शनिवार, 28 सितंबर 2013

पुरातन भारतवर्ष में जल की महिमा

पुरातन भारतवर्ष में जल की महिमा

जल की महिमा का बखान और और जल से प्रार्थना करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि
" इदमाप: प्र वहत यत् किं च दुरितं मयि
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम् | | "
ऋग्वेद 10 . 2 . 8 .

हे जल देवता ! मुझसे जो भी पाप हुआ हो, उसे तुम दूर बहा दो अथवा मुझसे जो भी द्रोह हुआ हो , मेरे किसी कृत्य से किसी को पीड़ा हुई हो अथवा मैंने किसी को गालियाँ दी हों, अथवा असत्य भाषण किया हो , तो वह सब भी दूर बहा दो |

जल में अखण्ड प्रवाह , दया , करुणा , उदारता , परोपकार और शीतलता , ये सभी गुण विद्यमान रहते हैं | मनुष्य कितना भी दुखी क्यों न हो , ठंडे जल से स्नान करते ही वह शान्त हो जाता है | जल ही जीवन है | जल मानव को पुण्य - कर्म करने की प्रेरणा देता है |भारतीय संस्कृति पूजा प्रधान है | यहाँ किसी भी कार्य का प्रारम्भ पूजा से होता है और प्रत्येक कार्य का विसर्जन भी पूजा से ही होता है | पूजा हेतु सर्वप्रथम , पवित्रीकरण की आवश्यकता होती है और पवित्रीकरण के लिए जल की आवश्यकता होती है | इसी प्रकार पूजा का विसर्जन , शान्ति - पाठ से होता है और शान्ति - पाठ में जब मंत्रों का उच्चारण किया जाता है , तो पवित्र जल का अभिसिंचन किया जाता है , इस प्रकार जल के बिना, किसी भी तरह की पूजा सम्भव नहीं है | वैदिक - वांग्मय में जल के महत्त्व को सर्वात्मना स्वीकार किया गया है और जल की गरिमा - महिमा का बखान , श्रुतियों में सर्वत्र किया गया है |

"रूपरसस्पर्शवत्य आपोद्रवा: स्निग्धा: | | २ | | "

वैशेषिक दर्शन , द्वितीय अध्याय, प्र.आ. जल तत्व में रूप , रस और स्पर्श , इन तीन गुणों का समावेश है | जल, स्निग्ध होने के साथ - साथ प्रवाहित भी होता है | प्रगट स्वरूप होने के कारण जल रूपवान भी है | जल को मुख में डालने पर , शीतल , गर्म , खारा एवं मधुर आदि का , रसास्वादन होने से, यह रस है | जल का स्पर्श करने पर , उसके शीत और उष्ण होने का पता चलता है इसलिए जल, स्पर्श गुण से सम्पन्न है और अग्नि तथा वायु के गुणों का सम्मिश्रण भी है | जल का उपयोग चिकित्सा के लिए भी किया जाता रहा है , जैसा कि " यजुर्वेद " में कहा गया है -

" युष्माSइन्द्रोSवृणीत वृत्रतूर्य्ये यूयमिन्द्र्मवृणीध्वं
वृत्रतूर्य्ये प्रोक्षिता स्थ | अग्नये त्वा जुष्टं
प्रोक्षाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामि |
दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोSशुध्दा:
पराजघ्नुरिदं वस्तच्छु न्धामि | | १ ३ | |"

यजुर्वेद प्रथम अध्याय जैसे यह सूर्यलोक , मेघ के वध के लिए , जल को स्वीकार करता है , जैसे जल , वायु को स्वीकार करते हैं , वैसे ही हे मनुष्यों ! तुम लोग उन जल औषधि - रसों को शुद्ध करने के लिए , मेघ के शीघ्र - वेग में , लौकिक पदार्थों का अभिसिंचन करने वाले , जल को स्वीकार करो और जैसे वे जल शुद्ध होते हैं , वैसे ही तुम भी शुद्ध हो जाओ |

परमेश्वर ने सूर्य एवं अग्नि की रचना इसलिए की, कि वे सभी पदार्थों में प्रवेश कर उनके रस एवं जल को तितर - बितर कर दें ताकि वह पुन: वायुमंडल में जाकर और वर्षा के रूप में फिर धरती पर आ कर सबको शुचिता और सुख प्रदान कर सके |

"आपोSअस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्व: पुनन्तु ।
विश्व हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्य: शुचिरा पूतSएमि |
दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवा शग्मां परिदधे भद्रं वर्णम पुष्यन् ।"
।। यजुर्वेद, ४ , २ ।।

मनुष्य को चाहिए कि जो सब सुखों को देने वाला , प्राणों को धारण करने वाला तथा माता के समान , पालन - पोषण करने वाला जो जल है , उससे शुचिता को प्राप्त कर , जल का शोधन करने के पश्चात ही , उसका उपयोग करना चाहिए , जिससे देह को सुंदर वर्ण , रोग - मुक्त देह प्राप्त कर , अनवरत उपक्रम सहित , धार्मिक अनुष्ठान करते हुए , अपने पुरुषार्थ से आनंद की प्राप्ति हो सके ।

वैदिक ऋषियों ने वैज्ञानिकों की तरह जल एवं वायु को प्रदूषण - मुक्त करने की बात कही है । यजुर्वेद में उन्होंने यह परामर्श भी दिया है कि हम वर्षा - जल को भी , किस प्रकार औषधीय गुणों से परिपूर्ण कर सकते हैं ।

" अपो देवीरुपसृज मधुमतीरयक्ष्मार्य प्रजाभ्य: ।
तासामास्थानादुज्जिहतामोषधय: सुपिप्पला: । । "
यजुर्वेद / ११ / ३८ /

राजा के पास दो तरह के वैद्य होना चाहिए । एक वैद्य , सुगन्धित पदार्थों के होम से , वायु , वर्षा - जल एवं औषधियों को शुद्ध करे । दूसरा श्रेष्ठ विद्वान् , वैद्य बनकर , प्राणियों को रोग -रहित रखे , " सर्वे भवन्तु सुखिन:" हमारा आदर्श है और इस आदर्श के निर्वाह के लिए इन दोनों दायित्वों का निर्वाह अनिवार्य है ।

वेद में मानव जीवन को ' कृषि - जीवन ' कहा गया है और इसीलिए , जलश्रोतों से हमारा रागात्मक सम्बन्ध रहा है । नदियों को हमने , देवी - स्वरूपा , माता की संज्ञा से अभिहित किया है ।' ऋग्वेद ' की इस ऋचा में ' सरस्वती ' नदी की महिमा गाई गई है -

" अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति ।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमंब नस्कृधि ।। "
ऋग्वेद / २ / ८ / १४ /

हे सर्वोत्तम माते सरस्वती ! तू सर्वोत्तम नदी के समान है । जिन नदियों का प्रवाह प्रकट है , वे गंगा - यमुना जैसी , श्रेष्ठ नदियाँ हैं , परन्तु तेरा प्रवाह गुप्त है , इसलिए तू श्रेष्ठ्तम है । तू सभी देवताओं में श्रेष्ठ , आलोक प्रदाता है । हमारा जीवन अप्रशस्त जैसा बन गया है । हे माता ! तू उसे प्रशस्त कर । हम उपेक्षित हैं , निन्दित हैं । हे माता ! तू हमारा पथ प्रशस्त कर ।

" यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टय: संबभूवु:।
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नो भूमि: पूर्व पेये दधातु ।। "
अथर्ववेद / द्वादश - काण्डम् / ३ /

सागर ,नदी , कुआँ और वर्षा का जल तथा कृषि कार्य आदि से , जो मनुष्य , नाव , जहाज कला - यंत्र आदि का , विधेयात्मक प्रयोग करता है , वह सबको आनन्द प्रदान करता है । ऐसा व्यक्ति स्वत: भी श्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है ।

"शं त आपो हैमवती: शमु ते सन्तूत्स्या: ।
शं ते सनिष्पदा आप: शमु ते सन्तु वर्ष्या:।। "
अथर्ववेद/ एकोनविंश काण्डम् / १ /

मनुष्य को चाहिए कि वह वर्षा , कुऑ ,नदी और सागर के जल को , अपने खान-पान , खेती और शिल्प- कला आदि के लिए उपयोग करे एवम् अपने जीवन को सम्पूर्ण बनाए और चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करे ।

"अनभ्रय: खनमाना विप्रा गम्भीरे अंपस: ।"
भिषग्भ्यो भिषक्तरा आपो अच्छा वदामसि ।।"
अथर्ववेद / एकोनविंश काण्डम् / 3 /
विद्वान् ,जिज्ञासु , वैद आदि तपस्वी साधक , अनेक तरह के रोगों में , जल के प्रयोग के द्वारा , जल के अनन्त गुणों की आपस में व्याख्या करें और समाज के हित में उसका भरपूर उपयोग करें ।

वैदिक ऋषियों का जीवन एक प्रयोग- शाला थी । उन्होंने चिन्तन, मनन और निदिध्यासन से जो उपलब्धि हासिल की , उसे जन- कल्याण हेतु समर्पित कर दिया।

"अपामह दिव्यानामपां स्त्रोतस्यानाम् ।
अपामह प्रणेजनेSश्वा भवथ वाजिन: ॥"
अथर्ववेद / एकोनविंश / काण्डम् / 4 /

जल - चिकित्सा बहुत ही प्रभावी चिकित्सा पद्धति है , समस्त रोगों का निदान इससे सम्भव है। मनुष्य को चाहिये कि वह सागर , वर्षा , नदी , सरोवर आदि के जल को आवश्यकतानुसार चिकित्सा मे उपयोग कर के खेती के संसाधन की तरह , जल का प्रयोग करके , निरोग. वेगवान , प्रखर , एवम् बलशाली बने और समाज के हित में अपनी प्रतिभा एवम् अपने बल का समुचित उपयोग कर सके ।

"ता अप: शिवा अपोSय मं करणीरप: ।
यथैव तप्यते मयस्तास्त आ दत्त भेषजी:।।"
अथर्ववेद / एकोनविंश / काण्डम् / 5 /

जल की महत्ता के विषय में , मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि " जल है तो कल है " इस बात को हमारे पूर्वज , भली - भांति जानते थे और यही कारण है कि उन्होने, जल की महिमा का बखान , वेद- वांग्मय एवम् सभी धर्म- ग्रंथों में किया है । हमें जल बचाने का उपक्रम करना चाहिये । जल के महत्व को समझ कर , सावधानी - पूर्वक उसका उपयोग करना चाहिये ताकि हम अपनी भावी पीढी के लिए जल बचा कर रखें , जैसे हमारे पूर्वज हमारे लिए , जल का विशाल भंडार छोड कर गए हैं।

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