दूरसंचार, विधुतचालिकी बैटरी, धातुकी (मैटैलॅर्जी), रबर, बेयरिंग, वैद्युतिकी, दिक्चालन, अस्त्र तथा आयुध की इंजीनियरी, कल-पुर्जों की सूक्ष्म परिशुद्धता से बहुसंख्यात्मक निर्माण की यांत्रिकी आदि-आदि न केवल सहगामी बल्कि अत्यंत आवश्यक हैं। इन इंजीनियरी तथा प्रौद्योगिकी ज्ञान के साथ, इनके मूलाधार सिद्धांतों के ज्ञान की आवश्यकता होती है, क्योंकि उच्च प्रौद्योगिकी हवा में नहीं पैदा होती। उदाहरण के लिए पक्षक (एरोफाइल) किस तरह उठान या उत्थान (लिफ्ट) पैदा करती है? या पक्षी किस तरह उड़ते हैं? उच्च ताप शक्ति ‘कैलॉरी मान’ वाले ईंधन जैसे पेट्रोल आदि की जानकारी तो उस समय नहीं थी। वैसे पैट्राल भी आवश्यक नहीं यदि गन्ने जैसी वनस्पति या फलों से ईंधन हेतु इथेनॉल जैसा मद्य (अल्कोहल) बनाने का ज्ञान हो, क्योंकि इसे भी एंजिनों में ईंधन के समान जलाकर ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं अर्थात यह नहीं हो सकता कि पुष्पक या अन्य विमान की इंजीनियरी तो है किंतु मोटर कार नहीं है या रथों के चक्रों में बेयरिंग नहीं है। अतएव इन महत्वपूर्ण बिंदुओं को ध्यान में रखकर ही बृ.वि.शा. का विवेचन होना आवश्यक है, न कि केवल उसमें भरे इंजीनियरी ज्ञान, तकनीकी शब्द और वह भी सरसरी तौर पर पढ़कर, अस्ति या नास्ति का निष्कर्ष निकालने का।
स्वयं बृ.वि. शास्त्र की रचनानिर्मिति प्रशंसनीय है। इसमें विमान की परिभाषा से, लेकर विमान के एंजिन, उपयंत्र, उपकरण तथा उनके निर्माण के लिए लोहा इत्यादि धातु निर्माण करने तक की जानकारी है। इसमें शत्रुओं के विमानों की, उनके संचार की तथा उनकी भूमिगत तोपों की जानकारी देनेवाले विमान-स्थित यंत्रों की तथा शत्रु के विमानों को नष्ट करने के यंत्रों की जानकारी है। विमानचालक को जिन बत्तीस प्रकार की विशेष जानकारियाँ होनी चाहिए वे भी इसमें हैं। महर्षि भारद्वाज के अनुसार (अध्याय 1, श्लोक 1) पक्षी की भाँति एक देश या द्वीप या लोक से दूसरे देश या लोक तक पहुँचने में समर्थ यान विमान है। ‘त्रिपुर विमान’ वह यान है जो पृथ्वी, जल तथा आकाश तीनों आयामों में गति करनेवाला है। इस परिभाषा के अनुसार तप्त वायु भरे गुब्बारे भी विमान माने जा सकते हैं, जबकि आधुनिक परिभाषा के अनुसार विमान के घनत्व का वायु के घनत्व से अधिक होना आवश्यक है। किंतु जो महत्वपूर्ण दोष इसमें दृष्टिगत होता है वह यह कि एक लोक से दूसरे लोक जाने में जो वायु की शुन्यता मिलेगी उसमें पक्षी के समान उड़ान संभव नहीं है। मैं इस कारण इस परिभाषा की नुक्ताचीनी नहीं करना चाहता। मुझे संशय होता है कि हमारे ऋषियों को वायुमंडल के पार इस वायु-शुन्यता का ज्ञान नहीं था। खैर, इस अज्ञान का भी उनके ‘इहलौकिक’ विमाननिर्माण की कला पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए।
विमानों के तीन मुख्य प्रकार बतलाए गए हैं (अध्याय 16, बृ.वि.शा.) : मांत्रिक, तांत्रिक तथा यांत्रिक। मांत्रिक विमान वे हैं जो मंत्रों की शक्ति द्वारा निर्माण किए जाते हैं तथा चलाए जाते हैं। महर्षि भारद्वाज का कथन है कि सतयुग अथवा कृतयुग में मनुष्यों में इतनी आध्यात्मिक शक्ति होती थी कि वे बिना किसी यान की सहायता के स्वयं उड़ सकते थे, जैसे नारद मुनि । त्रेता युग में वे मंत्र-सिद्ध कर विमान-निर्माण कर उनमें उड़ सकते थे। पुष्पक विमान मांत्रिक विमान था (और ऐसे विमानों के पच्चीस प्रकार थे)। अतएव पुष्पक विमान की इंजीनियरी की बात करना परिभाषा के बाहर की बात है और यह मंत्र-शक्ति के अस्तित्व पर विश्वास करनेवाली बात हो जाती है। मंत्र-शक्ति अपने आपमें गहरा विवादास्पद विषय है। अतः मांत्रिक विमान पर यहाँ चर्चा करना उचित नहीं होगा।
अध्याय 16 के श्लोक 42 आदि में तांत्रिक विमानों का अत्यंत संक्षिप्त वर्णन है : द्वापर में मनुष्यों के ‘तंत्र प्रभाव’ (वस्तुयोग्य-प्रभाव) की अधिकता से सब विमान ‘तंत्र प्रभाव’ से संपन्न किए जाते थे। द्वापर युग में 56 प्रकार के तांत्रिक विमान थे। मुझे ऐसा समझ में आया कि तांत्रिक विमानों को संपन्न करने में कुछ मंत्रों का तथा कुछ वस्तुओं का सम्मिलित उपयोग होता होगा। अध्याय 17 के श्लोक 27 आदि में यांत्रिक (कृतक या मानव निर्मित) विमानों के 25 भेद बतलाए गए हैं।
लोहा तथा मिश्र धातुओं के निर्माण की अनेकानेक विधियाँ हैं। उनमें लोहे या मिश्र लोहे के विभिन्न प्रकार हैं (अ. 1 सूत्र 13)। लोहे के तीन मूल (वंशज बीज) प्रकारों-सौमक, सौंडालिक तथा मौर्त्विक के विभिन्न सम्मिलनों तथा विधियों से 16 प्रकार के लोहे बनाए जाते हैं जो वैमानिक लोहे कहलाते हैं। इन लोहों का एक मुख्य गुण उनकी भारहीनता कही गई है। भारहीनता से तात्पर्य उनके घनत्व के कम होने से होना चाहिए, क्योंकि कोई भी पदार्थ भारहीन तो हो नहीं सकता। खनिज लोहे की भूगर्भ में निश्चित स्थिति का वर्णन तकनीकी भाषा में है जिसका अर्थ समझ में नहीं आता। खनिज ज्ञान के लिए अन्य ग्रंथों-यथा : लोतंत्रम्, लोह प्रकरणम्, लोह सर्वस्म्, लोह रहस्यम्, लोहशास्त्रम् आदि- की जानकारी प्राप्त करने की आवश्यकता रही होगी। तीनों प्रकार के बीज-लोहे किन किन शक्तियों के संयोग से अपनी विशिष्ट शक्ति प्राप्त करते हैं इसका वर्णन विचित्र रहास्यमयी भाषा में है (अ.1 श्लोक 19-131)। फिर इन लोहों के शुद्धिसंस्कार का वर्णन है (अ. 1, श्लोक 134-147)। इनमें लोहे को गलाकर शुद्ध करने के लिए विचित्र वस्तुओं के साथ मिलाकर भिन्न लोहे को भिन्न-भिन्न विधियों से गलाने का वर्णन है; यथा: जंबीरों नीबू, लाल एरंड, इमली, जामुन, घुँघची, आँवला, नौसादर, सज्जीक्षार, यवक्षार, खुरक्षार, हींग, पर्पटी, सुपारी, जटामाँसी, विदरीकंद, पाँच प्रकार के तेल, इंगुदी, मजीठ, कौड़ी, मुनक्का से परिपूर्ण तेल, शंख, भिलावा, काकोली, लाल कुलथी, सरसों, अरहर, गेहूँ के कसाय और कांजियाँ आदि-आदि।
लोहे को गलाने आदि के लिए जो पात्र काम में आता है वह मूषा (‘रिटार्ट’) कहलाता है, जो विशेष तापसह मिट्टी (रिफ्रेक्टरीज़) का बनाया गया पात्र है। अ. 2, सू. 3 में विभिन्न मूषाओं के निर्माण की विधियाँ बतलाई गई हैं। यद्यपि मूषा आज भी विज्ञान-प्रयोगशालाओं में प्रयोग में आता है। इनके लिए भी जो वस्तुएँ चाहिए वे विचित्र लगती हैं। अ.2, सू. 4 में तरल लोहे को रखने या उस पर काम करने के लिए विशेष कुंडों ‘व्यासटिकाओं, घरिया, क्रुसिबल’ के निर्माण का वर्णन है। अ.2, सू. 5 में लोहे की भट्ठी को हवा देने के लिए विभिन्न भस्मिकाओं के निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री का वर्णन है। इस तरह लौह धातु के निर्माण के लिए सभी उपकरणों तथा विधियों का वर्णन देना ऋषियों के व्यावहारिक सोच की गंभीरता को निश्चित रूप से दर्शाता है। इस शास्त्र में लोहे के भारहीन होने का वर्णन तो है किंतु जंग लगने आदि का वर्णन नहीं है। यह संभव है कि जो लोहा बनाना चाहते हों वह ऐसा हो कि उसमें जंग न लगे जैसा कि बाद में हुआ भी।
विमानों की निर्माण-विधियों का भी अ. 2 तथा अ. 3 में काफी विस्तार से वर्णन है। एक प्रकार के यांत्रिक ‘शकुन विमान’ (आकार पक्षियों जैसा) के निर्माण के लिए (अ. 3ए सू. 5 और श्लोक 35 आदि) एक छोटा-सा उदाहरण देना चाहता हूँ। ‘‘साम, सौण्डाल तथा मौतर्वक तीनों लोह जातियों के क्रम से तीन, आठ तथा दो भाग मात्राओं को (इस मिश्र धातु में तीनों लोहों का अनुपात है) टंकण सुहागा के साथ मूषा (रिटार्ट) में रखकर 272 कक्ष्य दर्जे की उष्णता से गलाने पर वह राजलोहा बन जाता है। शकुन विमान राजलोहे से ही बनाना है। (विमान की) पीठ (आधार?) की ऊँचाई अस्सी बालिश्त, छप्पन बालिश्त लंबाई-चौड़ाई, दक्षिण और उत्तर भागों में ऊँचाई सत्तर बालिश्त। पीठ के मध्य जो नालस्तंभ लगता है उसका मूल निचला भाग 35 बालिश्त हो और घूम के साथ बाहर उठकर गोल हो। पीठ के अंदर गोलाई में 33 बालिश्त रहे, स्तंभ के बीच का प्रमाण तो बाहर गोलाकार 25 बालिश्त शास्त्र में वर्णित है, उसके अंदर वलयाकार 20 बालिश्त स्तंभ का अंत्यसिरा हो, बाहरी अंग गोल हो। उसके अंदर 20 बालिश्त और फिर उसके अंदर अन्य भाग 15 बालिश्त हो, इस प्रकार प्रमाण से पाँच भागों की ऊँचाई 80 बालिश्त होनी चाहिए। उसके मूल में 15 अंगुल स्तंभ के प्रतिष्ठार्थ घूमनेवाली कील पीठ में करे...। स्तंभ के अंदर छः दृढ़ चक्र क्रम से स्थापित करें।’’
उपरोक्त उद्धरण मैंने एक विशेष ध्येय के लिए दिया है। इसमें संदेह नहीं कि इसे समझने के लिए उस समय उपलब्ध इस विषय से संबद्ध अन्य ग्रंथों के गहरे ज्ञान की अपेक्षा तो निश्चित रही होगी। इसमें संदेह नहीं कि बालिश्त तथा अंगुलों के मानक मान थे जो व्यक्ति-निरपेक्ष थे, अन्यथा विमान क्या घोड़ागाड़ी भी अच्छी सी नहीं बन सकती। किंतु तब भी पढ़ने पर मुझ-जैसे एम.टेक (इंग्लैंड) वैमानिक इंजीनियर को यह वर्णन किसी इंजीनियर को किसी इंजीनियर का विमान बनाने के लिए दिया गया वर्णन नितांत अपर्याप्त लगता है। यदि वर्णन और भी अधिक होता तब भी बिना इंजीनियरी-चित्र के वह अव्यावहारिक ही रहता। अंग्रेजी में अनुवादित, इसी ग्रंथ में कुछ चित्र दिए गए हैं, वे भी इंजीनियरी-चित्र नहीं कहे जा सकते। मुझे पढ़ने पर यह वर्णन किसी अभिकल्पकार (डिजाइनर) का वर्णन भी न लगकर उसकी ‘सोच’ या विचार का चिट्ठा लगता है। किंतु तब भी निश्चय ही उस पुरातन काल के लिए इसे अद्वितीय उपलब्धि ही मानी जाना चाहिए। दूसरी बात, विमान के आकार की है। उपरोक्त विमान की पीठ या मध्य शरीर का वर्णन भी निर्माण के लिए अव्यावहारिक है। किंतु उस वर्णन में अब पंखों के वर्णन को भी जोड़ें (अ. 3, श्लोक 103 आदि) : ‘‘उसकी (पंखों की?) ऊँचाई-लंबाई 20 बालिश्त, 8 बालिश्त चौड़ाई, पंखों के मूल में डेढ़ बालिश्त मोटा, उनके मूल में कील दृढ़ युक्त हों। पंखों के (पश्चिम) पिछले भाग में जो रेखा की भाँति दिखलाई पड़ती है, उसके सामने के भाग का विस्तार 10 बालिश्त हो, पिछले भाग का विस्तार-लंबाई 40 बालिश्त, पंखों का उन्नतिपथ 60 बालिश्त हो। इस आकार के दो पख हों।’’ इसके बाद ऐसी ही भाषा में विमान की पूँछ का वर्णन है। पूँछ का जो वर्णन है वह भी उपरोक्त पीठ आदि के वर्णनों-जैसा ही है, किंतु कम से कम वह विमान के लिए पूँछ की आवश्यकता की समझ तो दर्शाता है। वैमानिकी प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उस आदिम काल में विमानों के लिए पंखों की अभिकल्पना (पक्षियों के पंखों से भिन्न) अपने आपमें एक अद्भुत तथा मौलिक सोच है। हवा से पंखे चलते होंगे, इसलिए यह सोचना कि पंखे चलाने से हवा चलेगी यह भी एक नवीन सोच मानी जा सकती है। किंतु यह हवा विमान को किस तरह उड़ाएगी-यह सोच अद्भुत आविष्कार की माँग करती है।
विमान उड़ाने के लिए बहुत शक्तिशाली एंजिनों की आवश्यकता होती है, वह भी तब जब विमान का आकार, बहुत सोच-विचारकर ‘धारावाही’ (स्ट्रीमलाइंड) तथा ‘उठानवाही’ (एयरोफाइल-पक्षक) बनाया जाता है ताकि तीव्र गति से उड़ते विमान को वायु का अवरोध न्यूनतम लगे, अन्यथा विमान, अधिक शक्तिशाली एंजिन के साथ भी, यदि उड़ सका, तब भी धीमा ही उड़ सकेगा। उपरोक्त वर्णित विमान का आकार न तो धारावाही है और न वायु-अवरोध को इस्टतम करने वाला है और न ही उसमें उठान-पर्णी (उदाहरण के लिए विमान के दोनों पक्षों का जो अग्रभाग की मोटाई से शुरू होकर क्रमशः पतला होता हुआ जो ‘रूप’ है वह मूलतः उठान पर्णी रूप है) का पुट है। आगे घर्षण को कम करने वाली ‘शक्ति’ की चर्चा अवश्य है, किंतु घर्षण कम करने वाली युक्ति का वर्णन नहीं है। वायु अवरोध (ड्रैग) को कम करने के लिए विमान अभिकल्पकारों का एक मोटा ध्येय होता है कि विमान-शरीर के व्यास को विमान की लंबाई के अनुपात में दशमांश या बेहतर रखा जाए। इसमें तो ऊँचाई ही लंबाई से अधिक है। एक दूसरी युक्ति जो वायु-अवरोध को कम करने के लिए लगाई जाती है वह है विमान के मुख से प्रारंभ कर, शरीर को क्रमशः संकरा करते हुए पीछे आकार को लगभग (नगण्य) बिंदु के बराबर करते हैं। इस शकुन विमान में सामने की ऊँचाई मध्य भाग की ऊँचाई 80 बालिश्त की तुलना में 70 बालिश्त है। हंस तथा महाहंस जैसे प्रवासी पक्षी भी लंबी उड़ान के समय अपनी लंबी गर्दन तथा अपने पैर खींच कर लंबे रखते हैं तथा उनकी चोंच का अग्रभाग भी लगभग नगण्य माना जा सकता है, अर्थात ऐसा लगता है कि वायु-अवरोध के सिद्धांतों से वे ऋषि परिचित नहीं थे। अथवा उन्हें इसकी चिंता नहीं थी क्योंकि वे इस अवरोध को किसी अन्य युक्ति से कम कर सकते थे जो हमें अज्ञात है। अस्तु, हम यह मानकर तो चल ही सकते हैं कि शकुन विमान कम वेग वाले विमान ही होंगे। ऋषियों ने विमान की लोह-दीवारें 3 अंगुल मोटी (लगभग 5 सें.मी.) बतलाई है (ताकि विमान हवा के प्रहार को सहन कर सके)। इस शकुन यान में ‘‘पीठ के ऊपरी भाग पर तीन सुंदर भवन 14 बालिश्त और 3 अंगुल माप प्रसार से तथा 10 बालिश्त ऊँचाई में और तीन अँगुल मोटाई में बनावे।...इस पीठ पर चारों दिशाओं में उस-उस केंद्र के ऊपर क्रम से 10 बालिश्त लंबाई 8 बालिश्त ऊँचाई पर सुदृढ़ चार औष्म यंत्र (ताप एंजिन) हों, औष्म यंत्र का घेरा 10 बालिश्त कहा गया है, और ऊँचाई 8 बालिश्त हो।...’’ चार एंजिनों (औष्म यंत्रों) का होना भी वैज्ञानिक-समझ दर्शाता है। लोहे की ऐसी निर्मिति का वजन अनेकों टन होगा और उसके लिए जो इंधन आवश्यक होगा, वह उतने कम उपलब्ध स्थान में संभवतया रखा नहीं जा सकेगा। बात यह है कि इंधन की टंकियों का वर्णन ही नहीं है। तो फिर एंजिन किस शक्ति से चलते थे?
ईंधन के विषय में स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता। बृ.वि.शा. के अ. 4 तथा सूक्त 1 में शक्ति का वर्णन है। शक्तियों को उनके कार्य के अनुसार 7 प्रकार का माना है; यथा: ऊपर जाना ‘उद्गमा’ शक्ति से, नीचे गमन ‘पज्जरा’ शक्ति से होता है। ‘घर्षण शक्त्यपकर्षिर्णी’ घर्षण के अवरोध को कम करनेवाली शक्ति है। सूर्य शक्त्यपकर्षिणी शक्ति सूर्यकिरणों की उष्णता को हटानेवाली शक्ति है। इसमें घर्षणशक्ति को सूर्यशक्ति के समान माना गया-सा लगता है, संभवतः इसलिए कि घर्षणशक्ति भी विमान को गरम करती है और सूर्यशक्ति भी। ‘विद्युद्द्वादशका’ विमान के विचित्र गमनों के लिए आवश्यक 12 विद्युत-शक्तियाँ हैं। ‘परशक्त्यपकर्षिणी’ सभी शक्तियों के कार्यों को रोकनेवाली अथवा उनका अवरोध करनेवाली शक्ति है (जो किसी प्रकार से विमान की गति में कर्षण पैदा करती है या ब्रेक लगाती है)। ‘कृंटिणी’ शक्ति जल से उत्पन्न शक्ति है जो विमान को जलाकर भस्म करने वाली ‘कुलका’ नामक शक्ति को नष्ट करती है। अर्थात यह अग्निबाण को (प्रक्षेपास्त्र को) निरस्त करनेवाला जलबाण (प्रतिप्रक्षेपास्त्र) है। और सातवीं शक्ति है मूलशक्ति- ‘मूलशक्ति से सब शक्तियों का दूर हो जाना आदि’ होता है।
शक्तियों का वर्गीकरण करना एक प्रकार की वैज्ञानिक सोच तो दर्शाता है, अतएव ऊटपटांग लगते हुए भी यह विचारणीय है। विद्युत की 12 शक्तियाँ विमान की 12 प्रकार की गतियों के लिए आवश्यक मानी गई है-चलना, कँपना, उर्ध्वा, अधरा, मंडला, वेगिनी, अनुलोमा, तिर्यची, परामुखी, विलोमा, स्तंभना तथा चित्रा। आज हम वैज्ञानिक सोच के अनुसार केवल छः प्रकार की गतियाँ मानते हैं, तीन तो तीनों आयामों में, और अन्य तीन उन आयामों में चक्र गतियाँ। आज के विमानों में किसी भी प्रकार की गति के लिए मुख्यता एक ही शक्ति ‘उठान-शक्ति’ (लिफ्ट) का उपयोग होता है। दूसरी मुख्यशक्ति ‘कर्षण’ शक्ति है जिसका उपयोग विमान की गति में अवरोध पैदा करने के लिए होता है। उठान शक्ति (लिफ्ट) पक्षों से उत्पन्न होती है और अन्य नियंत्रक-पृष्ठ (कंट्रोल सरफेसेज़) यथा: ‘फ्लैप’, ‘एलिरान’, ‘रडर’, ‘एलिवेटर’ आदि। उस उठान शक्ति का उपयोग कर विमान की उड़ान का नियंत्रण करते हैं। इन उठान-शक्तियों से विमान की सारी गतियाँ पैदा की जाती हैं, केवल एक अपवाद के, कभी-कभी उसकी गति को एकदम कम करने के लिए ‘डाइविंग ब्रेक’ (गोता अवरोध या रोक) का उपयोग किया जाता है (साथ ही ज़मीन पर चलते समय चक्रों में ब्रेक का उपयोग होता है)। मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि विमान की शक्ति एक ही है- जो शक्ति एंजिन या जेट देता है उस एक शक्ति से ही ‘उठान-शक्ति’ पैदा की जाती है जिससे विमान आगे बढ़ता है और उस आगे बढ़ने की गति का उपयोग करते हुए विभिन्न ‘उठान-पर्णियों’ द्वारा सारी गतियाँ दी जा सकती हैं। प्रोपेलर (नोदक) भी जो ‘सीधे’ चलने या उड़ने की शक्ति देता है वह भी पर्णी की ‘उठान-शक्ति’ का ही उपयोग करता है। प्रोपेलर की (नोदक की) यह उठान-शक्ति उसके उठानपर्णी (पक्षक) आकृति के पंखों के घूमने के कारण आती है, यद्यपि इस ‘उठान’ शक्ति की दिशा विमान की लंब-अक्ष की दिशा में होती है। विमान की वह उठान-शक्ति (लिफ्ट) अंततः अंतर्दाह ‘एंजिन’ या ‘जेट’ के एंजिन से आती है। विभिन्न उठान-पर्णियाँ उस शक्ति का उपयोग कर विमान को विभिन्न प्रकार की सारी गतियाँ देती हैं। यह भी कहना चाहिए कि विमान की उड़ान में (या गति में) एक शक्ति और काम करती है जिसे ‘कर्षण’ शक्ति कहते हैं। उड़ान के समय वायु विमान की गति का जो प्रतिरोध करती है उसे वैमानिक कर्षण-शक्ति कहते हैं। यह शक्ति भी विमान की गति के कारण ही पैदा होती है। विमान का अभिकल्प कर्षण शक्ति को यथासंभव न्यूनतम करने का होता है।
मैं यहाँ यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि विमान की विभिन्न गतियों के लिए विभिन्न शक्तियों की आवश्यकता नहीं होती, जैसा कि बृ.वि.शा. में वर्णित है। तब उस वर्णन का क्या अर्थ हुआ? यह तो स्पष्ट है कि उस समय ऋषियों को (वायु-गतिकी के सिद्धांत की तो बात करनी नहीं चाहिए) उठान-पर्णी (पक्षक) के सिद्धांत का ज्ञान नहीं था। संभवतया, उन्होंने ‘रुक्म विमान’ के निर्माण में जेट (प्रधार) एंजिनों का, या उनके विभिन्न संयोजनों का उपयोग किया हो। ये सारी बातें बृ.वि.शा. में स्पष्ट नहीं है। जब 7 प्रकार की शक्तियों की बात करते हैं तब ऊपर जाने के लिए प्रथम प्रकार के ‘उद्गमा’ का वर्णन करते हैं; और ‘विद्युद्द्वादशा’ शक्ति के वर्णन में पाँचवी प्रकार में पुनः एक प्रकार की विद्युत शक्ति ‘उर्ध्वा’ अर्थात ऊपर ले जाने वाली शक्ति का वर्णन करते हैं। उद्गमा भी यही कार्य करती है अर्थात एक ही प्रकार की शक्ति का दो भिन्न प्रकारों में वर्गीकरण किया गया। यही तर्क, शक्ति के दूसरे प्रकार पंजरा-शक्ति के विषय में लगता है। ‘पंजरा शक्ति’ अधोगमन गति का कार्य करती है और वहीं कार्य ‘अधरा’ विद्युतशक्ति करती है। विद्युत की ये 12 शक्तियाँ किस तरह से विमान को विभिन्न गतियाँ देती हैं, इसका भी स्पष्ट वर्णन नहीं है। यह संभव है कि विद्युत की 12 शक्तियाँ वास्तव में विद्युतचालित नियंत्रक स्विच हों जो विभिन्न एंजिनों या प्रधारों का नियंत्रण करते हों जो तत्संबंधी शक्तियाँ उत्पन्न करते हों।
यह भी विचारणीय हो जाता है कि उन ऋसियों ने शक्तियों को किस आधार पर 7 प्रकारों में बाँटा। इस आधार पर एक सूत्र मिलता है। वे इन 7 शक्तियों के निम्न 7 स्त्रोत मानते हैं: अदिति (अग्नि), क्षमा (पृथ्वी), वायु, सूर्य, चंद्रमा, अमृत (जल) तथा आकाश और यह भी दृष्टव्य है कि आकाश द्वारा प्रदत्त शक्ति को वे मूलशक्ति मानते हैं। इससे ऐसा लगता है कि वे पाँच तत्वों; यथा: आकाश, वायु, अग्नि, जल, तथा पृथ्वी को और सूर्य तथा चंद्रमा को 7 शक्तियों का स्त्रोत मानते हैं। सूर्य ‘विद्युतशक्तियों’ के तथा चंद्र ‘परशक्त्यपकर्षिणी’ के (पता नहीं किस आधार पर) स्त्रोत हैं। ऐसा लगता है कि ये अध्यात्म शास्त्रों में वर्णित पाँच तत्वों या शक्तियों को मानते हैं। किंतु उड्डयन के लिए ये उन्हें पर्याप्त नहीं लगते इसलिए इनमें सूर्य तथा चंद्र को जोड़ दिया है। बृ.वि.शा. में इस पर भी बहस है कि क्या 12 गतियों के लिए 12 विद्युतशक्तियों की आवश्यकता है? स्वयं महर्षि भारद्वाज 5 प्रकार की शक्तियाँ मानते हैं और उनमें भी पंजरा-शक्ति (अधोगमन) प्रधान है और अन्य 4 शक्तियों की भी इसी पंजरा से उत्पति मानते हैं; ऐसा लगता है कि वे गुरुत्वाकर्षण शक्ति को प्रधान मानते हैं। दृष्टव्य है कि उड़ान के लिए गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर ही तो विजय प्राप्त करना है। उस समय तक विश्व में किसी को भी गुरुत्वाकर्षण का सैद्धान्तिक रूप तो क्या, स्पष्ट अवधारणा भी ज्ञात नहीं थी।
विमान में 32 उपयंत्र लगाने की आवश्यकता बतलाई गई है। वे उपयंत्र विमानों के लिए बहुत उपयोगी हैं, और स्पष्ट है कि ऋषियों की अद्भुत सूझबूझ दर्शाते हैं। किंतु उनकी इंजीनियरी उतनी की कमजोर है। कुछ उपयंत्रों की चर्चा ही यथेष्ट होगी। विश्वक्रियादर्श यंत्र उड़ रहे विमान को विमान के बाहर की वे आवश्यक जानकारियाँ देता है जिनसे उसे खतरा हो सकता है। फिर उन खतरों का नाश करनेवाले यंत्र भी हैं। ‘धूमप्रसारण’ यंत्र से भारी मात्रा में धुआँ बनता है जो निकलने पर विमान को (आगे) ढकेलता है। यह भी सुखद आश्चर्य है कि यहाँ पर प्रधार (जेट) विमान का सिद्धांत लगाया-सा लगता है जो आवश्यकता पड़ने पर आधुनिक ‘ऑफ्टर बर्नर’ (अतिरिक्त प्रज्वलन) के समान वेग को तेजी से बढ़ाने का कार्य करता-सा दिखता है। दिशाप्रदर्शक (कंपस) और कालमापक यंत्रों (घड़ियाँ) के लगाने का विधान है। उष्णतामापक यंत्र से एक तो तापमान पता चलता ही है किंतु इसका उद्देश्य आग लगने के खतरे से चेतावनी देने का भी है। तथा दीपापसंहार यंत्र भी होते हैं, जो शत्रु के विमानों को विषैले धुएँ से ढ़ँकते हैं। एक पुष्पणी यंत्र होता है जो एक ‘एयर कूलर’ की तरह कार्य कर गर्मी में विमान को वसंत ऋतु के समान ठंडा रखता है। विमान में एक पाक-चूल्हा भी होता है जिसका धुआँ बाहर निकालने के लिए ‘पंचवाल’ (5 मोटे नल) लगाए जाते हैं। एक गुहागमदर्शं यंत्र भी होता है जिससे पृथ्वी की गुहाओं में छिपी तोपों (महागोल अग्निगर्भ) का चित्र चालक के सामने आ जाता है। आधुनिक अवरक्त किरण कैमरा कुछ सीमा तक यह कार्य करता है। किंतु बृ.वि.शा. में इस यंत्र का जो वर्णन है वह एक सक्रिय रेडार सरीखा यंत्र है जो विशिष्ट किरणें प्रसारित कर फिर उन्हें सुग्रहण करता है- ऐसा सतह-भेदी रेडार अभी तक की वैज्ञानिक-इंजीनियरी ज्ञान के आधार पर नहीं हो सकता। इसके निर्माण की विधि भी बहुत जटिल तथा अव्यावहारिक है। उस काल में एक रेडार सरीखे संयंत्र की कल्पना ही अद्भुत है। एक और यंत्र, तमोयंत्र लगाने से जब शत्रु का विमान विषैला धुआँ छोड़कर हमें मारना चाहे तब उस तमोयंत्र से अपने विमान का छिपा लेना चाहिए। यद्यपि बृ.वि.शा. में (पृ. 154) लिखा है कि तमोयंत्र अंधकार है, उसका व्यावहारिक तात्पर्य होगा कि अपने विमान को काले धुएँ से ढँककर छिपा दिया जाए। यह गतिशील विमान पर तो थोड़े समय के लिए ही कारगर हो सकता है; हाँ भूस्थित अवस्था में उपयोगी हो सकता है। किंतु उन ऋषियों की आधुनिक 'इलैक्ट्रानिकी प्रतिकारों के समान प्रतिकार सोचने मात्र की सी क्षमता उनकी अद्वितीय प्रतिभा दर्शाती है।
आकाश में मेघों से उत्पन्न बिजली से बचने के लिए ‘विद्युद्दर्पण यंत्र’ तथा ‘शिरःकीलक यंत्र’ का विधान है। धूमकेतुओं तथा उल्काओं के संघात से बचने के लिए ‘विद्युद्द्वाशक यंत्र’ की आवश्यकता बतलाई गई है। ऊँचाई में उड़ते समय विमान पर बर्फ जम सकती है, उसके निवारणार्थ ‘शक्त्युद्गम यंत्र’ उपलब्ध है। और भी अचरज कि शत्रु द्वारा प्रक्षेपित प्रक्षेपास्त्र से बचने के लिए तोपरक्षक-कवर के अतिरिक्त ‘वक्रप्रसारण यंत्र’ का वर्णन है। यह एक प्रकार का ‘प्रतिकार’ (इलेक्ट्रॉनिक हो अथवा नहीं) तो है। इस शास्त्र में चुंबक मणि का वर्णन तो हैं किंतु उसका दिशासूचक यंत्र के रूप में उपयोग नहीं है। विद्युन्मुख मणि डायनेमो तो नहीं, किंतु किसी प्रकार की स्थैतिक-विद्युत की बैटरी हो सकती है। उसका तथा विद्युत-घर्षक मणि का भी वर्णन है। तेल के उपयोग का भी वर्णन है किंतु ईंधन के रूप में नहीं। त्रिपुर विमान अर्थात जल, थल, वायु तीनों माध्यमों में चल सकनेवाले विमान का वर्णन है जो नितांत अव्यावहारिक है। किन्तु विज्ञान की अनेक अवधारणाएँ प्रारंभ में अव्यावहारिक ही लगती रही हैं; अंतरिक्ष यान इसका एक उत्तम उदाहरण है। 1980 ई. के लगभग विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक रदरफॉर्ड ने वायु से भारी विमानों के निर्माण को असंभव घोषित किया था।
हम देखते हैं कि बृ.वि.शा. में उड्डयन संबंधी विषयों की उपरोक्त व्यापकता तो है ही, साथ ही मानो जैव-युद्ध-बैक्टीरियोलॉजिकल वारफेअर- (पृ. 65), रसायन युद्ध (पृ. 66), एक प्रकार की इलेक्ट्रॉनिकी -जैसी युद्धकला तथा प्रक्षेपास्त्र युद्धकला का भी वर्णन है। किंतु, अधिकांश वर्णन के आधार पर कोई भी यंत्र बनाया नहीं जा सकता और यदि ‘कुछ’ बन भी जाए तो वह उद्देशित कार्य नहीं कर पाएगा। वैज्ञानिक सिद्धांतों का व्यावहारिक रूप ही इंजीनियरी होता है। इस शास्त्र में दिए गए वर्णन से ऐसा लगता है कि वैज्ञानिक सिद्धांतों के विषय में वे भ्रमित रहे होंगे, कुछ उदाहरण तो आवश्यक होंगे।
विमानों में विद्युतशक्ति के अनेक उपयोग बतलाए गए हैं, किंतु ‘चिंता-सूचिका’ (वार्निंग बेल) के लिए रस्सी से बँधा एक काँसे का घंटा ही है जो उस रस्सी के खींचने से बजता है। अन्य यंत्रों के साथ भाषण को ‘खींचनेवाला’ यंत्र है और भावों को खींचनेवाला यंत्र भी। यदि ‘भाषण’ से अर्थ हमारी सामान्य बातचीत वाला भाषण है तो उसे रिकार्ड करनेवाला यंत्र (टेप रिकार्डर-समान) माना जा सकता है। वैसे भी इस यंत्र के बनाने का या लगाने का विवरण इस शास्त्र में नहीं है। त्रिपुर विमान का विस्तृत वर्णन है किंतु तकनीकी शब्दावली तथा शैली की भूलभुलैया-सा लगता है-‘‘ऐसे विमान की रचना शुद्ध अभ्रक से ही करनी चाहिए’’ शायद इसलिए कि अभ्रक पारदर्शी होता है। (पृ.308)। त्रिपुर विमान सूर्यकिरणों से प्रकट हुई शक्ति से प्रेरित होता चलता है...‘‘त्रिणेत्र लोहे से यथेष्ट पीठ बनाए-100 बालिश्त (लगभग 25 मीटर) लंबा, 3 बालिश्त (75 सें.मी.) मोटाई में ...बनाए।’’ इतने भारी-भरकम विमान का किसी भी ऊर्जा से उड़ना असंभव है, फिर सौर उर्जा से तो अकल्पनीय ही समझना चाहिए। प्रतिवर्ग मीटर में जितनी सौरशक्ति होती है, उसका विमान के क्षेत्रफल से गुणा कर उससे प्राप्त शक्ति आज आसानी से जानी जा सकती है और वह ऐसे विमान के लिए नितांत अपर्याप्त है। यह ठीक है कि छोटी-सी हल्की-फुल्की कारें अब सौर-उर्जा से चलने लगी हैं और कार तथा विमान में ज़मीन-आसमान का अंतर तो है ही। संभवतः माइक्रोलाइट जैसे विमान भी भविष्य में सौर उर्जा से चलें किंतु उसके पहले सौर बैटरियों के और भी विकास की आवश्यकता पड़ेगी। तब भी उन ऋषियों ने सौरऊर्जा चालित विमान की कल्पना की, यह एक क्रांतिकारी सोच तो है।
बृ.वि.शा. के एक अध्याय (पृ.253-290) में ‘सुंदर विमान’ का वर्णन है। इस विमान की पीठ ‘चौकोर या गोल 100 बालिश्त...’ राजलोहे से आठ बालिश्त मोटी पीठ बनाकर... अर्थात विमान बड़ा ही है। किंतु लोहे की पीठ की मोटाई 2 मीटर! उड़ान तो असंभव! किंतु उसका वेग बताया गया है लगभग 700-800 किमी प्रतिघंटा!! ऐसा लगता है कि यह विमान धुएँ से (अर्थात प्रधार (जैट) सिद्धांत से) चलता हो क्योंकि धूमोद्गमयंत्र का वर्णन भी है जो कई प्रकार के तेलों के मिश्रण से चलता है। एक तेलपात्र मात्र 4 बालिश्त बड़ा (1 मीटर) बतलाया गया है। किंतु यह ऊपर मुख की ओर धूम को वेग से ऊपर फेंकता है...’ यदि यह दिशा निश्चित है तब तो ऊपर जाता धुआँ उसे हमेशा नीचे की ओर ढकेलेगा- अर्थात वह उड़ नहीं सकता- नीचे की ओर गोता लगा सकता है! यद्यपि आचार्य लल्ल कृत ग्रंथ में (पृ. 250) जो वर्णन है वह कम अव्यावहारिक लगता है- ‘तेल के धूमसंपर्क से जल के औष्मकयोग से विमान को खींचने को शुण्डाल (नमनीय नाल-‘फलेग्ज़िबिल होज़’) बनाएँ। जैसे शुण्डाल का संकेत होता है वैसे विमानयान प्रगति करता है (पृ. 261)'। यहाँ ऐसा लगता है कि प्रधार (जेट) सिद्धांत का उपयोग हो रहा है। तथा उसकी दिशा परिवर्तनशील है!! अद्भुत सोच है।
‘ग्रहों के संचरण मार्गों में ग्रहों के परस्पर (प्रभाव में) एक रेखाप्रवेश से ग्रहसंधि होती है। अतः वहाँ ज्वालमुख नामक कोई शक्ति... प्रकट हो जाती है, उससे यान पर सवार हुए सब निःसंशय मा जाएँगे।’ उसके निवारण के लिए ‘पट्टिकाभ्रक यंत्र’ का वर्णन है। ऐसा भय अनेक स्थानों पर वर्णित है तथा उसके निवारण हेतु विभिन्न यंत्र बतलाए गए हैं। यह सब फलित ज्योतिष शास्त्र पर आधारित लगता है, वैज्ञानिक समझ पर नहीं।
इस शास्त्र में वर्णित धातु-इंजीनियरी (धातु की) में विभिन्न मिश्र धातुओं के निर्माण की अनेक विधियों का वर्णन है। यह तो प्रशंसनीय है कि भिन्न उपयोगों के लिए भिन्न धातु का उपयोग होना चाहिए। किंतु उनके निर्माण की विधि में विचित्र वस्तुओं का उपयोग है-विशेषकर जो कम उपलब्ध हैं; जैसे: पारा, मणियाँ, सिंदूर, विभिन्न गोंदें, अभ्रक, साँप की केंचुली, सर्पविष, गृध्रास्थि, हीरा, स्फटिक मणि, विभिन्न चर्म, काकड़सिंगी के मूल का क्षार, केंकड़े की टाँगों का क्षार, हरिण का सींग, स्थावरविष (वज्र), गंधक, धतूरे के बीज, हाथीदाँत का चूर्ण, भैंस का खुर, खरगोश से लेकर गेंडा तक की विष्ठा आदि-आदि। यह सूची एक मिश्र धातु की ढलाई के लिए नहीं, वरन् सभी ढलाइयों की हैं। यहाँ तक कि चुंबकमणि (चुंबक को शोधकर बनाई गई) के लिए भी प्राकृतिक चुंबक को अन्य रसायनों के साथ मिलकर, गलाया जाता है और फिर ढाला जाता है। जबकि तथ्य यह कि चुंबक का चुंबकत्व गरम करने से समाप्त हो जाता है। अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि बताई गई विधियाँ केवल ‘सोच’ हैं, अभिकल्पना हैं; लिखने के समय तक व्यवहार या प्रयोग में नहीं लाई गईं। उसके बाद अवश्य ढलाई के कुछ प्रयोग हुए होंगे जिनसे यदि धातु का नहीं तो उनकी सोच का अवश्य शोधन हुआ होगा।
इस तरह समालोचनात्मक दृष्टि से देखने पर यह तो निश्चित लगता है कि बताई गई विधियाँ अव्यावहारिक हैं, वैज्ञानिक सिद्धांतों के अल्प ज्ञान में लिखी गई हैं। कम से कम इस बृ.वि.शा. में (जो कि उस समय तक उपलब्ध सभी विज्ञान संबंधी शास्त्रों के आधार पर लिखा और विकसित किया गया था) वर्णित प्रक्रियाओं आदि की सहायता से कोई भी विमान नहीं बन सकता। किंतु इसका अर्थ यह नहीं निकलता कि वह सब पाखंड था, व्यर्थ था या मात्र उन ऋषियों का बुद्धि-विलास था! और भी अधिक विचित्र बात यह है कि किन्हीं-किंन्हीं ऋषियों की सोच या अंतर्ज्ञान अपने समय से इतना आगे था कि उस पर सहसा विश्वास नहीं होता। उदाहरणार्थ, ‘श्रृग्वेद’ के दशम मंडल के 136 सूक्त का दूसरा मंत्र लें। इसमें ऋषि वायु की रस्सी को पकड़ कर वायु की गति के अनुसार चलनेवाले मुनियों की बात कर रहे हैं: ‘‘मुनयो वातराशनाः पिशंगा वसते मला। वातस्यानु ध्राजिं यान्त्रि अविक्षत।’’ (10.136.2) इसका अनुवाद प्रसिद्ध आचार्य वेंकट माधव ने इस तरह किया है: ‘‘जहाँ सूर्य-चंद्रादि दिव्य पदार्थ प्रवेश पाए हुए हैं, जहाँ सूर्य रश्मियाँ प्रवेश करती हैं, ऐसे अंतरिक्ष में चमकरहित गेरुए वस्त्र धारण कर मुनि लोग वायु की रस्सी के द्वारा वायु की गति के अनुसार गमन करते हैं।’’ इस अर्थ में ऐसा लगता तो है कि आकाश में वायु-शक्ति के द्वारा गमन हो रहा है किंतु इस अनुवाद में पूरा अर्थ नहीं निकलता, उसका अनुवाद मेरे अनुसार इस प्रकार है: ‘जहाँ सूर्य-चंद्रादि पिंड विद्यमान हैं (अर्थात अंतरिक्ष), जहाँ सूर्यरश्मियों का क्षय नहीं होता (अर्थात जहाँ वातावरण नहीं हैं क्योंकि वातावरण में सूर्यरश्मियों का क्षय होता है), ऐसे अंतरिक्ष में चमकरहित विशिष्ट गेरुए वस्त्र धारणकर (वे वस्त्र जो उन पर गिरनेवाली सूर्यकिरणों को सोख लेते हैं अतएव चमकरहित हैं। क्यों सोखते हैं-या तो गर्मी के लिए, या 'स्पेस सूट' जैसे विशिष्ट वस्त्र में स्थित यंत्रों को चलाने योग्य विद्युत उत्पन्न करने के लिए ही सौर बैटरियों द्वारा सोखते हैं, अन्यथा कोई कारण समझ में नहीं आता, वैसे तो अंतरिक्ष यात्री दूर से ही दिख जाएँ इसलिए उनके वस्त्रों में तो चमक होनी चाहिए) मुनि लोग वायु की रस्सी (रॉकेट से निकलती निर्गत गैसों को रस्सी का रूपक दिया गया है, क्योंकि वह गैसों का मात्र निष्कास की प्रतिक्रिया के बल) द्वारा प्रदत गति के अनुसार गमन करते हैं। हम इस उच्च प्रौद्योगिक अर्थ को, जिसमें जैट विमान के सिद्धांत का वर्णन है, चकित होकर छोड़ दें क्योंकि इस पर गहरे शोध की आवश्यकता है यह तो निश्चित है।
बृ.वि.शा. में वर्णित ज्ञान, आज के ‘ब्रेन स्टॉर्मिंग सेशन’ सा लगता है, जिस बैठक में सभी विद्वानों को अपने विचार तथा संकल्पनाएँ प्रस्तुत करने का अधिकार होता है, तथा उस विचार का अव्यावहारिक निकलना कोई दोष नहीं माना जाता। इन प्रक्रियाओं के लिए उनके पास अपने ‘तर्क’ थे। उन्हें क्षार, अम्ल, नमक, विषैली गैसों, धातुओं के पिघलने आदि का ज्ञान था। उस अल्प ज्ञान के बल पर उनकी कल्पनाओं ने उड़ानें लीं और आगे बढ़ने की दिशाएँ दीं। हमें इस ज्ञान की आज के विज्ञान से तुलना नहीं करनी चाहिए वरन् उस समय शेष विश्व में उपलब्ध तद् विषयक ज्ञान से करनी चाहिए। उन्होंने देवताओं के उड्डयन या मंत्रशक्ति से उड्डयन या तंत्रशक्ति से या मनुष्य के मोम से पंख जोड़कर उड़ने (यूनानी- डिडालस) की अभिकल्पना के बहुत आगे जाकर ‘हवा से अधिक घनत्व वाले’ यंत्र के उड्डयन की कल्पना की, गहन मनन किया और (अपनी समझ से) ऐसी प्रक्रियाएँ दीं जो मंत्र तथा तंत्र का त्याग कर ‘आल्केमी’ से भी आगे बढ़ी हुई थीं। उनकी सोच उस कोटि की नहीं थी जिसे समाजशास्त्री ‘जादू’ कहते हैं, कि ‘वर्षा नहीं हो रही तो मेंढक को मारो’। यह जादू और मंत्र-तंत्र का त्याग अपने आपमें विज्ञान की दिशा में एक बड़ा कदम था। इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि बृ.वि.शा. तथा ‘यंत्र सर्वस्व’ जैसे ग्रंथों में दी गई सोच के कारण भारतवर्ष में ‘धातुकी’ (मैटेलर्जी) इतनी समुन्नत हुई कि भारत ने विश्व में अनेक ‘प्रथम’ उपलब्ध किए। साथ ही, यह ग्रंथ हमारे अध्यात्म ज्ञान पर लगाए गए आरोंपों को भी निराधार सिद्ध करते हैं जो कहते हैं कि भारतीय अध्यात्म ने भारतीय विज्ञान को आगे नहीं बढ़ने दिया। हमारे ऋषियों की-वाल्मीकि, वशिष्ठ, अगस्त्य, अत्रि, गौतम, भारद्वाज, जैमिनी, व्यास, पराशर से लेकर छइवीं शती ईसापूर्व के आपस्तंब तथा बोधायन आदि की तथा ईसा की पाँचवी शती के आर्यभट्ट आदि की लंबी परंपरा रही है जिन्होंने अध्यात्म तथा विज्ञान या उनके शब्दों में कहें तो पराविद्या तथा अपराविद्या दोनों को सम्मान दिया। यह ठीक है कि किसी काल में पराविधा पर तो किसी काल में अपराविद्या पर अधिक ज़ोर दिया गया।
उस समय के ज्ञान के आधार पर जो सोच की गई उसे आज वैज्ञानिक लगने वाली सोच की कसौटी पर तौलना कहाँ तक सटीक है? दृष्टव्य है कि मैं उस ज्ञान को विज्ञान नहीं कह रहा हूँ, वरन् उस सोच की प्रक्रिया को वैज्ञानिकता की ओर उन्मुख कह रहा हूँ। यह देखना चाहिए कि उनकी सोच के मूल में यदि वैज्ञानिकता नहीं होती, तो वे अपने उसी ज्ञान/अज्ञान पर अड़े रहते। समय ने उनकी उस प्रयोगात्मक सोच को गलत सिद्ध किया, उन्होंने गलती मानी और वे आगे बढ़े। उनकी अभिकल्पना मात्र एक अल्प वर्ग की एक अल्पकालिक इंद्रधनुष की तरह नहीं आई थी। उसके पीछे खुले व्यवस्थित सोच की लंबी परंपरा थी और साथ ही वही मानव की अनवरत खोज, विशेषकर सत्य की खोज तथा शोध और प्रगति की प्रवृत्ति कार्य कर रही थी। सातवीं सदी ईसापूर्व महान आयुर्वेदाचार्य चरक, ‘चरक संहिता’ का संपादन कर चुके थे। उसमें ऋषि पराशर (बुद्ध से पूर्व) की अध्यक्षता में की गई विश्व की प्रथम वैज्ञानिक सेमिनार का वर्णन भी है जिसमें औषधियों पर विमर्श है (भारतीय विज्ञान के कर्णधार-डॉ. सत्यव्रत)। चार शती ईसापूर्व, विश्व में सर्वप्रथम बिना ताम्र के उपयोग के शुद्ध जस्ता (जिंक) ढालनेवाली भट्ठी तथा प्रक्रिया का आविष्कार भारत में हो चुका था। वहीं ‘धातुकी’ का ज्ञान भारत से चीन गया, और वहाँ से यूरोप। तब भी यूरोप में ऐसी प्रक्रिया 1738 में जाकर कहीं विलियम चैंपियन ने ‘ब्रिस्टल-प्रक्रिया’ नाम से ‘खोजी’। 1735 तक तो वे ऐसी बिना ताम्र वाली प्रक्रिया की सफलता में विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे।
सर्वाधिक सशक्त तलवार बना सकनेवाले इस्पात का आविष्कार भारत में तीन शती ईसापूर्व हो चुका था। तथाकथित दमिश्क तलवार, अरबों द्वारा भारत से ली गई प्रौद्योगिकी की उपज है। उस काल में सारा विश्व भारत की तलवार का लोहा मानता था। ईसा की चौथी शती में निर्मित वातावरण तथा जलवायु को चुनौती देनेवाला (स्टेनलेस) अनोखा लोहे का स्तंभ (अशोक द्वारा बनवाया न होकर राजा चंद्र का बनवाया हुआ ध्वज स्तम्भ है जो विष्णु मंदिर के लिए स्थापित किया गया था (पृ.28, मैटलर्जी इन संस्कृत लिटरेचर, डा. डिडोलकर, संस्कृत भारती, दिल्ली)। कुतबमीनार के प्रांगण में वह आज भी विश्व के इंजीनियरों को चुनौती दे रहा है। वह गोल स्तंभ ढालकर नहीं बनाया गया था! वह लोहे को तप्त-नरम अवस्था में हथौडों से कूटकूट कर (कुटिलिकन विधि) गढ़ा गया है; है न यह उस सदी के विश्व का अनोखा आश्चर्य! अद्वितीय गढ़ाई!
इसी तरह की ‘वैज्ञानिक’ सोच के द्वारा भारत बृ.वि.शा. की प्रौद्योगिकी से बढ़ते हुए ईसापूर्व चौथी शती में ही ‘धातुनिर्माण’ (धातुकी) में चरम शिखर पर पहुँच गया था। (इसलिए मेरा अनुमान है कि बृ.वि.शा. ईसापूर्व पाँचवीं शती से काफी पहले का ग्रंथ है।) भारत ईसा की ग्यारहवीं-बारहवीं शती तक विमान तथा प्रौद्योगिकी के चरम शिखर पर रहा। तत्पश्चात बर्बरों के हमले कुछ अधिक बढ़ गए तथा आपसी द्वेष-भाव तथा अन्य कारणों से (और यह भी कि हम आवश्यकता से अधिक सभ्य हो गए: पृथ्वीराज बरअस्क गोरी) पिछड़ते गए।
उड्डयन की परंपरा पर एक विहंगम दृष्टि डालने के साथ-साथ आधुनिक काल में भारत की उड्डयन-शक्ति पर एक विहंगम दृष्टि डालना समीचीन होगा। किसी भी देश की ‘सैन्य-वायु-शक्ति’ तीन शक्तियों के योग से बनती हैं : सैन्य शक्ति, उत्पादन शक्ति तथा संसाधन शक्ति। संसाधन शक्ति देश की संसाधन क्षमता तथा राजनैतिक इच्छा-शक्ति से मिलकर बनती है। भारत हमेशा से शांतिप्रिय रहा है किंतु जब-जब इस शांति के नाम पर उसने सैन्य-शक्ति को सीमित रखने की राजनैतिक इच्छा बनाई तब-तब उसे अनावश्यक हमलों का सामना करना पड़ा और अनेकों बार उसने या तो मात खाई है या जीत/हार का अनैश्चित्य भोगा है। हमें यह समझना पड़ेगा कि अहिंसा, सत्य जैसे आदर्श मानवता के चरम आदर्श तो हैं और निश्चित रूप से वांछनीय भी हैं, किंतु वे कुसंस्कृत तथा असभ्य विश्व की पृष्ठभूमि में कारगर नहीं हो सकते। महात्मा गाँधी ब्रितानियों के विरोध में सफल हो सके, किंतु वे उसी काल की अन्य औपनिवेशिक सत्ता-यथा, स्पेनियों के विरोध में सफल नहीं हो सकते थे। स्पेनियों द्वारा अमेरिकी देशों का बर्बर औपनिवेशीकरण का इतिहास इस बात का ठोस प्रमाण है। आज के विश्व में शांति बनाए रखने का एक अकाट्य नियम है-अपनी सैन्य-शक्ति को प्रबल रखना, इतना कि हमलावर आक्रमण करने पर सोचे दुगुना। प्रबल सैन्य-शक्तिवान बनने के बाद हमारी अहिंसा के सफल होने की संभावना बढ़ जाएगी। हमारी वायु-सैन्य-शक्ति हमारे पड़ोसियों के साथ हमारे संबंधों को देखते हुए इतनी नहीं है कि वे हम पर आक्रमण करते हुए डरें और इतनी कम भी नहीं है कि हम हार जाएँ। पर हमारी राजनैतिक इच्छाशक्ति इतनी कमजोर है कि हमारे पड़ोसी हम पर मनचाहे जब-तब हमला करते रहते हैं। हमारी सैन्य-शक्ति इतनी प्रबल होनी ही चाहिए कि हमारे पड़ोसी हम पर हमला करने के पहले दस बार सोचें।
लड़ाकू विमानों के मौलिक उत्पादन की हमारी क्षमता नगण्य ही मानी जानी चाहिए। दिखाने को हम कह सकते हैं कि हमने लड़ाकू विमानों का, यथा : एचएफ 24 का, उत्पादन किया है। एचएफ 24 सही अर्थों में एक सफल विश्वसनीय लड़ाकू विमान नहीं बन पाया था। हमने अनेक लड़ाकू विमानों का देश में जो उत्पादन किया है-यथा : अजीत, मिग श्रृंखला आदि- वे उन देशों की अनुज्ञा के आधार पर उनके पूर्ण अभिकल्प तथा उत्पादन-यंत्रों के आयात द्वारा उत्पादित हुए या हो रहे हैं। इसलिए पिछली सदी के नौवें दशक से (लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट-लघु लड़ाकू विमान) के उत्पादन पर कार्य हो रहा है और अभी कुछ वर्ष और लगेंगे। विकसित देशों में भी उत्पादन के लिए लगभग 10-12 वर्ष लगते हैं। इसलिए हम चाहे इस विलंब के लिए अपने को सांत्वना दे दें, किंतु यह विलंब-इसके कारणों के विश्लेषण तथा आत्मचिंतन की माँग तो करता ही है। यह विमान (1908) स्क्वाड्रनों में आते-आते ही अनद्यतन (आउट ऑफ डेट) तो होने लगेगा। ऊपरी तौर पर देखने से मुझे इस विलंब के मुख्य कारण आपसी विभागीय द्वेष तथा जलन, भ्रष्टाचार और हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ ही लगते हैं-वैज्ञानिकी, प्रौद्योगिकी क्षमताएँ हमारे पास हैं या आज हम उन्हें खरीद ले सकते हैं। यह विचारणीय है कि यदि हम प्रक्षेप्रास्त्र प्रौद्योगिकी में आधुनिक हो सकते हैं तब वैमानिकी में क्यों नहीं!
विमान हवा में उड़ते हैं इसका अर्थ यह नहीं कि उनके पखों (विंग्स) या शरीर (फ्यूज़िलाज) पर भारी दाब नहीं पड़ता। विमान का पूरा भार उसके दोनों पंखों को ही उठाना पड़ता है। बड़े यातायातीय विमानों का भार सैकड़ों टन हो सकता है। किंतु छोटे और हल्के विमानों की अपनी उपयोगिता है। 500 किलो से भी कम भार के विमान दो यात्रियों (जो कि स्वयं चालक भी हैं) के लिए उपयुक्त रहते हैं। उड़ान (फ्लाइंग) क्लबों में तो ये लोकप्रिय हैं ही, किंतु एक उच्चमध्यम वर्ग का व्यक्ति भी इन्हें खरीद सकता है, और 150 से 250 कि.मी. प्रतिघंटा की गति से आकाश में यात्रा भी कर सकता है। इन छोटे तथा हल्के विमानों को ‘अतिहलका’ (ultralite) या ‘सूक्ष्मभार’ (Microlite) विमान कहते हैं। अमेरिका तथा कैनेडा जैसे देशों में ये लाखों की संख्या में उड़ रहे हैं।
इन विमानों को हल्का बनाने के लिए इनमें केवल वही संयत्र तथा निर्मितियाँ होती हैं जो उड़ान के लिए अपरिहार्य होती हैं। इस विमान का ढाँचा भी खुला दिखता है क्योंकि भार कम करने के लिए उसके ऊपर ड्यूरेल्यूमिनियम का ‘पलस्तर’ भी नहीं चढ़ा होता। इसका ढ़ाँचा पोली नलियों का बनता है, बस उठान-पर्णी (पक्षक) पंखों तथा पुच्छ में अवश्य (पलस्तर) चढ़ाया जाता है क्योंकि उत्थापन तथा नियंत्रण इन्हीं सतहों (पलस्तर) से होता है। पायलट को सीधी तेज हवा न लगे इसलिए विमान की नासिका (या चोंच) पारदर्शी प्लास्टिक से पढ़ी होती हैं, जो पायलट को पूरा नहीं ढ़ाँकती।
अमेरिका में यह इतना लोकप्रिय हो गया है कि बड़ी फैक्ट्रियाँ इन विमानों के सारे अंगों तथा उपांगों का बहुनिर्माण करती हैं, और फिर पूरे विमान के ‘किट’ (अंगों-उपांगों आदि का समुच्चय) और साथ ही उसके समुच्चयन (बनाने) की पूरी लिखित विधि भी बेचती हैं। खुशी की बात है कि एक युवा साहसिक (33 वर्ष के अरविंद शर्मा) ने उदयपुर में इन सूक्ष्मभार विमानों का निर्माण (समुच्चयन?) प्रारंभ किया है। इसे लोकप्रिय बनाने के लिए उस युवा ने भारत की पचासवीं स्वतंत्रता जयंती मनाने के लिए सूक्ष्मभार विमान में पूरे भारत की परिक्रमा की थी। और पिछले वर्ष 2002 में उसने उसी ‘सूक्ष्म’ विमान में 2200 कि.मी. की दीर्घ साहसिक यात्रा-उदयपुर से ‘आशकोष’ (यूएसए) तक-‘उड्डयन मेला’ में भाग लेने के लिए की। इस साहसिक कार्य में उसकी मदद टाटा, दैनिक भास्कर, इंडियन एयरलाइंस जैसी कुछ बड़ी कंपनियों ने की। यह खिलौने बनाना तथा उनसे खेलने जैसा बच्चों का खेल तो नहीं है, अतः ऐसे साहसिक कार्यों को प्रोत्साहन देना उत्तम कार्य है। यह माउंट एवरेस्ट पर तेंजिंग की चढ़ाई के बराबर साहसिक न सही, किंतु माउंट एवरेस्ट पर पचासवीं चढ़ाई के बराबर तो साहसिक हो ही सकता है। किंतु जब अरविंद शर्मा से पूछा गया कि क्या यह साइबेरिया तथा अलास्का पर से उड़ान करना खतरनाक नहीं? तब उन्होंने जवाब दिया कि तदर्थ भारतीय ब्यूरोक्रैट्स से विविध अनुमतियाँ प्राप्त करना इससे कहीं ज्यादा कठिन है। साथ ही इस विशाल समृद्ध देश को अब उपरोक्त छोटे-छोटे दोषों (किंतु ‘घाव करैं गंभीर’) को त्यागकर विशालमना हो बडें यातायात विमानों तथा लड़ाकू विमानों का न केवल निर्माण वरन् निर्यात करना चाहिए।
भारत एक ऐसा देश है जो अपनी विपुल समृद्धि की संभावनाओं के रहते हुए भी अत्यंत विपन्न हैं। भ्रष्टाचार तो इसका एक कारण है ही, दूसरा कारण है हमारे लोकतंत्र को तमाशा बना देना। इसलिए जब भी सैन्य-शक्ति को बढ़ाने की बात आती है तो उस पर संसाधनों की कमी की घोषणा कर दी जाती है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि बढ़ी हुई सैन्य-शक्ति के फलस्वरूप बाहरी आक्रमण कम होंगे तो युद्ध से होनेवाले नुकसान में भी कमी आएगी और इस प्रकार सैन्य-शक्ति पर हुए खर्च की भरपायी भी हो जाएगी। और फिर सैन्य खर्च पूरा का पूरा तो अनुत्पादक नहीं होता।
अतः यदि हम भ्रष्टाचार से मुक्त हो सकें और भारतीय आदर्शों की लंबी जीवंत पंरपरा को आधुनिकता में ढ़ालकर (हमारी परंपरा में यह शक्ति है- गाँधी जी ने परंपरा तथा आधुनिकता का एक असंभव-सा दिखनेवाला अद्भुत समन्वय हमें दिखाया भी।) भोगवाद से अपनी रक्षा कर सकें तो हम अपनी अस्मिता, अपने जीवनमूल्यों पर खड़े होकर, जैसा कि आर्नल्ड टायनबी ने कहा है, विश्व का मार्गदर्शन कर सकेंगे- अन्यथा हम ‘अमेरिका’ के लिए बाजार तो बनने जा ही रहे हैं।

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