बुधवार, 25 सितंबर 2013

पुरातन भारतीय परम्परा में सामाजिक अर्थात क़ानूनी ग्रन्थ मनुस्मृति

पुरातन भारतीय परम्परा में सामाजिक अर्थात क़ानूनी ग्रन्थ मनुस्मृति

पुरातन भारतीय परम्परा के अनुसार मनु स्मृति को विश्व में मानवी कानून का प्रथम ग्रंथ माना गया है जहाँ से सभ्यता का विकास आरम्भ हुआ। मनुस्मृति के मौलिक ग्रंथ में लगभग एक लाख श्लोक थे किन्तु कालान्तर इस ग्रंथ में कई बदलाव भी हुये। उपलब्द्ध संस्करण लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व के हैं। उन में 12 अध्याय हैं तथा विविध विषयों पर संस्कृत भाषा में रचित श्लोक हैं जो मानव सभ्यता के सभी अंगों से जुडे हुये हैं। ग्रंथ की विषय सूची में सृष्टि की उत्पति, काल चक्र, भौतिक ज्ञान, रसायन ज्ञान, वनस्पति विज्ञान, राजनीति, देश की सुरक्षा, शासन व्यव्स्था, व्यापार, सार्वजनिक स्वास्थ, सार्वजनिक सेवायें, सार्वजनिक स्थलों की देख रेख, यातायात, अपराध नियन्त्रण, दण्ड विधान, सामाजिक सम्बन्ध, महिलाओं, बच्चों तथा कमजोर वर्गों की सुरक्षा, व्यक्तिगत दिन-चर्या, उत्तराधिकार आदि सम्बन्धी नियम उल्लेख किये गये हैं

ग्रंथ की भाषा की विशेषता है कि केवल कर्तव्यों का ही उल्लेख किया गया है जिन में से अधिकार परोक्ष रूप से अपने आप उजागर होते हैं। आधुनिक कानूनी पुस्तकों की तरह जो विषय उल्लेखित नहीं, उन के बारे में विश्ष्टि समति बना कर या सामान्य ज्ञान से निर्णय करने का प्रावधान भी है।

समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं। उन्हें संसार की सभी सभ्य जातियों ने समय के साथ साथ थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ अपनाया हुआ हैं। आज के युग में भी सभी देशों ने उन्हीं संस्कारों को कानूनी ढंग से लागू किया हुआ है भले ही वह किसी भी धर्म के मानने वाले हों।

रीति-रिवाज सम्बन्धित व्यक्तियों को किसी विशेष घटना के घटित होने की औपचारिक सूचना देने के लिये किये जाते हैं। मानव जीवन की घटनाओं से सम्बन्धित मनु दूआरा सुझाये गये सोलह वैज्ञानिक संस्कारों का विवरण इस प्रकार है जो सभी सभ्य देशों में किसी ना किसी रुप में मनाये जाते हैं-

    गर्भाधानः – इस प्राकृतिक संस्कार से ही जीव जन्म लेता है और यह क्रिया सभी देशों, धर्मों और सभी प्राणियों में सर्वमान्य है। निजी जीवन से पहले यह संस्कार माता-पिता भावी संतान के लिये सम्पन्न करते हैं, पशचात सृष्टी के क्रम को चलंत रखने के लिये यह सभी प्राणियों का मौलिक कर्तव्य है कि वह स्वयं अपना अंश भविष्य के लिये प्रदान करें। सभी देशों में गृहस्थ जीवन की सार्थकि्ता इसी में है।
    पंस्वानाः – पुंसवन संस्कार गर्भाधान के तीसरे या चौथे महीने में किया जाता है। गर्भस्त शिशु पर माता-पिता, परिवार एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है। अतः शिशु के कल्याण के लिये गर्भवती मां को पुष्ट एवं सात्विक आहार देने के साथ ही अच्छा साहित्य तथा महा पुरूषों की प्रेरक कथायें आदि भी सुनानी चाहियें और उस के शयन कक्ष में महा पुरूषों के चित्र लगाने चाहियें। भ्रूण तथा मां के स्वास्थ के लिये पिता के लिये उचित है कि वह शिशु के जन्म के कम से कम दो मास पशचात तक सहवास ना करे। यह और बात है कि आधुनिक काल में विकृति वश इस नियम का पूर्णतया पालन नहीं होता परन्तु नियम की सत्यता से इनकार तो नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी इस नियम का उल्लंघन नहीं करते।
    सीमान्थोनानाः – इस काल में गर्भ में पल रहे बच्चे में मुख्य शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं। गर्भवती स्त्री को घर में ही रहना चाहिये ताकि गर्भपात ना हो और गर्भस्थ शिशु का कोई अंग विकृत ना हो क्यों कि इस अवधि में शिशु के अंगों का विकास होता है। इस वैज्ञियानिक तथ्य को भारतीय समाज ने पाश्चात्य वैज्ञियानकों से हजारों वर्ष पूर्व जान लिया था। आज कल इसी संस्कार को गोद भराना और पशचिमी देशों में ‘बेबी शावर’ के नाम से मनाया जाता है।
    जातकर्मः – शिशु के जन्म लेने के पश्चात यह प्रथम संस्कार है। देश काल के रिवाज अनुसार पवित्र वस्तुओं से, जैसे सोने की सलाई के साथ गाय के घी-शहद मिश्रण से, नवजात शिशु की जीभ पर अपने धर्म का कोई शुभ अक्षर जैसे कि ‘ऊँ’ या ‘राम’ आदि, परिवार के विशिष्ट सदस्य दुआरा लिखवाया जाता है। इस भावात्मक संस्कार का लक्ष्य है कि जीवन में शिशु बड़ा हो कर अपनी वाणी से सभी के लिये शुभ वचन बोले जिस की शुरूआत जातकर्मः संस्कार से परिवार के अग्रजों से करवाई जाती है। पाश्चात्य देशों में आज भी डिलवरी रूम में डाक्टर नाल काटने की क्रिया पिता को बुला कर उसी के हाथों से सम्पन्न करवाते हैं।
    नामकरणः – जन्म के गयारवें दिन, या देश काल की प्रथानुसार किसी और दिन अपने सम्बन्धियों और परिचितों की उपस्थिती में नवजात शिशु का नामकर्ण किया जाता है ताकि सभी को शिशु का परिचय मिल जाये। हिन्दू प्रथानुसार नामकरण पिता दुआरा कुल के अनुरूप किया जाता है। अशुभ, भयवाचक या घृणासूचक नाम नहीं रखे जाते। संसार में कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं जहाँ कोई बिना नाम के ही जीवन जीता हो।
    निष्क्रमणः – जन्म के तीन या चार मास बाद शिशु की आँखें तेज़ रौशनी देख सकती हैं। अतः उस समय बच्चे को कक्ष से बाहर ला कर प्रथम बार सूर्य-दर्शन कराया जाता है। दिन में केवल सूर्य ही ऐक ऐसा नक्षत्र है जो हमारे समस्त कार्य क्षेत्र को प्रभावित करता है अतः यह संस्कार बाह्य जगत से शिशु का प्रथम साक्षात्कार करवाता है। अन्य देशों में प्रकृति से प्रथम साक्षात्कार स्थानीय स्थितियों के अनुकूल करवाया जाता है।
    अन्नप्राशनः – जन्म के पाँच मास बाद स्वास्थ की दृष्टि से नवजात को प्रथम बार कुछ ठोस आहार दिया जाता है। इस समय तक उस के दाँत भी निकलने शुरू होते हैं और पाचन शक्ति का विकास होने लगता है। यह बात सर्वमान्य है कि आहार व्यक्ति के कर्मानुसार होना ही स्वास्थकारी है। अतः परिवार के लोग अपने सम्बन्धियों और परिचितों की उपस्थिती में बच्चे को अपनी शैली का भोजन खिला कर यह विदित करते हैं कि नवजात से परिवार की क्या अपेक्षायें हैं। सभी देशों और सभ्यताओं में स्थानीय परिस्थतियों के अनुकूल भोजन से जुड़े अपने अपने नियम हैं, किन्तु संस्कार का मौलिक लक्ष्य ऐक समान है।
    चूड़ाकर्मः – केवल यही संस्कार लिंग भेद पर आधारित है। लेकिन यह लिंगभेद भी विश्व में सर्वमान्य है। जन्म के ऐक से तीन वर्ष बाद लड़कों के बाल पूर्णत्या काटे जाते हैं लड़कियों के नहीं। ज्ञानतंतुओ के केन्द्र पर शिखा (चोटी) रखी जाती है। स्वच्छता रखने के कारण कटे हुये बालों को किसी ना किसी प्रकार से विसर्जित कर दिया जाता है। सभी देशों में लिंग भेद को आधार मान कर स्त्री-पुर्षों के लिये प्रथक प्रथक वेश-भूषा का रिवाज प्राचीन समय से ही चलता रहा है। आजकल लड़के-लड़कियों की वेश-भूषा में देखी जाने वाली समानता के विकृत कारण भी सभी देशों मे ऐक जैसे ही हैं।
    कर्णवेधाः – यह संस्कार छठे, सातवें आठवें या ग्यारवें वर्ष मे किया जाता है। इस का वैज्ञानिक महत्व है। जहां कर्ण छेदन किया जाता है वहां स्मरण शक्ति की सूक्ष्म शिरायें होती हैं एक्यूप्रेशर की इस क्रिया से स्मरण शक्ति बढती है तथा काम भावना का शमन होता है। प्राचीन समय से ही स्त्री-पुरूष अपने अंगों को समान रूप से अलंकृत करते आये हैं। कानों में कुण्डल, गले में माला और उंगलियों में अंगूठियाँ तो अवश्य ही पहनी जातीं थीं। आज भी यह पहनने का रिवाज है जिस के लिये कानों में छेद करने की प्रथा विश्व के सभी देशों में चली आ रही है।
    उपनयनः – छः से आठ वर्ष की आयु होने पर बालक-बालिकाओं को विद्या ग्रहण करने के लिये पाठशाला भेजने का प्राविधान है। आज कल भारत में तथा अन्य देशों में स्थानीय या ‘रेज़िडेंशियल स्कूलों’ में पढ़ने के लिये बालक-बालिकाओं को भेजा जाता है। कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जहाँ शिक्षा की ऐसी व्यवस्था ना हो।
    वेदारम्भः – वैदिक शिक्षा को भारत में उच्च शिक्षा के समान माना गया है। मौलिक शिक्षा के बाद उच्च स्तर के शिक्षा क्रम का विधान आज भी सभी देशों की शिक्षा प्रणाली का मुख्य अंग है। भारत की ही तरह विदेशों में भी उच्च शिक्षा क्षमता और रुचि (एप्टीट्यूड टेस्ट) के आधार पर ही दी जाती है।
    समवर्तनाः – भारत में शिक्षा पूर्ण होने पर दीक्षान्त समारोह का आयोजन गुरू जनो के समक्ष आयोजित होता था। विद्यार्थी गुरू दक्षिणा दे कर शिक्षा का सद्उपयोग करने की गुरू जनों के समक्ष प्रतिज्ञा करते हैं। स्नातकों को परमाण स्वरूप यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता था जो देव ऋण, पित्र ऋण और ऋषि ऋण का प्रतीक है। आज भी सभी यूनिवर्स्टियों में इसी तरह का आयोजन किया जाता है। विश्वविधालयों में स्नातक गाउन पहन कर डिग्री प्राप्त करते हैं तथा निर्धारित शप्थ भी लेते हें। पशचिमी देशों में तो ग्रेज्युएशन समारोह विशेष उल्लास के साथ मनाया जाता है।
    विवाहः – शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात मानव को विवाह दुआरा गृहस्थ जीवन अपनाना होता है क्योंकि सृष्ठी का आधार गृहस्थियों पर ही टिका हुआ है। धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करना, संसाधनों का प्रयोग एवम् उपार्जन करना तथा संतान उत्पति कर के सृष्ठी के क्रम को आगे चलाये रखना मानव जीवन का ऐक मुख्य कर्तव्य है। संसार के सभी सभ्य देशों में आज भी विवाहित जीवन को ही समाज की आधारशिला माना गया है। विश्व भर में वैवाहिक सम्बन्धों की वैध्यता को आधार मान कर ही किसी को जन्म से जायज़ अथवा नाजायज़ संतान कहा जाता है।
    वानप्रस्थः – विश्व में सत्ता परिवर्तन का शुरूआत वानप्रस्थ से ही हुई थी। स्वेच्छा से अपनी अर्जित सम्पदाओं और अधिकारों को त्याग कर अपने उत्तराधिकारी को अपना सर्वस्य सौंप देना ही वानप्रस्थ है। इस को हम आज की भाषा में रिटायरमेंट भी कह सकते हैं। घरेलू जीवन से ले कर सार्वजनिक संस्थानों तक सभी जगहों पर यह क्रिया आज भी मान्य है।
    सन्यासः – सभी इच्छाओं की पूर्ति, ऩिजी कर्तव्यों का पालन, और सभी प्रकार के प्रलोभनो से मुक्ति पाने के बाद ही यह अवस्था प्राप्त होती है परन्तु इस की चाह सभी को रहती है चाहे कोई मुख से स्वीकार करे या नहीं। इस अवस्था को पाने के बाद ही मोक्ष रूपी पूर्ण सन्तुष्टी (टोटल सेटिस्फेक्शन) का मार्ग खुलता
    अन्तेयेष्ठीः – मृत्यु पश्चात शरीर को सभी देशों में सम्मान पूर्वक विदाई देने की प्रथा किसी ना किसी रूप में प्रचिलित है। कहीं चिता जलायी जाती है तो कहीं मैयत दफनायी जाती है। मानव जीवन का यह सोलहवाँ और अंतिम संस्कार है।

विश्व में सभी जगह शरीरिक जीवन के वजूद में आने से पूर्व का प्रथम संस्कार (गर्भाधानः) पिछली पीढी (माता पिता) करती है और शरीरिक जीवन का अन्त हो जाने पश्चात अन्तिम संस्कार अगली पीढी (संतान) करती है और इसी क्रम में सभी जगह मानव जीवन इन्ही घटनाओं के साथ चलता आया है और चलता रहे गा। सभी देशों और धर्मों में गर्भाधान, सीमान्थोनाना, जातकर्म, नामकरण, उपनयन, वेदारम्भ, समवर्तना, विवाह, वानप्रस्थ, अन्तेयेष्ठी जैसे दस संस्कारों का स्थानीय रीतिरिवाजों और नामों के अनुसार  पंजीकरण भी होता है। मनु रचित विधान ही मानव सभ्यता की आधार शिला और मार्ग दर्शन का स्त्रोत्र है जिस के कारण भारत को विश्व की प्राचीनत्म सभ्यता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ।

अंग्रेज़ी भाषा की परिभाषिक शब्दावली पर गर्व करने वाले आधुनिक कानून विशेषज्ञों और मैनेजमेंट गुरूओं को मनु स्मृति से अतिरिक्त प्रेरणा लेने की आज भी ज़रूरत है। मनु महाराज के बनाये नियम श्रम विभाजन, श्रम सम्मान तथा समाज के सभी वर्गों के परस्पर आधारित सम्बन्धों पर विचार कर के बनाये गये हैं। इन संस्कारों के बिना जीवन नीरस और पशु समान हो जाये गा। संस्कारों को समय और साधनों के अनुसार करने का प्रावधान भी मनुस्मृति में है।

यह हिन्दूओं का दुर्भाग्य है कि कुछ राजनेता स्वार्थवश मनुस्मृति पर जातिवाद का दोष मढते है किन्तु सत्यता यह है कि उन्हों ने इस ग्रंथ को पढना तो दूर देखा तक भी नहीं होगा। धर्म निर्पेक्षता की आड में आजकल हमारे विद्यालयों में प्रत्येक विषय की परिभाषिक शब्दावली का मूल स्त्रोत्र यूनानी अथवा पाश्चात्य लेखक ही माने जाते है और हमारी आधुनिक युवा पीढी अपने पूर्वजों को अशिक्षित मान कर शर्म महसूस करती है। हम ने स्वयं ही अपने दुर्भाग्य से समझोता कर लिया है और अपने पूर्वजों के ज्ञान विज्ञान को नकार दिया है। जो लोग मनुसमृति जैसे ग्रंथ को कोसते हैं वह अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करते हुये अपने उन पूर्वजों की बुद्धिमत्ता के प्रति कृतघ्नता व्यक्त करते हैं जिन्हों ने मानव समाज को ऐक परिवार का स्वरूप दिया और पशुता के जीवन से मुक्त कर के सभ्यता का पाठ पढाया।

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