रविवार, 29 सितंबर 2013

वेदों में भारतीय राष्ट्र की अवधारणा

 वेदों  में भारतीय राष्ट्र की अवधारणा

राष्ट्र की अवधारणा भी वेदों‌ - ऋग्वेद तथा अथर्ववेद - में‌ है।
ऋग्वेद के निम्नोक्त मंत्र हमारी मातृभूमि तथा संस्कृति के गुणों और मह्त्व की प्रेरणा देते आए हैं और आज यह अधिक प्रासंगिक तथा उपयोगी‌ हैं
श्रेष्ठं यविष्ट भारताग्ने द्युमन्तमा भर । वसो पुरुस्पृहं रयिम्‌ ॥ ऋग्वेद २.७.१
(२.७; ६.१६ सूक्त के देवता अग्नि हैं, अर्थात इसमें अग्नि की स्तुति है; । स्वामी दयानंद अग्नि का अर्थ तेजस्वी विद्वान लेते हैं, और 'भारताग्ने' का अर्थ 'सभी‌ विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी भारतीय' लेते हैं।)
भारत वह देश है जहां के ऊर्जावान युवा सब विद्याओं में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान हैं, सब का भला करने वाले हैं, सुखी हैं और जिऩ्हें ऋषिगण उपदेश देते हैं कि वे कल्याणमयी, विवेकशील तथा सर्वप्रिय लक्ष्मी को धारण करें । ( और अंग्रेज हम पर आरोप लगते हैं कि हम परलोकवादी हैं !)(यहां लक्ष्मी का वैदिक अर्थ स्पष्ट करना उचित होगा - वैदिक दृष्टिकोण में ब्राह्मण के लिए लक्ष्मी ज्ञान है , क्षत्रिय के लिए बल है, वैश्य के लिए धन है और शूद्र के लिये सेवा है.)
त्वं नो असि भारता sग्ने वशाभिरुक्षाभि: । अष्ठापदीभिराहुत: ॥ ऋ २.७.५
भारत में सभी विषयों में‌ अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान गायों तथा बैलों के द्वारा खेती कर समृद्ध तथा सुखी‌ हैं ; और आठ सत्यासत्य निर्धारक नियमों द्वारा संचालित जीवन जीते हैं।
उदग्ने भारत द्युमदजस्रेण दविद्युतत्‌ । शोचा  वि भाह्यहर ॥ ऋ ६.१६.४५
हे सभी विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान ! आप निरंतर उऩ्हें ज्ञान देते हो जो ज्ञानवान हैं, अत: आप और अधिक ज्ञान प्राप्त कर उऩ्हें‌ ज्ञान दीजिये ।
तस्मा अग्निर्भारत: शर्म यंसज्ज्योक्‌ पश्यात्‌ सूर्यमुच्चरन्तम्‌।
य इन्द्राय सुनवामेत्याह नरे नर्याय  नृतमाय नृणाम ॥ RV 4.25.4
( ४.२५ तथा ३.५३ सूक्तों के देवता इंद्र हैं, अर्थात उनकी स्तुति हो रही है।) इन्द्र का अर्थ स्वामी दयानंद नेता या मुखिया या परमात्मा लेते हैं। सभी विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वानों को धारण करने वाला भारत सभी मनुष्यों को घर के समान सुख दे; और जो यह कहते हैं कि विद्यावान, उत्तम शीलवान मनुष्यों के मुखिया कुशल तथा ऐश्वर्यवान समाज का निर्माण करें, वे बहुत काल तक सूर्योदय देखें।
आग्निरगामि भारतो वृत्रहा पुरुचेतन: । दिवो दासस्य सत्पति: ॥ ऋ 6.16.19
( इस मंत्र में स्वामी दयानंद ने भारत का अर्थ प्रकाश देने वाला अधिक उपयुक्त समझा है।) हे अग्नि के समान तेजस्वी विद्वतजन, प्रकाश देने वाले, मेघ के द्वारा वर्षा कराने, भरण पोषण करने वाले और मानव की चेतना जगाने वाले, श्रेष्ठ स्वामी सूर्य की स्तुति करते हुए उनका हम सदुपयोग करें।
य इमे रोदसी उभे अहमिन्द्रमतुष्टव: । विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम्‌ ॥ ऋ. ३.५३.१२
(इस सूक्त के ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता इंद्र हैं) विश्वामित्र कहते हैं,"हे मनुष्यो ! हम (इंद्र) की स्तुति करें‌ जो अंतरिक्ष तथा पृथ्वी दोनों के द्वारा भारत में जन्म लेने वालों की रक्षा करता है" (इस मंत्र में स्वामी दयानंद 'भारतं' शब्द का अर्थ वाणी लेते हैं, किन्तु डा. गंगा सहाय शर्मा इसका सीधा अर्थ भारत अधिक सटीक समझते है।)
अमन्थिष्ठा भारता रेवदग्निं देवश्रवा देववात: सुदक्षम्‌ । अग्ने वि पश्य बृहताभि रायेषां नो नेता भवतादनु द्यून्‌ ॥ ऋ 3.23.2
(इस सूक्त के देवता अग्नि हैं। स्वामी दयानंद इस मंत्र में 'भारता' का अर्थ धारण कर्ता तथा पालन कर्ता लेते हैं। और डा. गंगा सहाय शर्मा 'भारता' का अर्थ भरत की संतान लेते हैं।) हे अग्नि ! धारण कर्ता और पालन कर्ता और विद्वानों के वचनों के श्रोता और श्रेष्ठ प्रेरणाकारक से प्रेरित पुरुष अनुकूल दिवस पर श्रेष्ठ कौशल के द्वारा धन उत्पन्न करने वाली अग्नि को मन्थन द्वारा उत्पन्न करें जो हम लोगों के लिये सुमार्ग में अग्रणी होवे, (हे अग्नि)आप बहुल धन तथा अन्नादि की कृपादृष्टि रखें।
भारतीळे सरस्वति या व: सर्वा उपब्रुवे । ताताश्रिये ॥ ऋ 1.188.8
हे भारत माता, हे धरती मां, हे सरस्वती मैं प्रार्थना करता हूं कि आप हमें लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये प्रेरणा दें। (अर्थात हमें भारत माता, धरती मां और विद्या का सम्मान करते हुए धन कमाना है।)
शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती । इळा सरस्वती मही बर्हि: सीदन्तु यज्ञिया: ॥ ऋ1.142.9
भारती (भारत माता अर्थात धारण पोषण करने वाली), इला धरती तथा वाक्‌देवी सरस्वती शुद्ध, अमर और देवों को समर्पित यज्ञ का संपादन करने वाले अग्नि देव विशाल यज्ञ को सफ़ल करें। (अर्थात – किसी‌ भी महान कार्य को करने के लिये यह तीनों देवियों तथा ऊर्जा के देव अग्नि आवश्यक होते हैं।)
त्वमग्ने अदितिर्देव दाशुषे त्वं होत्रा भारती वर्धसे गिरा। त्वमिळा शतहिमासि दक्षसे त्वं वृत्र हा वसुपते सरस्वती ॥ ऋ2.1.11
हे विद्या देने वाले विद्वान देव प्रकाशमान अग्ने ! आप दानशील शिष्य के विकास के लिए अन्तरिक्ष को प्रकाशित करने वाली सूर्य की‌ माता अदिति के समान विद्या के गुणों को प्रकाशित करते हैं। यज्ञ संपादिका, विद्याशील भारती तथा ज्ञानवृद्ध इला आपके सम्मान को बढ़ाती हैं। हे धन के पालन हारे आप मेघहन्ता सूर्य के समान तथा ज्ञान विज्ञानयुक्त वाक्देवी के समान हैं।
आ भार॑ती॒ भार॑तीभिः स॒जोषा॒ इळा॑ दे॒वैर्म॑नु॒ष्ये॑भिर॒ग्निः ।
सर॑स्वती सारस्व॒तेभि॑र॒र्वाक्ति॒स्रो   दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स॑दन्तु ॥ ऋ ३.४.८, तथा ऋ ७.२.८
प्रबुद्ध तथा संस्कारित निस्वार्थ सेवा करने वाली‌ भारती (भारतमाता), दिव्य एवं विचारशील पुरुषों को निस्वार्थ संसाधन प्रदान करने वाली‌ इला (पृथ्वी) और अग्नि के समान तेजस्वी ज्ञान विज्ञानमय वाणी वाली सरस्वती, यह तीनों देवियां यहां के (भारत के) वायुमंडल में उपलब्ध हैं, सभी मनुष्य इनका आश्रय लें।
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अस्मे तदिन्द्रावरुणा वसुष्यादस्मे रयिर्मरुत: सर्ववीर:।अस्मानवरुत्री: शरणैन्त्वमस्मान्‌ होत्रा भारतीदक्षिणाभि: ॥ ऋ ३.६२.३
हे वज्रधारी इन्द्र और हे ब्रह्माण्ड के नियंता वरुण हमारे पास उचित धन हो, हे पवन देव मरुत हम सब वीर और कुशल हों जो लक्ष्मी प्राप्त कर सकें। वरुत्री: अर्थात हमारी रक्षक देवी, होत्रा अर्थात यज्ञ संपादिका, तथा भारती अर्थात संपूर्ण विद्याओं को पूर्ण करती वाणी की हम शरण लें जो दोनों हाथों से हमारी रक्षा करें। (अर्थात - बिना सैन्य शक्ति तथा नैतिकता, वीरता, कौशल, कार्य संपादन की क्षमता तथा श्रेष्ठ विद्या एवं संचार शक्ति के न तो हम लक्ष्मी प्राप्त कर सकते हैं और न अपनी रक्षा।)
भारती पवमानस्य सरस्वतीळा मही । इमं नो यज्ञमा गमन्‌ तिस्रो देवी: सुपेशस: ॥ ऋ 9.5.8
हमारे सोम यज्ञ में उत्तम गुणों वाली तीन देवियां - भारती, सरस्वती एवं महान इला - सम्मिलित हों। दृष्टव्य है कि इन तीन देवियों -भारत माता, ज्ञान और कार्य करने की जमीनी क्षमता की महिमा बार बार गाई जा रही है।
आ नो यज्ञं भारती तूयमेत्विळा मनुष्वदिह चेतयन्ती । तिस्रो देवीर्बहिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपस: सदन्तु ॥ ऋ 10.110.8
हमारे यज्ञ में सूर्य की सी कान्ति वाली भारती, और मनुष्य को ज्ञानी बनाने वाली इळा और उत्तम ज्ञानदा सरस्वती शीघ्र आवें । तीनों उत्तम कार्य करने वाली, प्रकाशऔर ज्ञान के देने वाली देवियां इस उत्तम आसन पर सुखपूर्वक विराजें ।
आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रा यविष्ठ भारतीम्‌ । वरुत्रीं धिषणां वह ॥ ऋ 1.22.10
हे कार्यकुशल विद्वान अग्ने ! हमारी रक्षा करने के लिये कुल रक्षक देवियों को यहां ले आओ; हमें ऐसी वाणी (भारती) दो जिससे हम देवों को बुला सकें एवं निष्ठापूर्वक सत्य भाषण कर सकें।
इस तरह हम देखते हैं कि ऋग्वेद में भारत या भारती या भारतवासी के अनेक अर्थ हैं। जैसे, सब का पोषण करने वाला; अग्नि के समान तेजस्वी तथा भला करने वाला; विद्यावान; उत्तम शीलवान; वाणी के महत्व को समझने वाला; सुख प्रदान करने वाला; चरित्रवान; ज्ञान प्रदान करने वाला; योग्य मुखिया को चुनने वाला; मानवीय चेतना से प्रेरित, भारत माता, धरती मां और विद्या का सम्मान सहित उपयोग करने वाला; शक्ति और कौशल के द्वारा धन पैदा करने वाला; अपनी रक्षा के लिये चौकस; ऊर्जा का सही उपयोग करने वाला; गुणवानों का सम्मान करने वाला; भारती, इला, सरस्वती तथा अग्नि की सहायता से कार्यों को यज्ञ की‌ भावना से करने वाला इत्यादि। क्या आज हममें ऐसे गुण हैं ? यह विचारणीय है और अनुकरणीय है। तभी‌ भारत भारत होगा, अन्यथा इंडिया तो बन ही रहा है।


हमारी राष्ट्र की परिभाषा का मुख्य आधार संस्कृति है, जीवन मूल्य हैं, यह हम ऋग्वेद में देख चुके हैं। अथर्ववेद में‌इसी‌भावना का विस्तार है; इस के कुछ सूक्त इस परिभाषा को और सुदृढ़ करते हैं, जब वे जन मानस में मानसिक एकता तथा समानता का उपदेश देते हैं। अथर्ववेद के निम्नलिखित सूक्त राष्ट्र की‌ भावनात्मक एकता के लिये बहुत ही उपयोगी ज्ञान/ उपदेश देते है। वैसे तो यह ज्ञान मनुष्य मात्र की एकता का आह्वान करता है, किन्तु विभिन्न देशों की प्रतिद्वन्द्वता को देखते हुए तथा कुछ देशों के जीवन मूल्य इन भावनाओं के विपरीत होते हुए इऩ्हें हमारे राष्ट्र की रक्षा के लिये अनिवार्य शिक्षा मानना चाहिये ।
अथर्ववेद में मनों में समानता (सांमनस्यं) के होने पर बहुत बल दिया गया है। इच्छाओं, विचारों, उद्देश्यों, सकल्पों आदि की एकता के लिये जन मानस में‌ उनके मनों का द्वेषरहित होना, आपस में प्रेम भावना का होना आवश्यक है; निम्नलिखित सूक्त दृष्टव्य हैं :

अदार सृद भवतु सोमा स्मिन्यज्ञे मसतो मृअतान:।
मा नो विददभिमा मो अशस्तिमां नो विदद् वृजिना द्वेष्या या।। अथर्व १-२०-१
”हे सोमदेव! हम सबमें से परस्पर की फूट हटाने वाला कार्य होता रहे। हे मरूतो! इस यज्ञ में हमें सुखी करो। पराभव या पराजय हमारे पास न आवे। कलंक हमारे पास न आवे और जो द्वेष भाव बढ़ाने वाले कुटिल कृत्य है, वे भी हमारे पास न आयें।” यह दृष्टव्य है कि फ़ूट पड़ने के बीज हमारे भीतर पड़ते रहते हैं, किन्तु उऩ्हें हमेशा हटाते रहना है।
   
सं जानी ध्वं सं प्रच्य घ्वं सं वो मनोसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाने उपासते। (अथर्व 6-64-१)

तुम समान ज्ञान प्राप्त करो, अर्थात शिक्षापद्धति में कोई भेदभाव न हो, क्योंकि शिक्षार्थी ज्ञान तो अपनी योगुअता तथा क्षमता के अनुसार अलग अलग प्राप्त करेंगे। समानता से एक दूसरे के साथ संबंध जोड़ो, समता भाव से मिल जाओ। तुम्हारे मन समान संस्कारों से युक्त हों। कभी एक दूसरे के साथ हीनता का भाव न रखो। जैसे अपने प्राचीन श्रेष्ठ लोक के समय ज्ञानी लोग अपना कर्तव्य पालन करते रहे, वैसे तुम भी अपना कर्तव्य पूरा करो।

समानो मंत्र: समिति समानी समानं व्रतं सहचित्तमेषाम।
समानेन वो हविषा जुहोमि समानं चेतो अभिसंविश्ध्वम् ।। (अथर्व 6-64-२)

तुम्हारे विचार समान हों अर्थात तुम्हारे लक्ष्य एक हों तथा उनके प्राप्त करने के लिये विचार भी एक समान हों। तुम्हारी सभा सबके लिए समान हो, अर्थात सभा में किसी के साथ पक्षपात न हो और सबको यथा योग्य सम्मान प्राप्त हो। तुम सबका संकल्प एक समान हो। तुम सबका चित्त एक समान-भाव से भरा हो। एक विचार होकर किसी भी कार्य में एक मन से लगो। इसीलिए तुम सबको समान छवि या मौलिक शक्ति मिली है।

समानी व आकूती: समाना हृदयानि व:।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति।। (अथर्व 6-64-3)

तुम सबका संकल्प एक जैसा हो। तुम्हारा हृदय समान हो, तुम्हारा मन समान हो। तुममें परस्पर मतभेद न हो। तुम्हारे मन के विचार भी समता युक्त हों। यदि तुमने इस प्रकार अपनी एकता और संगठन स्थापित की तो तुम यहां उत्तम रीति से आनंदपूर्वक रह सकते हो और कोई शत्रु तुम्हारे राष्ट्र को हानि नही पहुंचा सकता है।
   
सहृदयं सामनस्यम् विद्वेषं कणोमि व:।
अन्यो अन्यभाभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्या।। (अथर्व. ३-३०-१)

तुम्हारे हृदय में समानता  हो, मनों में द्वेष न हों, सब परस्पर स्नेह करें जैसे एक गौ अपने नव जात बछड़े को करती है । समानता की अवधारणा कठिन है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई छोटा और बड़ा नहीं होता, सब बराबर हैं। छोटे और बड़े तो अपने कर्मों के अनुसार होते ही‌ हैं। किन्तु समानता का अर्थ है कि बिना  पक्षपात के, सब के साथ उनकी‌ क्षमता, योग्यता तथा उनकी आवश्यकताओं के अनुसार व्यवहार करना।

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षमा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।। अथर्व 3-३०-३

भाई भाई से द्वेष न करें, बहन बहन से द्वेष न करें। एक विचार वाले होकर और एक कर्म वाले होकर हम सब आपस में बातचीत एवं व्यवहार करें। यहां जो मनों की एकता बतलैइ गई है, वही एकता पूरे समाज के साथ रखना है।

ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः ।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्क्र्णोमि । । अथर्व।३-३०-५    

बड़ों की छत्र छाया में रहने वाले एवं उदारमना बनो । कभी भी एक दूसरे से पृथक न हो। समान रूप से उत्तरदायित्व को वहन करते हुए एक दूसरे से मीठी भाषा बोलते हुए एक दूसरे के सुख दुख मे भाग लेने वाले 'एक मन' के साथी बनो ।

समानी प्रथा सहवोउन्नभाग समाने योक्तें सहवो युनज्मि।
समयञ्चो अग्निं समर्यतारा नाभिमिवा मित:।। (अथर्व. ३-३०-६)

' तुम्हारे जल पीने का स्थान एक हो और तुम्हारे अन्न का भाग भी साथ साथ हो। मैं तुम सबको एक ही जुए में साथ साथ जोड़ता हूं। तुम सब मिलकर ईश्वर की पूजा करो। जैसे पहिए के अरे केन्द्र स्थान में जुड़े रहते हैं, वैसे ही तुम भी अपने समाज में एक दूसरे के साथ मिलकर रहो।'  यह महत्वपूर्ण है कि सभी‌ का खाना - पीना और पूजा साथ साथ हो,  क्योंकि ऐसे कार्यों से स्नेह बढ़ता है, भेदभाव घटता है, जो यदि हो तो स्पष्ट दिख जाता है। इन मंत्रों से स्पष्ट है कि खान पान तथा पूजा में‌ जो भेदभाव आज हमारे व्यवहार में आ गए हैं वे हमारे धर्मग्रन्थों की‌ महानता तथा किऩ्हीं कारणों से हो गए हमारे भ्रष्ट आचरण को दिखलाते हैं।  यह समानता और एकता वैसी‌ है जैसी कि एक पहिये के अरे पहिये में अलग अलग स्थान पर होने के बाद भी वे पहिये को अपनी पूरी शक्ति देते हैं।

सध्रीचीनान् व: संमनसस्कृणोम्येक श्नुष्टीन्त्संवनेन सर्वान्।
देवा इवामृतं रक्षमाणा: सामं प्रात: सौमनसौ वो अस्तु।। (अथर्व. ३-३०-७)

तुम परस्पर सेवा भाव से सबके साथ मिलकर पुरूषार्थ करो। उत्तम ज्ञान प्राप्त करो। योग्य नेता की आज्ञा में कार्य करने वाले बनो। दृढ़ संकल्प से कार्य में दत्त चित्त हो तथा जिस प्रकार देव अमृत की रक्षा करते हैं। इसी प्रकार तुम भी सायं प्रात: अपने मन में शुभ संकल्पों की रक्षा करो।
सं वो मनांसि सं व्रता समाकूती न मामसि।
अभी ये विव्रता स्थान तान्व: सं नयमामसि।। अथर्व 3-8-5

तुम अपने मन एक करो। तुम्हारे कर्म एकता के लिए हों, तुम्हारे संकल्प एक हों, जिससे तुम संघ शक्ति से युक्त हो जाओ। जो ये आपस में विरोध करने वाले हैं, उन सबको हम एक विचार से एकत्र हो झुका देते हैं।
   
दत्ते दहं मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य समीक्षामहे।।शुक्ल यजुर्वेद ३६-१८.

सब व्यक्ति मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सभी व्यक्तियों को मित्र की दृष्टि से देखूं। सभी परस्पर मित्र की दृष्टि से देखा करें। हे दृढ़ता के देव ! आप हमें दृढ़ता दीजिये।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

महाभारत और जिहाद

महाभारत और जिहाद

कुछ हिंदुद्वेषी और इस्लामिक विद्वान धर्म की संस्थापना हेतु कौरव और पांडव के मध्य हुई संघर्ष महाभारत और पैगम्बर मुहम्मद के इस्लामिक युद्ध को एक ही तराजू में तौलते हैं और कहते हैं कि दोनों ही युद्ध अधर्मियों के विरुद्ध लडे गए थे।
जाकिर नायक नामक एक हिंदुद्वेषी भी अपनी एक वेव साईट "ISLAMIC RESEARCH FOUNDATION " में महाभारत  और इस्लामिक युद्ध (जिहाद) की समांतर तुलना कर के ये बता रहें हैं की जिस तरह महाभारत एक धर्म युद्ध था उसी तरह मुहम्मद साहब द्वारा चलाया गया  इस्लामिक युद्ध ( जिहाद) भी एक धर्म युद्ध है |


जिस तरह महाभारत का युद्ध अधर्मियों के खिलाफ लड़ा गया था उसी तरह इस्लामिक जिहाद  को भी अधर्मियों के खिलाफ युद्ध सिद्ध करके जायज कहा है  ,पर क्या महाभारत का युद्ध और इस्लामिक जिहाद समान हो सकते हैं? क्या जिहाद धर्म युद्ध हो सकता है ?
महाभारत का युद्ध लगभग ५००० वर्ष पहले लड़ा गया और इस्लामिक जिहाद १४०० साल पहले ..महाभारत के युद्ध में नियम और सभ्यता थी और इस्लामिक जिहाद में कोई नियम नहीं केवल बर्बरता थी ....आइये देखते हैं...

१-शत्रु 
महाभारत -  कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवो और पांडवो के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया , युद्ध केवल  कौरवो - पांड्वो और उनकी सेनाओ के बीच लड़ा गया  , इसमें बाहरी लोगो को कोई हानि नहीं पहुचाई गयी|
इस्लामिक जिहाद - युद्ध इस्लाम के अनुयायियों और  संसार के गैर मुस्लिम(काफ़िर )  के बीच में लड़ा गया , यानी दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम बनाने के लिए |

देखें: सुरा २ कि आयत १९३ ............"उनके विरूद्ध जब तक लड़ते रहो, जब तकमूर्ती पूजा समाप्त न हो जाए और अल्लाह का मजहब(इस्लाम) सब पर हावी न होजाए. "

२-युद्ध भूमि
महाभारत - युद्ध केवल कुरुक्षेत्र में लड़ा गया ,युद्ध भूमि के बाहर युद्ध निषेद था | युद्ध भूमि के बाहर घरो को नुकसान पहुचना निषेद था |
जिहाद - इसमें ऐसा कोई भी नियम नहीं था , गैर मुस्लिम को जहां भी दिखे उसे तुरंत मारने का आदेश था ... वो सब करने की छूटथी जिससे गैर मुस्लिम को अधिक-से -अधिक हानि हो |

देखें: सुरा ९ आयत ५ में लिखा है,......." फिर जब पवित्र महीने बीत जायें तोमुशरिकों (मूर्ती पूजक) को जहाँ कहीं पाओ कत्ल करो और उन्हें पकड़ो व घेरो और हरघाट की जगह उनकी ताक में बैठो। यदि वे तोबा करले ,नमाज कायम करे,और जकातदे तो उनका रास्ता छोड़ दो। निसंदेह अल्लाह बड़ा छमाशील और दया करने वाला है।"
http://quran.com/9/5

३ शत्रुओं को लूटना
महाभारत - चुकी युद्ध केवल युद्ध क्षेत्र तक ही सिमित था इसलिए शत्रु पक्ष के घरो को हाथ लगाना  या हानि पहुचना निषेध  था ....लूटने की तो बात सोचना  ही पाप था|
जिहाद - ऐसा कोई भी निषेध यहाँ नहीं था , शत्रु पक्ष के घरो को लूटना जायज़ था |

देखें:- सूरा  न. ८:४१   जो भी युद्ध में हासिल हो उसका ५ वाँ हिस्सा अल्लाह , रसूल को अता करे |
 अल्बुखारी की हदीस जिल्द १ सफा १९९ में मोहम्मद कहता है ,."लूट मेरे लिएहलाल कर दी गई है ,मुझसे पहले पेगम्बरों के  लिए यह हलाल नही थी।

http://islam-watch.org/Logical/Allah-make-War-Booty-Halal-Prophet-Muhammad.htm
http://www.islamicity.com/mosque/QURAN/8.htm

४-युद्ध बंदियों को गुलाम बनाना
महाभारत -युद्ध में जितने वाले पक्ष को हारने वाले पक्ष की स्त्रियों , बच्चो , रिश्तेदारों आदि को नुकसान पहुचना निषेध  था , युद्ध पुरे मानवता को ध्यान में रख कर लड़ा गया ...किसी आम नागरिक को हानि नहीं पहुचाई गय��� |
जिहाद - युद्ध में हारे गए शत्रु (काफिरों) के बच्चो, औरतो ,रिश्तेदारों को गुलाम बनाओ .युद्ध में हारे हुए पक्ष को गुलाम बनाने का प्रवधान , इसलिए गुलाम बने लोगो की  बच्चे और औरते मुस्लिमो की वैध सम्पति थी, शरिया कानून के तहत उनका भोग करो |

देखें- सूरा ८, आयत ६९..........."उन अच्छी चीजो का जिन्हें तुमने युद्ध करके प्राप्तकिया है,पूरा भोग करो। "
 सूरा ४ ,आयत २४.............."विवाहित औरतों के साथ विवाह हराम है , परन्तुयुद्ध में माले-गनीमत के रूप में प्राप्त   की गई औरतें तो तुम्हारी गुलाम है ,उनके साथसम्बन्ध बनाना जायज है।

अरब शरियत में " मा मलाकात अय्मनुकुम " के अनुसार मालिक अपनी युद्ध में गुलाम बनायीं गयी स्त्री के साथ जबरन सम्भोग करने का अधिकार था |
http://en.wikipedia.org/wiki/Ma_malakat_aymanukum

युद्ध का समय
महभारत - सूर्य उदय के समय दोनों पक्ष के सैनिक युद्ध भूमि में जमा हो जाते और शंख बजने के साथ युद्ध शुरू होता , सूर्य अस्त के समय शंख बजते ही  युद्ध समाप्त हो जाता , रात में युद्ध निषेध था |
इस्लामिक युद्ध -  कोई नियम नहीं जहां भी काफ़िर दिखे उसे तुरंत ख़त्म करने का आदेश था , यदि शत्रु सोता हुआ हो तब भी उस पर आक्रमण करते थे |
मार्च ६२४ को मुहम्मद ने अपने ३०० साथियों के साथ रात में बदर में मक्का के व्यपारियों पर आक्रमण किया |

देखें:
Battle of Badr - Wikipedia, the free encyclopedia
en.wikipedia.org/wiki/Battle_of_Badr


युद्ध का कारण
महभारत -युद्ध केवल  राज्य को लेके लड़ा गया था ..किसी धर्म को फ़ैलाने के लिए नहीं , जैसे ही  राज्य पुन: जीत लिया गया युद्ध समाप्त कर दिया गया |  युद्ध जीतने के बाद भी पांडवो को आत्मग्लानी हुयी और उन्होंने राज्य त्याग कर हिमालय पर प्रस्थान कर दिया |
इस्लामिक युद्ध -युद्ध इस्लाम को फ़ैलाने  और उसकी प्रभुत्व कायम करने के लिए लड़ा गया ,  ...केवल विश्व  को दारुल इस्लाम बनाने का उदेश्य

सुरा ४ की आयत ५६  ..........."जिन लोगो ने हमारी आयतों से इंकार किया उन्हेंहम अग्नि में झोंक देगे। जब उनकी खाले पक जाएँगी ,तो हम उन्हें दूसरी खालों सेबदल देंगे ताकि वे यातना का रसा-स्वादन कर लें। निसंदेह अल्लाह ने प्रभुत्वशालीतत्व दर्शाया है।"

 महाभारत के युध में किसी पक्ष ने दूसरे पक्ष के धर्म स्थलो को नुकसान नही पहुचाया पर इस्लामिक युध में दूसरे धर्म के पूजा स्थलो को तोड़ दिया गया ....काबा इसका उधारण है जहाँ तोड़ी गयी मूर्तिया अब हैं |

क्या अब भी महाभारत के युद्ध और इस्लामिक युद्ध (जिहाद ) में कोई समानता है ?

रामचरितमानस में कामदेव अर्थात सेक्स के देवता

रामचरितमानस में कामदेव अर्थात सेक्स के देवता ...

भस्म हो जाने पर भी वे प्राणियों को क्यों प्रभावित करते हैं?
कामदेव अर्थात सेक्स के देवता के प्रभाव से भला कोई बचा है?

कामदेव के सम्बन्ध में तुलसीदास जी लिखते हैं:

    सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं, नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी भी काम के वश होकर योगरहित और स्त्री-विरही हो गये। मनुष्यों की तो बात ही क्या कहें, पुरुषों को संसार स्त्रीमय और स्त्रियों को पुरुषमय प्रतीत होने लगा।

यह कथा रामचरितमानस बालकाण्ड से

सती जी के देहत्याग के पश्चात् जब शिव जी तपस्या में लीन हो गये थे उसी समय तारक नाम का एक असुर हुआ। उसने अपने भुजबल, प्रताप और तेज से समस्त लोकों और लोकपालों पर विजय प्राप्त कर लिया जिसके परिणामस्वरूप सभी देवता सुख और सम्पत्ति से वंचित हो गये। सभी प्रकार से निराश देवतागण ब्रह्मा जी के पास सहायता के लिये पहुँचे। ब्रह्मा जी ने उन सभी को बताया, "इस दैत्य की मृत्यु केवल शिव जी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती है। किन्तु सती जी के देह त्याग के बाद शिव जी विरक्त हो कर तपस्या में लीन हो गये हैं। सती जी ने हिमाचल के घर पार्वती जी के रूप में पुनः जन्म ले लिया है। अतः शिव जी के पार्वती से विवाह के लिये उनकी तपस्या को भंग करना आवश्यक है। तुम लोग कामदेव को शिव जी के पास भेज कर उनकी तपस्या भंग करवाओ फिर उसके बाद हम उन्हें पार्वती जी से विवाह के लिये राजी कर लेंगे।"

ब्रह्मा जी के कहे अनुसार देवताओं ने कामदेव से शिव जी की तपस्या भंग करने का अनुरोध किया। इस पर कामदेव ने कहा, "यद्यपि शिव जी से विरोध कर के मेरा कुशल नहीं होगा तथापि मैं आप लोगों का कार्य सिद्ध करूँगा।"

इतना कहकर कामदेव पुष्प के धनुष से सुसज्जित होकर वसन्तादि अपने सहायकों के साथ वहाँ पहुँच गये जहाँ पर शिव जी तपस्या कर रहे थे। वहाँ पर पहुँच कर उन्होंने अपना ऐसा प्रभाव दिखाया कि वेदों की सारी मर्यादा मिट गई। कामदेव की सेना से भयभीत होकर ब्रह्मचर्य, नियम, संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य आदि, जो विवेक की सेना कहलाते हैं, भाग कर कन्दराओं में जा छिपे। सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं, नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी भी काम के वश होकर योगरहित और स्त्री विरही हो गये। मनुष्यों की तो बात ही क्या कहें, पुरुषों को संसार स्त्रीमय और स्त्रियों को पुरुषमय प्रतीत होने लगा।

जी हाँ, गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं:

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई। संगम करहिं तलाव तलाई॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥

धरी न काहूँ धीर सबके मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥

किन्तु कामदेव के इस कौतुक का शिव जी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। इससे कामदेव भी भयभीत हो गये किन्तु अपने कार्य को पूर्ण किये बिना वापस लौटने में उन्हें संकोच हो रहा था इसलिये उन्होंने तत्काल अपने सहायक ऋतुराज वसन्त को प्रकट कर किया। वृक्ष पुष्पों से सुशोभित हो गये, वन-उपवन, बावली-तालाब आदि परम सुहावने हो गये, शीतल-मंद-सुगन्धित पवन चलने लगा, सरोवर कमल पुष्पों से परिपूरित हो गये, पुष्पों पर भ्रमर गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे, अप्सराएँ नृत्य एवं गान करने लगीं।

इस पर भी जब तपस्यारत शिव जी का कुछ भी प्रभाव न पड़ा तो क्रोधित कामदेव ने आम्रवृक्ष की डाली पर चढ़कर अपने पाँचों तीक्ष्ण पुष्प-बाणों को छोड़ दिया जो कि शिव जी के हृदय में जाकर लगे। उनकी समाधि टूट गई जिससे उन्हें अत्यन्त क्षोभ हुआ। आम्रवृक्ष की डाली पर कामदेव को देख कर क्रोधित हो उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया और देखते ही देखते कामदेव भस्म हो गये।

कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही रुदन करते हुए शिव जी पास आई। उसके विलाप से द्रवित हो कर शिव जी ने कहा, "हे रति! विलाप मत कर। जब पृथ्वी के भार को उतारने के लिये यदुवंश में श्री कृष्ण अवतार होगा तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा और तुझे पुनः प्राप्त होगा। तब तक वह बिना शरीर के ही इस संसार में व्याप्त होता रहेगा। अंगहीन हो जाने के कारण लोग अब कामदेव को अनंग के नाम से भी जानेंगे।"

इसके बाद ब्रह्मा जी सहित समस्त देवताओं ने शिव जी के पास आकर उनसे पार्वती जी से विवाह कर लेने के लिये प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।

पुरातन भारतवर्ष में जल की महिमा

पुरातन भारतवर्ष में जल की महिमा

जल की महिमा का बखान और और जल से प्रार्थना करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि
" इदमाप: प्र वहत यत् किं च दुरितं मयि
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम् | | "
ऋग्वेद 10 . 2 . 8 .

हे जल देवता ! मुझसे जो भी पाप हुआ हो, उसे तुम दूर बहा दो अथवा मुझसे जो भी द्रोह हुआ हो , मेरे किसी कृत्य से किसी को पीड़ा हुई हो अथवा मैंने किसी को गालियाँ दी हों, अथवा असत्य भाषण किया हो , तो वह सब भी दूर बहा दो |

जल में अखण्ड प्रवाह , दया , करुणा , उदारता , परोपकार और शीतलता , ये सभी गुण विद्यमान रहते हैं | मनुष्य कितना भी दुखी क्यों न हो , ठंडे जल से स्नान करते ही वह शान्त हो जाता है | जल ही जीवन है | जल मानव को पुण्य - कर्म करने की प्रेरणा देता है |भारतीय संस्कृति पूजा प्रधान है | यहाँ किसी भी कार्य का प्रारम्भ पूजा से होता है और प्रत्येक कार्य का विसर्जन भी पूजा से ही होता है | पूजा हेतु सर्वप्रथम , पवित्रीकरण की आवश्यकता होती है और पवित्रीकरण के लिए जल की आवश्यकता होती है | इसी प्रकार पूजा का विसर्जन , शान्ति - पाठ से होता है और शान्ति - पाठ में जब मंत्रों का उच्चारण किया जाता है , तो पवित्र जल का अभिसिंचन किया जाता है , इस प्रकार जल के बिना, किसी भी तरह की पूजा सम्भव नहीं है | वैदिक - वांग्मय में जल के महत्त्व को सर्वात्मना स्वीकार किया गया है और जल की गरिमा - महिमा का बखान , श्रुतियों में सर्वत्र किया गया है |

"रूपरसस्पर्शवत्य आपोद्रवा: स्निग्धा: | | २ | | "

वैशेषिक दर्शन , द्वितीय अध्याय, प्र.आ. जल तत्व में रूप , रस और स्पर्श , इन तीन गुणों का समावेश है | जल, स्निग्ध होने के साथ - साथ प्रवाहित भी होता है | प्रगट स्वरूप होने के कारण जल रूपवान भी है | जल को मुख में डालने पर , शीतल , गर्म , खारा एवं मधुर आदि का , रसास्वादन होने से, यह रस है | जल का स्पर्श करने पर , उसके शीत और उष्ण होने का पता चलता है इसलिए जल, स्पर्श गुण से सम्पन्न है और अग्नि तथा वायु के गुणों का सम्मिश्रण भी है | जल का उपयोग चिकित्सा के लिए भी किया जाता रहा है , जैसा कि " यजुर्वेद " में कहा गया है -

" युष्माSइन्द्रोSवृणीत वृत्रतूर्य्ये यूयमिन्द्र्मवृणीध्वं
वृत्रतूर्य्ये प्रोक्षिता स्थ | अग्नये त्वा जुष्टं
प्रोक्षाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामि |
दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोSशुध्दा:
पराजघ्नुरिदं वस्तच्छु न्धामि | | १ ३ | |"

यजुर्वेद प्रथम अध्याय जैसे यह सूर्यलोक , मेघ के वध के लिए , जल को स्वीकार करता है , जैसे जल , वायु को स्वीकार करते हैं , वैसे ही हे मनुष्यों ! तुम लोग उन जल औषधि - रसों को शुद्ध करने के लिए , मेघ के शीघ्र - वेग में , लौकिक पदार्थों का अभिसिंचन करने वाले , जल को स्वीकार करो और जैसे वे जल शुद्ध होते हैं , वैसे ही तुम भी शुद्ध हो जाओ |

परमेश्वर ने सूर्य एवं अग्नि की रचना इसलिए की, कि वे सभी पदार्थों में प्रवेश कर उनके रस एवं जल को तितर - बितर कर दें ताकि वह पुन: वायुमंडल में जाकर और वर्षा के रूप में फिर धरती पर आ कर सबको शुचिता और सुख प्रदान कर सके |

"आपोSअस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्व: पुनन्तु ।
विश्व हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्य: शुचिरा पूतSएमि |
दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवा शग्मां परिदधे भद्रं वर्णम पुष्यन् ।"
।। यजुर्वेद, ४ , २ ।।

मनुष्य को चाहिए कि जो सब सुखों को देने वाला , प्राणों को धारण करने वाला तथा माता के समान , पालन - पोषण करने वाला जो जल है , उससे शुचिता को प्राप्त कर , जल का शोधन करने के पश्चात ही , उसका उपयोग करना चाहिए , जिससे देह को सुंदर वर्ण , रोग - मुक्त देह प्राप्त कर , अनवरत उपक्रम सहित , धार्मिक अनुष्ठान करते हुए , अपने पुरुषार्थ से आनंद की प्राप्ति हो सके ।

वैदिक ऋषियों ने वैज्ञानिकों की तरह जल एवं वायु को प्रदूषण - मुक्त करने की बात कही है । यजुर्वेद में उन्होंने यह परामर्श भी दिया है कि हम वर्षा - जल को भी , किस प्रकार औषधीय गुणों से परिपूर्ण कर सकते हैं ।

" अपो देवीरुपसृज मधुमतीरयक्ष्मार्य प्रजाभ्य: ।
तासामास्थानादुज्जिहतामोषधय: सुपिप्पला: । । "
यजुर्वेद / ११ / ३८ /

राजा के पास दो तरह के वैद्य होना चाहिए । एक वैद्य , सुगन्धित पदार्थों के होम से , वायु , वर्षा - जल एवं औषधियों को शुद्ध करे । दूसरा श्रेष्ठ विद्वान् , वैद्य बनकर , प्राणियों को रोग -रहित रखे , " सर्वे भवन्तु सुखिन:" हमारा आदर्श है और इस आदर्श के निर्वाह के लिए इन दोनों दायित्वों का निर्वाह अनिवार्य है ।

वेद में मानव जीवन को ' कृषि - जीवन ' कहा गया है और इसीलिए , जलश्रोतों से हमारा रागात्मक सम्बन्ध रहा है । नदियों को हमने , देवी - स्वरूपा , माता की संज्ञा से अभिहित किया है ।' ऋग्वेद ' की इस ऋचा में ' सरस्वती ' नदी की महिमा गाई गई है -

" अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति ।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमंब नस्कृधि ।। "
ऋग्वेद / २ / ८ / १४ /

हे सर्वोत्तम माते सरस्वती ! तू सर्वोत्तम नदी के समान है । जिन नदियों का प्रवाह प्रकट है , वे गंगा - यमुना जैसी , श्रेष्ठ नदियाँ हैं , परन्तु तेरा प्रवाह गुप्त है , इसलिए तू श्रेष्ठ्तम है । तू सभी देवताओं में श्रेष्ठ , आलोक प्रदाता है । हमारा जीवन अप्रशस्त जैसा बन गया है । हे माता ! तू उसे प्रशस्त कर । हम उपेक्षित हैं , निन्दित हैं । हे माता ! तू हमारा पथ प्रशस्त कर ।

" यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टय: संबभूवु:।
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नो भूमि: पूर्व पेये दधातु ।। "
अथर्ववेद / द्वादश - काण्डम् / ३ /

सागर ,नदी , कुआँ और वर्षा का जल तथा कृषि कार्य आदि से , जो मनुष्य , नाव , जहाज कला - यंत्र आदि का , विधेयात्मक प्रयोग करता है , वह सबको आनन्द प्रदान करता है । ऐसा व्यक्ति स्वत: भी श्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है ।

"शं त आपो हैमवती: शमु ते सन्तूत्स्या: ।
शं ते सनिष्पदा आप: शमु ते सन्तु वर्ष्या:।। "
अथर्ववेद/ एकोनविंश काण्डम् / १ /

मनुष्य को चाहिए कि वह वर्षा , कुऑ ,नदी और सागर के जल को , अपने खान-पान , खेती और शिल्प- कला आदि के लिए उपयोग करे एवम् अपने जीवन को सम्पूर्ण बनाए और चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करे ।

"अनभ्रय: खनमाना विप्रा गम्भीरे अंपस: ।"
भिषग्भ्यो भिषक्तरा आपो अच्छा वदामसि ।।"
अथर्ववेद / एकोनविंश काण्डम् / 3 /
विद्वान् ,जिज्ञासु , वैद आदि तपस्वी साधक , अनेक तरह के रोगों में , जल के प्रयोग के द्वारा , जल के अनन्त गुणों की आपस में व्याख्या करें और समाज के हित में उसका भरपूर उपयोग करें ।

वैदिक ऋषियों का जीवन एक प्रयोग- शाला थी । उन्होंने चिन्तन, मनन और निदिध्यासन से जो उपलब्धि हासिल की , उसे जन- कल्याण हेतु समर्पित कर दिया।

"अपामह दिव्यानामपां स्त्रोतस्यानाम् ।
अपामह प्रणेजनेSश्वा भवथ वाजिन: ॥"
अथर्ववेद / एकोनविंश / काण्डम् / 4 /

जल - चिकित्सा बहुत ही प्रभावी चिकित्सा पद्धति है , समस्त रोगों का निदान इससे सम्भव है। मनुष्य को चाहिये कि वह सागर , वर्षा , नदी , सरोवर आदि के जल को आवश्यकतानुसार चिकित्सा मे उपयोग कर के खेती के संसाधन की तरह , जल का प्रयोग करके , निरोग. वेगवान , प्रखर , एवम् बलशाली बने और समाज के हित में अपनी प्रतिभा एवम् अपने बल का समुचित उपयोग कर सके ।

"ता अप: शिवा अपोSय मं करणीरप: ।
यथैव तप्यते मयस्तास्त आ दत्त भेषजी:।।"
अथर्ववेद / एकोनविंश / काण्डम् / 5 /

जल की महत्ता के विषय में , मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि " जल है तो कल है " इस बात को हमारे पूर्वज , भली - भांति जानते थे और यही कारण है कि उन्होने, जल की महिमा का बखान , वेद- वांग्मय एवम् सभी धर्म- ग्रंथों में किया है । हमें जल बचाने का उपक्रम करना चाहिये । जल के महत्व को समझ कर , सावधानी - पूर्वक उसका उपयोग करना चाहिये ताकि हम अपनी भावी पीढी के लिए जल बचा कर रखें , जैसे हमारे पूर्वज हमारे लिए , जल का विशाल भंडार छोड कर गए हैं।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

पुरातन भारतवर्ष में उच्च शिक्षा के संसथान

पुरातन भारतवर्ष में उच्च शिक्षा के संस्थान

आर्य सनातन वैदिक में ज्ञान और ज्ञान - प्राप्ति  को सर्वोच्च प्राथमिकता प्राप्त है। हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रोत्साहित करता है। अन्य धर्मों के विपरीत अन्धविशवास में यक़ीन करने के बजाय हिन्दू जीवन में जिज्ञासा को स्दैव सराहा गया है। धार्मिक विषयों पर जिरह करने पर कोई पाबन्दी नहीं। यही कारण है कि आदिकाल से ही हिन्दू सभ्यता ने संसार को विज्ञान, कला और विद्या के प्रत्येक क्षेत्र में अपूर्व, मौलिक तथा प्रभावशाली योगदान दिया है।

ज्ञान अर्जित करने की परिक्रिया

पुरातन भारतवर्ष में प्राथमिक ज्ञान माता-पिता के संरक्षण और घर के वातावरण में यम-नियम और सन्ध्या आदि के दैनिक कर्मों से शुरू होता था।

गुरुकुल में ज्ञान पीढी दर पीढी मौखिक तथा लिखित माध्यम से गुरू-शिष्य परम्परा दूारा वितरित किया जाता था। भारत के ऋषि आज के गुरूओं की तरह ‘गुरू-मंत्रों’ का व्यापार नहीं करते थे कि पहले से रजिस्ट्रेशन कर के गुरू मन्त्र शिष्यों कान में पढे जायें ताकि कोई दूसरा उसी अच्छी बात को सुन ना ले। ऋषि कोई निजी समुदाय भी नहीं बनाते थे। गुरू अपने शिष्य में केवल जिज्ञासा, परिश्रम करने की लग्न और चरित्र को देखते थे।

ज्ञान का लक्ष्य तथ्यों के आँकडे इकठ्ठे करना नहीं होता था बल्कि विद्यार्थी के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना होता था जिस के तीन मुख्य अंग थेः –

   श्रवण – ध्यान पूर्वक ज्ञान को सुन कर ग्रहण करना,
    मनन – श्रृवण किये गये ज्ञान पर स्वतन्त्रता पूर्वक विचार करना, तथा
    निद्यासना - ज्ञान को जीवन में क्रियात्मिक करना।

दिूतीय स्तर पर गणित, अंकगणित, भौतिक शास्त्र तथा पृथ्वी, आकाश और गृहों का ज्ञान सम्मिलित था। स्नातकों को वेद ज्ञान में पारंगत होना पडता था।

    जो निर्धारित स्तर तक नहीं पहुँच पाते थे, उन्हें वैश्य व्यवसाय अपनाने का परामर्श दिया जाता था।
    जो दिूतीय स्तर के परीक्षण में सफल होते थे, वह और आगे उच्च शिक्षा गृहण कर सकते थे। उन्हें ऋभु कहा जाता था और वह अशविन (वैज्ञिानिकों) के साथ रह कर रथ, विमान, जलयान के आविष्कारों तथा निर्माण में अपना योगदान करते थे।
    इस के ऊपर दक्ष पारंगतों को अंतरीक्ष विज्ञान, दार्शनिक ज्ञान आदि के विशेष क्षेत्रों में आचार्य आदि की संज्ञा से सुशोभित किया जाता था।

स्नात्कों का सम्मान

विद्यालयों तथा परिशिक्षण संस्थानों में प्रमाणपत्र देने का रिवाज उस समय नहीं था, परन्तु स्नातकों का वर्गीकरण थाः-

    ‘ब्रह्मचर्य’ – प्रथम स्तर के उन ब्रह्मचारी स्नात्कों को जो 24 वर्ष की आयु तक अविवाहित रह कर शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें ‘ब्रह्मचर्य’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता था।
    ‘रुद्राई’ – 36 वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करने वाले को ‘रुद्राई’ कहा जाता था।
    ‘आदित्य’ -44 वर्ष से 48 वर्ष तक के शिक्षार्थी को ‘आदित्य’ कहते थे।

आधुनिक संदर्भ में उन्हें क्रमशः ग्रेजुऐट, पोस्ट ग्रेजुऐट और डाक्ट्रेट आदि कह सकते हैं। कालान्तर वैदिक क्षेत्र में भी दक्षता के प्रमाण स्वरूप वेदी, दिूवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी की उपाधियाँ नामों के साथ संलग्न होने लगीं। धीरे धीरे वह जन्मजात हो कर जाति की पहचान बन गयीं और उन का व्यक्तिगत योग्यता से सम्पर्क टूट गया।

ज्ञान की वैज्ञानिक प्रमाणिक्ता

वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महाकाव्यों के अतिरिक्त भारत में विद्या पढने पढाने का प्रावधान वैदिक काल से ही सक्षम मापदण्डों के आधार पर स्थापित हो चुके थे। जिस समय पृथ्वी के अन्य भागों में सभ्यता वनों से गाँवों की ओर जाने का केवल प्रयत्न मात्र ही कर रही थी उस समय से पूर्व भारत के ऋषि मुनियों, अशविनों (वैज्ञानिको) तथा बुद्धिजीवियों ने धरती को माप लिया था। उस से भी आगे उन्हों ने वर्ष को मासो, ऋतुओं, पखवाडों, दिवसों, पलों एवम विपलों (नेनो सैकिण्डों) में बाँट लिया था और आज का विज्ञान उन्हीं खोजों की पुष्टि मात्र ही कर रहा है। वेद ज्ञान केवल अध्यात्मिक मोक्ष प्राप्ति का ज्ञान ही नहीं है बल्कि विज्ञान के सभी विषय वेदों में बखान किये गये हैं। ऋगवेद के कथन अनुसार विज्ञान के ज्ञान तथा उस के प्रत्यक्ष क्रियात्मिक प्रयोग के बिना दारिद्रता को समृद्धी में बदलना असम्भव है।

आज से तीन सौ वर्ष पूर्व ऐलोपैथी नाम का कोई विज्ञान विश्व में नहीं था परन्तु आयुर्वेद पद्धति से जटिल रोगों का भी  सफल उपचार होता था। जब विश्व की अन्य मानव जातियों को पृथ्वी के महादूीपों और महासागरों के बारे में ही पूर्ण जानकारी नहीं थी और वह जानवरों की खाल पहन कर खोह और गुफाओं में रहते थे और केवल मांसाहार पर ही निर्भर हो कर डार्क ऐज में जीवन व्यतीत कर रही थी तब भी वैदिक ज्ञान की पूर्णत्या वैज्ञिानिक धारणाओं के प्रमाण लिखित रूप में भारत को ज्ञात थे, उदाहरण स्वरूप जैसे किः-

    सूर्य कभी उदय नहीं होता ना ही वह अस्त होता है। पृथ्वी सूर्य की परिकर्मा करती है जिस से सूर्योदय तथा सूर्यास्त का आभास होता है। (सामवेद 121)
    सौर मण्डल के ग्रहों में आपसी ध्रुवाकर्षण के कारण पृथ्वी स्थिर रहती है  (ऋगवेद 1-103-2,1-115-4, 5-81-2)
    पृथ्वी की धुरी को कभी ज़ंग नहीं लगता जिस पर पृथ्वी सदा घूमती रहती है। (ऋगवेद 1-164 – 29)
    ऋगवेद में समय की गति का कालचक्र दिया गया है तथा भौतिक ज्ञान, कृषि विज्ञान, खगोल शास्त्र, गणित और अंक गणित का विवर्ण है।

भारत के प्राचीन ग्रन्थों में स्वर्ग, चौदह भवनों, लोकों तथा छः महादूीपों, चार महासागरों का वर्णन मिलता है जो आज प्रत्य़क्ष रूप मे विद्मान हैं। भारत के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य की परिकर्मा के मार्ग को पहचाना, अन्य गृहों की गति की विस्तरित तथा प्रमाणित जानकारी दी और उन के पृथ्वी पर पडने वाले प्रभावों का आंकलन कर के उस ज्ञान को मानव के दैनिक जीवन की क्रियाओं के साथ जोड दिया था।

प्रत्येक धार्मिक तथा सामाजिक अनुष्ठानों मे नव गृहों का आवाहन कर के उन को पूजित करना इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि प्राचीन खगोल शास्त्री हमारे सौर मण्डल के सभी गृहों की गति, दशा, मार्ग और उन के प्रभाव को ना केवल जानते थे बल्कि उन के दुष्प्रभाव को दूर करने के उपाय भी विभिन्न प्रकार के रत्नों से करने में सक्षम थे। समस्त संसार में राशि चक्रों (ज़ोडेक साईन) का जो चित्रण भारत की जन्त्ररियों में देखने को उपलब्द्ध है वही आँकडे (डाटा) नासा की स्टार अलामेनिक में भी आज छपते हैं।

भारत के विशेषज्ञ्यों ने पदार्थों की भौतिकता, पशु पक्षियों की पैत्रिक श्रंखला, और वनस्पतियों तथा उन के बीजों का भी पूर्ण आँकलन किया था। वाल्मिकि रामायण में सभी जीवों की उत्पति तथा श्रंखला का विवरण दिया गया है जो पूर्णत्या विवेक संगित है और डारविन को भी अपनी खोज पर पुनः विचार करने की सलाह दे सकता है।

विज्ञान, चिकित्सा, तथा गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारत की देन अदिूतीय है। भाषा, व्याकरण, धातु ज्ञान, रसायन, तथा मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में भारत का योगदान सर्वाधिक है। यह तथ्य उस काल के हैं जब यूनान के दार्शनिक अरस्तु (एरिस्टोटल), सुकरात (सोक्रेटस), अफलातून (प्लेटो) आदि पैदा भी नहीं हुये थे लेकिन पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के विचार में उन्हें ही आधुनिक ज्ञान विज्ञान का जन्मदाता कहा जाता है। .          

उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठान

प्राचीन भारत में शिक्षा के संस्थानों को गुरुकुल, आश्रम, विहार तथा परिष्द के नाम से जाना जाता था। ऐसे संस्थान देश भर में फैले हुये थे। राज तन्त्र की सहायता से विद्यार्थियों को बिना शुल्क परिशिक्षण तथा रहवास की सुविधायें प्राप्त थीं। उच्च शिक्षा के लिये तक्षशिला, काशी, विदर्भ, अजन्ता, नालन्दा, तथा विक्रमशिला (मगद्ध) में विश्विद्यालय थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। उच्च कोटि के आचार्यों, शिक्षकों, स्नातकों के नाम इन विश्वविद्यालयों से जुडे हुये हैं जिन में से व्याकरण रचिता पाणनि, शल्य चिकित्सा शास्त्री चरक, तथा नीतिज्ञ विष्णुगुप्त चाणक्य विश्विख्यात हैं। यह सभी अपने अपने ज्ञान क्षेत्रों मे यूनान तथा पाश्चात्य जगत के बुद्धि जीवियों के अग्रज थे। कुछ विश्वविख्यात विश्विद्यालय इस प्रकार थेः-

    तक्षशिला - ईसा के जन्म से सात सौ वर्ष पूर्व विश्व का प्रथम विश्विद्यालय तक्षशिला में स्थापित किया गया था। यह हिन्दू स्नात्कों का अग्रगामी शैक्षिक प्रतिष्ठान था। सिकन्दर महान के समय से पूर्व ही यह चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में ऐक  ख्याति प्राप्त केन्द्र था। तक्षशिला में 10500 स्नात्कों के रहने का प्रबन्ध था तथा वहाँ 60 प्रकार के विषयों मे उच्च शिक्षा की व्यव्स्था थी। मुख्यता धर्म, नीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, विज्ञान, गणित, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, राजनीति तथा संगीत शास्त्र में निपुणता प्राप्त करने हेतु  बेबीलोन, यूनान, इराक, अरब, ईरान, सीरिया तथा चीन के छात्र आते थे।
    विक्रमशिला – मगद्ध में गंगा तट पर स्थित विक्रमशिला प्रतिष्ठान खगोल शास्त्र के लिये प्रसिद्ध था। वहां 8000 शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। यह विश्वविद्यालय चार सौ वर्ष तक फलता रहा। महाकवि कालीदास नें वहाँ के प्रशिक्षण के बारे में उल्लेख किया है तथा वहाँ काण्व ऋषि प्रकख्यात प्राचार्य कुलपति (वाईस चाँसलर) थे।
    अजन्ता – अजन्ता प्रतिष्ठान कला तथा वास्तु शास्त्र के लिये विश्व विख्यात था तथा आज भी वहाँ की भव्य कला कृतियाँ प्रमाण स्वरूप दर्शनीय हैं।
    नालन्दा - नालन्दा विशवविद्यालय की स्थापना ईसा के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी तथा भारत में शिक्षण क्षैत्र का यह ऐक अदिूतीय कीर्तिमान था। अपने जीवनकाल में महात्मा बुद्ध कई बार नालन्दा गये थे। सातवी शताब्दी में चीनी यात्री ऐवम बुद्धिजीवी फाह्यान भी नालन्दा में ठहरे थे तथा उन्हों ने वहाँ के .योगियों के पवित्र, सरल, कुशल प्रशिक्षण पद्धति का विस्तरित वर्णन अपने उल्लेखों में दिया है। नालन्दा में लगभग 2000 शिक्षक तथा विश्व भर के समस्त बुद्ध देशों से 10000 शिक्षार्थी रहते थे और यह विश्व स्तर का प्रतिष्टान था। यहां के प्राचार्यों में नागार्जुन, आर्यदेव, वसुभान्दु, असंगा, स्थिरमति, धर्मपाल, शिल्प्हद्र, शान्तिदेव, तथा पद्मसम्भव जैसे प्रकाणड विदूान उल्लेखनीय हैं।
    ओदान्तपुरी - ओदान्तपुरी विशवविद्यालय भी नालन्दा के निकट था जिसे महाराज गोपाल ने स्थापित किया था जहाँ 12000 शिक्षार्थी शिक्षा पाते थे। मुस्लिम आक्राँताओं ने इस के चारों ओर बनी ऊँची चार दिवारी के कारण विशवविद्यालय को दुर्ग समझ कर ध्वस्त कर दिया और स्नातकों तथा आचार्यों को मार डाला।
    जगद्दाला – जगद्दाला विशवविद्यालय राजा देवपाल (810-850) ने स्थापित किया था जहाँ बुद्धमत की तान्त्रिक पद्धति की शिक्षा दीक्षा होती थी। 1027 में मुस्लिम आक्राँताओं ने इसे ध्वस्त कर दिया था।
     वल्लभी – वल्लभी विशवविद्यालय में बौध ह्यीनयान मत के अतिरिक्त राजनीति, कृषि, अर्थशास्त्र, और न्याय शास्त्र के पाठ्यक्रम की शिक्षा का प्रावधान था। इसे मैत्रिका वंश के राजाओं ने स्थापित किया था।

विश्व ज्ञान को योगदान

आज हम आक्सफोर्ड, कैमब्रिज और हारवर्ड आदि विश्वविद्यालयों के नाम से प्रभावित हो कर भूल जाते हैं कि भारत में उन से भी भव्य विश्वविद्यालय थे। गुप्त वँश के सम्राटों ने भी बहुत से शिक्षा प्रशिष्ठानों को संरक्षण दिया तथा सम्राट अशोक और हर्ष वर्द्धन ने भी अपने शासन काल में मोनास्टरियों को संरक्षण प्रदान किया था।

भारत के विश्वविद्यालयों का मानव ज्ञान के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। वहाँ के स्नात्कों, आचार्यों तथा बुद्धिजीवियों ने विद्या, कला और विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अमूल्य तथा मौलिक योग दान दिया है जिस का प्रयोग आधुनिक वैज्ञानिक मानव विकास के लिये आधुनिक तकनीक और उपक्रमों से कर रहे है। कला और विज्ञान के हर क्षेत्र से सम्बन्धित मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये थे जिन में से अधिकाँश आज भी उप्लब्द्ध तथा प्रासंगिक हैं।

दुर्भाग्य से शिक्षा के कई महान संस्थान धर्मान्धता के कारण मुसलिम लुटेरों ने ध्वस्त कर दिये। उन्हों ने सभी मोनास्टरीयों को और शिक्षण परिष्ठानों को नष्ठ कर डाला था। नालन्दा विश्वविद्यालय को 1193 में बख्तियार खिलजी ने जला दिया था और वहाँ के सभी बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। उसी प्रकार अन्य विश्वविद्यालय विनाशग्रस्त हो गये। मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे ‘कुफर’ की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। आज नालन्दा विशवविद्यालय को पुनर्स्थापित करने का विचार अवश्य ही सराहनीय है