सोमवार, 17 मार्च 2014

होली

गौरवमयी भारतवर्ष की तरफ से शुभ होली 
होली 


होली भारत का प्रमुख त्योहार है। होली जहाँ एक ओर सामाजिक एवं धार्मिक है, वहीं रंगों का भी त्योहार है। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। इसमें जातिभेद-वर्णभेद का कोई स्थान नहीं होता। इस अवसर पर लकड़ियों तथा कंडों आदि का ढेर लगाकर होलिकापूजन किया जाता है फिर उसमें आग लगायी जाती है। पूजन के समय मंत्र उच्चारण किया जाता है।
प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है। पुराणों में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्नि स्नान करती और जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्निस्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु होलिका जल गयी, प्रह्लाद बच गये। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।
यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था। जैमिनि, 1।3।15-16 के अनुसार  भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि 'होलाका' सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए।काठकगृह्य  73,1 में एक सूत्र है 'राका होला के', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है- 'होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका (पूर्णचन्द्र)  देवता है।' राका होलाके। काठकगृह्य (73।1)।' इस पर देवपाल की टीका यों है: 'होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होला के राका देवता। यास्ते राके सुभतय इत्यादि। अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य रूपों में की है। 'होलाका' उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र , 1।4।42  में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि  ने काल, पृ. 106 बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी अर्थात आलकज की भाँति  कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है।'वराह पुराण में आया है कि यह 'पटवास-विलासिनी'  अर्थात  चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली है। (लिंगपुराणे। फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी। ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकर्विभूतये।। 
वाराहपुराणे। फाल्गुने पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी। ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये॥ हेमाद्रि (काल, पृ. 642)। 
इसमें प्रथम का.वि. (पृ. 352) में भी आया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थ:)

जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से 'होलाका' का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवंभविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्ती भरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंगअबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यहरंग युक्त वातावरण 'होलिका के दिन' ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं। (  वर्षकृत्यदीपक (पृ0 301) में निम्न श्लोक आये हैं- 
'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥
सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥ 
ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥')  कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्टजनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख  हिन्दू हॉलीडेज एवं सेरीमनीज'(पृ. 92  में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट, मिस्र या ग्रीस, यूनान से लिया गया है। किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है। लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस विषय में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।

हेमाद्रि ने  व्रत, भाग 2, पृ0 174-19 भविष्योत्तर , 132।1।51 से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और 'होलाका' क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है।
प्रह्लाद को गोद में बिठाकर बैठी होलिका
कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिवने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतुका आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्नमन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन 'अडाडा' या 'होलिका' कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।' (पुस्तक- धर्मशास्त्र का इतिहास-4 | लेखक- पांडुरंग वामन काणे | प्रकाशक- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान)

होलिका दहन पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुन पूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं।
राधा-कृष्ण की छवि में ब्रजवासी, बरसाना
इसी 'अलाव को होली' कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्य व संगीत का आनन्द लेते हैं।

होली और राधा-कृष्ण की कथा

भगवान श्रीकृष्ण तो सांवले थे, परंतु उनकी आत्मिक सखी राधा गौरवर्ण की थी। इसलिए बालकृष्ण प्रकृति के इस अन्याय की शिकायत अपनी माँ यशोदा से करते तथा इसका कारण जानने का प्रयत्न करते। एक दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को यह सुझाव दिया कि वे राधा के मुख पर वही रंग लगा दें, जिसकी उन्हें इच्छा हो। नटखट श्रीकृष्ण यही कार्य करने चल पड़े। आप चित्रों व अन्य भक्ति आकृतियों में श्रीकृष्ण के इसी कृत्य को जिसमें वे राधा व अन्य गोपियों पर रंग डाल रहे हैं, देख सकते हैं। यह प्रेममयी शरारत शीघ्र ही लोगों में प्रचलित हो गई तथा होली की परंपरा के रूप में स्थापित हुई। इसी ऋतु में लोग राधा व कृष्ण के चित्रों को सजाकर सड़कों पर घूमते हैं। मथुरा की होली का विशेष महत्त्व है, क्योंकि मथुरा में ही तो कृष्ण का जन्म हुआ था।
होली और ढूंढी की कथा 
भविष्यपुराण में वर्णित है कि सत्ययुग में राजा रघु के राज्य में माली नामक दैत्य की पुत्री ढोंढा या धुंधी थी। उसने शिव की उग्र तपस्या की। शिव ने वर माँगने को कहा। उसने वर माँगा- प्रभो! देवता, दैत्य, मनुष्य आदि मुझे मार न सकें तथा अस्त्र-शस्त्र आदि से भी मेरा वध न हो। साथ ही दिन में, रात्रि, में शीतकाल में, उष्णकाल तथा वर्षाकाल में, भीतर-बाहर कहीं भी मुझे किसी से भय नहीं हो।' शिव ने तथास्तु कहा तथा यह भी चेतावनी दी कि तुम्हें उन्मत्त बालकों से भय होगा। वही ढोंढा नामक राक्षसी बालकों व प्रजा को पीड़ित करने लगी। 'अडाडा' मंत्र का उच्चारण करने पर वह शांत हो जाती थी। इसी से उसे 'अडाडा' भी कहते हैं। इस प्रकार भगवान शिव के अभिशाप वश वह ग्रामीण बालकों की शरारत, गालियों व चिल्लाने के आगे विवश थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि होली के दिन ही सभी बालकों ने अपनी एकता के बल पर आगे बढ़कर धुंधी को गाँव से बाहर धकेला था। वे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए तथा चालाकी से उसकी ओर बढ़ते ही गये। यही कारण है कि इस दिन नवयुवक कुछ अशिष्ट भाषा में हँसी मजाक कर लेते हैं, परंतु कोई उनकी बात का बुरा नहीं मानता।
होली की प्राचीन कथाएं 
  • एक कहानी यह भी है कि कंस के निर्देश पर जब राक्षसी पूतना श्रीकृष्ण को मारने के लिए उनको विषपूर्ण दुग्धपान कराना शुरू किया लेकिन श्रीकृष्ण ने दूध पीते-पीते उसे ही मार डाला। कहते हैं कि उसका शरीर भी लुप्त हो गया तो गाँव वालों ने पूतना का पुतला बना कर दहन किया और खुशियाँ मनायी। तभी से मथुरा मे होली मनाने की परंपरा है।
  • एक अन्य मुख्य धारणा है कि हिमालय पुत्री पार्वती भगवान शंकर से विवाह करना चाहती थी। चूँकि शंकर जी तपस्या में लीन थे इसलिए कामदेवपार्वती की मदद के लिए आए। कामदेव ने अपना प्रेमबाण चलाया जिससे भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई। शिवशंकर ने क्रोध में आकर अपनी तीसरा नेत्र खोल दिया। जिससे भगवान शिव की क्रोधाग्नि में जलकर कामदेव भस्म हो गए। फिर शंकर जी की नज़र पार्वती जी पर गई। शिवजी ने पार्वती जी को अपनी पत्नी बना लिया और शिव जी को पति के रूप में पाने की पार्वती जी की आराधना सफल हो गई। होली के अग्नि में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकात्मक रूप से जलाकर सच्चे प्रेम के विजय के रूप में यह त्योहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
  • मनुस्मृति में इसी दिन मनु के जन्म का उल्लेख है। कहा जाता है मनु ही इस पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मानव थे। इसी दिन 'नर-नारायण' के जन्म का भी वर्णन है जिन्हें भगवान विष्णु का चौथा अवतार माना जाता है।सतयुग में भविष्योतरापूरन नगर में छोटे से लेकर बड़ों को सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियाँ लग गई। वहाँ के लोग द्युँधा नाम की राक्षसी का प्रभाव मान रहे थे। इससे रक्षा के लिए वे लोग आग के पास रहते थे। सामान्य तौर पर मौसम परिवर्तन के समय लोगों को इस तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं, जिसमें अग्नि राहत पहुँचाती है। ‘शामी’ का पेड़ जिसे अग्नि-शक्ति का प्रतीक माना गया था, उसे जलाया गया और अगले दिन सत्ययुगीन राजा रघु ने होली मनायी।
इस तरह देखते हैं कि होली विभिन्न युगों में तरह-तरह से और अनेक नामों से मनायी गयी और आज भी मनाई जा रही है। इस तरह कह सकते हैं कि असत्य पर सत्य की या बुराई पर अच्छाई पर जीत की खुशी के रूप में होली मनायी जाती है। इसके रंगों में रंग कर हम तमाम खुशियों को आत्मसात कर लेते हैं।

साहित्य में होली की झलक

संस्कृत शब्द 'होलक्का' से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में 'होलक्का' को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था। बंगाल में होली को डोल यात्रा या झूलन पर्व,दक्षिण भारत में कामथनम, मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ में ’गोल बढ़ेदो’ नाम से उत्सव मनाया जाता है और उत्तरांचल में लोक संगीत व शास्त्रीय संगीत की प्रधानता है। 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली', 'कुमार सम्भव' सभी में रंग का वर्णन आया है। कालिदास रचित 'ऋतुसंहार' में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। 'भारवि', 'माघ' जैसे संस्कृत कवियों ने भी वसन्त और होली पर्व का उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है। 'पृथ्वीराज रासो' में होली का वर्णन है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली को लेकर कई मस्ती भरे पद लिखे हैं जिनमें प्रकृति और धरती माता के होली खेलने के भावों को प्रकट किया गया है। 

होली बसंत व प्रेम-प्रणव का पर्व है तथा धर्म की अधर्म पर विजय का प्रतीक है। यह रंगों का, हास-परिहास का भी पर्व है। यह वह त्योहार है, जिसमें लोग 'क्या करना है, तथा क्या नहीं करना' के जाल से अलग होकर स्वयं को स्वतंत्र महसूस करते हैं। यह वह पर्व है, जिसमें आप पूर्ण रूप से स्वच्छंद हो, अपनी पसंद का कार्य करते हैं, चाहे यह किसी को छेड़ना हो या अज़नबी के साथ भी थोड़ी शरारत करनी हो। इन सबका सर्वोत्तम रूप यह है कि सभी कटुता, क्रोध व निरादर बुरा न मानो होली है की ऊँची ध्वनि में डूबकर घुल-मिल जाता है।बुरा न मानो होली है की करतल ध्वनि होली की लंबी परम्परा का अभिन्न अंग है।



 हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक , वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक, वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों का  परिचायक , वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होने वाली प्रसन्नता का प्रतीक होली की हार्दिक मंगलमय शुभ कामनाएं और अनंत बधाई !

रविवार, 2 मार्च 2014

पुरातन भारतीय इतिहास नायकों के साथ क्रूर उपहास हो रहा है

पुरातन भारतीय इतिहास नायकों के साथ क्रूर उपहास हो रहा है 

भारतवर्ष में गोरी की जीत और पृथ्वीराज चौहान की हार को वर्तमान प्रचलित
इतिहास में एक अलग अध्याय के नाम से निरूपित किया जाता है। जिसका नाम
दिया जाता है- राजपूतों की पराजय के कारण। राजपूतों की पराजय के लिए
मुहम्मद गोरी के चरित्र में चार चांद लग गये हैं और जो व्यक्ति नितांत
एक लुटेरा और हत्यारा था उसे बहुत बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है।
डा. शाहिद अहमद ने गोरी के चरित्र और उसके कार्यों का मूल्यांकन करते हुए
उसके भीतर कौटुम्बिक प्रेम की प्रबलता, व्यक्तियों के चयन में उसके
चरित्र की प्रवीणता अर्थात मानव चरित्र का पारखी होना, गुलामों का
आश्रयदाता, स्थिति का परिज्ञान तथा लक्ष्य की प्रधानता, अदम्य उत्साह तथा
धैर्य, उच्च कोटि की महत्वाकांक्षा, वीर योद्घा तथा दूरदर्शी राजनीतिज्ञ,
भारत में मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक, लुटेरा न होकर एक साम्राज्य का
निर्माता, अदभुत प्रशासकीय प्रतिभा से संपन्न साहित्य तथा कला का प्रेमी,
धर्मपरायण आदि गुणों को प्रमुखता देकर गोरी को प्रशंसित किया है।
न्यूनाधिक अन्य इतिहास कारों ने भी लगभग इन्हीं गुणों को गोरी के भीतर
स्थान देकर उसका महिमामण्डन किया है। यदि ये गुण ही किसी व्यक्ति की
महानता के या किसी देश के किसी विशेष भू-भाग पर उसकी जीत के निश्चायक
प्रमाण हैं तो ये गुण तो हमारे चरितनायक पृथ्वीराज चौहान में उससे कहीं
अधिक गहराई से व्याप्त थे। अब तनिक पृथ्वीराज चौहान के भीतर देखें कि जो
गुण गोरी को महानता दिलाने वाले बताये गये हैं, वो पृथ्वीराज चौहान में
कितने थे?
चौहान का कौटुम्बिक प्रेम
क्या कोई भी पाठक उस पृथ्वीराज चौहान को कभी कम करके आंक सकता है जो अपनी
बहन और बहनोई से असीम स्नेह रखता था और बदले में उसकी बहन भी अपने सुहाग
की चिंता न करके सदा हर युद्घ में अपने पति राणा समर सिंह को अपने भाई की
रक्षार्थ भेजती रही और भाई की सुरक्षा में ही अपने पति को खो दिया।
पृथ्वीराज चौहान के प्रति यदि उसके बहन और बहनोई का इतना लगाव था तो इसके
पृथ्वीराज चौहान का अपना कौटुम्बिक प्रेम भी एक कारण था। दूसरे पृथ्वीराज
चौहान के जीवन में ऐसे भी क्षण आये जब उसकी बाल्यावस्था में ही यदि किसी
ने उसके पिता सोमेश्वर सिंह का कहीं किसी भी प्रकार से अपमान किया तो
उसका प्रतिशोध जब तक चौहान ने नहीं ले लिया, तब तक उसे चैन नहीं मिला।
पृथ्वीराज चौहान अपने नाना अनंगपाल से भी अत्यंत प्रेम करता था, वह बड़ों
के प्रति सेवाभावी था और उसके सेवा-भाव से प्रसन्न होकर ही उसके नाना ने
उसे दिल्ली का अधिपति नियुक्ति किया था। राजा अनंगपाल से पृथ्वीराज चौहान
ने दिल्ली छीनी नहीं थी, अपितु उसे अपने नाना से दिल्ली भेंट में या
उत्तराधिकार में मिली थी। कोई भी वृद्ध स्वेच्छा से अपना उत्तराधिकारी
तभी नियुक्त करता है, जब उसे अपने उत्तराधिकारी से अपने जीवनकाल में कोई
शिकायत नहीं होती है। पृथ्वीराज चौहान से उसके परिजनों को कभी कोई कष्ट
नहीं रहा, यहां तक कि उसकी माता को भी नहीं रहा, विशेषत: तब जबकि वह अपने
अल्पव्यस्क पुत्र की संरक्षिका के रूप में शासन कर रही थीं। इसलिए
पृथ्वीराज चौहान का कौटुम्बिक प्रेम अनुकरणीय है।
साथियों के चयन में योग्यता प्रदर्शन
पृथ्वीराज चौहान अपने साथियों के चयन में भी गोरी से प्रथम स्थान पर है।
चामुण्डराय, कैमास, चंद्रबरदाई, श्यामली और कई नरेश व सेनापतियों के चयन
में उसने व्यक्तियों को परखने की अपनी अदभुत शक्ति का परिचय दिया था।
उसके किसी सेनापति या साथी ने या अपने देशी नरेश ने उसे कभी भी धोखा नहीं
दिया। हजारों लाखों की संख्या में लोगों ने अपने सम्राट के लिए सिर कटवा
दिये और बड़ी आत्मीयता से देशभक्ति के उच्च मनोभाव के साथ श्रद्धापूर्वक
अपने-अपने सिरों को मां भारती के श्री चरणों में सादर समर्पित कर दिया।
यह उसकी अपनी महानता का ही चमत्कार था। किसी भी देश जाति के पास ऐसे
बिरले ही इतिहास पुरूष हुआ करते हैं, जिनके संकेत मात्र से ही लोग
आत्म-बलिदान के लिए उठ खड़े होते हैं। इसके पीछे पृथ्वीराज चौहान की
अदभुत देशभक्ति थी जो नितांत नि:स्वार्थ भाव पर आधृत थी। जबकि दूसरी ओर
जयचंद जैसा देशद्रोही था, उसकी देशद्रोहिता को पुरस्कार ये मिला कि 1194
ई. में जब वह गोरी से युद्ध कर रहा था तो उसकी सेना में बड़ी संख्या में
कार्यरत मुस्लिम सैनिक युद्ध के समय विद्रोह करके शत्रुपक्ष से मिल गये
और अपनी ही सेना को काटने लगे।
बात स्पष्ट है कि देशभक्ति को श्रद्धा और सम्मान मिलता है और देशद्रोहिता
को विद्रोह का प्रतिकार मिलता है। जिसमें वह स्वयं ही नष्ट हो जाती है।
अंतत: कोई तो बात होगी ही कि पृथ्वीराज चौहान जैसा एक महान शासक ‘पराजित
योद्घा’ के सम्मान से इतिहास में क्यों सम्मानित किया जाता है?
मित्रों का आश्रयदाता
गोरी को गुलामों का आश्रयदाता कहा गया है। भारत की परंपरा रही है कि जो
आपके आश्रित हैं, उनके साथ मित्रवत व्यवहार करो। इसका अभिप्राय है कि आप
किसी की अस्मिता को या निजता को मत मिटाओ, अपितु उसका सम्मान करो। इसलिए
पृथ्वीराज चौहान ने भी अपने मित्रों को या अपने साथियों को अपना मित्र ही
माना। उनके साथ वह विजयोत्सवों के समय पर नाचा, झूमा, मस्त हुआ और भूल
गया कि वह सम्राट है और ये लोग उसके अधीनस्थ हैं।
युद्घ में कभी भी गुलामों के साथ नहीं उतरा जाता है, अपितु क्षत्रिय वीरों
के साथ ही उतरा जाता है। भारत की परंपरा रही है कि क्षत्रिय वीर किसी का
दास नहीं होता है, वह अपने लक्ष्य का, अपने जीवन व्रत का और अपने देश के
प्रति समर्पण भाव का दास होता है। अथर्ववेद (3/19/7) में पुरोहित अपने
यजमान क्षत्रिय से कह रहा है कि हे अग्रगामी वीरो! चढ़ाई करो और विजय
प्राप्त करो, तुम्हारे भुज उग्र हों।
ऐसे उग्र भुजाधारी आर्य वीरों को जब मुस्लिम काल में हिंदू कहा जाने लगा
तो विद्वानों ने हिंदू शब्द की भी वीरोचित परिभाषा और व्याख्या कर दी,
जिससे कि हिंदू और आर्य का भेद मिट जाए। आशय केवल ये था कि यदि आज आर्यों
को आप हिंदू कह रहे हैं तो ये हिंदू भी उग्र भुज वाले ही हैं।
रामकोष में लिखा है-
हिन्दू: दुष्टो न भवति नानार्यो न विदूषक:।
सद्घर्मपालको विद्वान श्रौत धर्म परायण:।।
अर्थात हिंदू न तो दुष्ट होता है, न विदूषक न अनार्य। वह सद्घर्मपालक,
वैदिक धर्म को मानने वाला विद्वान होता है।
शब्दकल्प द्रुम कोष के अनुसार हनि दूषयति इति हिंदू अर्थात जो हीनता को
स्वीकार न करे वह हिंदू है।
अदभुत कोष में कहा गया है-
हिंदूर्हिन्दूश्च प्रसिद्घों चविधर्षणे।
अर्थात हिंदु और हिन्दू ये दोनों शब्द दुष्ट प्रकृति के लोगों को
विधर्षित करने वाले अर्थ में प्रसिद्घ्र हैं। जबकि परिजात हरण नामक किसी
प्राचीन नाटक में एक श्लोक में कहा गया है कि हिंदू वह है जो शस्त्र और
शास्त्र दोनों में निष्पात है। उसमें कहा गया है कि जो अपनी तपस्या से
दैहिक पापों तथा चित्त को दूषित करने वाले दोषों का नाश करता है तथा
शस्त्रों से अपने शत्रु समुदाय का भी संहार करता है, वह हिंदू है।
देश-काल और परिस्थिति के अनुसार लोग अपने आर्यत्व के साथ हिंदुत्व का सफल
सामंजस्य स्थापित कर रहे थे। हिंदू की इन वीरोचित परिभाषाओं में भी कहीं
नहीं झलकता कि हिंदू वह है जो अपने अधीनस्थ सेनापतियों (जैसा कि गोरी ने
कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ किया) को अपना गुलाम समझे। तब पृथ्वीराज चौहान से
भी यही अपेक्षा की जा सकती है कि वह भी अपने लोगों के प्रति मित्रभाव से
ही भरा रहता था।
अथर्ववेद (11/9/26) में कहा गया है कि मित्रादेवजनांयूयम्-तुम
विजयाभिलाषी होकर अपनी सेना के सैनिकों और सेनापतियों के साथ परस्पर
प्रीति युक्त मित्रवत होकर युद्घ की तैयारी करो।
उनकी संस्कृति दास भाव को प्रोत्साहित करने वाली अपसंस्कृति थी और हमारी
अपनी संस्कृति मित्रभाव को स्थापित करने वाली संस्कृति थी, जिसकी इतनी
गहन उपेक्षा?
स्थिति का परिज्ञान और लक्ष्य की प्रधानता
गोरी की अपेक्षा पृथ्वीराज चौहान में स्थिति का परिज्ञान तथा लक्ष्य की
प्रधानता का गुण भी अधिक ही था। यद्यपि हम मानते हैं कि उसका बहुपत्नीक
स्वभाव और अहंकारी मनोभाव है, ये दो दुर्गुण उसमें ऐसे थ, जिन्होंने
उसे अपने मार्ग से भटकाया भी, परंतु जब बात गोरी की चल रही हो तो चौहान
को कम करके आंकना अपने अतीत और इतिहास दोनों के साथ ही अपघात करना होगा।
गोरी पृथ्वीराज चौहान से एक दो बार नहीं अपितु कई बार परास्त हुआ। यदि उसे
स्थिति का परिज्ञान ही था तो वह बार बार क्यों पिटता था? जहां तक लक्ष्य
की प्रधानता का प्रश्न है तो यदि जयचंद उसे बुलाकर नहीं लाता तो उसका
लक्ष्य तो मिट चुका था। वह इतना निराश हो चुका था कि भारत की ओर से आने
वाली हवा भी उसे कंपा डालती थी। उसका धैर्य टूट चुका था और उसके भीतर
अदम्य उत्साह नाम की चीज खो चुकी थी। जबकि पृथ्वीराज चौहान चाहे जैसी भी
परिस्थिति में रहा उसका धैर्य और अदम्य उत्साह सदा बने रहे और उनके बल
पर ही वह अपने शत्रु से भिडऩे को चल पड़ता था। उसके भीतर धैर्य और अदम्य
उत्साह की इतनी प्रबलता थी कि इन्हीं दो गुणों ने उसके भीतर अहंकार को
उत्पन्न कर दिया था। परंतु यहां पराजित योद्धा के किसी दुर्गुण का वर्णन
नहीं हो रहा है, अपितु उसके गुणों की चर्चा हो रही है और वह भी उसके
विरोधी से तुलना करते हुए। अत: तुलना में न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाते हुए
इतिहासकारों को अपने चरित नायक या इतिहास नायक का वर्णन करना चाहिए।
पृथ्वीराज चौहान की उच्च महत्वाकांक्षा पृथ्वीराज चौहान की अपेक्षा

 गोरी को उच्च कोटि की महत्वाकांक्षा वाला भी
नहीं माना जा सकता। गोरी ने जब भी भारत पर आक्रमण किया तब तब ही उसका
लक्ष्य मजहबी उन्माद के माध्यम से भारत को इस्लाम के झण्डे तले लाना होता
था। भारत में युद्घों में जनसंहार की रीति को कभी यहां के निवासियों ने
अब से पूर्व नहीं देखा था, परंतु मुस्लिम आक्रमणों के काल में जनसंहारों
की झड़ी लग गयी। इन जनसंहारों को आप किसी भी प्रकार की महत्वाकांक्षा नहीं
मान सकते, क्योंकि महत्वाकांक्षा का अर्थ होता है अपने लिए मानव इतिहास
में सम्मानजनक स्थान पाने के लिए न्यायपूर्ण कार्य करना और न्यायपूर्ण
कार्यों में बाधक तत्वों को दण्डित करते हुए चलना। गोरी जिन आम भारतीयों
को दंडित करता था या मारता था, वह न्यायपूर्ण नहीं था। तब भी नहीं जबकि
उसकी अपनी मजहबी शिक्षा उसे विधर्मियों पर ऐसे अत्याचार करने की छूट देती
थी। क्योंकि इतिहास में यदि आपने किसी मजहबी शिक्षा से प्रेरित होकर किये
गये किसी व्यक्ति के अत्याचारों को न्यायपूर्ण कहकर उन्हें उसकी
महत्वाकांक्षा की उच्चतम अवस्था कहा तो यह मानवता के साथ अन्याय, इतिहास
के साथ धोखा और आने वाली पीढियों के प्रति आपकी आपराधिक मानसिकता कही
जाएगी। क्योंकि ऐसे अनुचित महिमामण्डनों से आने वाली पीढ़िय़ों को यही लगता
है कि यदि हम भी किसी वर्ग विशेष के साथ ऐसा ही अन्यायपूर्ण व्यवहार
करेंगे तो हमें भी इतिहास में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त होगा।
दूसरी ओर पृथ्वीराज चौहान है जिसने गोरी के अन्याय और अत्याचार का सामना
करने को अपनी उच्चतम महत्वाकांक्षा बना लिया, उसकी और कोई महत्वाकांक्षा
थी ही नहीं सिवाय इसके कि मां भारती को कोई विदेशी उसके रहते पराधीनता की
बेडिय़ों में न जकड़ ले। यह एक सुखद तथ्य है कि पृथ्वीराज चौहान ने अपने
जीवन काल में ऐसा दुर्दिन आने भी नहीं दिया, परंतु जितना ये सुखद तथ्य है
उतना ही ये दुखद तथ्य भी है कि उसकी इस उच्चतम महत्वाकांक्षा को इतिहास
में हमने ही स्थान नहीं दिया।
वीर योद्धा और दूरदृष्टि वाला राजनीतिज्ञ
गोरी को वीर योद्धा और दूरदृष्टि वाला राजनीतिज्ञ भी माना है। हमारा
मानना है कि उसे ऐसा कहना भी उसकी अपेक्षा से अधिक प्रशंसा करना ही माना
जाएगा। शेर कभी वीर नहीं होता, क्योंकि वह अपने शत्रु पर घात लगाकर आक्रमण
करता है, इसलिए वह क्रूर होता है। हमारे यहां वीर वह होता है जो शत्रु को
बिना सावधान किये और उसके हाथ में शस्त्र न आने तक उस पर हमला नहीं करता
है। निहत्थे पर आक्रमण करना या उसे मारना या किसी को छल से मारने को
हमारे यहां कायरता माना गया है। पृथ्वीराज चौहान ने आजीवन इस भारतीय
वीर-परंपरा का पालन किया। फिर भी उसे वीर योद्घा न माना जाना अपनी
वीर-परंपरा का अपमान करना तो है ही, साथ ही शत्रु की छल-परंपरा को
वीर-परंपरा में बदलने आत्मघाती संस्कृति विध्वंसक मानसिकता को प्रदर्शित
करने वाला एक दुर्गुण भी है। आप किसी की छली दुष्टता को, दुर्दम्य
दुस्साहस को या दुर्गुणों को वीर योद्धा जैसे उच्च गुणों से महिमामंडित
नहीं कर सकते। गोरी के जीवन का अवलोकन करें, तो ऐसे कितने ही उदाहरण हैं
जब उसने अपने छलबल से अपने विरोधी का नाश किया। उसको दूरदृष्टा भी जयचंद
ने कहलवा दिया, अन्यथा वह ना भारत में आता और ना ही उसे ये पदवी मिलती कि
वह एक दूरदृष्टा राजनीतिज्ञ था।
जहां तक गोरी के भारत में मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक होने की बात है
तो यह भी अंशत: ही सत्य है। क्योंकि वह मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक
होकर भी उसका उपभोग एक दिन भी भारत में रहकर नहीं कर सका। वह भारत के
स्वतंत्रता प्रेमी देशभक्तों से आजीवन भयग्रस्त रहा और उनसे लड़ते लड़ते
उन्हीं के हाथों मर गया। भारत की देशभक्ति पर उसका छलबल यदि कहीं सफल भी
हो गया तो भी उसके लिए वह अनुकूल परिस्थितियां कभी नहीं बनीं जिनसे वह
भारत का सम्राट या शासक स्वयं को घोषित कर पाता। फिर यह भी विचारणीय है
कि यदि उसने भारत में पृथ्वीराज चौहान को हराने में सफलता भी हासिल कर ली
थी तो उसने भारत के कितने क्षेत्र पर अपना साम्राज्य स्थापित किया? दस
पांच प्रतिशत भाग को हम 90 प्रतिशत भाग पर हावी क्यों कर देते हैं? माना
जा सकता है कि यहां से (1206 ई. से) भारत में मुस्लिम शासन की नींव पड़
गयी, परंतु हिंदू शक्तियां जो देश के विभिन्न आंचलों में राज्य कर रही
थीं वो तो अब भी वैसे ही अपना कार्य कर रही थीं। जिनमें देशभक्ति भी थी
और देश के प्रति समपर्ण भाव भी था, उनकी दुर्बलताओं के साथ-साथ हमें उनके
इस गुण पर भी ध्यान देना चाहिए।
जहां तक गोरी के लुटेरा न होने की बात है तो यह तो नितांत असत्य है।
पी.एन. ओक ने तथ्यों के आधार पर स्पष्ट किया है कि उसने 1000 हिंदू
मंदिरों को लूटकर उन्हें मस्जिद बना दिया था। अकेले वाराणसी से ही वह
अपने लूट के सामान को 1400 ऊंटों पर लाद कर ले गया था। इसीलिए ओक महोदय
का यह कथन विचारणीय है कि-”हिंदुस्तान का हजार वर्षीय मुस्लिम युग उनकी
बर्बर लूट, हिंदुओं की नृशंस हत्या, हिंदुओं का भीषण संहार, हिंदू देव
स्थानों का विनाश, हिंदू स्त्रियों के साथ निर्मम बलात्कार हिंदू किशोरों
का क्रूर हरण और लाखों हिंदुओं को गुलाम बनाकर बेच देने की खून खौलाने
वाली कहानी है। इसी युग को बड़ी बेशर्मी से हमारे इतिहास का आदर्श युग
माना गया है।”
हमें गोरी के लुटेरा न होकर साम्राज्य निर्माता होने के तर्क की एक और
ढंग से भी समीक्षा करनी होगी कि यदि वह लुटेरा नहीं था तो वह भारत से मिले
लूट के धन को अपने देश ही क्यों ले जाता था और उस धन को प्राप्त कर यहीं
के रहने वाले निर्धन लोगों के कल्याण कार्यों पर व्यय क्यों नहीं करता था?
क्या कोई एक भी ऐसा उदाहरण है कि जब उसने किसी मंदिर को लूटकर उससे मिले
धन को यहीं के निर्धन लोगों में बांट दिया हो या उनके लिए स्वास्थ्य,
शिक्षा आदि का उत्तम प्रबंध किया हो, सारा जीवन जिसने लूट, हत्या, डकैती
और बलात्कार किये हों, वह लुटेरा न कहा जाकर एक योग्य प्रशासक मानना
कितना उचित है?
धर्मपरायण शासक वही होता है जो अपनी प्रजा के मध्य न्यायपूर्ण व्यवहार
प्रतिपादित करता है और किसी भी वर्ग या व्यक्ति का शोषण दलन या दमन न तो
करता है और न होने देता है। क्योंकि धर्म का अर्थ ही ऐसा न्यायपूर्ण शासन
स्थापित करना है। धर्मपरायण का अर्थ किसी वर्ग विशेष की दमनकारी नीतियों
को दूसरे वर्ग पर आरोपित करना कदापि नहीं है। यदि ऐसी नीतियों को भी उचित
माना जाएगा तो फिर स्पष्ट करना होगा कि मानवता क्या है? इसलिए इतिहास की
समीक्षा की जानी आवश्यक है। किन्हीं इतिहासकारों की मान्यताओं के आधार पर
अपने इतिहासनायकों के साथ क्रूर-उपहास करने की अपनी अनुचित परंपरा को हम
जितना शीघ्र छोड़ देंगे, उतना ही उचित होगा।