रविवार, 14 दिसंबर 2014

राणा हमीर ने कराया था चित्तौड़ को पुन: स्वतंत्र

राणा हमीर ने कराया था चित्तौड़ को पुन: स्वतंत्र


‘‘अंधकार के पश्चात दिन का आता है प्रकाश,
सुख के पश्चात दुख भी एक दिन करता है अवकाश।
हानि-लाभ यश अपयश का चला हुआ है चक्र,
मोक्षाभिलाषी काट फेंकता द्वंद्वों का मोहपाश।।’’

यह सत्य है कि यह संसार द्वंद्वों से भरा हुआ है। दिन के पश्चात रात है, सुख के पश्चात दुख है। साधारण व्यक्ति जीवन की विषमताओं में फंंसकर ये भूल जाता है कि सवेरा भी होगा और आशा का सूर्य पुन: जीवन को प्रकाश से भर देगा। जबकि संसार समर में योद्घा के रूप में जो लोग संघर्ष करते हैं, वह सदा सकारात्मकता से भरे रहते हैं, और सवेरे के सूर्य को निकलने की न केवल प्रतीक्षा करते हैं, अपितु अपेक्षित साधना भी करते हैं, और हम देखते हैं कि ऐसे लोगों के जीवन में सवेरा होता है, सूर्य अपना प्रकाश फैलाता है दुख के बादल छंटते हैं, और सुख की चिडिय़ा फिर चहचाने लगती है।

चित्तौड़ के लिए 29 अगस्त 1303 ई. का दिन सचमुच दुर्भाग्यशाली था, जब अलाउद्दीन का नियंत्रण इस राज्य पर स्थापित हुआ था। इस दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तित करने के लिए राणा भीमसिंह का पुत्र अजयसिंह ही एक मात्र आशा की किरण था। अजय सिंह युद्घ के पश्चात से कैलवाड़ा के पहाड़ी क्षेत्र में रहकर अपना समय व्यतीत कर रहा था। वह संकट में था और कुछ भी उसके पास नही था, परंतु पूर्वजों के सम्मान को पुन: स्थापित कराने के लिए उसके पास चिंताओं का ढेर अवश्य था। उसके पास महाराणा प्रताप की भांति कोई भामाशाह भी नही था, परंतु उसका आत्मबल अवश्य था जो उसे जीवित रख रहा था और सवेरा होने का विश्वास दिलाता था।

अजय सिंह का एक अन्य भाई अरिसिंह था, जिसका हमने पूर्व में उल्लेख किया था। वह युद्घ में वीरगति को प्राप्त कर गया था। राणा भीमसिंह ने अपने जीवन काल में अजय सिंह से कह दिया कि तुम्हारे पश्चात चित्तौड़ के राज्य सिंहासन का उत्तराधिकारी अरिसिंह का पुत्र होगा। परंतु अजय सिंह को अब यह भी पता नही था कि अरिसिंह का पुत्र है कहां?

कर्नल टॉड हमें बताते हैं..

इस अरिसिंह के विषय में बड़ी रोचक जानकारी हमें कर्नल टॉड के ‘राजस्थान का इतिहास’, भाग-1 नामक ग्रंथ से मिलती है, जिसे यहां प्रसंगवश स्पष्ट वर्णित करना आवश्यक है। क्योंकि वह कहानी हमारी इस श्रंखला को और भी अधिक प्रामाणिकता प्रदान करेगी। कर्नल टॉड कहते हैं कि एक बार राणा भीमसिंह का बड़ा लडक़ा अरिसिंह अपने कुछ सरदारों के साथ अन्दवा नामक जंगल में शिकार खेलने गया। जंगल में जाकर एक जंगी सुअर को अरिसिंह ने अपने बाण से मारना चाहा। परंतु संयोग की बात थी कि वह बाण उस सुअर को नही लगा और वह अपनी प्राणरक्षा के लिए भागकर एक ज्वार के खेत में जा छिपा। अरिसिंह और उनके साथियों को ज्वार केे खेत में काम कर रही एक युवती भी देख रही थी। उस युवती ने बड़ी विनम्रता से अपने मचान से ही अरिसिंह और उनके साथियों से कहा कि आप थोड़ा रूकें, मैं आपका शिकार आपको लाकर देती हूं….

यह कहकर वह युवती अपने मचान से उतरी और उसने ज्वार का एक पेड़ उखाडक़र उसे नुकीला बनाया और अपने मचान पर चढक़र उसने अपने धनुष में चढ़ाकर छिपे हुए सुअर को मारा, जिससे वह मर गया। तब युवती अपने मचान से पुन: उतरी और उसे घसीटकर अरिसिंह के पास लाकर पटक दिया। तत्पश्चात वह अपने मचान पर पुन: चली गयी। ऐसी थीं हमारी वीरांगनाएं

ऐसी थीं हमारे देश की नारियां जिनके पौरूष के समक्ष पौरूष वाले भी आश्चर्य चकित खड़े रह जाते थे। अरिसिंह और उनके साथियों ने सारा दृश्य विस्फारित नेत्रों से देखा और कुछ कह नही सके।

कहानी यहीं समाप्त नही होती है। कहानी का रोमांच उस समय और बढ़ जाता है, जब वही युवती मिट्टी के एक ढेले से अरिसिंह के घोड़े को गिरा देती है। हुआ यह कि अरिसिंह और उसके साथियों ने युवती के खेत से आगे बढक़र एक नदी के किनारे बैठकर अपने खाने की सामग्री तैयार की। अरिसिंह ने कुछ दूरी पर ही अपना घोड़ा बांध दिया था। तभी अचानक एक मिट्टी का ढेला उस युवती के खेत की ओर से आया और अरसिंह के घोड़े को जा लगा। जिसे लगते ही वह घोड़ा अचेत होकर गिर गया। अरिसिंह और उनके साथियों ने उस युवती के खेत की ओर देखा था तो वह ढेले फेंक-फेंककर पक्षियों को उड़ा रही थी। सभी समझ गये कि उस युवती के ढेले से ही अरिसिंह के घोड़े को चोट लगी है। युवती को जब अनुभूति हुई कि उससे कहीं कोई चूक हो गयी है तो वह पुन: उन लोगों के पास आयी और बड़ी निर्भीकता व सभ्यता से उससे बातें करके वस्तुस्थिति को समझा और अपनी बात कहकर वह पुन: चली गयी।

राणा मोहित हो उठा

अरिसिंह अपने साथियों के साथ चित्तौड़ चला आया, परंतु उस वीरांगना की वीरता और विनम्रता ने उसे ऐसा मोहित किया कि एक दिन वह उस युवती के घर जाकर उसके पिता से उसका हाथ मांग ही बैठा। युवती के पिता ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।  परंतु उस युवती की माता के हस्तक्षेप से युवती का पिता अपनी पुत्री का हाथ अरिसिंह को देने को उद्यत हो गया। इस युवती से अरिसिंह का विवाह हुआ, जिससे हमीर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। यह हमीर जब बचपन में था तो उसके लक्षणों को राणा भीमसिंह पहचानते थे। कदाचित उसकी माता के संस्कारों को उन्होंने इस बालक में देखा होगा और इसलिए उन्होंने अपने प्रिय पुत्र अजय सिंह से कह दिया होगा कि तुम्हारे पश्चात चित्तौड़ का उत्तराधिकारी अरिसिंह का लडक़ा होगा।

अजय सिंह इसी हमीर की खोज में थे-परंतु वह उन्हें मिल नही रहा था।

अजय सिंह भी संकट में फंस गया

जब दुर्दिन आते हैं तो संकटों को लेकर आते हैं। अजय सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह पर्वतों पर अपना समय व्यतीत कर रहा था। कैलवाड़ा अरावली पर्वत पर बसा हुआ एक नगर है। इस कैलवाड़ा के सरदारों में मुंजाबलैचा नामक एक सरदार से अजय सिंह की ठन गयी। मुंजाबलैचा अजय सिंह को मारने की योजना बनाने लगा। अब तो राणा को और भी अधिक चिंता होने लगी। उसे अपने लोगों के सहयोग की उस समय अत्यधिक आवश्यकता थी, परंतु कहीं दूर दूर तक भी तब कोई अपना साथी दिखाई नही दे रहा था। उसके अपने पुत्र अजीमसिंह की अवस्था 16 वर्ष की तथा छोटे पुत्र सुजान सिंह की अवस्था 15 वर्ष की थी। परंतु इन दोनों भाइयों ने भी अपने पिता का सहयोग देने में असमर्थता व्यक्त की। तब अजय सिंह ने भाई अरिसिंह के पुत्र हमीर की मन लगाकर खोज की। अंत में उसे हमीर मिल ही गया। तब उसने हमीर  से मुंजाबलैचा को समाप्त कराने का प्रस्ताव रखा। माता के गुणों ने प्रभाव दिखाया और हमीर ने चाचा के प्रस्ताव को आज्ञा मानकर स्वीकार कर लिया। वह मुंजाबलैचा पर आक्रमण करने चल दिया। वीर माता केे वीर सुपुत्र ने मुंजाबलैचा को युद्घ में परास्त कर उसका प्राणांत कर दिया और उसके सिर को अपने भाले की नोंक पर लेकर वह अजय सिंह के पास आ गया।

अजय सिंह ने कर दिया राजतिलक

अजय सिंह को अपने शत्रु का अंत देखकर बड़ी ही आत्मिक प्रसन्नता हुई। तब उसे समझ आया कि पिता ने उसके (अजय सिंह के)पश्चात हमीर को चित्तौड़ का उत्तराधिकारी बनाने का आदेश क्यों दिया था? आज की प्रसन्न्ता की इस घड़ी में अजय सिंह ने पिता की इच्छा का पावन स्मरण किया और हमीर को चित्तौड़ का उत्तराधिकारी बनाने के दृष्टिकोण से उसका राजतिलक अपने शत्रु के सिर से टपकते  रक्त की बूंदों से ही कर दिया। कुछ ही क्षणों में बिना किसी भव्य आयोजन के या किसी समारोह के चित्तौड़ का उत्तराधिकारी नियुक्त हो गया। मनुष्यों पर कैसे-कैसे कठिनाओं से भरे समय आये हैं, और उनमें भी उन्होंने बड़े कार्य किये हैं। छोटे लोग कठिनता के दौर में वाणी और व्यवहार से अपनों से दूरी बनाते हैं, और बड़े लोग ऐसे काल में दूरियों को पाटते हैं। अजय सिंह ने दूरियों को पाट दिया और पिता की इच्छा का सम्मान कर चित्तौड़ के साथ न्याय भी कर दिया।

पुत्र हो गये असंतुष्ट

जब अजय सिंह इस महत्वपूर्ण कार्य को कर रहे थे तो उनके दोनों पुत्र भी इसे देख रहे थे। उन्हें अपने पिता का ये कृत्य अच्छा नही लगा। कहते हैं कि अजय सिंह की तो कुछ काल पश्चात मृत्यु हो गयी, परंतु सुजान सिंह रूष्ट होकर दक्षिण की ओर चला गया। कर्नल टॉड कहते हैं कि वहां उसने एक नये वंश की स्थापना की। शिवाजी महाराज इसी वंश में उत्पन्न हुए थे।

कारण कुछ भी रहे, परंतु अजय सिंह ने हमीर को शासन देकर चित्तौड़ के स्वतंत्रता संघर्ष को बल प्रदान कर दिया। तब उसे भी ज्ञात नही होगा कि यदि चित्तौड़ को हमीर प्राप्त करेगा तो भारत को स्वतंत्र कराने के लिए सुजान सिंह के उत्तराधिकारी भी  महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। काल हमारी भूमिका निर्धारित किया करता है, और काल ही भूमिकाओं का हरण भी कर लेता है, काल ही हमें नचाता है और काल ही हमारा नाच बंद भी करा देता है। इसलिए ‘वक्त की हर शै गुलाम’ वाली बात कही जाती है। अजय सिंह से काल ने उसकी भूमिका छीन ली और नई भूमिकाओं के नये पात्र गढक़र भारतमाता को प्रदान कर दिये। सुजान सिंह की वंश  परंपरा में आगे चलकर शिवाजी के होने की पुष्टि में लाला लाजपतराय ने अपनी पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ में लिखा है कि-पितृपक्ष से वह उस पवित्र वंश में उत्पन्न हुए थे, जिसमें बड़े-बड़े शूरवीर उत्पन्न हुए थे जो वंश बहुत समय तक स्वतंत्र रहा। जिसकी संतान अपनी जाति और देश के लिए अनेकबार लड़ी और जिसने बहुत सी कठिनाईयों को झेलते हुए भी मुसलमानों से संबंध नही किया, जो आज तक अपनी इस पवित्रता के कारण समस्त राजपूतों में शिरोमणि है, हमारा यह संकेत उदयपुर के राणा वंश से है।

मिस्टर जस्टिस रानाडे ने अपने ‘मरहठा इतिहास’ में भी इसी मत की पुष्टि की है। जबकि मुसलमानी इतिहास लेखक खफी खां भी यही लिखता है कि शिवाजी उदयपुर के राजवंश से थे।

हमीर ने चित्तौड़ लेने के लिए आरंभ की तैयारियां

अपने चाचा अरिसिंह के द्वारा चित्तौड़ का उत्तराधिकार मिलने के पश्चात हमीर को चित्तौड़ लेने की चिंता और भी प्रबलता से सताने लगी। चित्तौड़ का वैभव और गौरव उससे प्रश्न पूछते थे और वह उन दोनों से बात करते-करते अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अत्यंत व्यग्र हो उठता था। इसलिए वह उस योजना की खोज में लग गया जिससे यथाशीघ्र चित्तौड़ को उसकी स्वतंत्रता दिलाई जाए। हमीर जानता था कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का कार्य भार जिस मालदेव नामक व्यक्ति को दिया है, वह कितनी बड़ी सुल्तानी सेना के साथ चित्तौड़ में रहता है, और यह भी कि उसके विनाश के लिए उसे कितने बड़े  स्तर पर संघर्ष करना होगा। परंतु उसके सामने बड़ी समस्या थी-धन शक्ति और सैन्यशक्ति का अभाव। इसके लिए हमीर ने छोटे -छोटे दुर्गों को जीतना आरंभ किया और इस प्रकार मिट्टी में मिले हुए अपने राज्य को ढूंढ़ निकालने की योजना को कार्य रूप देना आरंभ किया। कहते हैं कि उसने अपने राज्य मेवाड़ में भी यह घोषणा करा दी थी कि जो लोग हमीर को अपना राजा मानते हैं, वे अरावली पर्वत के पश्चिमी भाग पर आ जाएं। यदि कोई नही आएगा तो उसे शत्रु माना जाएगा।

लोगों ने घोषणा का किया स्वागत

इस घटना का स्वतंत्रता प्रेमी जनता पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। अधिकांश लोग अपने घर बार छोडक़र पर्वत पर आ गये। जिससे मेवाड़ के नगर ग्रामों में सन्नाटा पसर गया। अब हमीर ने एक ओर से उन सुनसान नगर ग्रामों को उजाडऩा आरंभ किया, जो भी शत्रु पक्ष का व्यक्ति आता उसी को समाप्त कर दिया जाता था।

….और दिल्ली हिल उठी

हमीर की योजना को चमत्कारिक सफलता मिलती जा रही थी, जिससे दिल्ली का सिंहासन भी हिलने लगा। फलस्वरूप दिल्ली से सेना की सहायता मालदेव के लिए भेजी गयी, परंतु हमीर की योजना के सामने दिल्ली की शाही सेना की कुछ न चली और उसे हिंदूवीर हमीर के द्वारा पराजित किया जाने लगा। लोगों का अपनी स्वतंत्रता के प्रति उत्साह देखते ही बनता था, सबका लक्ष्य एक था-प्राण चाहे भी चले जाएं पर मां भारती की स्वतंत्रता न जानी चाहिए। इसलिए अपने उत्साही और साहसी शासक हमीर के साथ मेवाड़ का बच्चा-बच्चा लग गया। सारी प्रजा ही सेना बन गयी। जिससे हमीर का मार्ग सरल हो गया, उसे देशभक्तों की विशाल सेना जो मिल गयी थी।  कर्नल टॉड कहते हैं कि- ‘‘हमीर की योजना के फलस्वरूप जो भूमि हरे- भरे खेतों से शोभायमान रहा करती थी, वह जंगलों के रूप में परिवर्तित हो गयी। समस्त रास्ते अरक्षित हो गये और वाणिज्य व्यवसाय के स्थान सूने मैदानों के रूप में दिखाई देने लगे।’’

कैलवाड़ा को ही बना लिया  निवास स्थान

हमीर ने अपना निवास स्थान कैलवाड़ा को ही बना लिया था। उसने इस स्थान का दुर्गीकरण किया, जिससे कि शत्रु की सेना यहां तक न पहुंच सकेे, मेवाड़ की अधिकांश जनता भी इसी स्थान पर आकर रहने लगी थी। इसलिए प्रजा की सुविधा के लिए हमीर ने यहां एक विशाल तालाब का निर्माण भी कराया। यह स्थान (कैलवाड़ा) पृथ्वी तल से 800 तथा समुद्री तल से 2000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। राज्य के  लोगों ने मेवाड़ के प्रति सदा से अपनी  भक्ति का प्रदर्शन किया है। उन्हें सुल्तान ने चित्तौड़ विजय के पश्चात इन वीर लोगों  को अपने कोप का भाजन भी बनाया था। अत: अब ये भील भी अपने शासक हमीर के साथ आ मिले।

मालदेव ने चली नई चाल

इसी समय जब हमीर मालदेव पर भारी पड़ रहा था और उसे अपने नियंत्रण में रखने का कोई उपाय मालदेव को नही सूझ रहा था, तो उसने नई चाल चली  और अपनी विवाह योग्य पुत्री का विवाह हमीर के साथ करने का प्रस्ताव हमीर के पास पहुंचवा दिया। राणा के मंत्रियों ने इस प्रस्ताव पर संदेह किया और इसे अस्वीकार करने का परामर्श हमीर को दिया। परंतु हमीर ने उनके परामर्श को मानकर मालदेव के उस प्रस्ताव को स्वीकार करना ही उचित समझा। उसने अपने मंत्रियों को समझाते हुए कहा कि मैं भी इस बात को समझता हूं कि राजा मालदेव के साथ मेरे संबंध अच्छे नही हैं। वह हमारे शत्रु बादशाह अलाउद्दीन  की ओर से हमारे पूर्वजों के राज्य चित्तौड़ पर शासन कर रहा है। इस दशा में हमारा और मालदेव का एकहोना अथवा संबंधी होना कैसे संभव हो सकता है? इसलिए सहज ही इस बात को समझा जा सकता है, कि राजा मालदेव ने मेरे विरूद्घ विद्रोह के लिए किसी प्रकार का षडय़ंत्र रचा होगा। परंतु उससे सबको घबराने और चिंता करने की आवश्यकता नही है। कभी-कभी भयानक विपदाओं में उज्ज्वल भविष्य का संदेश छिपा होता है। मालदेव का कुछ भी अभिप्राय हो, हमें उससे घबराने की आवश्यकता नही है। घबराना निर्बलों का काम है। कठिनाइयों का स्वागत करना और हंस हंसकर विपदाओं का सामना करना शूरवीरों का कार्य होता है, महान सफलताओं की प्राप्ति भीषण कठिनाईयों को पार करने के पश्चात होती है। इस सत्य के आधार पर राजा मालदेव के प्रस्ताव को स्वीकार करना ही उचित है।

अपने ही महल में वर बनकर हमीर

हमीर को अपने पूर्वजों की राजधानी चित्तौड़ के दर्शन करने की शीघ्रता थी, क्योंकि उसने कभी अब से पूर्व चित्तौड़  के दर्शन नही किये थे। उसके द्वारा विवाह प्रस्ताव को स्वीकृति मिलने पर मालदेव ने विवाह की तिथि निश्चित करा दी, निश्चित तिथि को हमीर वरयात्रा के साथ चित्तौड़ पहुंचे। यह अदभुत संयोग था कि जिस राज प्रासाद से हमीर की वरयात्रा निकलनी चाहिए थी, उसी में वर बनकर आना पड़ रहा था। संभवत: इतिहास की यह पहली घटना थी। जिसका मुख्य पात्र हमीर बन रहा था।

हमीर नेे चित्तौड़ पहुंचकर उसे गंभीरता से देखा। उसे कहीं कोई विवाह की तैयारियां दिखाई नही दीं। उसकी वरयात्रा का स्वागत करने के लिए मालदेव ने अपने पांच पुत्रों के भेजा और वे वरयात्रा को लेकर राजप्रासाद आ गये। वहां भी कोई तैयारी नही थी। तब उसकी शंकाएं बढऩे लगी। मालदेव ने यहां अपने पुत्र बनवीर के साथ हमीर का स्वागत किया और उसे विवाह मंडप नही था। मालदेव ने अपनी पुत्री को बुलाया और हमीर के सामने खड़ा कर दिया। हमीर ने लडक़ी का हाथ पकड़ा, दोनों की गांठ बांधी गयी और विवाह कार्य संपन्न हो गया। तब लडक़ी और हमीर को परंपरा के अनुसार एकांत में भेज दिया गया।

वास्तविकता तब ज्ञान हुआ

एकांत में मालदेव की पुत्री ने हमीर को बताया कि वह एक विधवा है, परंतु इतनी बाल अवस्था में विधवा हो गयी थी कि उसे अपने विवाह का और पति का स्मरण तक भी नही है। हमीर अब सच को समझ चुका था, परंतु उसने भी समझदारी के साथ लडक़ी से कह दिया कि उसका प्रयोजन चित्तौड़ को लेना है। लडक़ी ने सजल नेत्रों से उस कार्य में सहयोग का आश्वासन दिया। इस प्रकार एक षडय़ंत्र को भी अपने अनुकूल बनाकर हमीर ने मालदेव से विदा मांगी। मालदेव की पुत्री के कहे अनुसार हमीर ने दहेज में जलंधर नामक सरदार को मांग लिया। मालदेव ने इसे स्वीकार किया और हमीर अपनी पत्नी सहित कैलवाड़ा लौट आया।

रानी ने दिया पुत्र रत्न को जन्म

इस रानी से कुछ समय पश्चात हमीर के घर में एक लडक़ा ने जन्म लिया। जिसका नाम क्षेत्रसिंह रखा गया। मालदेव ने भी इस नाती की प्रसन्नता में अपने जामाता हमीर को अपने राज्य का संपूर्ण पहाड़ी क्षेत्र प्रदान कर दिया। हमीर और भी शक्तिशाली हो गया। कुछ काल पश्चात रानी अपने पुत्र सहित चित्तौड़ गयी।

हमीर ने प्राप्त की चित्तौड़

जहां जाकर उसने देखा कि मालदेव उस समय मादरिया के भील लोगों का दमन करने गया हुआ था, और चित्तौड़ में नही था। रानी ने हमीर के पास सूचना भिजवा दी कि अब अवसर है, शीघ्रता करो। रानी के संदेश को पाकर हमीर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। थोड़े से विरोध के साथ हमीर ने अपने पूर्वजों के गौरव को प्राप्त कर लिया। इसी को कहते हैं, कि ‘जहां चाह वहां रहा’। धैर्य, विवेक और साहस ने हमीर का मार्ग सरल कर दिया और वह अपने पूर्वजों के सिंहासन पर जा बैठा। उसने हृदय से प्रभु का धन्यवाद किया और अपने पूर्वजों को विनम्र श्रद्घांजलि भी प्रदान की।

मालदेव भाग गया दिल्ली की ओर

जब मालदेव चित्तौड़ लौटा तो उस समय तक उसके सभी सरदार राणा हमीर के साथ मिल चुके थे। वस्तुस्थिति को समझकर वह दिल्ली की ओर भागा, तब तक अलाउद्दीन संसार से चला गया था, और मौहम्मद खिलजी दिल्ली पर शासन कर रहा था। वह अपनी सेना के साथ चित्तौड़ की ओर चला। राणा हमीर ने भी उस समय तक अपनी पूरी तैयारी कर ली थी। दोनों ओर से भीषण संग्राम हुआ। धरती शवों से पट गयी, मालदेव का लडक़ा हरिसिंह भी युद्घ में मारा गया। राणा के बांकुरों ने पुन: चमत्कार कर दिखाया और मौहम्मद खिलजी की सेना को भागने पर विवश कर दिया।

बादशाह को रखा तीन माह जेल में

इससे पूर्व राणा की सेना ने खिलजी को कैद कर लिया, जिसे राणा ने अपनी जेल में डाल दिया। अपने पूर्वजों के अपमान का उचित प्रतिशोध लेने का उसके लिए यह उत्तम अवसर था। बादशाह खिलजी तीन माह तक राणा की जेल में बंद रहा और अपने भाग्य को कोसता रहा। तीन माह पश्चात उससे अजमेर रणथम्भौर, नागौर शुआ और शिवपुर को मुक्त कराके उन्हें अपने लिए प्राप्त कर और एक सौ हाथी व पचास लाख रूपये लेकर जेल से छोड़ दिया। हिन्दू वीरता के समक्ष अपमानित होकर बादशाह लज्जित भाव से आकर दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया। यदि हिंदू गौरव के प्रतीक हमीर को उस समय अन्य नरेशों का सहयोग मिल गया होता तो तीन माह जिस प्रकार दिल्ली लावारिस रही थी, उसमें दिल्ली पर पुन: हिन्दुओं का नियंत्रण और अधिकार हो सकता था। राणा ने मालदेव के लडक़े बनवीर को नीमच, जीरण, रतनपुर, और केवारा का क्षेत्र दे दिया और कह दिया कि इससे अपने परिवार का पालन पोषण करो। इससे बनवीर राणा का भक्त बन गया। राणा ने अपने जीवन काल में मारवाड़ जयपुर, बूंदी, ग्वालियर, चंदेरी  रायसीन, सीकरी, कालपी तथा आबू के राजाओं को भी अपने अधीन कर पुन: एक शक्तिशाली मेवाड़ की स्थापना की।

इसे कहते हैं गौरव।

हमारे देश का कानून अंग्रेजों के कानून की नकल मात्र

हमारे देश का कानून अंग्रेजों के कानून की नकल मात्र


किसी भी पार्टी को जिताना मतलब उसे 5 साल के लिए मनमानी और भ्रष्टाचार फैलाने का लाइसेंस देना मात्र है

काले ( चमड़ी और मन दोनों) अंग्रेजों  द्वारा जनता में यह भ्रम प्रसारित किया गया कि  हमारा अपना संविधान  लागू   हो  गया है जबकि वर्तमान संविधान के मौलिक प्रावधान भारत सरकार अधिनियम 1935  की 95प्रतिशत  नकल मात्र हैं | अंग्रेजों  द्वारा बनाए गए कानून जनता पर थोपे गए एक तरफा अनुबंध थे  और  उन पर जनता की कोई सहमति नहीं थी | आज भी जो कानून बनाए जा रहे हैं वे भी इस देश में रहने की शर्त हैं और उनमें भी जनता की कोई सहमति  नहीं है | कानून इतने दुरूह  बनाए जाते हैं कि  उन्हें समझना और उनकी अनुपालना जनता के लिए कठिन ही  नहीं   बल्कि लगभग असंभव है |इसलिए जनता को किसी  भी अधिकारी द्वारा इस मकडजाल में फंसाया जा सकता है  और शोषण किया जा  सकता है | अधिकारियों को तो कोई शक्ति नहीं दी  जाए तो भी वे झूठ  मूठ की शक्तियां अर्जित कर लेंगे, फंसाते  रहेंगे और माल बनाते रहेंगे | पुलिस  को  किसी भी कानून में यातना देने की  शक्ति नहीं है फिर भी वह सब कुछ करती है|  कुछ  दुर्बुद्धि लोग कहते हैं कि अपराधियों  को तो यातना दी   जा सकती है |यदि अपराधी के दोष और दंड का निर्धारण पुलिस की शक्तियों में ही है तो फिर न्यायालयों की क्या आवश्यकता है |

किसी भी को कार्य करने के लिए कोई कारण होना आवश्यक है |बिना प्रेरणा के कोई कार्य नहीं होता यह कानून की भी धारणा है|  सरकारी अधिकारी, पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का  मानना है कि वेतन तो वे पद का लेते हैं, जनता को काम करवाना है तो पैसे देने पड़ेंगे | और तरक्की तो अपने बड़े अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों  को खुश करने, सेवा करने मात्र से मिलती है, कर्तव्य पालन से नहीं | इनके लिए कोई आचार संहिता भी नहीं है | इन्हें दण्डित करने के लिए कोई मंच भी  देश में नहीं है|  सेवा से हटाने के विरूद्ध उन्हें संविधान का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है और न्यायालय से दण्डित होने पूर्व उन्हें दंड प्रक्रिया संहिता की धरा 197 का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है| फिर भला कोई सरकारी अधिकारी कर्मचारी जनता का कोई काम क्यों करे ? कर्मचारियों और नेताओं  को यह पता है कि  उनका कुछ भी नहीं बिगड़ने वाला है वे चाहे जो मर्जी करें  अन्यथा  वे बिजली के नंगे  तार  को  हाथ लगाने का दुस्साहस क्यों नहीं करते |जिस प्रकार अंग्रेजों  से सत्ता हथियाने के लिए आन्दोलन चले और गांधीजी को बिडला जैसे परिवारों ने धन दिया ठीक उसी प्रकार आज विपक्षी से सत्ता हथियाने के लिए सब हथकंडे अपनाते हैं | व्यवस्था  परिवर्तन में किसी  की कोई रूचि नहीं है | देश सेवा करने के नाम नेता सत्ता पर काबिज होते हैं और मेवा प्राप्त करने का उद्देश्य छिपा रहता है |भारतीय राजनीति सेवा नहीं अपितु मेवा प्रति का एक अच्छा  साधन है | देश में 70प्रतिशत  लोग कमजोर और गरीब हैं  और देश के राजनेताओं से  एक ही यक्ष प्रश्न है कि  उन्होंने  उनकी सुरक्षा , न्याय और सहायता के लिए कौनसा टिकाऊ काम 67 साल में किया है |

जिस प्रकार पौधों  को पानी तो नीचे जड़ों से प्राप्त होता है किन्तु पोषण ऊपर पतियों से प्राप्त होता है वैसे ही भ्रष्टाचार का पोषण और संरक्षण ऊपर से मिलता है |निचले  स्तर पर यदि कोई अधिकारी ईमानदार है और अनुचित काम के लिए मना भी  करदे तो वही काम रिश्वत लेकर ऊपर  से मंजूर हो जाएगा|  इस व्यवस्था में ऊपर वालों को वैसे भी प्रसन्न  रखना जरुरी है | अत: यदि निचले स्तर पर कोई अधिकारी किसी  अनुचित काम के लिए मना करे दे तो नाराजगी झेलनी पड़ेगी और जो कमाई होनी थी वह उससे भी वंचित हो गया   फिर भी वह अनुचित काम को रोक नहीं पाया |इसलिए इन परिस्थितियों में निचले अधिकारी भी रिश्वत लेना ही श्रेयस्कर समझते हैं |

सरकारों द्वारा स्थापित शिकायत समाधान प्रणालियाँ भी जनता को बनाने के लिए  एक दिखावा और छलावा मात्र हैं| किसी  नागरिक के संवैधानिक अधिकारों  के हनन पर रिट याचिका दायर करने का प्रावधान है और सभी कार्यपालक , न्यायाधीश तथा जन प्रतिनिधि  संविधान और कानून  की पालना की शपथ लेते हैं| आज हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चल रहे 75प्रतिशत  मामलों में सरकारें पक्षकार हैं  जहां नागरिकों के अधिकारों का सरकारों ने अतिक्रमण किया है | यदि इन शपथ पत्रों का कोई अर्थ है तो फिर ये याचिकाएं क्यों दर्ज होती हैं |और इन शपथ पत्रों को भंग करने  वालों के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही क्यों नहीं ? यदि सरकारें प्रतिबद्ध  हों तो इन  विवादों को टाला जा सकता है |

शांति सुरक्षा और न्याय उनके एजेंडे में कहीं  नहीं है जबकि यह सरकार का मौलिक कर्तव्य है | अतिवादी, उग्रवादी गतिविधियाँ सुरक्षा की  नहीं अपितु सामाजिक और धन के असमान  वितरण की समस्याएं हैं जिनका हथियारों के दम  पर आजतक समाधान नहीं हो पाया है | ये सब गतिविधियाँ भी राजनीति और पुलिस के संरक्षण में ही संचालित हैं  अन्यथा उन क्षेत्रों में व्यापार व  परिवहन  आदि बंद क्यों  नहीं होता | भ्रष्टाचार या अन्य अनाचार  से व्यापारी को कभी कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि जैसा कि  सोमपाल के मामले में न्यायाधिपति  कृष्णा इय्येर ने कहा है कि  वह इन सब खर्चों को वस्तु या सेवा की  लागत में जोड़ लेता है और उसका अंतिम परिणाम जनता को भुगतना पड़ता है |व्यापार  बेईमानी  का सभ्य नाम  है और यदि बेईमान को दण्डित  करना शुरू कर दिया जाये तो सबसे ज्यादा प्रभाव व्यापार  पर पड़ेगा| धन   कमाना ही व्यापारी  का एक   मात्र धर्म  है | व्यापार में समय ही धन है अत: सरकारी मशीनरी काम में विलंब  करती रहती है फलत रिश्वत मात्र अनुचित  काम के लिए नहीं अपितु सही काम को जल्द करवाने के लिए भी दी  जाती है |

वैसे पार्टी और विचाराधारा का आवरण तो जनता को बनाने के लिए है| आज भी114 भूतपूर्व कांग्रेसी सांसद अन्य दलों से चुन कर आये हैं और जो हिंदुत्व का दम भरते हैं वे अवैसी जैसे लोगों से हाथ मिला लेते हैं जो कल तक कहते थे कि 15 मिनट के लिए पुलिस हटालें तो हम 100 करोड़ हिन्दुओं का सफाया कर देंगे|  हमारे राजनेता  तो तीर्थ यात्री हैं जो समय  समय पर अलग अलग घाटों  पर स्नान  करते हैं|  जब उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े  राज्य में बहुमत   के आधार पर शासन करने वाली बसपा एक भी सांसद चुनकर संसद में नहीं भेज सके  तो लोकतंत्र  और विचारधारा तो एक मजाक से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता | 5 साल राज करने के लिए लोग कुछ दिन  वोटों की भीख मांगते हैं और बाद में उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं | विधायिकाओं की कार्यवाहियां लगभग पूर्व नियोजित और फिक्स्ड  होती हैं | जिस  प्रकार फिल्म की शूटिंग  के दौरान नायक और नायिका मात्र होठ हिलाते हैं गाने और डायलाग तो पहले से रिकार्डेड होते हैं ठीक उसी प्रकार पक्ष और विपक्ष पहले मिलकर कार्यवाही की रूप रेखा  तय कर लेते हैं |

वोट किसी  को देदो क्या फर्क पढ़ना है |यह राजनीति है एक बार इस ओर  से  और फिर उस ओर से रोटियाँ दोनों की सिक जायेंगी |एक सांपनाथ दूसरा नागनाथ | वैसे भी सांप का जहर 12 वर्ष तक असर रखता है |जब तक यह अंग्रेजों से विरासत में मिली व्यवस्था जारी है  -जनता के सर पर तलवार लटकती  रहेगी , पीठ पर पुलिस के डंडे और पेट पर भ्रष्टाचार और महंगाई की मार पडती रहेगी ….किसी भी पार्टी को जिताना मतलब उसे 5 साल के लिए मनमानी और भ्रष्टाचार फैलाने का लाइसेंस देना मात्र है |

इस्लामी बंदगी दरिंदगी और गंदगी !

इस्लामी बंदगी दरिंदगी और गंदगी !


जगत में जितने भी जीवधारी हैं ,सबको अपनी जान प्यारी होती है .और सब अपने बच्चों का पालन करते हैं .इसमे किसी को कोई शंका नहीं होना चाहिए .परन्तु अनेकों देश के लोग इन निरीह और मूक प्राणियों को मार कर उनके शरीर के अंगों या मांस को खाते हैं.ऐसे लोग इन प्राणियों को मार कर खाने के पक्ष में कई तर्क और फायदे बताते हैं .सब जानते हैं कि बिना किसी प्राणी को मारे बिना उसका मास खाना असंभव है ,फिर भी ऐसे लोग खुद को “शरीर भक्षी (Carnivorous ) कि जगह (Non vegetarian ) कहकर खुद को सही ठहराते हैं .कुछ लोग शौक के लिए और कुछ देखादेखी भी आमिष भोजन करते हैं .लेकिन इस्लाम ने मांसभक्षण को और जानवरों की क़ुरबानी को एक धार्मिक और अनिवार्य कृत्य बना दिया है . और क़ुरबानी को अल्लाह की इबादत का हिस्सा बताकर सार्वजनिक रूप से मानाने वाला त्यौहार बना दिया है .क़ुरबानी ,क्या है , इसका उद्देश्य क्या है ,और मांसाहार से इन्सान स्वभाव में क्या प्रभाव पड़ता है ,यह इस लेख में कुरान और हदीस के हवालों दिया जा रहा है .साथ में कुछ विडियो लिंक भी दिए हैं .देखिये

1-कुरबानी का अर्थ और मकसद

अरबी शब्दकोश के अनुसार “क़ुरबानी قرباني” शब्द मूल यह तीन अक्षर है 1 .قकाफ 2 .رरे 3 और  ب बे = क र बق ر ب .इसका अर्थ निकट होना है .तात्पर्य ऐसे काम जिस से अल्लाह की समीपता प्राप्त हो . हिंदी में इसका समानार्थी शब्द ” उपासना” है .उप = पास ,आस =निकट .लेकिन अरबी में जानवरों को मारने के लिए “उजुहाالاضحي ” शब्द है जिसका अर्थ “slaughter ” होता है .इसमे किसी प्रकार की कोई आध्यात्मिकता नजर नहीं दिखती है .बल्कि क्रूरता , हिंसा ,और निर्दयता साफ प्रकट होती है .जानवरों को बेरहमी से कटते और तड़प कर मरते देखकर दिल काँप उठता है और यही अल्लाह चाहता है , कुरान में कहा है ,

“और उनके दिल उस समय काँप उठते हैं , और वह अल्लाह को याद करने लगते हैं ” सूरा -अल हज्ज 22 :35

2-क़ुरबानी की विधियाँ

यद्यपि कुरान में जानवरों की क़ुरबानी करने के बारे में विस्तार से नहीं बताया है और सिर्फ यही लिखा है ,

“प्रत्येक गिरोह के लिए हमने क़ुरबानी का तरीका ठहरा दिया है , ताकि वह अपने जानवर अल्लाह के नाम पर कुर्बान कर दें ”

सूरा -हज्ज 22 :34

लेकिन सुन्नी इमाम ” मालिक इब्न अबी अमीर अल अस्वही” यानि मालिक बिन अनस مالك بن انس “(711 – 795 ई० ) नेअपनी प्रसिद्ध अल मुवत्ताThe Muwatta: (Arabic: الموطأ‎)  की किताब 23 और 24 में जानवरों और उनके बच्चों की क़ुरबानी के जो तरीके बताएं है . उसे पढ़कर कोई भी अल्लाह को दयालु नहीं मानेगा ,

 3-पशुवध की राक्षसी विधियाँ

मांसाहार अरबों का प्रिय भोजन है ,इसके लिए वह किसी भी तरीके से किसी भी जानवर को मारकर खा जाते थे . जानवर गाभिन हो या बच्चा हो ,या मादा के पेट में हो सबको हजम कर लेते थे . और रसूल उनके इस काम को जायज बता देते थे बाद में यही सुन्नत बन गयी है और सभी मुसलमान इसका पालन करते हैं ,इन हदीसों को देखिये ,

अ -खूंटा भोंक कर

“अनस ने कहा कि बनू हरिस का जैद इब्न असलम ऊंटों का चरवाहा था , उसकी गाभिन ऊंटनी बीमार थी और मरणासन्न थी . तो उसने एक नोकदार खूंटी ऊंटनी को भोंक कर मार दिया . रसूल को पता चला तो वह बोले इसमे कोई बुराई नहीं है ,तुम ऊंटनी को खा सकते हो ”

मालिक मुवत्ता-किताब 24 हदीस 3

ब-पत्थर मार कर

“याहया ने कहा कि इब्न अल साद कि गुलाम लड़की मदीने के पास साल नामकी जगह भेड़ें चरा रही थी. एक भेड़ बीमार होकर मरने वाली थी.तब उस लड़की ने पत्थर मार मार कर भेड़ को मार डाला .रसूल ने कहा इसमे कोई बुराई नहीं है ,तुम ऐसा कर सकते हो ”

मालिक मुवत्ता -किताब 24 हदीस 4

जानवरों को मारने कि यह विधियाँ उसने बताई हैं , जिसको दुनिया के लिए रहमत कहा जाता है ?और अब किस किस को खाएं यह भी देख लीजये .

4-किस किस को खा सकते हो

इन हदीसों को पढ़कर आपको राक्षसों की याद आ जाएगी .यह सभी हदीसें प्रमाणिक है ,यह नमूने देखिये

अ -घायल जानवर

“याह्या ने कहा कि एक भेड़ ऊपर से गिर गयी थी ,और उसका सिर्फ आधा शरीर ही हरकत कर रहा था ,लेकिन वह आँखें झपक रही थी .यह देखकर जैद बिन साबित ने कहा उसे तुरंत ही खा जाओ “मालिक मुवत्ता किताब 24 हदीस 7

ब -मादा के गर्भ का बच्चा

“अब्दुल्लाह इब्न उमर ने कहा कि जब एक ऊंटनी को काटा गया तो उसके पेट में पूर्ण विक्सित बच्चा था ,जिसके बल भी उग चुके थे . जब ऊंटनी के पेट से बच्चा निकाला गया तो काफी खून बहा ,और बच्चे दिल तब भी धड़क रहा था.तब सईद इब्न अल मुसय्यब ने कहा कि माँ के हलाल से बच्चे का हलाल भी माना जाता है . इसलिए तुम इस बच्चे को माँ के साथ ही खा जाओ ” मुवत्ता किताब 24 हदीस 8 और 9

स -दूध पीता बच्चा

“अबू बुरदा ने रसूल से कहा अगर मुझे जानवर का केवल एकही ऐसा बच्चा मिले जो बहुत ही छोटा और दूध पीता हो , रसूल ने कहा ऐसी दशा में जब बड़ा जानवर न मिले तुम बच्चे को भी काट कर खा सकते हो ” मालिक मुवत्ता -किताब 23 हदीस 4

5-क़ुरबानी का आदेश और तरीका

वैसे तो कुरान में कई जानवरों की क़ुरबानी के बारे में कहा गया है ,लेकिन यहाँ हम कुरान की आयत विडियो लिंक देकर कुछ जानवरों की क़ुरबानी के बारे जानकारी दे रहे हैं .ताकि सही बात पता चल .सके , पढ़िए और देखिये ,

अ -गाय “याद करो जब अल्लाह ने कहा की गाय को जिबह करो ,जो न बूढी हो और न बच्ची बीच का आयु की हो “सूरा -बकरा 2 :67 -68









ब- ऊंट -“और ऊंट की कुरबानी को हमने अल्लाह की भक्ति की निशानियाँ ठहरा दिया है “सूरा अल हज्ज 22 :36







स -चौपाये बैल -“तुम्हारे लिए चौपाये जानवर भी हलाल हैं ,सिवाय उसके जो बताये गए हैं “सूरा-अल 22 :30







6-गैर मुस्लिमों को गोश्त खिलाओ

“इब्ने उमर और और इब्न मसूद ने कहा की रसूल ने कहा है ,कुरबानी का गोश्त तुम गैर मुस्लिम दोस्त को खिलाओ ,ताकि उसले दिल में इस्लाम के प्रति झुकाव पैदा हो ”

it is permissible to give some of it to a non-Muslim if he is poor or a relative or a neighbor, or in order to open his heart to Islam.

“فإنه يجوز أن أعطي بعض منه الى غير مسلم إذا كان فقيرا أو أحد الأقارب أو الجيران، أو من أجل فتح صدره للإسلام ”



Sahih Al-Jami`, 6118

गैर मुस्लिमों जैसे हिन्दुओं को गोश्त खिलाने का मकसद उनको मुसलमान बनाना है ,क्योंकि यह धर्म परिवर्तन की शुरुआत है .बार बार खाने से व्यक्ति निर्दयी और कट्टर मुसलमान बन जाता है .

 7-गोश्तखोरी से आदमखोरी

मांसाहारी व्यक्ति आगे चलकर नरपिशाच कैसे बन जाता है ,इसका सबूत पाकिस्तान की ARY News से पता चलता है ,दिनांक 4 अप्रैल 2011 पुलिस ने पाकिस्तान पंजाब दरया खान इलाके से आरिफ और फरमान नामके ऐसे दो लोगों को गिरफ्तार किया ,जो कब्र से लाशें निकाल कर ,तुकडे करके पका कर खाते थे . यह परिवार सहित दस साल से ऐसा कर रहे थे.दो दिन पहले ही नूर हुसैन की 24 की बेटी सायरा परवीन की मौत हो गयी थी ,फरमान ने लाश को निकाल लिया ,जब वह आरिफ के साथ सायरा को कट कर पका रहा था ,तो पकड़ा गया . पुलिस ने देगची में लड़की के पैर बरामद किये . इन पिशाचों ने कबूल किया कि हमने बच्चे और कुत्ते भी खाए हैं .ऐसा करने कीप्रेरणा हमें दूसरों से मिली है , जो यही काम कराते हैं . विडियो लिंक





 8-हलाल से हराम तक

खाने के लिए जितने भी जानवर मारे जाते हैं ,उनका कुछ हिस्सा ही खाया जाता है , बाकी का कई तरह से इस्तेमाल करके लोगों को खिला दिया जाता है ..इसके बारे में पाकिस्तान के DUNYA NEWS की समन खान ने पाकिस्तान के लाहौर स्थित बाबू साबू नाले के पास बकर मंडी के मजबह (Slaughter House ) का दौरा करके बताया कि वहां ,गधे कुत्ते , चूहे जैसे सभी मरे जानवरों की चर्बी निकाल कर घी बनाया जाता है . यही नहीं होटलों में खाए गए गोश्त की हडियों को गर्म करके उसका भी तेल निकाल कर पीपों में भर कर बेच दिया जाता है ,जिसे जलेबी ,कबाब ,समोसे आदि तलने के लिए प्रयोग किया होता है . खून को सुखा कर मुर्गोयों की खुराक बनती है . फिर इन्हीं मुर्गियों को खा लिया जाता है .आँतों में कीमा भरके बर्गर बना कर खिलाया जाता है







हमारी सरकार जल्द ही पाकिस्तान के साथ व्यापारिक अनुबंध करने जारही है ,और तेल या घी के नाम पर जानवरों की चर्बी और ऐसी चीजें यहाँ आने वाली हैं .

लोगों को फैसला करना होगा कि उन्हें पूर्णतयः शाकाहारी बनकर ,शातिशाली , बलवान ,निर्भय और जीवों के प्रति दयालु बन कर देश और विश्व कि सेवा करना है ,या धर्म के नाम पर या दुसरे किसी कारणों से प्राणियों को मारकर खाके हिसक क्रूर निर्दयी सर्वभक्षी पिशाच बन कर देश और समाज के लिए संकट पैदा करना है .

दूसरेधर्मों के लोग ईश्वर को प्रसन्न करने और उसकी कृपा प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करके खुद को कष्ट देते हैं .लेकिन इस्लाम में बेजुबान जानवरों को मार कर अल्लाह को खुश किया जाता है . और इसी को इबादत या बंदगी माना जाता है .फिर यह बंदगी दरिंदगी बन जाती है .और जिसका नतीजा गन्दगी के रूप में लोग खाते हैं

इस लेख को पूरा पढ़ने के बाद विचार जरुर करिए .

माँसाहारी अत्याचारी ,और अमानुषिक हो सकते हैं लेकिन बलवान और सहृदय कभी नहीं सो सकते .

टी वी सीरियल जिहाद !

टी वी सीरियल जिहाद !



जिहाद  को  इस्लाम  में अनिवार्य  और धार्मिक  कार्य   माना  जाता  है . इसका  उद्देश्य  विश्व  के सभी धर्मों  और संस्कृतियों  को मिटा  कर इस्लाम  को फैलाना  है . जिहाद  के लिए  मुसलमान  हर तरह  के उपाय  और हथकंडे  अपनाते  रहे  हैं . इस्लाम  के प्रारम्भ   से लेकर  आधुनिक  काल  तक  मुसलमान जिहाद  के लिए तलवार  का  प्रयोग  किया  करते  थे .लेकिन  विज्ञानं  के इस वर्त्तमान  काल  में  मुसलमानों  ने जिहाद  के लिए नए तरीके निकाल  लिए  हैं .जैसे “लव जिहाद ” और “ब्लोगिंग जिहाद ”  सबसे  महत्वपूर्ण  बात  यह  है  कि   जिहाद  के इन सभी नए तरीकों  में अकसर  भोली भाली  हिन्दू लड़कियों   या  युवकों  को निशाना  बनाया  जाता  है . और इंटरनेट    या टी .वी .सीरियल  के माध्यम  से   इस्लाम  के अत्याचारी रूप पर  बुरका  डालने की  कोशिश  की  जाती  , और हिन्दू धर्म  में कमियां  निकाल  कर  लोगों  को इस्लाम  के प्रति आकर्षण  पैदा  करने    का प्रयत्न  किया  जाता  है . अपनी   इस कपटी  योजना  को सफल  करने के  लिए मक्कार मुसलमान  एक  तरकीब  अपनाते  हैं ,कि सबसे बड़े  अत्याचारी ,अय्याश , हिन्दूविरोधी  मुसलमान  बादशाह  को न्यायी ,धर्मनिरपेक्ष  ,सदाचारी और   दयालु   साबित   करने लगते  हैं .इसका  ताजा  उदाहरण   टी .वी  सीरियल  ” जोधा अकबर ” है . जिसे  हिन्दू  महिलाएं  भी  नियमित  रूप  से देखती  हैं .जिस से  उनका  “ब्रेन वाश ” किया  जा रहा  है    .

1-जोधा अकबर सीरियल

इस  सीरियल  का निर्माण  और प्रदर्शन  बालाजी  टेली फिल्म्स  के बैनर  से एकता  कपूर  कर रही  है . और 18  जून  सन 2013  से यह  सीरियल  शनिवार और रविवार   को छोड़कर  रोज रात  8.30  पर  जी टी .वी .पर  दिखाया   जा रहा  है . लेकिन  बहुत कम   लोग  जानते होंगे कि  इस सीरियल  का ” पट लेखक (Script  Writer  ) एक  कट्टर  जिहादी  विचार रखने वाला  व्यक्ति  है .  जिसका  नाम “नावेद असलम ” है .इसने “जामिया  मिल्लिया इलामिया  ” से सन 1989  में  स्नातक   की डिग्री  ली थी . जामिया  इस्लाम  के कट्टरवादी और जिहादी विचारों  का गढ़  माना  जाता  है .लोगों  को याद  होगा  कि  पहले महराणा  प्रताप  के बारे में  एक सीरियल  निकला  था . जिसमे राणा  को एक हिन्दू धर्म  का रक्षक  और अकबर को अत्याचारी  बताया  गया था .इसलिए  लोगों के दिमाग से राणा  की वह छवि  मिटाने  और अकबर को एक सेकुलर  और  सभी  धर्मों  का आदर  करने वाला बादशाह  साबित  करने के   लिए नावेद  असलम  ने   मुल्लों  के इशारे  पर इस सीरियल  की  पटकथा   लिखी  है . जो सरासर  झूठ  और  निराधार   है . यहाँ पर अकबर  की असलियत   के कुछ  नमूने संक्षित  में दिये  जा रहे हैं .

2-अकबर  की पत्नियां  और रखैलें

 हकीकत यह है कि अकबर के सभी पूर्वज बाबर, हुमायूं, से लेकर तैमूर तक सब भारत में लूट, बलात्कार, धर्म परिवर्तन, मंदिर विध्वंस, आदि कामों में लगे रहे. वे कभी एक भारतीय नहीं थे और इसी तरह अकबर भी नहीं था. और इस पर भी हमारी हिंदू जाति अकबर को हिन्दुस्तान की शान समझती रही!

अकबर एक कट्टर सुन्नी  मुसलमान  था ,इसने अपने  नाम  में मुहम्मद शब्द  जोड़ लिया था . जिस से इसका पूरा नाम “जलालुद्दीन  मुहम्मद अकबर  ” हो गया .और  जैसे  मुहम्मद साहब  ने  कई पत्नियाँ  और रखैलें    रखी थीं .लेकिन  अकबर ने  मुहम्मद साहब से  कई गुना  अधिक औरतें  और रखेलें  रख  ली थीं , जिन्हें  लौंडियाँ   कहा  जाता  है .मुसलमान  अकबर  की सिर्फ  तीन  औरतें  बताते  हैं ,1 .रुकैय्या   बेगम , जो अकबर के फूफा  बैरम  खान  की विधवा  थी .2 .सलीमाँ   बेगम  जो अकबर  की चचेरी  बहिन  थी .3 . लोग  जोधा  बाई  को अकबर की तीसरी  पत्नी   बताते हैं .इसका  असली नाम  हीरा  कुंवरी  या रुक्मावती  था , यह आम्बेर  के राज  भारमल  की बड़ी बेटी थी .लोग इसी को जोधा  कहते  हैं .जोधा अकबर  से आयु  में बड़ी थी .और  राजा  मानसिंह  की बहिन  लगती थी ,जिसे अकबर ने अपने नवरत्नों  में शामिल  कर लिया  था जोधा और अकबर  की शादी  जयपुर  के पास साम्भर  नाम  की जगह  20  जनवरी  सन 1562  को  हुई थी . वास्तव में  राजा  भारमल  ने जोधा  की डोली  भेजी  थी . जिसके बदले अकबर  ने उसे मनसबदरी  दी  थी .लेकिन  वास्तविकता  कुछ  और है ,

अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है- “अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं और हर एक का अपना अलग घर था.” ये पांच हजार औरतें उसकी 36 पत्नियों से अलग थीं.आइन ए अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है- “शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था. वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी. दरबारी नर्तकियों को अपने घर ले जाते थे. अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी. कई बार जवान लोगों में लड़ाई झगडा भी हो जाता था. एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया”.आइन ए अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है- “शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था. वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी. दरबारी नर्तकियों को अपने घर ले जाते थे. अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी. कई बार जवान लोगों में लड़ाई झगडा भी हो जाता था. एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया”.रणथंभोर की संधि में अकबर महान की पहली शर्त यह थी कि राजपूत अपनी स्त्रियों की डोलियों को अकबर के शाही हरम के लिए रवाना कर दें यदि वे अपने सिपाही वापस चाहते हैं.ग्रीमन के अनुसार अकबर अपनी रखैलों को अपने दरबारियों में बाँट देता था. औरतों को एक वस्तु की तरह बांटना और खरीदना अकबर की  की  नीति  थी .

विन्सेंट स्मिथ जैसे अकबर प्रेमी को भी यह बात माननी पड़ी कि चित्तौड़ पर हमले के पीछे केवल उसकी सब कुछ जीतने की हवस ही काम कर रही थी. वहीँ दूसरी तरफ महाराणा प्रताप अपने देश के लिए लड़ रहे थे और कोशिश की कि राजपूतों की इज्जत उनकी स्त्रियां मुगलों के हरम में न जा सकें

3-अकबर की कुरूपता

इतिहास  की किताबों  और  मुग़ल काल  की पेंटिंग  में अकबर  को  एक स्वस्थ  और रौबदार   चहरे वाला सुन्दर व्यक्ति चित्रित  किया  जाता ,लेकिन,“अकबर एक औसत दर्जे की लम्बाई का था. उसके बाएं पैर में लंगड़ापन था. उसका सिर अपने दायें कंधे की तरफ झुका रहता था. उसकी नाक छोटी थी जिसकी हड्डी बाहर को निकली हुई थी. उसके नाक के नथुने ऐसे दीखते थे जैसे वो गुस्से में हो. आधे मटर के दाने के बराबर एक मस्सा उसके होंठ और नथुनों को मिलाता था. वह गहरे रंग का था”

4-अकबर की  धर्मनिरपेक्षता

आजकल  बच्चों  को इतिहास  की किताबों  में पढाया  जाता  है ,कि अकबर सभी धर्मों  का आदर  करता था . और यहाँ  तक कि  उसने जोधा  बाई  को भी एक मंदिर  भी बनवा  दिया था ,जिसने वह हिन्दू  रीती  के अनुसार पूजा ,आरती  और कृष्ण  की भक्ति किया  करती  थी , यही”  मुगले आजम ”  पिक्चर  में भी दिखाया था   .जो  के .आसिफ   ने बनायीं  थी . लेकिन  वास्तविकता  यह है कि  जोधा  से शादी   के कुछ समय बाद अकबर  ने जोधा  को मुसलमान  बना  दिया था . और उसका इस्लामी  नाम “, मरियम उज्जमानी ( مريم  ازماني  )  रख  दिया था .और 6  फरवरी  सन  1562  को इसलामी  तरीके  से निकाह  पढ़  लिया  था .और इसीलिए जब  जोधा  मर गयी  तो उसका हिन्दू रीती से दाह संस्कार  नहीं  किया गया , बल्कि एक मुस्लिम  की तरह  दफना  दिया गया .आज  भी  जोधा  की कबर    अकबर  की कबर जो सिकन्दरा में है  उस से     से  कुछ  किलोमीटर   बनी   है  ,देखी  जा सकती  है .

यही  नहीं अकबर  ने अपनी  अय्याशी  के लिए इस्लाम  का भी  दुरुपयोग   किया था ,चूँकि सुन्नी फिरके के अनुसार  एक मुस्लिम  एक साथ  चार  से अधिक औरतें  नहीं रखता . और जब  अकबर उस से अधिक  औरतें  रखने  लगा  तो ,काजी  ने उसे टोक  दिया  .इस  से नाराज  होकर अकबर ने उस सुन्नी  काजी  को हटा  कर शिया काजी  को रख  लिया , क्योंकि शिया  फिरके  में असीमित  अस्थायी  शादियों  की इजाजत  है , ऐसी शदियों  को ” मुतअ ”  कहा  जाता  है .आज  भी मुसलमान  अपने  फायदे के लिए  कुरान   की  व्याख्या  किया  करते  हैं

4-बादशाह की रहमदिली

मुसलमान  अकबर को  न्यायी  दयालु  नरमदिल बताते  हैं ,लेकिन  यह भी झूठ  है ,क्योंकि ,जब    6 नवम्बर 1556 को 14 साल की आयु में अकबर महान पानीपत की लड़ाई में भाग ले रहा था. हिंदू राजा हेमू की सेना मुग़ल सेना को खदेड़ रही थी कि अचानक हेमू को आँख में तीर लगा और वह बेहोश हो गया. उसे मरा सोचकर उसकी सेना में भगदड़ मच गयी. तब हेमू को बेहोशी की हालत में अकबर महान के सामने लाया गया और इसने बहादुरी से हेमू का सिर काट लिया और तब इसे गाजी के खिताब से नवाजा गया. इसके तुरंत बाद जब अकबर महान की सेना दिल्ली आई तो कटे हुए काफिरों के सिरों से मीनार बनायी गयी जो जीत के जश्न का प्रतीक है और यह तरीका अकबर महान के पूर्वजों से ही चला आ रहा है.हेमू के बूढ़े पिता को भी अकबर महान ने कटवा डाला. और औरतों को उनकी सही जगह अर्थात शाही हरम में भिजवा दिया गया

चित्तौड़ पर कब्ज़ा करने के बाद अकबर महान ने तीस हजार नागरिकों का क़त्ल करवाया.

2 सितम्बर 1573 के दिन अहमदाबाद में उसने 2000 दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे ऊंची सिरों की मीनार बनायी. वैसे इसके पहले सबसे ऊंची मीनार बनाने का सौभाग्य भी अकबर महान के दादा बाबर का ही था. अर्थात कीर्तिमान घर के घर में ही रहा!

अकबरनामा के अनुसार जब बंगाल का दाउद खान हारा, तो कटे सिरों के आठ मीनार बनाए गए थे. यह फिर से एक नया कीर्तिमान था. जब दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में पानी पीने को दिया गया.

अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से कुचलवाया. हमजबान की जबान ही कटवा डाली. मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर दी गयीं. उसके 300 साथी उसके सामने लाये गए और उनके चेहरे पर गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट डाला गया. विन्सेंट स्मिथ ने यह लिखा है कि अकबर महान फांसी देना, सिर कटवाना, शरीर के अंग कटवाना, आदि सजाएं भी देते थे.

5-नए धर्म की स्थापना

अकबर  और  मुहम्मद साहब  में  कुछ  ऐसी समानताएं  हैं ,जिन पर  लोगों  ने ध्यान  नहीं  दिया . जैसे दौनों अनपढ़  और निरक्षर  थे . दौनों  को  कई  कई औरतें  रखने   का  शौक  था .और   जैसे  मुहम्मद  साहब  ने बिना  किसी योग्यता  के  खुद  को अल्लाह  का रसूल  घोषित   कर  दिया ,और  इस्लाम  नामका   नया दीन (  ) चला  दिया . उसी तरह अकबर  ने भी खुद  को अल्लाह  का खलीफा (    )  घोषित  करके  “दीने  इलाही –   دین الهی‎  ” नामका  धर्म  चला  दिया . यहाँ  तक   मुसलमानों  के कलमें  में यह  शब्द “अकबर   खलीफतुल्लाह  –  اكبر خليفة الله  ”  भी  जुड़वा  लिए थे .उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में “अल्लाह ओ अकबर” कह कर अभिवादन किया जाए.यही  नहीं  अकबर ने  हिन्दुओं  को गुमराह  करने  के  लिए एक फर्जी उपनिषद् “अल्लोपनिषद  ”  बनवाया  था ,जिसमे अरबी और संस्कृत  मिश्रित  भाषा  में मुहम्मद  को अल्लाह  का रसूल और अकबर को खलीफा बताया  गया  था . इस फर्जी उपनिषद् का उल्लेख  महर्षि  दयानंद  ने सत्यार्थ  प्रकाश  में  किया   है .और  अल्लोपनिषद  का मुंहतोड़  जवाब भंडाफोडू  ब्लॉग  ने “अरबोपनिषद ” बना  कर  दिया  था .फिर  भी  जो  नादान  लोग जोधा अकबर सीरियल   से  प्रभावित  होकर अकबर  को महान  और सेकुलर मानते  हैं  उन्हें  पता  होना  चाहिए  कि यह सीरियल  नहीं  एक  जिहाद  है ,महाराणा  प्रताप  के सामने  अकबर जैसे दुष्ट  का महिमा मंडन  उचित  नहीं  है  क्योंकि  ,

“अकबर महान अगर, राणा शैतान तो

शूकर है राजा, नहीं शेर वनराज है

अकबर आबाद और राणा बर्बाद है तो

हिजड़ों की झोली पुत्र, पौरुष बेकार है

अकबर महाबली और राणा बलहीन तो

कुत्ता चढ़ा है जैसे मस्तक गजराज है

अकबर सम्राट, राणा छिपता भयभीत तो

हिरण सोचे, सिंह दल उसका शिकार है

अकबर निर्माता, देश भारत है उसकी देन

कहना यह जिनका शत बार धिक्कार है

अकबर है प्यारा जिसे राणा स्वीकार नहीं

रगों में पिता का जैसे खून अस्वीकार है.

भारत मुसलमानों के लिए स्वर्ग क्यों है ?

भारत मुसलमानों के लिए स्वर्ग क्यों है ?

विश्व की कुल जनसंख्या में प्रत्येक चार में से एक मुसलमान है। मुसलमानों की 60 प्रतिशत जनसंख्या एशिया में रहती है तथा विश्व की कुल मुस्लिम जनसंख्या का एक तिहाई भाग अविभाजित भारत यानी भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश

में रहता है। विश्व में 75 देशों ने स्वयं को इस्लामी देश घोषित कर रखा है। पर, विश्व में जितने भी बड़े-बड़े मुस्लिम देश माने जाते हैं, मुस्लिमों को कहीं भी इतनी सुख-सुविधाएं या मजहबी स्वतंत्रता नहीं है जितनी कि भारत में। इसीलिए किसी ने सच ही कहा है कि ‘मुसलमानों के लिए भारत बहिश्त (स्वर्ग) है।’ परन्तु यह भी सत्य है कि विश्व के एकमात्र हिन्दू देश भारत में इतना भारत तथा हिन्दू विरोध कहीं भी नहीं है, जितना ‘इंडिया दैट इज भारत’ में है। इस विरोध में सर्वाधिक सहयोगी हैं-सेकुलर राजनीतिक स्वयंभू बुद्धिजीवी तथा कुछ चाटुकार नौकरशाह। उनकी भावना के अनुरूप तो इस देश का सही नाम ‘इंडिया दैट इज मुस्लिम’ होना चाहिए .क्योंकि विश्व में भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ केवल जनसंख्या के आधार पर मुसलमानों की जायज नाजायज मांगें पूरी कर दी जाती हैं , भले वह देश को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ें ,

1-कम्युनिस्ट देश तथा मुस्लिम

आज जो कम्यूनिस्ट सेकुलरिज्म के बहाने मुसलमानों के अधिकारों की वकालत करते हैं , उन्हें पता होना चाहिए कि कम्युनिस्ट देशों में मुसलमानों की क्या हालत है।

विश्व के दो प्रसिद्ध कम्युनिस्ट देशों-सोवियत संघ (वर्तमान रूस) तथा चीन में मुसलमानों की जो दुर्गति हुई वह सर्व विदित है तथा अत्यन्त भयावह है। कम्युनिस्ट देश रूस में भयंकर मुस्लिम नरसंहार तथा क्रूर अत्याचार हुए। नारा दिया गया ‘मीनार नहीं, मार्क्स चाहिए।’ हजारों मस्जिदों को नष्ट कर हमाम (स्नान घर) बना दिए गए। हज की यात्रा को अरब पूंजीपतियों तथा सामन्तों का धन बटोरने का तरीका बताया गया। चीन में हमेशा से उसका उत्तर-पश्चिमी भाग शिनचियांग-मुसलमानों की वधशाला बना रहा। इस वर्ष भी मुस्लिम अधिकारियों तथा विद्यार्थियों को रमजान के महीने में रोजे रखने तथा सामूहिक नमाज बढ़ने पर प्रतिबन्ध लगाया गया।

2-यूरोपीय देश तथा मुस्लिम

सामान्यत: यूरोप के सभी प्रमुख देशों-ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, आदि में मुसलमानों के अनेक सामाजिक रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध है। प्राय: सभी यूरोपीय देशों में मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने तथा मीनारों के निर्माण तथा उस पर लाउडस्पीकर लगाने पर प्रतिबंध है। बिट्रेन में इंडियन मुजहीद्दीन सहित 47 मुस्लिम आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगा हुआ है। ब्रिटेन का कथन है कि ये संगठन इस्लामी राज्य स्थापित करने और शरीयत कानून को लागू करने का अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हिंसा का प्रयोग करते हैं। जर्मनी में भी बुर्के पर पाबन्दी है। जर्मनी के एक न्यायालय ने मुस्लिम बच्चों के खतना (सुन्नत) को ‘मजहबी अत्याचार’ कहकर प्रतिबंध लगा दिया है तथा जो डाक्टर उसमें सहायक होगा, उसे अपराधी माना जाएगा। जर्मनी के कोलोन शहर की अदालत ने बुधवार को सुनाए गए एक फैसले में कहा कि धार्मिक आधार पर शिशुओं का खतना करना उनके शरीर को कष्टकारी नुकसान पहुंचाने के बराबर है.और प्राकृतिक नियमों में हस्तक्षेप है

जर्मनी में मुस्लिम समुदाय इस फैसले का कड़ा विरोध कर रहे हैं और वे इस बारे में कानूनविदों से मशविरा कर रहे हैं.

आशा है विश्व के सारे देश जल्द ही जर्मनी का अनुसरण करने लगेंगे.इसी तरह फ्रांस विश्व का पहला यूरोपीय देश था जिसने पर्दे (बुर्के) पर प्रतिबंध लगाया।

3-मुस्लिम देशों में मुसलमानों की हालत

विश्व के बड़े मुस्लिम देशों में भी मुसलमानों के मजहबी तथा सामाजिक कृत्यों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध है। तुर्की में खिलाफत आन्दोलन के बाद से ही रूढ़िवादी तथा अरबपरस्त मुल्ला- मौलवियों की दुर्गति होती रही है। तुर्की में कुरान को अरबी भाषा में पढ़ने पर प्रतिबंध है। कुरान का सार्वजनिक वाचन तुर्की भाषा में होता है। शिक्षा में मुल्ला-मौलवियों का कोई दखल नहीं है। न्यायालयों में तुर्की शासन के नियम सर्वोपरि हैं। रूढ़िवादियों की सोच तथा अनेक पुरानी मस्जिदों पर ताले डाल दिए गए हैं। (पेरेवीज, ‘द मिडिल ईस्ट टुडे’ पृ. 161-190; तथा ऐ एम चिरगीव -इस्लाम इन फरमेन्ट, कन्टम्परेरी रिव्यू, (1927)। ईरान व इराक में शिया-सुन्नी के खूनी झगड़े-जग जाहिर हैं। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने भी यह स्वीकार किया है कि यहां मुसलमान भी सुरक्षित नहीं हैं। यहां मुसलमान परस्पर एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं। उदाहरण के लिए जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान ने अहमदिया सम्प्रदाय के हजारों लोगों को मार दिया। इसके साथ हिन्दुओं के प्रति उनका क्रूर व्यवहार, जबरन मतान्तरण, पवित्र स्थलों को अपवित्र करना, हिन्दू को कोई उच्च स्थान न देना आदि भी जारी है। उनकी क्रूरता के कारण पाकिस्तानी हिन्दू वहां से जान बचाकर भारत आ रहे हैं। वहां हिन्दुओं की जनसंख्या घटकर केवल एक प्रतिशत के लगभग रह गई है। हिन्दुओं की यही हालत 1971 में बने बंगलादेश में भी है। वहां भी उनकी जनसंख्या 14 प्रतिशत से घटकर केवल 1 प्रतिशत रह गई है। साथ ही बंगलादेशी मुसलमान भी लाखों की संख्या में घुसपैठियों के रूप में जबरदस्ती असम में घुस रहे हैं।

अफगानिस्तान की अनेक घटनाओं से ज्ञात होता है जहां उन्होंने हिन्दुओं तथा बौद्धों के अनेक स्थानों को नष्ट किया, वहीं जुनूनी मुस्लिम कानूनों के अन्तर्गत मुस्लिम महिलाओं को भी नहीं बख्शा, नादिरशाही फतवे जारी किए। मंगोलिया में यह प्रश्न विवादास्पद बना रहा कि यदि अल्लाह सभी स्थानों पर है तो हज जाने की क्या आवश्यकता है? सऊदी अरब में मुस्लिम महिलाओं के लिए कार चलाना अथवा बिना पुरुष साथी के बाहर निकलना मना है। पर यह भी सत्य है कि किसी व्यवधान अथवा सड़क के सीध में न होने की स्थिति में मस्जिद को हटाना उनके लिए कोई मुश्किल नहीं है।

4-भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण

अंग्रेजों ने भारत विभाजन कर, राजसत्ता का हस्तांतरण कर उसे कांग्रेस को सौंपा। साथ ही इन अलगाव विशेषज्ञों ने, अपनी मनोवृत्ति भी कांग्रेस का विरासत के रूप में सौंप दी। अंग्रेजों ने जो हिन्दू-मुस्लिम अलगाव कर तुष्टीकरण की नीति अपनाई थी, वैसे ही कांग्रेस ने वोट बैंक की चुनावी राजनीति में इस अलगाव को अपना हथियार बनाया। उसने मुस्लिम तुष्टीकरण में निर्लज्जता की सभी हदें पार कर दीं। यद्यपि संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी गई हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप से चुनावी राजनीति को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों को अल्पसंख्यक मान लिया गया तथा उन्हें खुश करने के लिए उनकी झोली में अनेक सुविधाएं डाल दीं। उनके लिए एक अलग मंत्रालय, 15 सूत्री कार्यक्रम व बजट में विशेष सुविधाएं, आरक्षण, हज यात्रा पर आयकर में छूट तथा सब्सिडी आदि। सच्चर कमेटी तथा रंगनाथ आयोग की सिफारिशों ने इन्हें प्रोत्साहन दिया। भारतीय संविधान की चिन्ता न कर, न्यायालय के प्रतिरोध के बाद भी, मजहबी आधार पर आरक्षण के सन्दर्भ में कांग्रेस के नेता वक्तव्य देते रहते हैं।

5-हज सब्सिडी में घोटाले

विश्व में मुस्लिम देशों में हज यात्रा के लिए कोई विशेष सुविधा नहीं है। बल्कि मुस्लिम विद्वानों ने हज यात्रा के लिए दूसरे से धन या सरकारी चंदा लेना गुनाह बतलाया है। पर कांग्रेस शासन में 1959 में बनी पहली हज कमेटी के साथ ही सिलसिला शुरू हुआ हज में सुविधाओं का। सरकारी पूंजी का खूब दुरुपयोग हुआ। हज घोटालों के लिए कई जांच आयोग भी बैठे। हज सद्भावना शिष्ट मण्डल, हज में भी ‘वी.आई.पी. कोटा’ आदि की सूची बनने लगी। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी के बाद जम्मू-कश्मीर के अब्दुल रसीद ने सरकार द्वारा सदभावना शिष्टमण्डल के सदस्यों के चयन पर प्रश्न खड़ा किया। क्योंकि उसमें 170 हज यात्रियों के नाम बदले हुए पाए गए। आखिर सर्वोच्च न्यायालय ने दखल दिया तथा ‘अति विशिष्टों की’ संख्या घटाकर 2500 से केवल 300 कर दी।

सामान्यत: प्रत्येक हज यात्री पर सरकार का लगभग एक लाख रु. खर्च होता है, परन्तु सरकारी प्रतिनिधियों पर आठ से अट्ठारह लाख रु. खर्च कर दिए जाते हैं। गत वर्ष राष्ट्रीय हज कमेटी ने यात्रियों को कुछ कुछ अन्य सुविधाएं प्रदान की, जिसमें 70 वर्ष के आयु से अधिक के आवेदक व्यक्तियों के लिए निश्चित यात्रा, चुने गए आवेदकों को आठ महीने रहने का परमिट तथा हज यात्रा पर जाने वाले यात्री के लिए पुलिस द्वारा सत्यापन में रियायत दी गई। इसके विपरीत श्रीनगर से 135 किलोमीटर की कठिन अमरनाथ यात्रा के लिए, जिसमें इस वर्ष 6 लाख 20 हजार यात्री गए, और आने-जाने के 31 दिन में 130 श्रद्धालु मारे गए, जिनके शोक में एक भी आंसू नहीं बहाया गया।

6-भारत का इस्लामीकरण

असम में बंगलादेश के लाखों मुस्लिम घुसपैठियों के प्रति सरकार की उदार नीति, कश्मीर में तीन वार्ताकारों की रपट पर लीपा-पोती, मुम्बई में 50,000 मुस्लिम दंगाइयों द्वारा अमर जवान ज्योति या कहें कि राष्ट्र के अपमान पर कांग्रेस राज्य सरकार और केन्द्र की सोनिया सरकार की चुप्पी तथा दिल्ली के सुभाष पार्क में अचानक उग आयी अकबराबादी मस्जिद के निर्माण को न्यायालय द्वारा गिराने के आदेश पर भी सरकारी निष्क्रियता, क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि गत अप्रैल में भारत के तथाकथित सेकुलरवादियों ने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में गोमांस भक्षण उत्सव मनाया तथा उसकी पुनरावृत्ति का प्रयास दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किया गया? मांग की गई थी कि छात्रावासों में गोमांस भक्षण की सुविधा होनी चाहिए। पर सरकार न केवल उदासीन बनी रही बल्कि जिन्होंने इसका विरोध किया, उनके ही विरुद्ध डंडा चलाया गया। इस विश्लेषण के बाद गंभीर प्रश्न यह है कि कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण अथवा वोट बैंक को खुश करने की इस नीति से मुस्लिम समाज का अरबीकरण हो रहा है या भारतीयकरण? क्या इससे वे भारत की मुख्य धारा से जुड़ रहे हैं या अलगावादी मांगों के पोषण से राष्ट्रीय स्थिरता के लिए खतरा बन रहे हैं? क्या चुनावी वोट बैंक की राजनीति, राष्ट्रहित से भी ऊपर है? देश के युवा विशेषकर पढ़े-लिखे युवकों को इस पर गंभीरत से विचार करना होगा, ताकि समाज की उन्नति के साथ राष्ट्र निर्माण में उनका सक्रिय सहयोग हो सके।

वीर हरपाल देव का स्वतंत्रता आंदोलन एवं खुसरू खां की ‘हिन्दू क्रान्ति’

वीर हरपाल देव का स्वतंत्रता आंदोलन एवं खुसरू खां की ‘हिन्दू क्रान्ति’


एक का उठना एक का गिरना
ये खेल निरंतर चलता है।
नीति पथ के अनुयायी को जग में मिलती सच्ची सफलता है।।
पथ अनीति का अपनाये जो,
वह कागज के सम गलता है।
कालचक्र जब घूमकर आये,
तब चलती नही चपलता है।।
अलाउद्दीन खिलजी ने निश्चित रूप से दिल्ली की सल्तनत को विस्तार दिया था। पर उसने दिल्ली सल्तनत को फैलाने में हिन्दू द्वेष की नीति पर कार्य किया था, और उसके लिए क्रूरता को एक हथियार भी बनाया था। निस्संदेह विद्वेष भाव, और क्रूरता का मार्ग अनीति का मार्ग होता है, और अनीति कभी भी व्यक्ति को स्थायी सफलता प्रदान नही करा सकती।
ये मेला है बस दो दिन का
कुछ ले चलिये कुछ दे चलिये।
यहां दिल की हुकूमत रहती है,
सुल्तान बदलते रहते हैं।।
संसार प्रेम से, प्रेम के द्वारा, प्रेम के लिए बना है, यह प्रेम लोक से, लोक के द्वारा, लोक के लिए मिलता है। प्रेम और लोक जहां मिलकर नई सृजना करते हैं वहीं लोकतंत्र होता है। जहां प्रेम के स्थान पर घृणा और लोक के स्थान पर सम्प्रदाय आ जाते हैं, वहां  उग्रवाद आ जाता है, जिससे सृजना न होकर केवल विध्वंस होता है। इसलिए भारतीय ऋषियों ने सृजना के लिए प्रेम और लोक का समन्वय स्थापित किया और लोकतंत्र को वैश्विक व्यवस्था का मूल आधार स्वीकार किया। यही कारण रहा कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था युग-युगों तक  प्रेमपूर्वक  विश्व पर शासन करती  रही।
हिन्दू वीर रामदेव राय और अलाउद्दीन खिलजी
बड़ा परिश्रम  करके अलाउद्दीन ने अपना साम्राज्य देवगिरि तक फैलाया था।  देवगिरि के राजा देव राय ने अलाउद्दीन की सेना को भारी क्षति पहुंचाई  थी, परंतु वह हिन्दू वीर  अलाउद्दीन की सेना का  अधिक देर तक सामना नही कर पाया था। फलस्वरूप युद्घ में रामदेव राय की पराजय हो गयी।
रामदेव राय को पराजय के उपरांत आत्मग्लानि और लज्जा भरी पीड़ा ने आ घेरा था, और वह हिंदू देशभक्त राजा स्वतंत्रता को खो देने के शोक को झेल नही पाया, फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गयी।
…स्वतंत्रता संघर्ष जारी रहा
उसकी मृत्यु के उपरांत देवगिरि की देशभक्त जनता ने स्वतंत्रता का युद्घ जारी रखा। लोग राजा रामदेव राय के जामाता के नेतृत्व में एक होते गये और खोये हुए राज्य को प्राप्त करने के लिए सभी सामूहिक रूप से प्रयासरत रहे। राजा के जामाता हरपाल देव ने देवगिरि को प्राप्त करने के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया और राज्य की प्रजा ने उसकी क्षमताओं पर विश्वास करते हुए उसे अपना ‘नायक’ स्वीकार किया।
हरपाल देव ने दिखाई अपनी वीरता
ऐसी परिस्थितियों में हरपाल देव ने देवगिरि पर साहसिक आक्रमण कर दिया। अलाउद्दीन  के द्वारा जिस मुस्लिम को दुर्गपति नियुक्त किया गया था, उसने ऐसे प्रबल आक्रमण की आशा कभी भी रामदेवराय के किसी नाती संबंधी से नही की थी। इसलिए वह विलासिता पूर्ण जीवन जी रहा था, और उसे कोई खटका भी नही था कि हिंदू देशभक्त अपनी स्वतंत्रता के लिए इतने प्रबल आवेग के साथ आक्रमण कर सकते हैं।
देवगिरि रंग गया हिन्दुत्व के रंग में
जब मुस्लिम दुर्गपति ने अचानक हरपालदेव राय के आक्रमण का सामना किया तो उसके युद्घ में शीघ्र ही पांव उखड़ गये, वह कुछ देकर के संघर्ष के पश्चात ही युद्घ भूमि से भाग लिया उसका साहस टूट गया और अपने प्राणों की भीख मांगता हुआ वह गद्दी छोड़कर भाग गया। फलस्वरूप देवगिरि पर पुन: हिंदू केसरिया ध्वज लहरा उठा। सारा देवगिरि हिन्दुत्व के रंग में रंग गया।
हरपाल देव ने सारे धर्म स्थलों को पवित्र कर उनमें पुन:  प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। अलाउद्दीन को जब यह सूचना मिली कि देवगिरि पर पुन: हिंदुओं का अधिकार हो गया है, तो वह गिरते स्वास्थ्य के कारण केवल हाथ मलकर रह गया।
नये मुसलमानों का स्वतंत्रता संग्राम
अलाउद्दीन  के समय में जो हिंदू मुसलमान बन गये थे, उन्हें नया मुसलमान कहा जाता था। इन नये मुसलमानों के साथ एक समस्या थी कि उन्हें मुस्लिम लोग इनके मुस्लिम बन जाने पर भी घृणा की दृष्टि से देखते थे, जिससे  उन्हें इस स्थिति में अपमान सा अनुभव होता था। वैसे भी मुस्लिम समाज के रीति रिवाज उन्हें रास नही आ रहे थे। यद्यपि हिंदू समाज की पाचन शक्ति (अर्थात नव मुसलमानों को अपने साथ सहजता से मिला लेने की क्षमता) भी अच्छी नही थी। परंतु इसके उपरांत भी इन नव मुसलमानों को अपना धर्म ही अच्छा लगता था। इसलिए दिल्ली के मुगलपुरा क्षेत्र के नये मुसलमानों ने सुल्तान के विरूद्घ स्वतंत्रता का बिगुल फूंक दिया। जब अलाउद्दीन को इन नव मुसलमानों के इस प्रकार के आचरण की जानकारी मिली तो उसने इन नव मुसलमानों का क्रूरता से दमन आरंभ कर दिया। मुस्लिम इतिहासकारों ने भी मृतकों की संख्या 30-40 हजार बतायी है।
यह मानवता की हत्या थी, क्योंकि इतिहास में जब व्यक्ति संवदेना शून्य होकर कार्य करता है, तो वह कार्य मानवता के विरूद्घ अपराध की श्रेणी में आता है। नये मुसलमानों के इस नरसंहार पर सुल्तान ही नही, अपितु उसके मजहबी भाई भी पूर्णत: संवेदनशून्य हो गये थे, कदाचित ये लोग हिन्दुओं की भी घृणा के पात्र थे। इसलिए जब चालीस हजार लोगों की लाशें गली मौहल्लों में कागज के पत्तों की भांति बिखरी पड़ी थीं, तो हिंदू या मुसलमान कोई भी उन्हें उठाने वाला नही बन रहा था। हिंदू उन्हें इसलिए नही अपनाना चाहते थे, कि वे इस्लाम ग्रहण कर चुके थे और मुसलमान उन्हें इसलिए नही उठा रहे थे कि वे इस्लाम भक्त नही रह गये थे। यह घटना 1303 ई. की है। अलाउद्दीन ने दिल्ली की उपनगरी मुगलपुरा केे दुर्ग में मुस्लिम सैनिक रखकर झालोर राज्य परिवार के मालदेव को गद्दी पर बैठा दिया।
स्वतंत्रता चाहते थे नव मुसलमान
वैसे नव मुसलमानों का विद्रोह अपने लिए स्वतंत्रता का मार्ग अपनाना था जो कि व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। परंतु सुल्तान की दृष्टि में स्वतंत्रता का मार्ग अपनाना एक अपराध था। हिंदू दृष्टिकोण और विदेशियों के दृष्टिकोण में ये ही अंतर है कि हिंदू व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का समर्थक है, जबकि विदेशी इन अधिकारों को सदा ही निहित स्वार्थों से देखते और व्याख्यायित करते रहे हैं।
कैसे कुचला गया आंदोलन
इन नव मुसलमानों के साथ स्वतंत्रता संग्राम को किस निर्ममता और निर्दयता से अलाउद्दीन ने कुचला, इसकी जानकारी हमें तारीखे फिरोजशाही से मिलती है। वहां लिखा है कि सुल्तान ने आदेश दिया कि राज्य के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में जिस-जिस स्थान पर नव मुसलमान हों, उनकी एक ही दिन इस प्रकार हत्या कर दी जाए कि इसके उपरांत एक भी नव मुसलमान पृथ्वी पर जीवित न बच पाये। उसके आदेशानुसार जो कि निंकुशता तथा अत्याचार से भरा था, 20-30 हजार नव मुसलमानों की, जिनमें से अधिकांश को किसी बात की सूचना तक न थी, हत्या कर दी गयी। उनके घर बार विध्ंवस कर दिये गये, उनके स्त्री बच्चों का विनाश कर दिया गया।”
नव मुसलमानों के साथ इतनी क्रूरता केवल इसलिए अपनायी गयी कि वे मूलरूप में हिंदू थे। यदि इन नव मुसलमानों ने अपनी स्वतंत्रता की योजना भारतमाता को गुलामी के बंधनों से मुक्त कराने के लिए बनायी थी, तो ये सारे के सारे भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मध्यकालीन सैनिक ही हैं, जिन्हें तत्कालीन ‘डायर’ ने अपने एक आदेश से समाप्त करा दिया। हम उनका वंदन करते हैं।
अलाउद्दीन की क्रूरता भरी अन्याय परक नीतियों से उपजे ‘हिन्दू संग्राम’ में आयी तेजी के परिणामों की ओर संकेत करते हुए डा. के. एस लाल ने लिखा है-”राजपूताना में सुल्तान की विजय स्वल्पकालीन रही देश, प्रेम और सम्मान के लिए मर मिटने वाले राजपूतों ने कभी भी अलाउद्दीन के प्रांतपतियों के सम्मुख समर्पण नही किया। यदि उनकी पूर्ण पराजय हो जाती तो वे अच्छी प्रकार जानते थे कि किसी प्रकार अपमानकारी आक्रमण से स्वयं को और अपने-अपने परिवार को मुक्त कराना चाहिए। जैसे ही आक्रमण का ज्वार उतर जाता, वे अपने प्रदेशों पर पुन: अपना अधिकार जमा लेते। परिणाम यह रहा कि राजपूताना पर अलाउद्दीन का अधिकार सदैव संदिग्ध ही रहा। रणथम्भौर चित्तौड़ उसके जीवनकाल में आधिपत्य से बाहर हो गये। जालौर भी विजय के शीघ्र पश्चात ही स्वतंत्र हो गया।  कारण स्पष्ट था कि यहां (स्वतंत्रता प्रेमी) जन्मजात योद्घाओं की इस वीर-भूमि की एक न एक रियासत दिल्ली सल्तनत की शक्ति का विरोध सदा करती रही, चाहे बाद में विश्व का सर्वमान्य सम्राट अकबर ही क्यों न हो, प्रताप ने उसे भी ललकारा और अनवरत संघर्ष किया था।”
अलाउद्दीन हिंदू विद्वेष की नीति पर चलकर विश्व विजेता सिकंदर बनना चाहता था, पर वह हिंदू प्रतिरोध के चलते ‘भारत विजेता’ भी नही बनने पाया। इसे आप उसकी सफलता कहेंगे या असफलता?
कितने आतंकित थे हिंदू
अपने धर्म, स्वतंत्रता और स्वदेश के  प्रति पूर्णत: समर्पित हिन्ंदुओं को अलाद्दीन के कितने अत्याचारों का सामना करना पड़ा? इसके लिए हम यहां कुछ समकालीन इतिहास लेखकों को उद्र्घत कर रहे हैं, जिन्हें पढ़कर आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि इतने अत्याचारों को सहन करने वाली आर्य हिन्दू-जाति कितनी सहनशील और धर्मपे्रमी रही है, उसकी वीरता अनुपम और अद्वितीय है, क्योंकि इतने अत्याचारों का प्रतिकार करते-करते वह थकी नही और प्रतिकार उपचार ही ढूंढ़ती रही।
प्रसिद्घ मुस्लिम लेखक अमीर खुसरो ने अपनी पुस्तक ‘तारीखे इलाही’ में लिखा है-”हमारे पवित्र सैनिकों की तलवारों केे कारण सारा देश ही एक दावा अग्नि के कारण कांटों रहित जंगल जैसा हो गया है। हमारे सैनिकों की तलवारों के तीरों के कारण हिंदू अविश्वासी भाप की तरह समाप्त कर दिये गये हैं, हिन्दुओं में शक्तिशाली लोगों को पांवों तले रौंद दिया गया है। इस्लाम जीत गया है, मूत्र्ति पूजा हार गयी है, दबा दी गयी है।”
हिन्दू पुरूष मुसलमानों के लिए क्रय विक्रय की वस्तु बन कर रह गयी थी। अमीर खुसरो ही लिखता है-”तुर्क जब चाहते थे, हिंदुओं को पकड़ लेते क्रय कर लेते या बेच देते थे।”
जिस आर्य-हिन्दू ने ऐसी अमानवीय दासता का नाम तक न सुना हो उसे वह कैसे सहन कर सकता था?
काजी ने बताया हिंदू के लिए कानून
‘तारीखे फिरोजशाही’ का लेखक बरनी हमें बताता है कि-”एक सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने काजी से पूछा कि इस्लामी कानून में हिंदुओं की क्या स्थिति है? काजी ने उत्तर दिया-”ये भेंट कर देने वाले लोग हैं और जब आप अधिकारी इनसे चांदी मांगे तो इन्हें बिना किसी, कैसे भी प्रश्न के, पूर्ण विनम्रता व आदर से सोना देना चाहिए।  यदि अधिकारी इनके मुंह में धूल फेंके तो इन्हें उसे लेने केे लिए मुंह खोल देना चाहिए। इस्लाम की महिमा गाना इनका कत्र्तव्य है….अल्लाह इन पर घृणा करता है, इसीलिए वह कहता है, ”इन्हें दास बनाकर रखो।” हिन्दुओं को नीचा दिखाकर रखना एक धार्मिक कत्र्तव्य है, क्योंकि हिन्दू पैगंबर के सबसे बड़े शत्रु है, (कु. 8:55) और चूंकि पैगंबर ने हमें आदेश दिया है कि हम इनका वध करें, इनको लूट लें, इनको बंदी बना लें, इस्लाम में धर्मान्तरित कर लें या हत्या कर दें, (कु. 9:5) इस पर अलाउद्दीन ने उस काजी से कहा-”अरे काजी! तुम तो बड़े विद्वान आदमी हो कि यह पूरी तरह इस्लामी कानून के अनुसार ही है कि हिंदुओं को निकृष्टतम दासता और आज्ञाकारिता के लिए विवश किया जाए….हिंदू तब तक विनम्र और दास नही बनेंगे जब तक इन्हें अधिकतम निर्धन न बना दिया जाए।” (संदर्भ : तारीखे फिरोजशाही-बरनी अनु. इलियट एण्ड डाउसन, खण्ड तृतीय पृष्ठ 184-85)बरनी हमें बताता है कि सुल्तान अलाउद्दीन की क्रूरता और कठोरता के कारण हिंदू महिलाएं और बच्चे मुसलमानों के घर भीख मांगने के लिए विवश थे। (संदर्भ : ‘तारीखे फिरोजशाही’ और ‘फतवा ए-जहांदारी’ इलियट, एण्ड डाउसन खण्ड तृतीय)
बरनी से ही हमें पता चलता है कि-”घर में काम आने वाली वस्तुएं जैसे गेंहूं, चावल, घोड़ा और पशु आदि के मूल्य जिस प्रकार निश्चित किये जाते हैं, अलाउद्दीन ने बाजार में ऐसे ही दासों के मूल्य भी निश्चित कर दिये थे। एक लड़के का मूल्य 20-30 तन्काह तय कर दिया गया था, किंतु उनमें से अभागों को मात्र 7-8 तन्काह में ही खरीदा जा सकता था। दास लड़कों का उनके सौंदर्य और कार्यक्षमता के आधार पर वर्गीकरण किया जाता था, काम करने वाली लड़कियों का मानक मूल्य 5-12 तन्काह, और सुंदर उच्च परिवार की लड़की का मूल्य 20-40 तन्काह और सुंदर उच्च परिवार की लड़की का मूल्य एक हजार से लेकर दो हजार तन्काह होता था। (हिस्ट्री ऑफ खिलजी: के.एस. लाल)
समकालीन और इतिहास लेखकों के इस वर्णन से स्पष्ट है कि हिंदुओं के लिए दासता का अर्थ क्या था? ऐसे अमानवीय अत्याचारों को देखकर कठोर हृदय भी पिघल जाएगा, परंतु  हमारे पूर्वजों ने उस समय इन्हें झेला था, और अपना धर्म बचाया था। इन कष्टों के बीच रहकर भी स्वतंत्रता संघर्ष को चलाना कितना साहसिक कार्य था-यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
हमारा कत्र्तव्य है कि-…..
ऐसी परिस्थितियों में हमारा कत्र्तव्य है कि हम अपने महान पूर्वजों के बलिदान की प्रशस्ति लिखने वाला इतिहास पढ़ें, लिखें और सुनें। प्रशस्ति योग्य लोगों की निंदा बहुत हो चुकी, अब तो प्रशस्ति लेखन की बेला है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था-
”जो कुछ भी हो उन्होंने (विदेशी इतिहासकारों ने भारत का इतिहास लिखकर) हमारा मार्गदर्शन किया है किहमारे प्राचीन इतिहास के शोध के लिए किस प्रकार अग्रसर हुआ जाए? अब यह हमारे लिए है कि हम अपने  लिए ऐतिहासिक शोध का अपना स्वतंत्र मार्ग निकाल लें। हम वेदों, पुराणों और अन्य भारत के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें, और उनमें से जीवन की साधना कर, उचित, सही हृदय प्रेरक देश का इतिहास निर्माण करें। यह भारतीयों का ही कत्र्तव्य है कि वे अपना इतिहास स्वयं लिखें।”
इसी संदर्भ में योगी अरविंद कहते हैं-
”हमें अपने बच्चों के कानों में उनके बचपन से ही देश के भाव भर देने हैं, और हर बार उनके संपूर्ण युवक जीवन को, गुणों के अभ्यास का एक पाठ बना देना है, जिससे कि वे भविष्य में देशभक्त और अच्छे नागरिक बन जाएं। यदि हम ऐसा प्रयास नही करते तो हमें भारतीय राष्ट्र के निर्माण के  विचार को ही पूर्णत: त्याग देना चाहिए। क्योंकि ऐसे अनुशासन के अभाव में राष्ट्रवाद देशभक्ति पुनर्निमाण केवल शब्द मात्र ही रह जाएंगे।”
योगी अरविंद अन्यत्र कहते हैं-”आध्यात्मिक विकास (विस्तार) की इच्छा से ही शारीरिक विकास एवं विस्तार प्रारंभ होता है, और इतिहास इस आग्रह का साक्षी है। तब भारत ही विश्व की ऐसी महान शक्ति क्यों बने? विश्व के ऊपर आध्यात्मिक विजय को विस्तीर्ण करने का भारत के अतिरिक्त किसे विरोध रहित अधिकार है?….अपनी आध्यात्मिकता की महानता की सर्वशक्तिशाली भावना के द्वारा  भारत को अपनी महानता का पुन: ज्ञान कराया जा सकता है। यह महानता की भावना ही संपूर्ण देशभक्ति का प्रमुख पोषक है।”
धर्मांतरित हिन्दू उच्च पदाधिकारियों का विद्रोह
हमने पूर्व में नव मुस्लिमों के स्वतंत्रता संघर्ष की बात कही है, कि किस प्रकार उन लोगों ने मुस्लिम सुल्तानों के विरूद्घ जिस विद्रोह का झण्डा उठा लिया था? अब अलाउद्दीन की मृत्यु (1306 ई.) के पश्चात कुछ उच्च पदाधिकारी धर्मांतरित मुस्लिमों ने भी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। इनमें प्रमुख था गुजरात प्रांत का शासक हिसामुद्दीन। कुुतुबुद्दीन खिलजी के शासनकाल में उसने मुस्लिम क्रूरता से दुखी होकर स्वतंत्रता का मार्ग अपनाया। वह एक अपहृत हिंदू लड़का था, जिसे कितनी ही बार बेंतों से बड़ी निर्ममता से पीटा गया था। उसने गुजरात में अपने हिंदू समर्थकों को साथ मिलाकर स्वतंत्रता  की घोषणा कर दी। परंतु उसकी योजना फलीभूत नही हो सकी और उसे गिरफ्तार करके मुस्लिमों ने दिल्ली भेज दिया।
इसी प्रकार धर्मांतरित खुसरू खां सदा हिंदुस्तान के मुस्लिम अपहरण एवं विध्वंस का प्रतिशोध लेने का अवसर खोजता रहता था।
इसलिए उसने दिल्ली से दूर (मालाबार प्रदेश) होने का लाभ उठाना चाहा। उसने कुछ अन्य धर्मांतरित सरदारों से जिन्हें दमन, पीड़ा और यंत्रणा ने मुसलमान बनाया था, तथा कुछ मुसलमानों से जो अपनी कुछ मांगों के कारण सुल्तान से नाराज थे, बातचीत करनी आरंभ कर दी। इन लोगों में से चंदेरी के मलिक तमार मलिक तलबाधा याघद तथा मलिक अफगान के पास यथेष्ट सेना थी।
इन तीनों ने (स्वतंत्रता के लिए किये जाने वाले विद्रोह से पूर्व ही) खुसरू खां से जलकर सुल्तान का कृपापात्र बनने के लिए सुल्तान के कान भरने आरंभ कर दिये।”
सुल्तान ने इन तीनों की ही बात पर विश्वास नही किया और उन्हें दंडित और कर दिया। अत: खुसरू खां के प्रयास धीरे-धीरे निरंतर जारी रहे। उसने कितने ही गुजरातियों को महत्वपूर्ण पद प्रदान कर दिये।
खुसरू खान की योजना रंग दिखाने लगी
इन लोगों की संख्या वृद्घि होने पर शक्ति में भी वृद्घि होने लगी। ये लोग रात्रि में महल में प्रवेश करते और खुसरू खां से मिलते तब इन्हें एक दिन काजी जियाद्दीन ने देख लिया और सुल्तान से इनकी शिकायत करनी चाही तो हिंदू देशभक्तों ने कई मुस्लिमों को रात्रि में मार डाला।
उस समय कहते हैं, खुसरू खां सुल्तान के पास था, सुल्तान ने काजी की चीख सुनी तो पूछा कि क्या हो गया है? जब खुसरू ने कह दिया कि कुछ घोड़े रस्सा तुड़ाकर भाग रहे थे, उन्हें पकड़कर बांधा जा रहा है।
हिंदू वीर जाहरिया इसी समय अपने सैकड़ों गुजराती हिंदूवीरों के साथ सुल्तान के महल में आ धमका। सुल्तान भयभीत हो गया। वह अपने हरम की ओर भागने को ही था कि खुसरू ने उसे बालों से पकड़ा और धरती पर पटक मारा। जाहरिया ने नीचे पड़े सुल्तान का सिर अपने भाले से उतार दिया।
पी.एन. ओक महोदय लिखते हैं-”इसके पश्चात वीर हिंदू महल और झरोखें से सभी कांटों को, जिन्होंने चुभने का दुस्साहस किया, उखाड़ फेंका और सफाई अभियान में लग गये। मशालें जला लीं, और सुल्तान के सिर विहीन शरीर को गैलरी के बाहर नीचे प्रांगण में फेंक दिया, सुल्तान के अंगरक्षक भयभीत होकर अपने-अपने घर अपनी-अपनी पत्नियों के बुरकों में छिप गये। अनेक हिन्दू नारियों को सुल्तान और अन्य  मुसलमानों ने शीलहीन कर अपने-अपने शयनागारों में सजा रखा था, उन्हें एक बार फिर स्वतंत्रता की मुक्त सांस लेने केे लिए मुक्त कर दिया गया था।
दिल्ली को करा लिया स्वतंत्र
अपहृत और असहाय ंिहन्दू नारियों पर अत्याचार करने वाली अलाउद्दीन की एक कुख्यात विधवा भागना चाह रही थी, तो उसे पकड़कर उसका सिर कलम कर दिया गया। यह घटना 1320 ई. की है। जब एक हिन्ंदू वीर ने अपनी योजना के अंतर्गत दिल्ली से सल्तनत को समाप्त कर देने में सफलता प्राप्त की। खुसरू खां के साथी सभी हिंदू थे, और वह हिंदू स्वतंत्रता के लिए कार्य भी कर रहा था, जब वह सुल्तान बना तो गुजरात की राजकुमारी देवल देवी उसकी रानी बनी।
खुसरू की अगली योजना अपने देश को मुस्लिम शासन से मुक्त कराने की थी। ऊपर से उसने नासिरूद्दीन की उपाधि ग्रहण कर ली थी। परंतु उसका ध्येय कुछ और भी था। जिसे यह सुल्तान सिरे नही चढ़ा पाया, क्योंकि वह एक युद्घ में सेना के हाथों शीघ्र ही वीरगित प्राप्त हो गया था।
बरनी ने इस सुल्तान के विषय में लिखा है-‘अपने सिंहासनारोहण के पांच ही दिन के भीतर उस तुच्छ तथा पतित ने महल में मूर्ति पूजा आरंभ करा दी।
हिंदुओं ने अपने अधिकार के नशे में कुरान का कुर्सी के स्थान पर प्रयोग करना आरंभ कर दिया। मस्जिद की ताकों में मूर्तियां रख दी गयीं, और मूर्ति पूजा होने लगी।…हिंदू समस्त इस्लामी राज्य में उत्पात मचा रहे थे। देहली में पुन: हिंदुओं का राज्य स्थापित हो गया। इस्लामी राज्य का हो गया अंत।”
इस हिंदू क्रांति को इतिहास से कितनी सावधानी से निकाल दिया गया है, यह देखकर दु:ख होता है।
इस खुसरू की हत्या करके ही गयासुद्दीन तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।

विश्वात्मा भाषा -संस्कृत

विश्वात्मा भाषा -संस्कृत


भारत जब-जब भी भारतीयता की और भारत केे आत्म गौरव को चिन्हित करने वाले प्रतिमानों की कहीं से आवाज उठती है, तो भारतीयता और भारत के आत्मगौरव के विरोधी लोगों को अनावश्यक ही उदरशूल की व्याधि घेर लेती है। अब मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने कहीं संस्कृत के लिए कुछ करना चाहा है तो उस पर भी संस्कृत विरोधियों ने शोर मचाना आरंभ कर दिया।

विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसके पास एक ऐसी भाषा संस्कृत के रूप में जीवित है, जिसे विश्व की समस्त भाषाओं की जननी होने का गौरव प्राप्त है। वस्तुत: विश्व में वास्तविक अर्थों में वैज्ञानिक भाषा यदि कोई है तो वह संस्कृत ही है, इसके अतिरिक्त अन्य भाषायें भाषा नही हैं, अपितु वे बोलियां हैं। भारत की संस्कृत के विषय में कुछ विदेशी विद्वानों के मत इस प्रक ार हैं-

मि. डब्ल्यूसी. टेलर का कथन है-‘‘यह एक आश्चर्य जनक खोज है कि राज्य और समय के परिवर्तन  के उपरांत भी भारत स्वामी रहा है-एक ऐसी अतुलनीय महान और विभिन्नताओं से भरी भाषा का, यूरोप में फैली समस्त भाषाओं की जननी भाषा का, जिन्हें यूरोपवासी बड़े गर्व से प्रतिष्ठित एवं शास्त्रीय भाषा कहते हैं जो ग्रीक भाषा के लचीलेपन एवं रोमन भाषा की शक्ति का स्रोत है। भारत के पास ऐसा दर्शन जिसकी तुलना में पाइथागोरस का दर्शन चिंतन की दृष्टि से कल की बात जैसा लगता है। प्लेटो के प्रयास भी निर्जीव एवं सामान्य से लगते हैं, भारत के पास ऐसा बुद्घिपूर्ण काव्य था जिसकी तुलना की हम कल्पना भी नही कर सकते थे। यह साहित्य अपने विराट अंश के साथ, शब्दाम्बरों के बिना भी वर्णित किया जा सकता है। यह अकेला खड़ा रह सकता है, इसमें अकेले खड़े रहने की क्षमता है।’’

काउंट ब्जोर्नस्टजरना का कहना है-‘‘भारत का (संस्कृत) साहित्य हमें प्राचीन काल के एक ऐसे महान राष्ट्र से परिचित कराता है, जो ज्ञान की प्रत्येक शाखा को कसकर पकड़े हुए है और मानवता की सभ्यता के इतिहास में सदैव ही एक विशिष्ट स्थान रखता है।’’

प्रो. मैक्डोनल ने कहा है-‘‘संस्कृत साहित्य के यूरोप पर बौद्घिक ऋण को कोई भी नही झुठला सकता। आगे आने वाले वर्षों में यह और भी महान प्रभाव डालेगा।’’

प्रो. हीरेन का कहना है-‘‘संस्कृत भाषा का साहित्य निर्विवाद रूप से उच्चकोटि के विद्वानों की देन है जिनके संबंध में हमारे पास यह मानने के प्रचुर कारण हैं कि वे लोग पूर्व के संबंध में सभी बातों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता थे। इसके साथ-साथ वह एक वैज्ञानिक तथा कवितामय साहित्य हैं।’’

प्रो. मैक्समूलर का कथन है-‘‘संस्कृत साहित्य के गं्रथों की संख्या जिनकी पाण्डुलिपि आज भी उपलब्ध है, दस हजार के लगभग है, मैं  समझता हूं कि ग्रीक और इटली के सभी ग्रंथों की एक साथ रखने पर भी यह संख्या उनसे अधिक होगी।’’

सरविलियम जोंस का कहना है-‘‘मनुष्य का पूरा जीवन भी हिंदू साहित्य के किसी एक भाग से भी पूर्णतया परिचित होने के लिए पर्याप्त नही हैं।’’

श्रीमती सोनिया कहती हैं-‘‘हिंदुओं के मस्तिष्क इतने अधिक विकसित थे जितना कि एक मानव के लिए संभव है।’’

रोवे वार्ड का कहना है-‘‘कोई भी युक्तिवान पुरूष प्राचीन काल के हिंदुओं की महान विद्वता की प्रशंसा किये बिना नही रह सकता। उन विषयों की विविधता जिन पर उन्होंने लिखा है, को देखकर यही कहा जा सकता है कि वे लोग प्रत्येक ज्ञान विज्ञान से पूर्ण रूपेण परिचित थे।’’ संस्कृति की प्रशंसा में विदेशियों ने जितना लिखा है उतना बताने के लिए यह आलेख उतना ही छोटा होगा।  जितना एक सागर के लिए एक गागर छोटा पड़ जाया करता है। हमारे संस्कृत साहित्य की विशेषता है कि यह हमें उत्कृष्टतम चिंतन देता है और बताता है कि विश्व में हम कितने उत्कृष्ट ज्ञान के स्वामी रहे हैं।

एक हम ही रहे हैं जो आदि मानव समाज को उत्कृष्ट ज्ञान का स्वामी मानते हैं और आज के वर्तमान वैज्ञानिकयुग को उस ऋषियुग के समक्ष बहुत ही तुच्छ मानता है। हम उन्नति में रहे। मानव समाज को अवन्नति से निकालकर पुन: उन्नति के सोपानों की ओर बढ़ाने का प्रयास करते हैं और वे आज की उन्नति को ही मानव की अभूतपूर्व उन्नति मानते हैं। इसका कारण है कि आज आर्थिक उन्नति को ही मनुष्य की वास्तविक उन्नति मान लिया गया है, हमारे यहां मनुष्य की आत्मोन्नति को ही वास्तविक उन्नति माना जाता था। आत्मोन्नति में भावों की पवित्रता और निर्मलता को अधिक वरीयता दी जाती है जबकि अर्थोन्नति में भाव चाहे जितने प्रदूषित हों पर  वाणी में वाकचातुर्य झलकना अनिवार्य है यहां आशय (इरादा-Intention) छिपाया जाता है और हमारे द्वारा आशय को समझाया जाता है, यह मौलिक अंतर है-वैज्ञानिक भाषा और बनावटी भाषा में, और आत्मान्नति एवं अर्थोन्नति में। भारत स्वतंत्रता के पश्चात भाषा को लेकर जिस संशय के पालने में झूलता रहा है, वह संशय ही इस आध्यात्मिक राष्ट्र की वर्तमान दुर्दशा का कारण है।

यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें विदेशी बताते हैं कि सर आपकी भाषा विश्व की समस्त भाषाओं की जननी है, यह ज्ञान विज्ञान का अक्षय स्रोत है और मानवता इसके बिना अपंग है, लंगड़ी है, अपाहिज है।….और हम स्वीकृति में इस प्रकार ग्रीवा हिलाते हैं कि कोई देख ना ले। क्योंकि यदि स्वीकृति में ग्रीवा हिलाते भी देख लिया तो कहीं ऐसा ना हो कि हम पर साम्प्रदायिक या भगवावादी होने का आरोप लग जाए। इसी भय और संकोच के कारण हमने अपनी भाषा को साम्प्रदायिक बना दिया, जबकि विश्व का शुद्घतम और उत्कृष्टतम मानवतावाद यदि कहीं है तो वह संस्कृत साहित्य में है। अन्य ग्रंथों में ‘साम्प्रदायिक मानवतावाद’ है। ‘साम्प्रदायिक मानवतावाद’ एक नया शब्द हो सकता है, पर यह सच है कि ऐसी विचारधाराएं भी हैं, जो साम्प्रदायिक मानवतावादी हैं, और वह विश्व को नष्ट करने पर तुली हैं।

यह अत्यंत प्रशंसनीय कार्य होगा कि संस्कृत को विश्वात्मा भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए भारत में सम्मान दिया जाए। हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी हो सकती है, पर विश्व को योग का रहस्य समझाकर आत्मा परमात्मा का मिलन कराने वाली भाषा तो संस्कृत ही हो सकती है। यदि विश्वपटल पर ‘योगरहस्य’ की बात भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उठा सकते हैं तो उनसे आगे के लिए आशा की जाती है कि वह संस्कृत को ‘विश्वात्मा भाषा’ के रूप में भी मान्यता दिलाने की बात करेंगे। कितने गौरव की बात है कि जर्मनी का महान संस्कृत प्रेमी डा. लुडविग अपने जीवन भर की कमाई (लगभग साठ लाख रूपया) को संस्कृत केे विकास के लिए दे गया। यह राशि उस महान आत्मा ने डी.ए.वी. कालेज कमेटी को और विश्वेश्वरानंद वैदिक शोध संस्थान होशियारपुर को प्रदान की थी। सेंट पीटर्स वर्ग लैक्सिकन ने (सात खण्डों के लगभग पंद्रह हजार पृष्ठों में) संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी के संस्कृत प्रचार में जो महान योगदान दिया वह भी हम भारतीयों के लिए शिक्षाप्रद है।

भारत में संस्कृत का विरोध नही है, विरोध है-भारत की निजता का और भारत के गौरवपूर्ण अतीत का। इसलिए प्रयास किया जाता है कि भारत को निजता और आत्मगौरव का बोध होने से रोका जाए। शेर सयारों में घास दाना तो चुगता रहे पर उसे अपने शेरत्व का बोध ना हो। देखते हैं कि यह षडयंत्र कब तक चलता है?

घर वापसी को लेकर हो रही बहस

घर वापसी को लेकर हो रही बहस

                      कुछ दिन पहले आगरा में दो सौ के लगभग मुसलमान , जिनके पूर्वज , जिन दिनों हिन्दुस्तान पर विदेशियों का राज था  उन दिनों किन्हीं कारणों से मुसलमान बन गये थे , वापिस अपने पूर्वजों की विरासत में लौट आये । यह एक ऐसी सामान्य घटना थी जिसका कोई भी नोटिस क्यों लेता । यदि कोई अपना घर छोड़ गया हो और कुछ अरसे के बाद अपने घर में वापिस आ  जाये तो घर के लोग उसका स्वागत करेंगे ही । और आगरा में यही हुआ । यह भी सच है कि घर से बाहर गया व्यक्ति , इतने लम्बे काल तक जिन के साथ रहा हो वे भी उसके वापिस लौट जाने का दुख मनायेंगे ही । यहाँ तक तो सब ठीक है । लेकिन इतना तो वे भी जानते हैं कि आख़िर किसी को घर वापिस जाने से रोका तो नहीं जा सकता । आगरा में भी यही हुआ । लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में इतना और हुआ कि घर वापिसी की इस घटना को अख़बारों ने ख़बर मान कर छाप दिया । प्रिंट मीडिया के लिये तो यह महज़ कुछ पंक्तियों की ख़बर मात्र थी लेकिन इलैक्ट्रोंनिक मीडिया की बात अलग है । उसे अपनी ख़बर से प्रभाव निर्मित करना होता है । उसकी दुकान चौबीस घंटे खुली रहने वाली है । साँस लेने तक की फ़ुर्सत नहीं है । उपर  से आपस में ज़बरदस्त मुक़ाबले का ज़माना है । इलैक्ट्रोंनिक मीडिया ने रस्सी को साँप बना कर किसी कुशल जादूगर की तरह श्रोताओं को चौंकाना है । इसलिये अचानक जब उसे आगरा में कुछ लोगों की घर वापिसी की रस्सी मिली तो उसने उसे साँप बना कर अपने उद्योग को खाद पानी देना शुरु कर दिया । उसने रस्सी को साँप बनाने में क्या क्या फूहड़पन की हरकतें की इसकी चर्चा बाद में , पहले दिल्ली की बात कर लें ।

                                          जिस समय आगरा में घर वापिसी की यह घटना हुई उस समय दिल्ली में संसद चल रही है । ताज्जुब तब हुआ जब कुछ गिने चुने लोगों ने संसद को इसी बात को लेकर ठप्प कर दिया । संसद में लोग इस घर वापिसी को मतान्तरण या धर्मान्तरण बता रहे थे । उनका कहना था कि जो लोग घर वापिस आये हैं , उनके लिये जिन्होंने घर का दरवाज़ा खोला है , उनको तुरन्त सज़ा दी जाये । उनका तर्क यह था कि यदि घर छोड़ कर चले गये लोगों के लिये घर के लोग ऐसे दरवाज़ा खोलते रहे तो देश एक बार फिर बँट जायेगा ।

                   इस अवसर पर बाबा साहिब आम्बेडकर की याद आती है । देश को हिन्दू और मुसलमान के आधार पर बाँटने की तैयारियाँ चल रही थीं । जिन्नाह इस के कर्ता धर्ता थे लेकिन अब कांग्रेस भी इसके लिये सहमत हो गई थी । जिन्ना के पूर्वज हिन्दू ही थे लेकिन अपना घर छोड़ कर कभी मुसलमान हो गये थे । घर छोड़ने का इतना दुष्परिणाम हुआ कि जिन्नाह तक आते आते आते घर तोड़ने की बातें होने लगीं । तब लाला हरदयाल ने कहा था कि हिन्दोस्तान पर मुसलमानों के सब हमले अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते से ही हुये थे । इसके कारण सबसे पहले अफ़ग़ानिस्तान के लोग ही अपनी विरासत का घर छोड़ कर हिन्दू से मुसलमान हो गये थे । यदि ये लोग अपने घर वापिस लौट आयें तो हिन्दुस्तान सुरक्षित हो सकता है । बाबा साहिब आम्बेडकर ने उनकी इस इच्छा का उत्तर कालान्तर में अपनी पुस्तक थाटस आन पाकिस्तान में दिया था । उनका कहना था कि इस्लाम अपने घर में आने की अनुमति तो देता है लेकिन अपने घर से वापिस जाने की अनुमति नहीं देता ।”

                 यह एक ऐसा भवन है जिसके अन्दर आने के लिये दरवाज़े खुले रहते हैं । इतना ही नहीं इसमें लोगों को ज़बरदस्ती घेर कर भी अन्दर लाया जाता है । लेकिन एक बार यदि कोई व्यक्ति , चाहे किसी भी कारण से ही इस घर के अन्दर चला जाता है तो उसके बाद उसे यह घर छोड़ने की अनुमति नहीं है । यदि कोई व्यक्ति इस घर को छोड़ने की कोशिश करता है या दीवार फाँदने की कोशिश करता हुआ पकड़ा जाता है तो उसे गोली मार दी जाती है । क्या पाकिस्तान में कोई व्यक्ति , जिसके पुरखे कभी औरंगज़ेब के काल में , हिन्दू से मुसलमान हो गये थे , आज वापिस अपने पुरखों की विरासत के घर , यानि हिन्दू विरासत में वापिस आ सकता है ? इसकी सज़ा वहाँ के क़ानून में ही मौत है । यह तो ख़ुदा का शुक्र है कि हिन्दुस्तान इस्लामी देश नहीं है , नहीं तो आगरा के घर वापिस आने वाले इन लोगों को गोली मार दी जाती । आगरा से लेकर दिल्ली तक जो लोग चिल्ला रहे हैं कि इन लोगों को घर वापिसी की इजाज़त किसने दी , उनका भाव केवल यही है कि हमारा बस चलता तो हम तो घर का दरवाज़ा खोलने वालों को उड़ा देते । लेकिन जो घर के अन्दर आये हैं उनका क्या हश्र होता इसका अन्दाज़ा लगाया जा सकता है ।

                                जो घर छोड़ कर जा रहा है , उसे तो पूछा ही जाना चाहिये कि भाई क्यों जा रहे हो ? यह जाँच भी करना जरुरी है कि क्या कोई बरगला तो नहीं रहा ? लेकिन जो घर वापिस आ रहा हो , उसके लिये दरवाज़े बन्द कर देना तो अमानवीय ही माना जायेगा । लेकिन जब संसद में इसी मुद्दे पर बहस होने लगी और इसे धर्मान्तरण ही कहा जाने लगा तो आख़िर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को भी कहना पड़ा कि आख़िर यह बहस किस बात को लेकर हो रही है । भाव यही था कि सम्बंधित लोगों और पक्षों को इस घटनाक्रम को लेकर कोई आपत्ति नहीं है लेकिन दिल्ली में बैठ कर कुछ लोग अपने राजनैतिक हितों के लिये पानी को पेट्रोल बनाना चाहते हैं ।

                      अब फिर दिल्ली के ही इलैक्ट्रोंनिक मीडिया की बात की जाये । वैसे तो बहस को संचालित करने वाले अधिकांश एंकरों का जो स्तर और अध्ययन है , उसे देखते हुये उन पर नाराज़ होना बेमानी है , लेकिन कुछ की बातें सुन कर तो कोफ़्त होती है । लगता है ये पानी का पेट्रोल तो मालिकों के कहने पर बनाते हैं , क्योंकि इनके मालिकों को अपने मीडिया उद्योग से पैसा कमाना है लेकिन अपने घर से माचिस ख़ुद लाकर इस पेट्रोल को आग लगाने का काम शायद ये अपनी इच्छा से ही करते हैं । क्योंकि इनको भी मालिकों के आगे कारगुज़ारी दिखाना होती है । एक चैनल पर एक एंकर चिल्ला चिल्ला कर ग़ुस्सा हो रहा था कि बजरंग दल वालों की हिम्मत तो देखिये , वे कह रहे हैं कि शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के पुरखे भी  हिन्दू थे । उस एंकर को लगता था कि इससे बड़ा झूठ कोई हो ही नहीं सकता । उसका कहना था कि जो घर वापिसी हो रही है , उसे रोकने के लिये तुरन्त क़ानून बना देना चाहिये । बहस में भाग लेने वालों ने इसका क्या उत्तर दिया यह तो नहीं पता लेकिन कुछ देर बाद जब शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के पौत्र और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ही स्पष्ट कहा कि कश्मीर के सभी मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे और कश्मीर में इस्लाम बाहर से आया तो जिस चैनल का ज़्यादा उत्तेजित एंकर इसे सदी का सबसे बड़ा झूठ मान रहा था , उसके मालिक का चैनल भी उमर के बयान को प्रमुखता से प्रसारित कर रहा था । मुझे नहीं पता उस एंकर को इसका भी अर्थ समझ आया या नहीं । लेकिन सोनिया कांग्रेस के ही एक स्वयंभू नेता राशिद अल्बी हलकान हो रहे थे कि उन्हें अपने पूर्वजों पर गर्व है । यह अच्छी बात है । लेकिन उनके पूर्वज कौन थे , इस पर चुप्पी साध रहे थे । उनसे हिम्मत वाले तो उमर अब्दुल्ला ही निकले जिन्होंने छाती ठोक कर कहा कि मेरे पूर्वज हिन्दू थे । लेकिन जो लोग आगरा में हुई घर वापिसी की इस घटना को लेकर आसमान सिर पर उठा रहे हैं , उन्हें न तो पूर्वजों से कुछ लेना देना है और न ही इतिहास से । उनके लिये तो असली मुद्दा अगले चुनावों में मुसलमानों की कुछ वोटें मिल जायें , यही है । इसी के कारण में संसद के अन्दर और बाहर आस्तीनें चढ़ा रहे हैं ।

रविवार, 7 दिसंबर 2014

रानी पद्मिनी,गोरा-बादल और गोरा की पत्नी की वीरता एवं अद्वितीय देशभक्ति

रानी पद्मिनी,गोरा-बादल और गोरा की पत्नी की वीरता एवं अद्वितीय देशभक्ति



भारत में नारी को उसके नारी सुलभ ममता,  करूणा, स्नेह आदि गुणों के कारण अबला भी कहा गया है। परंतु नारी का वेदों ने एकवीरांगना के रूप में भी चित्रण किया है। उसे हर स्थिति में पति की रक्षिका ध्वजवाहिका और शत्रु संहारिका के रूप में भी वर्णित किया गया है। स्वेच्छा से जौहर करने वाली राजा दाहर की रानी बाई एक वैदिक वीरांगना थी। जौहर या सती प्रथा अपराध तब हुई जब नारी को चिता में उसके पति के साथ बलात् जलाया जाने लगा। इसलिए एक वीरांगना का अति सराहनीय कार्य भी हमारी दृष्टि से कहीं दूर ओझल हो गया। हमने बलात् सती करने वाले अपराधियों के अपराध की विभीषिका में बलिदानी वीरांगना बाई को भी भुला दिया।

रानी बाई ने किया था पहला जौहर

हम सती प्रथा या बलात् जौहर के समर्थक नही हैं, परंतु जिस वीरांगना रानी बाई ने इसे सर्वप्रथम अपनाया था, उसकी वीरता और अपने धर्म को बचाने के लिए उसके साहस की पराकाष्ठा तो देखिए कि उसने आत्मोत्सर्ग का यही ढंग ढूंढ़ लिया कि पति के वीरगति पाने का समाचार मिलते ही स्वयं को अग्नि के समर्पित कर दिया। हम इस आदर्श देशभक्ति और पति भक्ति के प्रशंसक अवश्य हैं। भारतीय नारियों को वीरांगना होने की यह प्रेरणा वेद से मिली। हमने नारी के विषय में ये पंकित्यां स्मरण कर ली हैं :-

अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी,

आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।

वेदों ने कहा नारी वीरांगना है

पर हमने वेद के उन संदेशों को भुला दिया जिनमें नारी को अबला, दीनहीन और मतिहीन न मानकर उसे वीरांगना माना है।

पारस्कर गृहय सूत्र (1/7/1) में आया है कि ‘आरोहेममश्मानम् अश्वेमेव त्वं स्थिरा भव।

अभितिष्ठ पृतन्यतो अबवाधस्व पृतनायत:।।

अर्थात (सुदृढ़ता प्राप्त करने के लिए) तू इस शिला पर आरोहण कर। जैसे यह शिला स्थिर तथा सुदृढ़ है, ऐसे ही तू भी स्थिर और सुदृढ़ गात्री बन। आक्रमणकारियों को परास्त कर। सेना द्वारा चढ़ाई करने वालों को बाधित कर।

यजुर्वेद (5/10) में आया है-‘‘हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी है, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली है, देवजनों के हितार्थ अपने भीतर, सामथ्र्य उत्पन्न कर। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की भांति है। तू दुष्कर्मों एवं दुव्र्यसनों को शेरनी के समान विध्वंसित करने वाली है, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।’’

यजुर्वेद (5/12) में कहा गया है-‘‘हे नारी तू शेरनी है, तू आदित्य ब्रह्मचारियों की जन्मदात्री है। हम तेरी पूजा करते हैं। हे नारी! तू शेरनी है, तू ब्राह्मणों की जन्मदात्री है, तू क्षत्रियों की जन्मदात्री है, हम तेरा यशोगान करते हैं।’’

यजुर्वेद (10/16) में नारी को क्षात्रबल की भंडार कहा गया है। जबकि यजु (13/16) में उसके लिए कहा गया है कि-‘‘हे नारी! तू धु्रव है, अटल निश्चय वाली है, सुदृढ़ है, अन्यों को धारण करने वाली है। विश्वकर्मा परमेश्वर ने तुझे विद्या, वीरता आदि गुणों से आच्छादित किया है। ध्यान रख, समुद्र के समान उमडऩे वाला रिप ुदल तुझे हानि न पहुंचा सके, गरूड़ के समान आक्रांता तुझे हानि न पहुंचा सके। किसी से पीडि़त होती हुई तू राष्ट्रभूमि को समृद्घ कर।’’

यजुर्वेद (13/26) में कहा गया है-‘‘हे नारी! तू विघ्न बाधाओं से पराजित होने योग्य नही है, प्रत्युत विघ्न बाधाओं को पराजित कर सकने वाली है। तू शत्रुओं को परास्त कर, सैन्य दल को परास्त कर, तू सहस्रवीर्या है, अपनी वीरता प्रदर्शित करके तू मुझे प्रसन्नता प्रदान कर।’’

ऋग्वेद (8/18/5) में आया है कि-‘‘हे नारी! जैसे तू शत्रु से खंडित न होने वाली, सदा अदीन रहने वाली वीरांगना है, वैसे ही तेरे पुत्र भी अद्वितीय वीर हैं।’’

ऋग्वेद (10/86/10) में नारी के लिए कहा गया है कि वह आवश्यकता पडऩे पर बलिदान के स्थल संग्राम में जाने से भी नही हिचकती। यहां से सत्य की विधात्री वीर पुत्रों की माता वीर की पत्नी कहकर उसे महिमान्वित किया गया है।

यजुर्वेद (16/44) में नारी को कहा गया है कि तू शत्रुओं के प्रति प्रयाण कर, उनके हृदयों को शोक से दग्ध कर दे। तेरे शत्रु निराशारूप घोर अंधकार से ग्रस्त हो जाएं।

ऋग्वेद (6/65/15) में आया है कि जो वीरांगना विष लिप्त बाण के समान रण संहार करने वाली है जो रक्षार्थ सिर पर मृग के सींगों का बना शिरस्त्राण धारण करती है, जिसका सामने का भाग लोह कवच से आच्छादित है, जो पर्जन्य वीर्या है, अर्थात बादल के समान शस्त्रास्त्रों की वर्षा करने वाली है उस बाण के समान गतिशील, कर्मकुशल, शूरवीर देवी को हम भूरि-भूरि नमस्कार करते हैं।’’

ऋग्वेद (10/159/2) में नारी अपने विषय में कहती है-‘‘मैं राष्ट्र की ध्वजा हूं, मैं समाज का सिर हूं। मैं उग्र हूं, मेरी वाणी में बल है। शत्रु सेनाओं को पराजय करने वाली मैं युद्घ में वीर कर्म दिखाने के पश्चात ही पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी हूं।’’

ऋग्वेद (10/159/4) का कहना है कि-‘‘जिस आत्मोसर्ग की छवि से मेरा वीर पति कृत कृत्य यशस्वी तथा सर्वोत्तम सिद्घ हुआ है, वह छवि आज मैंने भी दे दी है। आज मैं निश्चय ही शत्रु रहित हो गयी  हूं।’’ इससे अगले मंत्र में वह कहती है कि-‘‘ मैंने शत्रुओं का वध कर दिया है, मैंने विजय पा ली है, वैरियों को पराजित कर दिया है। ’’

इसलिए किया रानी ने जौहर

वैदिक नारी का राष्ट्र की राष्ट्रनीति (राजनीति) में ये स्थान था। मानो वह अपने पति के हटते ही तुरंत ध्वजा संभालने को आतुर रहती थी। राष्ट्र और समाज की शांति व्यवस्था के शत्रु आतंकियों का विनाश करने में यदि पति ने आत्मोत्सर्ग कर लिया है, वीरगति प्राप्त कर ली है, तो पत्नी भी उसी मार्ग का अनुकरण करना अपना सौभाग्य मानती थी। इसी भाव और भावना ने राजा दाहिर की पत्नी को जौहर करने का विकल्प दे दिया। राजा दाहर की रानी के जौहर से पूर्व किसी रानी के जौहर का उल्लेख नही है। कारण ये है कि उससे पूर्व भारत वर्ष में नारी के प्रति पुरूष का बड़ा प्रशंसनीय धर्म व्यवहार था। नारी चाहे कितनी ही वीरांगना हो, परंतु पुरूष समाज उससे शत्रुता नही मानता था और ना किसी की नारी के शीलभंग के लिए युद्घ किये जाते थे, नारी का को शत्रु नही (न+ अरि = नारी) होता था, इसीलिए वह नारी कही जाती थी। परंतु अब विदेशी आक्रमणकारियों का धर्म उन्हें नारी के लिए ही युद्घ करने की प्रेरणा देता था और नारी का शीलभंग करना इस युद्घ का एक प्रमुख उद्देश्य बन गया था, इसलिए रानी बाई ने जौहर को अपना लिया।

जौहर बन गया अनुकरणीय

इसी जौहर को कालांतर में अन्य हिंदू वीरांगनाओं ने भी अपनाया। अब हम आते हैं एक ऐसी ही हिंदू वीरांगना रानी पदमिनी की वीरता की कहानी पर, जिसने अपने पति की रक्षार्थ वैदिक आदर्श को अपनाया और विदेशियों को ये बता दिया कि वेदों के आदर्श केवल कोरी कल्पना ही नही हैं और ना ही ये इतने पुराने पड़ गये हैं कि अब इन्हें कोई अपनाने या मानने वाला ही नही रहा है। रानी की विवेकशीलता और बौद्घिक चातुर्य को देखकर शत्रु भी दांतों तले जीभ दबाकर रह गया। शत्रु ने भारतीय नारी से कभी ये अपेक्षा ही नही की होगी कि वह इतनी साहसी भी हो सकती है।

भीमसिंह बना चित्तौड़ का राजा

कर्नल टॉड के ‘राजस्थान का इतिहास’-भाग-1, से हमें ज्ञात होता है कि सन 1275 ई. में चित्तौड़ के सिंहासन पर लक्ष्मण सिंह बैठा, राजा की अवस्था उस समय छोटी थी, इसलिए उसका संरक्षक राजा के चाचा भीमसिंह को बनाया गया।

राजा भीमसिंह का विवाह उस समय की अद्वितीय सुंदरी रानी पद्मिनी के साथ हुआ था, रानी की सुंदरता की जब अलाउद्दीन खिलजी को पता चला तो उसने रानी को प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। उसने राजा भीमसिंह को अपने आक्रमण का प्रयोजन बताकर रानी को यथाशीघ्र अपने शिविर में भेज देने का संदेश भिजवा दिया।

अलाउद्दीन का मजहब

यहां हम तनिक विचार करें। अलाउद्दीन का मजहब कहता था कि काफिरों की पत्नियां तुम्हारा धन हैं, उन्हें लूटो और उनका उपभोग करो। इसलिए उसके मजहब के अनुसार किसी की पत्नी छीनना अन्याय या पाप नही था। जबकि राजा का धर्म कहता था कि पत्नी पति की पोष्या है और उसके सतीत्व एवं पतित्व की रक्षा करना उसका धर्म है। यदि कोई पति अपनी पत्नी के सतीत्व एवं पतित्व की रक्षा नही कर पाता है, तो उसे कायर माना जाता है, और ऐसा न करने से उसे पाप लगता है। बात स्पष्ट है कि एक का धर्म रानी को छीनने की आज्ञा दे रहा था, तो दूसरे का धर्म उसकी रक्षा करने की आज्ञा दे रहा था। अत: टकराव होना अवश्यम्भावी हो गया। राजा ने रानी को ‘न देने’ का निर्णय लिया। समस्त राज्य की प्रजा भी राजा के निर्णय के साथ रही। किले का घेरा लंबे काल तक चला। जब अलाउद्दीन ने देखा कि रानी को प्राप्त करने की उसकी इच्छा पूर्ण होने वाली नही है, राजा को झुकाया जाना उसके लिए असंभव होता जा रहा है, तब उसने रानी को प्राप्त करने के लिए छल -बल से काम लेने का निर्णय लिया।

अलाउद्दीन ने रचा षडय़ंत्र

अलाउद्दीन ने राजा के पास पुन: एक संदेश पहुंचाया कि यदि राजा रानी पद्मिनी को उसे दर्पण में भी दिखा देगा तो भी वह इतने से ही प्रसन्न और संतुष्ट होकर दिल्ली लौट जाएगा। राजा ने प्रजाहित में अलाउद्दीन की यह शर्त स्वीकार कर ली। रानी को दर्पण में से अलाउद्दीन को दिखा दिया गया।

रानी को दर्पण में देखने के पश्चात उसे प्राप्त करने की इच्छा से अलाउद्दीन व्याकुल हो उठा। वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नही रख सका। उसकी काम वासना उसे कोई और षडय़ंत्र बनाने के लिए प्रेरित कर रही थी। यद्यपि वह पहले से ही एक षडय़ंत्र रचकर राजा के पास गया था, पर अब तो उसके भीतर से उसे कोई बार-बार झकझोर रहा था कि शीघ्रता से अपनी योजना को फलीभूत करो, समय निकला जा रहा है।

अलाउद्दीन इसी अंतद्र्वन्द्व में राजा से ‘चलने की अनुमति’ प्राप्त करता है। राजा अपने अतिथि को शिष्टाचार वश विदा करने के लिए किले के मुख्यद्वार तक चला। अलाउद्दीन ने राजा को बातों में फंसा लिया और बात करते-कराते राजा को किले से थोड़ी दूर बाहर तक ले आया। अलाउद्दीन ने जब देखा कि राजा अब पूर्णत: असावधानी में है, तब वह राणा पर आक्रमण कराके उसे कैद कर अपने शिविर में ले गया।

रानी को किया गया सूचित

राणा को शिविर में कैद करके अलाउद्दीन ने किले के भीतर सूचना भिजवाई कि यदि राणा को जीवित देखना चाहते हो तो पद्मिनी को मुझको सौंप दो। प्रारंभ में तो सारी घटना की सूचना राजदरबारियों तक सीमित रही,  पर वहां तक ही यह सूचना कब तक सीमित रह सकती थी। अंतत: वीरांगना रानी पदमिनी को भी घटनाक्रम की जानकारी कुछ ही काल में हो गयी।

रानी ने किया षडय़ंत्र का वीरता के साथ सामना

अब वीरांगना पद्मिनी को निर्णय करना था कि वह क्या करेगी और उसे अपने और देश के सम्मान को बचाकर राणा के प्राणों की रक्षा कैसे करनी है? रानी चिंता में डूब गयी, पर शीघ्र ही उसे अपनी समस्या के समाधान की एक युक्ति सूझ गयी।

अपनी युक्ति को फलीभूत करने के लिए रानी ने चित्तौड़ के दरबार के दो अत्यंत साहसी और अदम्य शौर्य के लिए प्रसिद्घ गोरा एवं बादल नामक दो योद्घाओं के साथ विचार-विमर्श किया। इन दोनों वीरों ने भी समझ लिया कि जिस जटिल परिस्थितियों में आज चित्तौड़ का सम्मान फंसा खड़ा है, उससे देश का गौरव जुड़ा है। अत: इस जटिल परिस्थिति से निकलने के लिए प्राणों की बाजी लगाकर कार्य करने के क्षण आ उपस्थित हुए हैं। इसलिए गोरा बादल एवं रानी ने गुप्त योजना बनायी कि रानी अलाउद्दीन की सेवा में जाने के लिए तैयार है, ऐसा संदेश सुल्तान के शिविर में भिजवा दिया जाए। इस संदेश के साथ शर्त यह भी रहेगी कि रानी अपनी राजपूत सहेलियों को लेकर आएगी और रानी या उसके साथ आने वाली किसी सहेली की डोली को कोई मुस्लिम सैनिक निरीक्षण आदि के लिए रोकेगा नही, क्योंकि इससे रानी की गरिमा को ठेस लगेगी।

अलाउद्दीन खिलजी फंस गया जाल में

अलाउद्दीन खिलजी के पास जब यह संदेश गया तो वह प्रसन्न्ता में इतना झूम उठा कि सारी बातों के लिए उसने अपनी स्वीकृति रानी की इच्छानुसार यथावत प्रदान कर दी।

रानी ने अपने दोनों सेनापतियों के साथ योजना बना ली थी कि रानी और उसकी सहेलियों की डोलियों में (पालकियों में) सशस्त्र राजपूत सैनिकों को बैठाया जाए। पालकियों को कंधे पर उठाकर चलने वाले कहारों के स्थान पर छह-छह सैनिक उठाकर चलेंगे, जिनके शस्त्र पालकी के भीतर रखे होंगे। रानी शिविर में पहुंचने के पश्चात राजा से अंतिम बार  मिलने की याचना खिलजी से करेगी और राजा से मिलकर उसे सारी योजना से अवगत कराते हुए छुड़ाने का कार्य संपादित करेगी। अवसर मिलते ही सैनिक राजा को अपनी पालकी में बैठाकर वहां से चल देंगे और पालकियों के भीतर छिपे सैनिक और कहारों के रूप में चल रहे योद्घा मिलकर तातार सेना के प्रतिरोध का सामना करेंगे। इस सारी योजना को सिरे चढऩे का नेतृत्व गोरा एवं बादल को सौंपा गया। इन दोनों को किले की सुरक्षा का दायित्व दिया गया।

कार्य योजना को दिया गया मूत्र्त रूप

कर्नल टॉड हमें बताते हैं कि नियत दिन को सही समय पर सात सौ बंद पालकियां चित्तौड़ से निकलकर बादशाह के शिविर की ओर रवाना हुई। प्रत्येक की में छह छह कहार थे, और वे अपने वस्त्रों में लडऩे के लिए हथियार लाये थे। उन पालकियां में चित्तौड़ के शूरवीर सशस्त्र राजपूत बैठे थे। चित्तौड़ से निकलकर ये पालकियां बादशाह के शिविर के सामने पहुंच गयीं। बादशाह ने शिविर में आने के लिए एक बड़ा शिविर लगा दिया था, और उस शिविर के चारों ओर एक द्वार बनाकर कनातें लगा दी गयी थीं। एक-एक करके सभी पालकियां उस शिविर के भीतर पहुंच गयीं।’’

रानी को मिला राणा से मिलने का समय

रानी के अनुरोध पर अलाउद्दीन ने उसे राणा से अंतिम भेंट करने के लिए आधा घंटे का समय दिया। राणा को शिविर में रानी से मिलने की व्यवस्था करायी गयी। तभी एक राजपूत ने पालकी के भीतर से झांककर राणा को संकेत से अपनी पालकी की ओर आने को कहा। राजा पालकी के निकट आया तो उसे पालकी में भीतर बैठाकर पालकी के कहार  उठाकर चित्तौड़ की ओर चल दिये। उसके साथ कुछ और पालकियां भी चल दीं। शेष पालकियां शिविर के भीतर ही रहीं। निर्धारित समय के बीत जाने पर भी राणा के शिविर से न लौटने पर अलाउद्दीन  को बड़ा क्रोध आया और वह राणा को शिविर से पुन: कैद में डालने के उद्देश्य से स्वयं ही शिविर में प्रवेश कर गया। उसके साथ उसके बहुत से सैनिक भी थे। अलाउद्दीन को भीतर आता देखकर सशस्त्र राजपूतों ने उस पर आक्रमण कर दिया।

अलाउद्दीन को राज समझ में आ गया

अब अलाउद्दीन को ज्ञात हुआ कि वह अपने ही बुने जाल में स्वयं ही फंस चुका है। उसने अनुमान लगा लिया कि अब भारतीयों के पौरूष का सामना करने का समय आ गया है। अत: दोनों ओर भयंकर मारकाट आरंभ हो गयी। अलाउद्दीन को बचाने में उसके सैनिकों ने सफलता प्राप्त की। परंतु उससे भी बड़ी सफलता तो राणा के सैनिकों को मिल चुकी थी, जो अपने राजा को पालकी में बैठाकर सुरक्षित बाहर ले जाने में भी सफल हो गये थे। अलाउद्दीन के सैनिकों ने कुछ देर पश्चात वस्तुस्थिति को समझ कर राजा की पालकी का पीछा किया। जब उन सैनिकों ने चित्तौड़ के पास जाकर राजा को घेरा तो पालकियों में बंद सैनिक और कहारों के वेश में चल रहे योद्घाओं ने उन तातार सैनिकों का सामना करते हुए उन्हें समाप्त कर दिया, और अपने राणा को सुरक्षित लेकर आगे चल दिये। कुछ दूरी पर राणा को चित्तौड़ से आये हुए एक विशेष घोड़े से चित्तौड़ की ओर दौड़ा दिया गया। गोरा बादल का संघर्ष

कुछ तातार सैनिकों ने राणा का पुन: पीछा किया और दुर्ग के द्वार पर उन तातार सैनिकों को गोरा बादल ने रोककर उनसे युद्घ किया। यद्यपि राणा इस समय तक दुर्ग में प्रवेश करने में सफल हो गये थे। कहते हैं कि बादल की अवस्था इस समय केवल 12 वर्ष की थी। पर उसने कितने ही यवनों को मृत्यु के घाट उतार दिया। युद्घ करते हुए ही गोरा को वीरगति प्राप्त हो गयी। बहुत से राजपूतों ने भी अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया।

कर्नल टॉड कहते हैं-‘‘शिविर और सिंह द्वार पर जो कुछ हुआ, उसे देखकर अलाउद्दीन का साहस टूट गया। पद्मिनी को पाने के स्थान पर उसने जो कुछ पाया, उससे वह युद्घ को रोककर अपनी सेना के साथ दिल्ली की ओर रवाना हो गया।’’

अलाउद्दीन को पता चला गया वीरांगना-धर्म

अलाउद्दीन को ज्ञात हो गया कि वेदों के धर्म से संचालित भारत में अभी भी वीरांगना हैं, जो शत्रु के शिविर में जाकर अपनी वीरता, साहस और शौर्य का प्रदर्शन कर सकती है। रानी के शौर्य से अलाउद्दीन हतप्रभ रह गया।

गोरा की वीरांगना पत्नी

उधर गोरा की पत्नी की वीरता को भी कर्नल टॉड ने जिस प्रकार उल्लेखित किया है, वह भी कम रोमांचकारी नही है। कर्नल टाड ने कहा है-‘‘सैकड़ों जख्मों से क्षत विक्षत बालक बादल चित्तौड़ पहुंचा। उसके साथ गोरा नही था। यह देखते ही गोरा की पत्नी युद्घ के परिणाम को समझ गयी। उसने अपने गंभीर नेत्रों से बादल की ओर देखा। उसकी सांसों की गति तीव्र हो चुकी थी। वह बादल के मुंह से तुरंत सुनना चाहती थी कि बादशाह के सैनिकों के साथ उसके पति गोरा ने किस प्रकार वीरता से युद्घ किया और शत्रुओं का संहार किया। वह बादल के कुछ कहने की प्रतीक्षा न कर सकी, और उतावलेपन के साथ उससे पूछ बैठी बादल युद्घ का समाचार सुनाओ? प्राणनाथ ने आज शत्रुओं से किस प्रकार युद्घ किया? बादल में साहस था, उसमें बहादुरी थी। अपनी चाची गोरा की पत्नी को उत्तर देते हुए उसने कहा-‘‘चाचा की तलवार से आज शत्रुओं का खूब संहार हुआ सिंह द्वार पर डटकर संग्राम हुआ। चाचा की मार से शत्रुओं का साहस टूट गया। बादशाह के खूब सैनिक मारे गये। शिशौदिया वंश की कीर्ति को अमर बनाने के लिए शत्रुओं का संहार करते हुए चाचा ने अपने प्राणों की आहुति दी।’’

बादल के मुंह से इन शब्दों को सुनकर गोरा की स्त्री को असीम संतोष मिला। क्षण भर चुप रहने के पश्चात बादल के सामने और कुछ न कहने पर उसने तेजी के साथ-‘‘अब मेरे लिए देर करने का समय नही है। प्राणनाथ को अधिक समय तक मेरी प्रतीक्षा नही करनी पड़ेगी। यह देखकर वीरांगना गोरा की पत्नी ने (पहले से ही तैयार की गयी) जलती हुई चिता में कूदकर अपने प्राणों का अंत कर दिया।’’

इसे कहते हैं अद्भुत शौर्य। एक साथ हमारे पास कितने हीरे हैं-रानी पद्मिनी हैं, गोरा है, बादल है, गोरा की पत्नी है, रानी के साथ गये सात सौ सशस्त्र सैनिकों और सात सौ पालकियों के छह-छह कहारों के रूप में वीर योद्घा हैं। सबका लक्ष्य एक था-राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा, अपने धर्म की रक्षा, अपने सम्मान की रक्षा करना। ऐसा अदभुत शौर्य एवं पराक्रम विश्व के किसी अन्य देश में देखने को नही मिलेगा कि जहां बारह वर्ष के बच्चे ने भी किले की रक्षा करने के अपने दायित्व का इतनी उत्कृष्टता से पालन किया हो। सचमुच ये देश है-वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का………इस देश का यारो क्या कहना….ये देश है दुनिया का गहना….

चित्तौड़ गढ़ आज भी अपने वीर योद्घाओं और वीरांगनाओं की वीरता एवं बलिदान की साक्षी दे रहा है, इसीलिए यह दुर्ग हर हिंदू के लिए आज भी श्रद्घा का पात्र है, एक वीर मंदिर है, जहां शीश झुकाकर हर देशभक्त भारतवासी कृतकृत्य हो जाता है। यह घटना सन 1303 ई. की है।