रविवार, 16 नवंबर 2014

पशु बलि , भारतीय संस्कृति और न्यायालय

पशु बलि ,भारतीय संस्कृति और न्यायालय

संस्कृति दरअसल मानव प्रगति की यात्रा का ही दूसरा नाम है । जीव जीव का भोजन है , यह आदिम प्रवृति की सब से बड़ी पहचान है । आदिम प्रवृत्तियों पर नियंत्रण ही सांस्कृतिक उत्थान की पहचान है । सभी जीवों में से मानव को ही सबसे ज़्यादा बुद्धिमान माना जाता है । अब देखना केवल इतना ही है कि मानव नाम का यह जीव अपनी बुद्धि का प्रयोग दूसरे निर्वाह जीवों की रक्षा के लिये करता है या उन्हें समाप्त करने के लिये । विद्वान ऐसा मानते हैं कि मानव जाति के इतिहास में मानव नाम के जीव ने पिछली कुछ शताब्दियों में अन्य जीवों का जितने बड़े स्तर पर नाश किया है , उतना शायद आज तक नहीं किया । मानव चतुर प्राणी है । जीव हत्या जैसे क्रूर कर्म को कोई अच्छा सा नाम दे दिया जाये , इस लिये मनुष्य ने जीव हत्या को बलि का नाम देकर महिमामंडित भी करना शुरु कर दिया ।

लेकिन भारत में इस के ख़िलाफ़ समय समय पर जन आक्रोश भी प्रकट होता रहता है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने तो वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति नाटक लिख कर इस पूरी प्रथा पर गहरी चोट की थी । हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों ऐसी ही एक याचिका पर सुनवाई करते हुये मंदिरों में पशु बलि को प्रतिबन्धित कर दिया । इसी प्रकार मुम्बई उच्च न्यायालय ने मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यकर्ताओं की याचिका पर निर्णय देते हुये बक़रीद के दिन मारे जाने के लिये तैयार बारह हज़ार बैलों की हत्या पर रोक लगा दी । इन क़दमों का निश्चय ही स्वागत किया जाना चाहिये । पशु वध के मामलों में भी गोवा को लेकर पूरा समाज उत्तेजित होता है । उसका कारण यह है कि गाय का भारतीय संस्कृति में माता के सदृश स्थान है । यही कारण है कि गो हत्या को प्रतिबन्धित करने के लिये देश में अनेक संगठन समय समय पर आन्दोलन भी चलाते रहे हैं । सभी के ध्यान में ही होगा कि पिछली सदी के छटे दशक में दिल्ली में लाखों लोगों द्वारा गो हत्या को बंद करवाने की माँग करते हुये संसद को घेर लिया था । पुलिस की गोलावारी में अनेक साधु मारे गये थे , जिसकी देश भर में प्रतिक्रिया हुई थी । विश्व हिन्दू परिषद के एजेंडा में गो हत्या को देश भर में प्रतिबन्धित करवाना , सबसे ऊपर है । स्वतंत्र भारत में गो हत्या को रुकवाना महात्मा गान्धी जी की प्राथमिकताओं में सबसे उपर था । अनेक राज्यों ने गो हत्या को बन्द करने के अधिनियम भी हैं , लेकिन उनमें अनेक छिद्र हैं , जिसका लाभ हत्यारे उठाते रहते हैं । हिन्दुस्तान के मुसलमानों को ऐसा भ्रम है कि गो हत्या उनके मज़हब का ही हिस्सा है । यह भ्रम बहुत सीमा तक तो अंग्रेज़ों द्वारा फैलाया गया था , क्योंकि उनके खान पान की शैली में गो माँस भी प्रमुख रहता था । इस माँस की पूर्ति के लिये उन्होंने मुसलमानों का उपयोग किया । गो माँस मुसलमानों की भोजन शैली का हिस्सा न था और न ही है । क्योंकि हिण्दुस्तान के मुसलमान अरब या तुर्की से नहीं आये थे । वे तो यहाँ के हिन्दुओं से ही मज़हब बदल कर मुसलमान बने थे । मज़हब बदलने से उनकी भोजन शैली कैसे बदल सकती थी ? उनका खान पान वही रहा जो मज़हब बदलने से पहले था । लेकिन अंग्रेज़ों ने यह प्रचारित करना शुरु किया कि गो हत्या मुसलमान का मज़हबी फ़र्ज़ है ।

पिछले कुछ अरसे से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नाम के संगठन ने इस विषय पर स्थिति को स्पष्ट करना शुरु ही नहीं किया है बल्कि लाखों की संख्या में हस्ताक्षर करके भारत सरकार को गो हत्या बन्द करने के लिये याचिका भी दी है । लेकिन इस सबके बावजूद कृषि शैली में आ रहे परिवर्तनों के कारण गो वंश की स्थिति बिगड़ती जा रही है । इसको लेकर हिमाचल प्रदेश में विश्व हिन्दू परिषद से सम्बंधित भारतीय गोवंश रक्षा संवर्धन परिषद के कुछ समाज सेवियों ने पिछले दिनों शिमला स्थित हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी । उस याचिका का निबटारा करते हुये उच्च न्यायालय ने जो आदेश जारी किये हैं वे देश की सभी राज्य सरकारों के लिये मार्गदर्शक हो सकते हैं । उच्च न्यायालय ने कहा कि जिस प्रकार मनुष्यों के अधिकार होतें हैं उसी प्रकार पशुओं के भी अधिकार होतें हैं और उनकी रक्षा करना राज्य का ही कर्तव्य है । उच्च न्यायालय ने आदेश पारित किया है कि प्रदेश में कहीं भी गो हत्या नहीं हो सकती , जो व्यक्ति यह कार्य करता है या किसी से करवाता है या करने के लिये किसी को उकसाता है , तो वह दंड का भागीदार होगा । इसी प्रकार कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से वध के लिये गो वंश को प्रदेश के बाहर नहीं भेजेगा । इस हेतु गो वंश की तस्करी दण्डनीय अपराध है । न्यायालय ने आदेश पारित किया है कि गो वंश के लिये राज्य सरकार स्थानीय स्वशासन के निकायों को गोशाला या गो सदन बनाने के लिये धनराशि का प्रावधान करेगी । ये गो सदन वैज्ञानिक मानकों के आधार पर निर्मित होने चाहियें ताकि इसमें रखे जाने वाले पशुओं की पूरी सुविधा का ध्यान रखा जा सके । इतना ही नहीं , उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के पशु चिकित्सकों को यह भी आदेश दिया है कि भटक रहे पशुओं की चिकित्सा उन्हें करनी चाहिये । न्यायालय ने राज्य के मुख्य सचिव को आदेश दिया है कि वे इन निर्देशों का पालन सुनिश्चित करें ।

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के ये निर्देश प्रशंसनीय हैं । दरअसल गो वंश के वध व तस्करी रोकने के अधिनियम तो लगभग हर प्रदेश में बने हुये हैं । संविधान के राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धान्तों में भी गो वंश की हत्या रोकने के प्रावधान हैं । मुख्य सवाल उन के पालन का है । अनेक स्थानों में गो वंश की तस्करी में स्थानीय पुलिस और प्रशासन की मिली भगत रहती है । पिछले दिनों हरियाणा में ऐसे अनेक हादसे हुये हैं , यहाँ साधारण लोगों ने हत्या के लिये ले जाईं जा रही गायों के ट्रक पकड़े हैं लेकिन पुलिस ऐसे मामलों में गो तस्करों के साथ खड़ी दिखाई दी । ऐसी घटनाएँ भी हुईं जब गो तस्करों ने गो तस्करी को रोकने का प्रयास कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हिंसक आक्रमण कर दिया । पुलिस मूक दर्शक बन कर खड़ी रही । कुछ स्थानों पर पुलिस जानबूझकर कर गो हत्या के मामलों में आँख मूँद लेती हैं । इसका कारण हत्यारों को मिलने वाला राजनैतिक संरक्षण हो सकता है । अनेक राजनैतिक दल यह मान कर चलते हैं कि गो हत्या से रोकने पर मुस्लिम समाज नाराज़ हो सकता है । इस प्रकार गो वध मुस्लिम तुष्टीकरण में परिवर्तित हो सकता है । जबकि असलियत यह है कि गो वध में आम मुसलमान शामिल नहीं है बल्कि इसके संचालक सुसंगठित गिरोह हैं , जिनके लिये यह करोड़ों के व्यापार का साधन हैं । गो माँस की देश से बाहर भी तस्करी होती है । पता चला है कि अब तो कुछ स्थानों पर सरकार ख़ुद ही पशुओं की कतलगाहों के निर्माण को प्रेत्साहित कर रही है । ऐसे माहौल में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की यह पहल अन्य राज्यों के लिये पंथ प्रदर्शन हो सकती है ।

राष्ट्रभक्ति सनातन धर्म की मूल वैदिक परंपरा है

राष्ट्रभक्ति सनातन धर्म की मूल वैदिक परंपरा है



भारतीय सांस्कृतिक वैभव और दर्शन की मन्दाकिनी “श्री दक्षिणेश्वर मंदिर”
के दीवारों पर वेद शास्त्रों के सुभाषित अंकित हैं उनमे से एक वैदिक ऋचा
ने मुझे आकर्षित किया;
ये यजुर्वेद का “राष्ट्राभिवर्द्धन मन्त्र” है जो इस प्रकार है —–

आ ब्रह्यन्‌ ब्राह्मणो बह्मवर्चसी जायताम्‌

आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्यः अति
व्याधी महारथो जायताम्‌
दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः
पुरंध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो
युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्‌

योगक्षेमो नः कल्पताम्….शुक्ल यजुर्वेद ; अध्याय २२, मन्त्र २२

अर्थ : हे ब्रम्ह, हमारे देश में ब्राह्मण समस्त वेद आदि ग्रंथों से
देदिव्य्मान उत्पन्न हों | क्षत्रिय पराक्रमी और शस्त्र और शास्त्रार्थ
में निपुण और शत्रुओं को अत्यंत पीड़ित करने वाले उत्पन्न हों |गौ दुग्ध
देने वाली और बैल भार ढोने वाला हो| घोडा शीघ्र चलने वाला और स्त्री
बुद्धिमती उत्पन्न हो |प्रत्येक मनुष्य विजय प्राप्ति वाले स्वाभाव वाला
और रथ गामी और सभा प्रवीण हो | इस यज्ञकर्ता के घर विद्या यौवन सम्पन्न
और शत्रुओं को परे फेंकने वाला पुत्र उत्पन्न हो |हमारे देश के मेघ इच्छा
इच्छा पर बरसें और सभी जौ चना और गेहू फलवाले होकर पकें |
और हमारे राष्ट्र के प्रत्येक मनुष्य का योग और क्षेम उसके उपभोग हेतु
पर्याप्त हो |

‘राजृ-दीप्तो’ अर्थात ‘राजृ’ धातु से कर्म में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय करने से
राष्ट्र शब्द बनता है अर्थात विविध संसाधनों से समृद्ध सांस्कृतिक पहचान
वाला देश ही एक राष्ट्र होता है | अमेरिका एक देश है क्यों की यूरोप की
संस्कृति ने उसे समृद्ध किया न की उसने एक समग्र संस्कृति का विकास किया
था | आज एशिया में राष्ट्र की अभिव्यक्ति सिर्फ भारत के पास है क्यों की
चीन, जापान और कोरिया तक सभी भारत के शैव और बौध संस्कृति से ही सम्पन्न
हुए थे |

देश शब्द की उत्पत्ति “दिश” यानि दिशा या देशांतर से हुआ जिसका अर्थ
भूगोल और सीमाओं से है | देश विभाजनकारी अभिव्यक्ति है जबकि राष्ट्र,
जीवंत, सार्वभौमिक,युगांतकारी और हर विविधताओं को समाहित करने की क्षमता
रखने वाला एक दर्शन है |

|| पश्चिम का साम्राज्यवाद बनाम भारत का राष्ट्रवाद ||

पश्चिम के व्याकरण में राष्ट्र को परिभाषित करने की अभिव्यक्ति ही नहीं
है क्यों की उनकी philosophy (फिला =ज्ञान, सोफिया = प्रेमी) भारत के सहज
दर्शन की गूढता को वैसे ही व्यक्त नहीं कर सकता जैसे अंग्रेजी “त” और “ट”
के अंतर को व्यक्त करने में असमर्थ है | कुल मिलाकर पश्चिम ने अपने
साम्राज्यवाद को ही राष्ट्र का पर्यायवाची मान लिया परन्तु ये सर्वथा गलत
है | साम्राज्यवाद से तात्पर्य है कि वह जन समूह साधारणतः समान भाषा,
इतिहास, धर्म को मानता हो परन्तु भारत तो शताधिक भाषाएँ बोलता है !! भारत
का बाइबिल जैसे इतिहास लेखन में नहीं अपितु उसे कृष्ण की शिक्षाओं में
विश्वास है और भारत इस बात से ज्यादा मतलब नहीं रखता की कृष्ण का जन्म
कहाँ हुआ था !!!
भारत स्मृति से अधिक श्रुति में विश्वास करता है जब की अरब या यूरोप की
संस्कृति इतिहास लेखन पर टिकी है | यदि आज कुरआन या बाइबिल को अरब और
यूरोप से हटा दिया जाय तो उनकी पूरी धार्मिक विरासत ही ख़त्म हो जाएगी
परतु भारत जैसे राष्ट्र की समग्रता तो रामायण और गीता को भी हटा देने पर
भी शैव,शक्त, वैदिक, अद्वैत और शताधिक मतों के रूप में यशस्वी रहेगी |
यही है एक राष्ट्र की अभिव्यक्ति जिसे पश्चिम का एक भाषा, एक धर्म, एक
चर्च के साम्राज्यवादी ढांचे से व्यक्त नहीं किया जा सकता और अलग अलग
विविधताओं को समेटकर राष्ट्र की अभिव्यक्ति में हजारों सालों से यशस्वी
हो रहा है |

यही कारण है की भारत कभी सीमाओं के निर्धारण, इतिहास बोध और भूभागों को
जीतने और बांटने जैसे छोटे लक्ष्यों पर नहीं टिका रहा | हर बार अपनी
सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्र की सार्वभौमिकता को चुनौती देने वाले
आक्रान्ताओं को हिन्दुकुश के बाहर खदेड़ कर वापस लौट आये और भारत के
अमरत्व के परम ज्ञान की खोज के लिए एक महायात्रा पर अधर्मियों की कोई
काली छाया नहीं पड़ी |

कौटिल्य के अनुसार धार्मिक जनता और नीतिमान राजा, राष्ट्र के अंतर्गत
मान्य हैं। कौटिल्य के अनेक स्थानों में देश के स्थान पर राष्ट्र शब्द का
प्रयोग इसलिए किया है क्यों की सिर्फ भूगोल से समाज और राष्ट्र का
निर्माण नहीं होता है | जब की पश्चिम की साम्राज्यवाद की परिभाषा भूगोल
केन्द्रित है। राष्ट्र में जिन जिन वस्तुओं का होना अनिवार्य है उनका
उल्लेख करके कौटिल्य ने उन गौणी वृत्तियों वाले अवयवों को भी राष्ट्र
शब्दवाची कहा है। उन वस्तुओं में कृषि, धान्य,उपहार, कर, वाणिज्-लाभ,
नदी-तीर्थादि-लाभ एवं पत्तन आदि लाभ, सब राष्ट्र के लिए आवश्यक बतलाये गए
हैं । राष्ट्र में जिन जिन वस्तुओं का होना आवश्यक है जिन विशेषणों से
विशिष्ट होने से देश राष्ट्र हो सकता है, उनका निर्देश भी कौटिल्य ने
किया है।

|| चाणक्य के समग्र राष्ट्र की संकल्पना ||

जिस देश की रक्षा सीमावर्ती पर्वत, अरण्य, नदी, समुद्र आदि भौगोलिक
साधनों से सुगम हो, वह देश स्वारक्ष होकर राष्ट्र है। अर्थात भारत एक
स्वरक्ष राष्ट्र है क्यों की हिमालय, बंगाल की खाड़ी, अरब सागर और हिन्द
महासागर जैसे प्राकृतिक साधन इसकी रक्षा कर रहे हैं | जिस देश की
सुखपूर्वक जीविका या जीवनयात्रा चल सके,वह स्वाजीव है जैसे अंटार्कटिक
स्वजीव राष्ट्र नहीं है क्यों की उनके भूगोल में सुखपूर्वक जीविका नहीं
हो सकती है। शत्रुद्वेषी सामन्तवर्ग जिसके वशवर्ती हों, वैसे राजा तथा
प्रजा से युक्त देश ‘शक्यसामन्त’ राष्ट्र होता है। इसी तरह वह देश
राष्ट्र है, जो अनिष्ट पंक, पाषाण, ऊषर, विषम, कण्टक, श्रेणी, व्याल,
मृगावटी, आदि से रहित हो, जो कमनीय हो। जो देश कृषि,खनिज द्रव्य, हस्ती,
अरण्य आदि से युक्त, गोवश के लिए अनुकूल,पुरुषों को हितावह, सुरक्षित
गोचर भूमियुक्त, विविध पशुओं से संपन्न हो, यथासमय जिसमें वर्षा हो एवं
जो जल-स्थल के विविध मार्गों से युक्त हो , वह राष्ट्र है।
सारभूत,आश्चर्यपूर्ण, अत्यंत पवित्र तीर्थादि से युक्त, दंड एवं कर आदि
को सहन कर सकने वाला, कर्मशील शिल्पी एवं किसानों से युक्त, बुद्धिमान
गंभीर धार्मिक स्वामी से युक्त, वैश्य-शूद्रादि वर्णों के लोग जिस देश
में पर्याप्त हो, वहां राजभक्त, पवित्र, निष्कपट एवं धार्मिक बन निवास
करते हों, ऐसी जनपद-सम्पत से युक्त देश राष्ट्र है। कामन्दक आदि
नीतिशास्त्रों ने भी इन्हीं बातों का वर्णन अपने ग्रंथों में किया है।

आज राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्र की संकल्पना इसी उपरोक्त दर्शन पर
टिकी हुई है जहाँ इस्लाम और इसाइयत को भी इसी राष्ट्रवाद की महायात्रा
में शामिल होने की बात होती है तो हंगामा होता है | यदि आज भारत के
मुस्लिम और इसाई, मस्जिद या चर्च जाते हुए भी इस बात में विश्वास करें की
वो जिस भारत में जीवन जी रहे हैं उसके प्राचीन गौरव, सहिष्णुता और
सामाजिक साहचर्य ने ही उन्हें इस समाज में उनके धार्मिक स्वरुप को
स्वीकार करते हुए अपना पडोसी मान लिया जबकी अरब जैसे देशों में वहां के
इस्लामिक साम्राज्यवादी, हिन्दू या इसाई को धार्मिक आजादी नहीं देते हैं
तो उन्हें भारत का कृतज्ञ होना चाहिए और स्वयं को एक हिन्दू समाज का
महत्वपूर्ण अंग बनने से रोकना नहीं चाहिए | परन्तु इस्लाम और ईसाइयत
प्रेरित साम्राज्यवाद से प्रभावित भारतीय मुस्लिम और इसाई ऐसा करने की
अन्तःप्रज्ञा का विकास नहीं कर पा रहे हैं क्योंकी वो अपने धर्मों में
निहित एक धर्म,एक भाषा,एक पूजा के संकुचित पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं और
उनके विदेशी आकाओं के लिए ये एक संजीवनी है |

श्रीराम भक्त हनुमान की गदा

श्रीराम भक्त हनुमान की गदा 
श्रीराम भक्त हनुमान की गदा

गत कुछ दिनों से श्रीराम भक्त हनुमान के बारे में काफ़ी चर्चा चल रही है। इस का कारण है – श्री लंका में एक खुदाई के दौरान एक भारी भरकम गदा मिली है जिसे हनुमान जी की गदा माना जा रहा है।  इस का वज़न इतना अधिक है इसे उठाने के लिए दो क्रेन की आवश्यकता पड़ी।  चर्चा का विषय है  यदि यह गदा वास्तव में हनुमान जी की है तो इस से उन की अपनी शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है कि वे स्वयं कितने भारी भरकम रहे होंगे।

एक समय ऐसा भी था जब श्री लंका के लोग रामायण कालीन लंका से अपना  कोई सम्बन्ध नहीं मानते थे लेकिन लगभग २० -२५ वर्ष पूर्व श्री लंका सरकार के पर्यटन विभाग ने अपने देश में  रामायण में वर्णित स्थानों की खोज की और पर्यटन की दृष्टि से उन स्थानों का विकास किया।

 ९ सितंबर  २०१४ के दिल्ली के एक अख़बार में एक खबर प्रकाशित हुई कि  श्री लंका में एक गाँव है  – मातंग ।  वहाँ के निवासियों को मातंगी कहा जाता है।  यह गांव  घने जंगलों से घिरा है ।  कहते हैं हर ४१ वें वर्ष इस गाँव में हनुमान जी आते हैं और गाँव वालो  से मिलते है।  इस बार वे गत २० मई २०१४ को आए थे।

यह तो हम सब जानते है कि  हिंदू पौराणिक गाथाओं के अनुसार हमारे सात पौराणिक पात्र चिरंजीव हैं अर्थात वे शाश्वत हैं, उन की मृत्यु नहीं होती। हनुमान जी उन में से एक हैं । हनुमान जी के जन्म के बारे में भी मतैक्य नहीं है। लेकिन इतना तो है कि  वे रामायण युग में हुए और उस युग के एक महत्वपूर्ण पात्र बने ।  महाभारत युग में भी हनुमान जी थे और कहते हैं कि युद्ध प्रारम्भ होने से पहले वे पांडव से मिले थे । यह भी कहा जाता है कि  उन्होंने अर्जुन को अपरोक्ष रूप से अपनी सहायता का वचन दिया था । अपने वचन का निर्वाह भी उन्होंने पूरा किया ।

कहते हैं  वे पूरे युद्ध में सूक्ष्म रूप में अर्जुन के रथ के ऊपर लहराते ध्वज के पास ही रहे।  यदि कभी विरोधी पक्ष का कोई बाण सीधे अर्जुन को लक्ष्य कर आता तो तुरंत हनुमान जी रथ को थोड़ा नीचे दबा देते और बाण सीधा निकल जाता था।  इस के अतिरिक्त  पाञ्चजन्य शंखनाद में हनुमान जी की हुंकार भी होती थी।

महाभारत युद्ध समाप्त होने के हज़ारों वर्षों के बाद आज के वैज्ञानिक डिजिटल युग में भी वे  जीवित हैं और श्री लंका की  मातंगी जनजाति के माध्यम से उन के होने के प्रमाण मिल रहे हैं।  ​यह जनजाति मूलतः श्री लंका की एक  वेद्दाह (Veddaah) नाम की बड़ी जनजाति की उप जाति है।

‘सेतु’ नाम के एक आध्यात्मिक संगठन ने इस जनजाति की मान्यताओं और संबंधों के अध्ययन और शोध का कार्य अपने हाथ में लिया है। ‘सेतु’ के अनुसार इस  जन जाति के लोग अत्यधिक निष्ठावान और धार्मिक हैं और वे आधुनिक जगत की प्रगति से अभी काफी दूर हैं।  ये लोग अभी भी जंगलों में ही रहते हैं और अपने इतिहास को रामायण युग से जोड़ते  हैं।



सेतु ने अपने शोध में पाया है  कि भगवान राम के इस नश्वर शरीर छोड़ने के उपरान्त हनुमान जी ने भी अयोध्या से विदा ली और ब्रह्माण्ड के विभिन्न स्थानों की यात्रा की। वे लंका गए और लंका नरेश विभीषण से भी मिले। उसी यात्रा के समय उन्होंने  इस जनजाति के लोगों के साथ  ​कुछ समय व्यतीत किया और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान दिया। उसी समय हनुमान जी ने इन लोगों से नियमित रूप से मिलने का वायदा किया। इसी  वायदे के अनुसार प्रत्येक ४१वें वर्ष इन से मिलने आते हैं।  अब अगली भेंट सन  २०५५ में होगी।



सेतु संगठन ने अपनी वेब साइट www.setu.asia  पर पहले अध्याय में इस बात का वर्णन किया है कि  किस प्रकार हनुमान जी इस जंगल में पहुंचे। इस अध्याय में लिखा है की हनुमान जी अपनी यात्रा  एक बार न्यूवेरा इलिया नाम की पहाड़ी पर बैठे थे । गांव के मुखिया ने इन्हें देखा और वे उन से मिलने वहां पहुंचे ।



रूप रेखा के अनुसार दूसरे अध्याय में इस बात  की चर्चा होगी कि उन दोनों के बीच क्या क्या बात हुई।  शोध की भूमिका में कहा गया है कि यद्यपि आज के  डिजिटल युग में हम वैज्ञानिक प्रगति के निकष पर हैं लेकिन आध्यात्मिक प्रगति में ये जंगल वासी हम से काफी आगे हैं।  हम अपने बारे में कुछ भी तर्क वितर्क दे सकते हैं, अपने कार्यों के औचित्य दे सकते हैं, लेकिन इस नश्वर संसार से भी आगे एक दिव्य शाश्वत सत्य है जिस के लिए आस्था, श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा चाहिए।



हनुमान जी स्वयं श्रद्धा, भक्ति, समर्पण और शक्ति के प्रतीक हैं। आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण में  राम के प्रति राम सेवक के रूप में हनुमान जी के  योगदान का विशद वर्णन किया है परन्तु तुलसी दास ने उनको राम सेवक ही नहीं वरन एक अनूठा, अद्वितीय, असीम भक्त बना कर प्रस्तुत किया है क्योंकि हनुमान जी  ने तुलसी दास को चित्र कूट के घाट पर भगवान राम के दर्शन कराये थे और उन्हें रामचरितमानस के निरूपण में अपना सहयोग दिया। तुलसीदास रचित हनुमान चालीसा आज के युग में हर बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी को प्रिय है और सभी को कंठस्थ है ।

रहस्य और तिलिस्म के बीच छुपे धरोहर

रहस्य और तिलिस्म के बीच छुपे धरोहर


शुंग और गुप्त वंश की गुफाओं में है भगवान बुद्ध से जुड़ अनेकों भित्ती चित्रचकिया से नौ किलोमीटर दूर बिहार की सीमा पर घुरहूपुर गाँव के पास स्थित पीठिया पहड़ी पर मानव निर्मित शुंग और गुप्त वंश की गुफाओं में बौद्ध धर्म की महायान शाखा सेे जुड़े भगवान बुद्ध की भित्ती चित्र मिले हैं। जमीन से 150 फीट उंची पहाड़ी पर अत्यंत दुर्गम स्थान पर निर्मित इन गुफाओं पर कई खतरनाक मोड़ों से होकर गुजरना पड़ता है। थोड़ी सी भी चूक जान लेने के लिए काफी है। 150 फीट उंची छोटी-छोटी इन चार-पांच पहाडि़यों में कुछ गुफाओं की तरह संरचना हंै। इन गुफाओं को आपस में जोड़ने के लिए सुरंग निर्मित है साथ ही गुफाओं में जाने के लिए सीढ़ीयां बनी हैं। घुरहूपुर के सामने की तीसरी पहाड़ी में एक गुफा में प्रवेष करने पर हाल की तरह की एक संरचना है, जिसमें दो-तीन दर्जन लोग आराम से बैठ कर विचार-विमर्ष कर सकते हैं। इस हाल से जुड़े नौ खोह हैं। इनमें हर खोह में इतनी जगह है कि एक व्यक्ति पालथी मार कर साधना कर सकता है। इस गुफा से नीचे उतरने के लिए सीढ़ी नुमा संरचना बना है जो फिलवक्त जीर्ण अवस्था में है। गुफा के मुख्य द्वार पर आठ-दस पद चिन्ह भी हैं।गुफा में पत्थरों से टेक लगाकर एक पालिश की गयी तख्तनुमा संरचना है। जिसके एक सिरहाने पर सिर के आकार का चिन्ह बना हुआ है। ऐसा मालूम होता है कि कोई इस तख्त का प्रयोग सोने के लिए करता रहा होगा। इन गुफाओं की संरचना को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि यह कभी बौद्ध मठ के रूप में विकसित रहा होगा। गुफा में बुद्ध के भित्ती चित्र के ठीक नीचे खोदे गये स्थान से जल का सोता फूट पड़ा है जिसको कि लोग भगवान बुद्ध का चमत्कार मान रहे हैं। लोग जल को प्रसाद स्वरूप ग्रहण कर रहे हैं।गुफा के दीवार पर हिरन, उल्लू, मानव, घोड़ा तथा कुछ समूह चित्र भी बने हैं। ऐसा लगता है कि इन चित्रों के माध्यम से कोई किस्सा कहने की कोशिश की गयी है। गुफा के दीवारों पर बने ये राक पेंटिंग इसे किसी के निवास के रूप में दर्शाते हैं। बी.एच.यू. के पुरातत्वविद् डा0 प्रभाकर उपाध्याय कहते हैं कि ‘भित्ती चित्र गुप्त काल के हैं। भरहुत और सांची के स्पूत और गया की गुफाओं का निर्माण इसी काल में हुआ था।’ गुफा के मुख्य द्वार पर आठ-दस पद चिन्ह बने हैं जिनके बारे में स्थानीय लोगों का कयास था कि शायद यह भगवान बुद्ध के पद चिन्ह हैं। मगर पुरातत्वविद् डा0 प्रभाकर उपाध्याय कहते हैं कि ‘गुफा पर मिले साक्ष्यों के आधार पर वहां बुद्ध के होने का सवाल ही नहीं है। हाँ, उनके अनुयायीओं के पद चिन्ह हो सकते हैं।’ सारनाथ (वाराणसी) से आये बौद्ध भिक्षुओं ने इन चित्रों का अवलोकन किया था। अवलोकन के बाद सम्राट अशोक बौद्ध महासंघ के सदस्य चित्रप्रभा त्रिसरण ने बताया था कि ‘सम्राट अशोक ने 84 हजार स्पूतों, शिलालेखों व भित्ती चित्रों के माध्यम से भगवान बुद्ध की जीवन दर्शन का प्रचार किया था। उन्होने कहा कि भगवान बुद्ध के प्रज्ञा, करूणा, मैत्री के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए ऐसे भित्ती चित्रों का प्रयोग किया गया था।’ 


विन्ध्यपर्वत श्रृंखलाओं से जुड़े दर्जन भर से ज्यादा पहाडि़यों पर स्थित पाषाण प्रतिमा व भित्तचित्र नजर आते हैं। यहां प्राचीन स्थापत्य शैली से जुड़ी नक्काशीदार मुर्तियां, शिलाएं आदि दृष्टिगोचर होते रहें हैं। ऐतिहासिक धरोहर के साक्ष्य के क्रम में खण्डित बुद्ध प्रतिमाओं की दर्जनों मुर्तियां देखी जा सकती हैं। इन धरोहरों का प्रमाणित अध्ययन ही इनकी हकीकत को उजागर कर सकता है। मगर एक बात तय है कि विन्ध्यपर्वत श्रृंखला अपने गोद में एक मुकम्मल सभ्यता का इतिहास छुपाये हुए है।
इतने गहन निर्जन और दुःसाध्य पर्वत पर उत्पत्यकाओं में गुफाओं को लेकर उनके काल का निर्धारण करना काफी कठिन है फिर भी इतिहासकार डा0 जयराम सिंह का मानना है कि ‘ईसा पूर्व 185 में ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुंग ने जब बौद्ध धर्मावलंबी शासक वृहद्रय की हत्या कर उसे सिंहासन से अपदस्थ किया और बौद्ध धर्म के अनुयायीयों का संहार आरम्भ किया तब बौद्ध धर्म से जुड़े भिक्षुओं ने ऐसे ही निर्जन स्थानों का चयन किया था।’ सारनाथ: पास्ट एण्ड प्रजेंट लिख चुके डा0 जयराम सिंह बताते हैं कि ‘भित्ती चित्र गुप्तकालीन हैं तथा सारनाथ में प्रयोग किये गये रंगों से इनका मेल खाता है। इन चित्रों में प्रयुक्त चटख रंगों को अनेक वनस्पतियों के संयोजन से तैयार किया गया है।’
गुफा की दीवारों पर भगवान बुद्ध की समाधि मुद्रा और उनके अगल-बगल में कलश की आकृति चित्रित है। दीवार पर भगवान बुद्ध के चित्र के उपर पाली भाषा में शिलालेख भी पेंट किया गया है। जिनमें वनस्पतियों के मिश्रण से तैयार रंगों का प्रयोग किया गया है। पाली भाषा में चित्रित अंको के बारे में प्रियदर्शी अशोक मिशन (पाम) बिहार के सदस्य डा0 विजय बहादुर मौर्य ने बताया कि ‘सम्भवतः पाली भाषा में उत्कीर्ण शिलालेख में भगवान बुद्ध का जन्म काल ईसा पूर्व 563 और बुद्धम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि और धम्मम् शरणम् गच्छामि का सूत्र वाक्य अंकित है।’
इतिहास और कुछ नहीं समाजों व सभ्यताओं की स्मृति है। हम सभ्यताओं के बीते हुए समय को साक्षात देख सकते हैं, छू सकते हैं, उसमें सशरीर प्रवेश कर सकते हैं। सभ्यताओं की ये स्मृतियां सुरक्षित और प्रत्यक्ष रूप से उसके भग्नावशेषों में रहती हैं। खण्डहर, किले, पुराने नगर, आभूषण, बर्तन और कलाकृतियां सब एक बीत चुके समय में होते हैं। इतिहास को जानने व समझने के लिए इनको सुरक्षित रखना बेहद जरूरी है। विंध्यपर्वत श्रृंखला की गोद में बसा है उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जनपद चन्दौली का चकिया तहसील। इसकी घाटियों में न जाने कितने रहस्य और तिलिस्म आज भी दफन हैं। इन्ही घाटियों में आज भी जिन्दा हैं चन्द्रकान्ता की अमर प्रेम कहानी की निशानियां। राजदरी, देवदरी और विंडमफाल जैसे मनमोहक जल प्रपात इसी घाटी की सुन्दरता बढ़ा रहे हैं। गहडवाल राजपूत राजवंश का स्वर्णिम इतिहास भी विंध्यपर्वत श्रृंखला की इन्ही पहाडि़यों में ध्वंसावशेष के रूप में बिखरे पड़े हैं।
 

गौरवमयी भारतवर्ष का स्वर्णिम अतीत और देश की अवनति के कारणों पर विचार

गौरवमयी भारतवर्ष का स्वर्णिम अतीत और देश की अवनति के कारणों पर विचार


                संसार में वैदिक धर्म व संस्कृति सबसे प्राचीन है। इसका आधार चार वेद – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद हैं। वेदों का लेखक कोई मनुष्य या ऋषि-मुनि नहीं अपितु परम्परा से इसे ईश्वर प्रदत्त बताया जाता है। वैदिक प्रमाणों एवं विचार करने पर ज्ञात होता है कि सृष्टि की रचना होने के बाद जैविक व प्राणी सृष्टि हुई जिसमें वनस्पति जगत के बाद प्राणी जगत के अन्तर्गत पशु, पक्षी तथा कीट-पतंग की अमैंथुनी सृष्टि हुई। इनके बाद अन्तिम अमैथुनी सृष्टि मनुष्यों की हुई। मनुष्यों की अमैथुनी सृष्टि की न केवल सम्भावना है अपितु इसका उल्लेख वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है। हम आजकल देखते हैं कि मनुष्येतर जीवयोनियों, पशु, पक्षियों, कीट व पतंगों आदि को अपना जीवन व्यतीत करने के लिए किसी भाषा व नैमित्तिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। उनका काम ईश्वर से उन्हें प्राप्त स्वाभाविक ज्ञान से चल जाता है। मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसे माता के दुग्ध का पान करने व भूख व पीड़ा होने पर रोने के अतिरिक्त किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं होता। इससे अधिक वह अपने हाथ पैरों को पटकता रहता है। माता उसे गोद में दुग्धपान कराने के साथ उसे पुचकारती व दुलारती है तथा भांति-भांति के गीत व लोरियां आदि सुनाती रहती है जिससे वह अपनी माता की आवाज व भाषा से कुछ कुछ परिचित होना आरम्भ करता है। कुछ महीनों में वह माता की आवाज को पूरी तरह से समझने लगता है और पिता की भी ध्वनि को अनुभव करने लगता है। धीरे-धीरे उसका ज्ञान बढ़ने लगता है। वह न केवल शब्दों को सुनकर पहचानने लगता है वरन उसे प्रेरित करने पर वह छोटे-छोटे शब्दों को बोलने भी लगता है। आयु वृद्धि के साथ वह अपनी माता व पिता से कुछ-कुछ नई बातें सीखता जाता है परन्तु परिवार व समाज के लोगों के साथ समान्य व विशेष रूप से ज्ञानपूर्वक व्यवहार करने के लिए उसे आचार्यों की आवश्यकता होती हैं जो उसे विद्यालय में प्राथमिक कक्षा से आरम्भ करके भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान कराते हैं। विद्यालयों में भिन्न-भिन्न विषयों को पढ़कर वह नाना प्रकार के व्यवहार, कार्य व व्यवसाय करने में दक्ष हो जाता है।

सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में युवावस्था में उत्पन्न हमारे आदि पूर्वजों के पास अपनी कोई भाषा व ज्ञान तो होता नहीं है तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि वह भाषा व व्यवहार करने का ज्ञान किससे प्राप्त करते हैं वा किससे सीखते हैं? इस प्रश्न का उत्तर वेदों को जानने वालों के लिए अधिक कठिन नहीं है। हम जानते हैं कि यह सृष्टि ज्ञान पूर्वक बनी हुई रचना है। यह स्वयं कदापि नहीं बन सकती।  इसको बनाने वाली कोई पूर्ण बुद्धिमान सत्ता अर्थात् सर्वज्ञ, जो अतुल बलशाली अर्थात् सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, अनादि, अनन्त, अजन्मा, अमर, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर आदि गुणों वाली होनी सिद्ध होती है। यदि वह न होती तो यह सृष्टि या ब्रह्माण्ड न बनता। उसका दिखाई देना इस लिए आवश्यक नहीं है क्योंकि उसका निराकार, सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म व सर्वान्तर्यामी होना आवश्यक है और वह है भी ऐसी ही। उसे हम अपने ज्ञान के नेत्रों अर्थात्ः अन्तर्चक्षुओं से जान सकते हैं और आत्मा में विचार व चिन्तन से उसका प्रत्यक्ष अथवा साक्षात्कार कर सकते हैं जिस प्रकार से हम फूलों की सुगन्ध न देखकर भी उसका अनुभव करते हैं और इसी प्रकार वायु को आंखों से न दिखने पर भी अपनी त्वचा द्वारा स्पर्श कर उसका अनुभव करते हैं। इसी प्रकार हमें अपने मोबाइल की घण्टी बजने पर किसी परिचित की आवाज आती है तो उस व्यक्ति के सामने न होने पर भी हमें उसका प्रत्यक्ष व प्रामाणिक ज्ञान होता है कि हमारा अमुक परिचित मित्र, सम्बन्धी या परिवार का सदस्य बोल रहा है। अतः परमात्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। उसी परमात्मा ने सभी मनुष्यों को आदि सृष्टि में बनाया था। उसी ने देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान, स्वाद व शब्दोच्चार के लिए रसनेन्द्रिय अर्थात् जिह्वा व कण्ठ, स्पर्श के लिए त्वचा व सूंघने के लिए नाक व इसके साथ सत्यासत्य के विवेचन के लिए बुद्धि तथा शुभ व अशुभ संकल्पों के लिए मन आदि अवयव मनुष्य शरीर में बना कर लिए हैं। मनुष्य लाख कोशिश कर ले, वह भाषा को नहीं बना सकते। भाषा के न होने पर ज्ञान हो ही नहीं सकता चूँकि ज्ञान भाषा में ही निहित होता है। यदि भाषा न हो तो ज्ञान व समझ उत्पन्न नहीं हो सकती। जब मनुष्य इन्हें नहीं बना सकता है तो फिर प्रश्न यह है कि यह प्राप्त किससे होती हैं। इसका सीधा व सरल उत्तर है कि आदि भाषा वैदिक संस्कृत और ज्ञान ‘वेद’यह इस संसार को बनाने वाली सत्ता “ईश्वर” से मनुष्यों को प्राप्त हुए हैं। इन प्रश्नों के इन उत्तरों के अतिरिक्त हम में से किसी के पास अन्य कोई विकल्प है ही नहीं। हां, अनावश्यक काल्पनिक तर्कों का सहारा लिया जा सकता है परन्तु सत्य यही है कि यह भाषा और ज्ञान हमें ईश्वर से प्राप्त हुआ है।



वेद संस्कृत भाषा में है जो लौकिक संस्कृत से भिन्न ‘वैदिक संस्कृत’है। इन वेदों का यथार्थ अर्थ हमें महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का किया हुआ प्राप्त है। अंग्रेजी भाषा में भी डा. स्वामी सत्य प्रकाश सरस्वती जी का किया हुआ वेदों  का भाष्य हमारे पास उपलब्ध है। इनके अतिरिक्त महर्षि दयानन्द के अनेक ग्रन्थ यथा सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि सहित अनेक लघु ग्रन्थ जिनका आधार वेद और वैदिक साहित्य है, हमारे पास उपलब्ध है। वेदों पर आधारित प्राचीन ग्रन्थ मनुस्मृति, 6 दर्शन तथा 11 उपनिषदें भी हमारे पास है जिनके प्रणेता ऋषि कोटि के असाधारण विद्वान मनुष्य हैं। इतिहास के दो प्रमुख ग्रन्थ बाल्मीकी रामायण तथा व्यास ऋषि कृत महाभारत भी उपलब्ध हैं। इनका अध्ययन कर वैदिक धर्म, सभ्यता व संस्कृति से परिचित हुआ जा सकता है। आज भी वैदिक धर्म, संस्कृति व सभ्यता प्रासंगिक एव उपादेय है। हमने विगत 40 वर्षों में इन सभी ग्रन्थों का अध्ययन किया है और हमें लगता है कि इनके आधार पर स्वस्थ व सुखी जीवन व्यतीत किया जा सकता है। इनके अध्ययन के साथ हम आधुनिक ज्ञान व विज्ञान का अध्ययन कर विज्ञान, चिकित्सा, इंजीनियरिगं, शिक्षा, बैंकिगं, व्यापार, वाणिज्य आदि किसी भी क्षेत्र में अपना व्यवसाय चुन कर सफल जीवन व्यतीत कर सकते हैं।



आज की सामाजिक व्यवस्था को भी जानने का प्रयास करते हैं। आज हमारे देश व संसार में अनेक मत-मतान्तर, धर्म, मजहब, सम्प्रदाय आदि हैं। यह सभी संसार के लोगों को अपने-अपने मत का अनुयायी बनाने का प्रयास करते हैं। ईश्वर के एक होने पर भी सबकी अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न विचारधारायें, मान्यतायें, सिद्धान्त तथा उपासना पद्धतियां है। किसी को भी इस बात से कोई सरोकार नहीं दिखता कि उनके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं व उपासना पद्धतियों से ईश्वर प्रसन्न होता है अथवा नहीं? ईश्वर क्या चाहता है किसी मत के द्वारा जानने का प्रयास नहीं किया जाता है। वैदिक मत व धर्म में यह प्रयास अवश्य किया गया है। उनके अनुसार ईश्वर सभी जीवों का सुख चाहता है इसी लिए उसने सृष्टि को बनाया आरै आरम्भ में ही संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु वेदों का ज्ञान दिया जिसमें ईश्वर की ओर से मनुष्यों के कर्तव्यों का उल्लेख है। इन वैदिक कर्तव्यों की व्याख्यायें दर्शन, उपनिषद व मनुस्मृति ग्रन्थों में भी दी गई है।  वेदों के ज्ञान का महत्व इस लिए सर्वाधिक है क्योंकि मनुष्य का आत्मा जन्म व मरण धर्मा है। इसका अर्थ है कि यह सृष्टि काल में जन्म-मृत्यु-जन्म के चक्र में बन्धा हुआ होता है, जन्म के बाद पूर्व जन्मों में किए हुए कर्मानुसार आयु, जाति व सुख व दुःखों को प्राप्त कर भोगता है और कुछ समय बाद मृत्यु को प्राप्त होता है। मृत्यु के बाद पुनः पूर्व व इस जन्म के शेष कर्मों के आधार पर नया जन्म मिलता है। यह जन्म किये हुए कर्मों के अनुसार होता है। यह सम्भव है कि हम अगले जन्म में मनुष्य बने और यह भी सम्भव है कि हम पशु, पक्षी, कीट व पतंग में से किसी योनि या जाति प्रजाति में पैदा हों। हमारा भावी जन्म मनुष्य योनि में अच्छे सुशिक्षित व सुखी परिवारों में हों जहां हम सत्कर्मों को करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करें, इसके लिए ही वैदिक कर्तव्यों का पालन करने का विधान है।



सृष्टि के आदि काल में मनुष्यों की उत्पत्ति एवं वेदों के प्रादुर्भाव से ही काल गणना आरम्भ कर दी गई थी जो अद्यावधि जारी है। इस समय सृष्टि संवत् 1,96,08,53,115 चल रहा है। इस लम्बी अवधि में अब से लगभग 5,100 वर्ष पूर्व महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध हुआ था। युद्ध में बहुत बड़ी संख्या में जनहानि हुई जिस कारण युद्ध के बाद सर्वत्र अव्यवस्था फैल गई। विगत 5000 वर्ष में देश के ज्ञानी वर्ग के आलस्य, प्रमाद आदि अनेक कारणों से वेदों का ज्ञान लुप्त हुआ जिससे अन्धविश्वास, अवैदिक परम्परायें व कुरीतियां प्रचलित हो गईं। अज्ञान व कुछ अन्य कारणों से पूर्ण अहिंसात्मक यज्ञों में पशुओं की हत्यायें की जाने लगीं। स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन से वंचित कर दिया गया। देश भर में वेदों का अध्ययन समाप्त प्रायः हो गया। वेदों के अज्ञानतापूर्ण, मिथ्या व अश्लील अर्थ किये गये। सत्य वेदार्थ लुप्त प्रायः था जब कि वेदार्थ के कुछ ग्रन्थ अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरूक्त व निघण्टु आदि ग्रन्थ कुछ लोगों के पास उपलब्ध थे परन्तु इनका उपयोग नहीं किया जा रहा था। देश व समाज का पतन इस सीमा तक हुआ कि महाभारत काल तक बोलचाल व साहित्य की भाषा सर्वत्र संस्कृत ही थी परन्तु इसके बाद संस्कृत का वर्चस्व समाप्त होकर अन्य अनेक भाषायें अस्तित्व में आ गईं। इन परिस्थितियों के उत्पन्न होने से नये-नये मत यथा बौद्ध, जैन, अद्वैत, द्वैत, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि अस्तित्व में आयें। विदेशों में भी पारसी या जरदुश्त मत, यहूदी मत, ईसाई मत तथा इस्लाम मत आदि अस्तित्व में आये। यह क्रम चलता रहा और भारत में मतों की संख्या में वृद्धि होती रही। इस कारण संसार में अज्ञान फैल गया और एक ईश्वर की नाना प्रकार से स्तुति व प्रार्थनायें की जाने लगी। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के सत्य स्वरूप को जानने का प्रयास ही नहीं किया गया और न अब किया जा रहा है। सब जगह ‘अपनी अपनी ढफली, अपना अपना राग’वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। अनेक मत-मतान्तर, मजहब, सम्प्रदाय व पन्थों के कारण समाज में समरसता समाप्त हो गई है। यदा-कदा यत्र-तत्र देश में साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं। सब अपने-अपने मत को श्रेष्ठ व ज्येष्ठ मानने लगे और हमारे विदेशी मतों ने तो धर्मान्तरण का कुचक्र भी चलाया। ऐसी अनेक घटनायें इतिहास में अंकित है जहां शासक वर्ग व बलवान शत्रु का मत न मानने वालों की हत्यायें कर दी जाती थी और यह कार्य बहुत बड़े पैमाने पर भारत में हुआ। सभी मतों का आपस में संवाद समाप्त हो गया और सब अपने अपने घर में शेर बन गये। सन् 1825 में महर्षि दयानन्द का जन्म होता है। वह वेदों का अध्ययन करते हैं और बहृमचर्य व योग के आधार पर अपूर्व पुरूषार्थ, तप एवं त्याग से वेदों के सत्य अर्थों को जानते हैं।  उन्होंने संसार के सभी मतों का अध्ययन किया और पाया कि सत्य धर्म केवल एक है और वह प्राचीन वेदों का धर्म है जिसे सनातन धर्म भी कहते हैं। उनको इस तथ्य का भी साक्षात हुआ कि विश्व शान्ति के लिए आवश्यक है कि सभी मतों का परस्पर संवाद हो, वार्तालाप, उपदेश, गोष्ठी, शास्त्रार्थ कर सत्य मत का निर्णय किया जाये और उस सत्य मत को सभी स्वीकार करें। उन्होंने अनेक मतों के विद्वानों से संवाद और शास्त्रार्थ भी किए जिसमें वैदिक मान्यतायें हीं  सत्य सिद्ध हुईं। बहुत से लोगों ने सत्य को स्वीकार भी किया परन्तु यह स्थिति नाममात्र की ही कही जा सकती है। इस पृष्ठ भूमि में अब हम भारत के पतन के कारणों पर विचार करते हैं और उन्नति के कारकों का भी उल्लेख करते हैं।



देश के पतन का पहला कारण तो वैदिक ज्ञान का लोप तथा असत्य व मिथ्या ज्ञान पर आधारित मतों का प्रादुर्भाव रहा जिस कारण देश में सर्वत्र अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न हो गईं। इसके फलस्वरूप मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित करना, अवतारवाद की कल्पना व उसका प्रचलन, फलित ज्योतिष, जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था वा आधुनिक वर्णव्यवस्था, छुआ-छुत का प्रचलन, बाल विवाह-अनमेल विवाह व बहुविवाह, सती प्रथा, मदिरा पान, मांसाहार, अशिक्षा, वैज्ञानिक अनुसंधान पर ध्यान न देना, निर्धनों व दुर्बलों का धनिकों व बलवानों द्वारा शोषण व उन पर अत्याचार आदि अनेक पतन के कारण समाज व देश में उपस्थित हुए। यह सब देश में चल पड़ा परन्तु ऐसा कोई व्यक्ति उत्पन्न नहीं हुआ जो इनके विरूद्ध आवाज उठाता। इसका श्रेय स्वामी दयानन्द सरस्वती को मिला जिन्हें उनके गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन कर देश व इसके पुराने सत्य वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए प्रेरित किया था।  स्वामी दयानन्द जी ने पतन को समाप्त करने और देश व विश्व का कल्याण करने के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की और इसके 10 स्वर्णिम नियम बनाये जिनमें से एक ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये’है। दूसरा अति महत्वपूर्ण नियम यह है कि ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।’उनकी इस प्रेरणा से उनके प्रमुख अनुयायियों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द, महात्मा हंसराज, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु आदि ने गुरूकुलों व दयानन्द एंग्लो वैदिक कालेजों का देश भर में विस्तार किया। आर्य समाज के स्वर्णिम नियमों यह नियम भी हैं कि “सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये। मनुष्य को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिये। समाज का उपकार करना आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक और आत्मिक उन्नति करना।“ यह नियम यद्यपि आर्य समाज के नियम हैं परन्तु इन नियमों का कोई भी विरोधी नहीं हो सकता। इसी प्रकार से ईश्वर के स्वरूप व उसके द्वारा प्रदत्त वेद ज्ञान से सम्बन्धित नियम भी देश व काल की सीमा से परे होने के साथ मानवमात्र के लिए हितकारी हैं व जीवन की उन्नति के आधार हैं। जहां यह नियम सरल व सुबोध हैं एवं देश व समाज के लिए लाभप्रद हैं वहीं देश के नाना प्रकार के मतों व अज्ञान तथा अन्धविश्वासों में ग्रसित होने के कारण इनका क्रियान्वयन असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।



समाज की उन्नत अवस्था वह अवस्था हो सकती हैं जहां किसी के साथ पक्षपात न होता हो और न ही अन्याय। सभी देशवासी शारीरिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ, सुखी, सम्पन्न व समृद्ध हों। इसके साथ सभी का धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से शिक्षित होना भी आवश्यक है। एक ही मत, एक जैसी परम्परायें और एक समान ही सबकी विचारधारा हो। यह उन्नति की स्थिति है और इसके विरीत जो स्थिति हो सकती है वह अवनति की स्थिति या अल्प उन्नति की स्थिति कही जा सकती है। समाज ऐसा हो जहां सभी लोग संसार की सबसे प्राचीन भाषा को बोलना व लिखना जानते हों। हिन्दी का ज्ञान भी सभी देशवासियों को होना चाहिये। इनका जो विरोध करे वह कड़े व तत्काल दण्ड से दण्डित किया जाये। इन दो भाषाओं के बाद क्षेत्रीय भाषा व अंग्रेजी का स्थान होना चाहिये। देश के लिए सर्वत्र एक समान, अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये। वेदाध्ययन अनिवार्य होना चाहिये। वेदों की उपेक्षा सहन नहीं की जानी चाहिये। यहां यह कहना उचित होगा कि वेद किसी मत या पन्थ का ग्रन्थ नहीं अपितु साक्षात् ईश्वर से प्राप्त सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ हैं जिन पर संसार के सभी मानवेों का अधिकार है और सबको इसका अध्ययन व पालन करना परम कर्तव्य व मानव धर्म है। सभी अन्धविश्वास व कुरीतियों को सरकारी राजाज्ञा द्वारा निषिद्ध किया जाना चाहिये जिसे वेदों के विद्वान, सभी ज्ञानी, शिक्षाविद व वैज्ञानिक मिलकर तय करें। विरोध करने वालों को उचित दण्ड शीघ्रातिशीघ्र मिलना चाहिये। अज्ञान पर आधारित मतों पर प्रतिबन्ध होना चाहिये। देश में कम से कम सरकारी अवकाश हों। पुरूषार्थ की पूजा हो और पुरूषार्थहीन का असम्मान हो। गुणी लोगों को बिना किसी पक्षपात के रोजगार मिलना चाहिये और अयोग्य को समय-समय पर छानबीन कर उन्हें उनकी योग्यता व स्वभाव के अनुसार कार्य दिया जाना चाहिये। सामाजिक समरसता के लिए भी कानून हो। जो इसमें रूकावट करें वह कोई भी हों, दण्डित होने चाहियें। धन की भी एक सीमा होनी चाहिये। जो अधिक धनी हैं उनकी भी अधिकतम् सीमा होनी चाहिये। उससे अधिक धन सरकार उनके कर के रूप में लेकर उससे निर्धनों के कल्याण के कार्यक्रम चलाए जिससे सामाजिक व आर्थिक असमानता कम से कम हो। देश में एक ऐसा वातावरण बनना चाहिये जिसमें त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले अधिक सम्मानित माने जाने चाहिये और सभी को उनका यथोचित सम्मान करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगें तो राष्ट्र उन्नत न होकर अवनति को प्राप्त होगा। अवनति के जहां अनेक कारण होते हैं वहां मांसाहार व मदिरापान भी आध्यात्मिक एवं भौतिक अवनति का कारण होता है। मदिरापान और मांसाहार सहित सभी प्रकार के नशों से मनुष्य का शरीर निर्बल होकर रोगग्रस्त हो जाता है। उसकी शारीरिक व बौद्धिक क्षमतायें स्वस्थ मनुष्य की अपेक्षा कम होती है। विलासी और व्यस्नी मनुष्यों से राष्ट्र को अधिक लाभ नहीं हो पाता जो व्यस्नों से रहित देशवासियों से होता है। अतः शासक व शासक वर्ग को इस दिशा में ध्यान देने की आवश्यकता होती है। इसके साथ देश का सामरिक दृष्टि से भी पड़ोसी देशों से कहीं अधिक बलवान होना अति आवश्यक है। संसार का कोई देश अपनी सैन्य व अन्य किसी शक्ति के कारण हमें अपनी बात मानने के लिए विवश न कर सके, इस लिए हमें उनके समान व अधिक बल व सामर्थ्य देश में उत्पन्न करना आवश्यक है। गोहत्या किसी भी देश के लिए अभिशाप व कलंक होता है। गोहत्या एक प्रकार से राष्ट्र की हत्या के समान है। ईश्वर की दृष्टि में भी यह एक जघन्य अपराध है। ऐसे नागरिक कभी भी मन की प्रसन्नता, वास्तविक सुख व शान्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अवनति के इन कारणों को दूर करने पर ही देश उन्नति कर सकता है। आशा की जानी चाहिये कि भविष्य में यह स्वर्णिम समय अवश्य आयेगा।



ईश्वर व उसकी उपासना पद्धतियां – एक वा अनेक?

ईश्वर व उसकी उपासना पद्धतियां – एक वा अनेक?


हम संसार में देख रहे हैं कि अनेक मत-मतान्तर हैं। सभी के अपने-अपने इष्ट देव हैं। कोई उसे ईश्वर के रूप में मानता है, कोई कहता है कि वह गाड है और कुछ ने उसका नाम खुदा रखा हुआ है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भाषाओं में एक ही संज्ञा – माता के लिए मां, अम्मा, माता, मदर, मम्मी या अम्मी आदि नाम हैं उसी प्रकार से यह ईश्वर के अन्य-अन्य भाषाओं व उपासना पद्धतियों में ईश्वर के नाम हैं। क्या यह ईश्वर, ळवक व खुदा अलग-अलग सत्तायें हैं? कुछ ऐसे मत भी हैं जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करते तथा अपने मत के संस्थापकों को ही महान आत्मा मानते हैं जिनकी स्थिति प्रकारान्तर से ईश्वर के ही समान व ईश्वर की स्थानापन्न है। जहां तक सभी मतों का प्रश्न है, हमने अनुभव किया है कि सभी मतों के सामान्य अनुयायी अपनी बुद्धि का कम ही प्रयोग करते हैं। उन्हें जो भी मत के प्रवतर्कों व उसके नेताओं द्वारा कहा या बताया जाता है या जो उन्हें परम्परा से प्राप्त हो रहा है, उस पर आंखें बन्द कर विश्वास कर लेते हैं। उनकी वह आदत, कार्य व व्यवहार उनके अपने जीवन के लिए हानिकर ही सिद्ध होती है एवं इसके साथ यह देश व समाज के लिए भी अहित कर सिद्ध होती है। यहां यदि विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बुद्धि तत्व लगभग समान रूप से दिया है। इस बुद्धि तत्व का प्रयोग व उपयोग बहुत कम लोग ही करना जानते हैं। आजकल बहुत से लोग ऐसे हैं जो विद्या का अध्ययन धनोपार्जन के लिए करते हैं। उनके जीवन का एक ही उद्देश्य है कि अधिक से अधिक धन का उपार्जन करना और उससे अपने व अपने परिवार के लिए सुख व सुविधा की वस्तुओं को उपलब्ध करना तथा उन सबका जी भर कर उपयोग करना। यह मानसिकता व सोच हमें बहुत ही घातक अनुभव होती है। एकमात्र धन की ही प्राप्ति में मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर उससे इतनी दूर चला जाता कि जहां से वह कभी लौटता नहीं है और उसका यह जीवन एक प्रकार से नष्ट प्रायः हो जाता है।
हम यह मानते हैं कि धन की जीवन में अत्यन्त आवश्यकता है परन्तु जिस प्रकार से हर चीज की सीमा होती है उसी प्रकार से धन की भी एक सीमा है। उस सीमा से अधिक धन, धन न होकर हमारे पतन व नाश का कारण बन सकता है व बनता है। इस धन को अर्थ नहीं अपितु अनर्थ कहा जाता है। जिस प्रकार से भूख से अधिक भोजन करने पर उसका पाचन के यन्त्रों पर कुप्रभाव पड़ता है उसी प्रकार से आवश्यकता से कहीं अधिक धन का उपार्जन व संचय, जीवन व उसके उद्देश्य की प्राप्ति पर कुप्रभाव डालता है। हमारे ऋषि-मुनि-योगी साक्षात्कृतधर्मा होते थे जिन्हें अपने ज्ञान व विवेक से किसी भी क्रिया के परिणाम का पूरा ज्ञान होता था। उन्होंने एक सूत्र दिया कि जो व्यक्ति धन व काम की एषणा से युक्त है, उसे धर्म का ज्ञान नहीं होता। धर्म का सम्बन्ध हमारे दैनिक कर्तव्यों एवं आचार, विचार व व्यवहार से होता है। दैनिक कर्तव्य क्या हैं यह आज के ज्ञानी व विद्वानों तक को पता नहीं है। इन दैनिक कर्तव्यों में प्रातः उठकर शारीरिक शुद्धि करके ईश्वर के गुणों व स्वरूप का ध्यान कर निज भाषा एवं वेद मन्त्रों से अर्थ सहित सर्वव्यापाक व निराकार ईश्वर प्रार्थना की जाती है। उसका धन्यवाद किया जाता है जिस प्रकार से हम अपने सांसारिक जीवन में किसी से कृतज्ञ होने पर उसका धन्यवाद करते हैं। ईश्वर ने भी हमें यह संसार बना कर दिया है। हमें माता-पिता-आचार्य-भाई-बहिन-संबंधी-मित्र-भौतिक सम्पत्ति-हमारा शरीर-स्वास्थ्य आदि न जाने क्या-क्या दिया है। इस कारण वह हम सब के धन्यवाद का पात्र है। इन्हीं सब बातों पर विचार व चिन्तन करना, ईश्वर के गुणों व उपकारों का चिन्तन व ध्यान करना ही ईश्वर की उपासना कहलाती है। इससे मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। इससे निराभिमानता का गुण प्राप्त होता है। निराभिमानता से मनुष्य अनेक पापों से बच जाता है। दूसरा कर्तव्य यज्ञ व अग्निहोत्र का करना है। तीसरा कर्तव्य माता-पिता आदि के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन है जिससे माता-पिता पूर्ण सन्तुष्ट हों। इसे माता-पिता की पूजा भी कह सकते हैं। इसके बाद अतिथि यज्ञ का स्थान आता है जिसमें विद्वानों व आचार्यों का पूजन अर्थात् उनका सम्मान व उनकी आवश्यकता की वस्तुएं उन्हें देकर उनको सन्तुष्ट करना होता हैं। अन्तिम मुख्य दैनिक कर्तव्य बलिवैश्वदेव यज्ञ है जिसमें मनुष्येतर सभी प्राणियों मुख्यतः पशुओं व कीट-पतंगों को भोजन कराना होता है।

हम बात कर रहे थे कि अनेकानेक मतों में अपने अपने गुरू व अपने-अपने भगवान हैं। सबकी पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। क्या वास्तव में ईश्वर भी अलग-अलग हैं व एक है? यदि एक है तो फिर सब मिलकर उसके एक सत्य स्वरूप का निर्धारण करके समान रूप से एक ही तरह से पूजा या उपासना क्यों नहीं करते? इसका उत्तर ढूढंना ही इस लेख का उद्देश्य है। ईश्वर केवल एक ही है, पहले इस पर विचार करते हैं। संसार में ईश्वर वस्तुतः एक ही है। एक से अधिक यदि ईश्वर होते तो न तो यह संसार बन सकता था और न ही चल सकता है। हम एक उदाहरण के लिए एक बड़े संयुक्त परिवार पर विचार कर सकते हैं। यदि परिवार का एक मुख्या न हो, समाज का एक प्रतिनिधि न हो, प्रान्त का एक मुख्य मंत्री न हो और देश का एक प्रधान न होकर अनेक प्रधान मंत्री हों तो क्या देश कभी चल सकता है? कदापि नहीं। आज हमारे देश में जितने राजनैतिक दल हैं, यदि सभी दलों के या एक से अधिक दलों के दो-चार या छः प्रधान मंत्री बना दें तो देश की जो हालत होगी वही एक से अधिक ईश्वर के होने पर इस संसार या ब्रह्माण्ड की होने का अनुमान आसानी से कर सकते हैं। हम पौराणिक भगवानों को देखते हैं कि पुराणों की कथाओं में उनमें परस्पर एकता न होकर कईयों में इस बात का विवाद हो जाता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा है। वैष्णव स्वयं को शैवों से श्रेष्ठ मानते हैं और शैव स्वयं को वैष्णवों से श्रेष्ठ। अतः हमें हमारे प्रश्न का उत्तर मिल गया है कि संसार व ब्रह्माण्ड केवल एक सर्वव्यापक, चेतन सत्ता ईश्वर स ेचल सकता है, उनके सत्ताओं से कदापि नहीं। संसार का रचयिता, संचालक, पालक व प्रलयकर्ता ईश्वर केवल एक ही सत्ता है जो पूर्ण धार्मिक और सब प्राणियों का सच्चा हितैषी है और वह माता-पिता-सच्चे आचार्य के समान सबके कल्याण की भावना से कार्य करता है।

अब उपासना पद्धतियों की चर्चा करते हैं। उपासना का अर्थ होता है पास बैठना। जैसे विद्यालय में एक कक्षा में विद्यार्थी अगल-बगल में बैठते हैं। जहां गुरू सामने बैठ या खड़ा होकर उपदेश दे रहा होता है तो वह गुरू-शिष्य एक दूसरे की उपासना कर रहे होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सबके पास पहले से ही उपस्थित व मौजूद है। उसे मिलने या प्राप्त करने के लिए कहीं आना-जाना नहीं है। हमारा मन व ध्यान सांसारिक वस्तुओं में लगा रहता है जिसका अर्थ है कि हम उन-उन सांसारिक वस्तुओं की उपासना कर रहे होते हैं। यदि हम सभी सांसारिक विषयों से अपना मन व ध्यान हटाकर ईश्वर के गुणों व उसके स्वरूप में स्थिर कर लेते हैं तो यह ईश्वर की उपासना होती है। इसके अलावा ईश्वर की किसी प्रकार से उपासना हो नहीं सकती है। योग दर्शन में महर्षि पतंजलि जी ने भी ईश्वर की उपासना का यही तरीका व विधि बताई है। ध्यान अर्थात् ईश्वर के स्वरूप वा उसके गुणों का विचार व चिन्तन ध्यान करलाता है जो लगातार करते रहने से समाधि प्राप्त कराता है। समाधि में ईश्वर के वास्तविक स्वरूप व प्रायः सभी मुख्य गुणों का साक्षात् व निभ्र्रान्त ज्ञान होता है। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः, अन्य दूसरा कोई मार्ग या उपासना पद्धति इस लक्ष्य को प्राप्त करा ही नही सकती। यही मनुष्य जीवन का और किसी जीवात्मा का परम लक्ष्य या उद्देश्य है। अतः ईश्वर की पूजा, उपासना, स्तुति व प्रार्थना आदि सभी की विधि केवल यही है और इसी प्रकार से उपासना करनी चाहिये व की जा सकती है। बाह्याचार आदि जो सभी मतों में दिखाई देता है वह पूर्ण उपासना न होकर आधी-अधूरी व आंशिक उपासना ही कह सकते हैं जिससे परिणाम भी आधे व अधूरे ही प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को चाहें वह किसी भी मत, धर्म, सम्प्रदाय या मजहब के ही क्यों न हों, सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय एवं वेदादि सत्य शास्त्रों का अध्ययन, स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करना चाहिये। यही ईश्वर की सही उपासना पद्धति है और इसी से ईश्वर की प्राप्ति अर्थात् साक्षात्कार होगा। ईश्वर केवल एक ही है और नाना भाषाओं में उसके नाना व भिन्न प्रकार के नाम यथा, ईश्वर, राम, कृष्ण, खुदा व गौड आदि शब्द उसी के लिए प्रयोग किये जाते हैं। ईश्वर का मुख्य नाम केवल एक है और वह है “ओ३म्” जिसमें ईश्वर के सब गुणों का समावेश है। इस ओ३म् नाम की तुलना में ईश्वर का अन्य कोई नाम इसके समान, इससे अधिक व प्रयोजन को प्राप्त नहीं कर सकता। “ओ३म्” का अर्थ पूर्वक ध्यान व चिन्तन करने से भी उपासना होती है और इससे समयान्तर पर मन की शान्ति सहित अनेकानेक लाभ होते हैं। रोगों का शमन व स्वास्थ्य लाभ भी होता है।

‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’

‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’


सभी प्राणियों को ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर सत्य, चेतन, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, सर्वातिसूक्ष्म, नित्य, अनादि, अजन्मा, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है। जीवात्मा सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, आकार रहित, सूक्ष्म, जन्म व मरण धर्मा, कर्मों को करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला आदि स्वरूप वाला है। संसार में एक तीसरा एवं अन्तिम पदार्थ प्रकृति है। इसकी दो अवस्थायें हैं एक कारण प्रकृति और दूसरी कार्य प्रकृति। कार्य प्रकृति यह हमारी सृष्टि वा ब्रह्माण्ड है। मूल अर्थात् कारण प्रकृति भी सूक्ष्म व जड़ तत्व है जिसमें ईश्वर व जीवात्मा की तरह किसी प्रकार की संवेदना नहीं होती।


जीवात्मायें अनन्त संख्या में हमारे इस ब्रह्माण्ड में हैं। इनका स्वरूप जन्म को धारण करना व मृत्यु को प्राप्त करना है। मनुष्य जीवन में यह जिन कर्मों को करता है उनमें जो क्रियमाण कर्म होते हैं उसका फल उसको इसी जन्म में मिल जाता है। कुछ संचित कर्म होते हैं जिनका फल भोगना शेष रहता है जो जीवात्मा को पुनर्जन्म प्राप्त कर अगले जन्म में भोगने होते हैं। कर्मानुसार ही जीवों को मनुष्य व इतर पशु, पक्षी आदि योनियां प्राप्त होती हैं। मनुष्य योनि कर्म व भोग योनि दोनो है तथा इतर सभी पशु व पक्षी योनियां केवल भोग योनियां है। यह पशु पक्षी योनियां एक प्रकार से ईश्वर की जेल है जिसमें अनुचित, अधर्म अथवा पाप कर्मों के फलों को भोगा जाता है।



हम, सभी स्त्री व पुरूष, अत्यन्त भाग्यशाली हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा, दया तथा हमारे पूर्व जन्म के संचित कर्मों अथवा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य योनि प्राप्त हुई। इसका कारण है कि मनुष्य योनि सुख विशेष से परिपूर्ण हैं तथा इसमें दुख कम हैं जबकि इतर योनियों में सुख तो हैं परन्तु सुख विशेष नहीं है और दुःख अधिक हैं। वह उन्नति नहीं कर सकते हैं जिस प्रकार से मनुष्य योनि में हुआ करती है। हमें मनुष्य जन्म ईश्वर से प्राप्त हुआ है। यह क्यों प्राप्त हुआ? इसका या तो हमें ज्ञान नहीं है या हम उसे भूले हुए हैं। पहला कारण व उद्देश्य तो यह है कि हमें पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों अर्थात् अपने प्रारब्ध के अच्छे व बुरे कर्मों के फलों के अनुरूप सुख व दुःखों को भोगना है। दूसरा कारण व उद्देश्य अधिक से अधिक अच्छे कर्म यथा, ईश्वर भाक्ति अर्थात् उसकी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने के साथ यज्ञ-अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, दान आदि पुण्य कर्मों को करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें अपना ज्ञान भी अधिक से अधिक बढ़ाना होगा अन्यथा न तो हम अच्छे कर्म ही कर पायेंगे जिसका कारण हमारा यह जीवन व मृत्यु के बाद का भावी जीवन भी दुःखों से पूर्ण होगा। ज्ञान की वृद्धि केवल आजकल की स्कूली शिक्षा से सम्भव नहीं है। यह यथार्थ ज्ञान व विद्या वेदों व वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती हैं जिनमें जहां वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं वहीं सरलतम व अपरिहार्य ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, व्यवहारभानु, संस्कार विधि आदि भी हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से हमें अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य पता चलता है। वह क्या है, वह है धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है जो विचारणीय है। यह जीवात्मा की ऐसी अवस्था है जिसमें जीवन जन्म-मरण के चक्र से छूट कर मुक्त हो जाता है। परमात्मा के सान्निध्य में रहता है और 31 नील 10 खरब व 40 अरब वर्षों (3,11,04,000 मिलियन वर्ष) की अवधि तक सुखों व आनन्द को भोगता है। इसको विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना चाहिये।



ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया और उसके माध्यम से यज्ञ-अग्निहोत्र करने की प्रेरणा और आज्ञा दी। ईश्वर हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है। उसकी आज्ञा का पालन करना हमारा परम कर्तव्य है। हम सब मनुष्य, स्त्री व पुरूष वा गृहस्थी, यज्ञ क्यों करें? इसलिए की इससे वायु शुद्ध होती है। शुद्ध वायु में श्वांस लेने से हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है, हम बीमार नहीं पड़ते और असाध्य रोगों से बचे रहते हैं। हमारे यज्ञ करने से जो वायु शुद्ध होती है उसका लाभ सभी प्राणियों को होता है। दूसरा लाभ यह भी है कि यज्ञ करने से आवश्यकता व इच्छानुसार वर्षा होती है और हमारी वनस्पतियां व ओषधियां पुष्ट व अधिक प्रभावशाली होकर हमारे जीवन व स्वास्थ्य के अनुकूल होती हैं। यज्ञ करने से 3 लाभ यह भी होते हैं कि यज्ञ में उपस्थित विद्वानों जो कि देव कहलाते हैं, उनका सत्कार किया जाता है व उनके अनुभव व ज्ञान से परिपूर्ण उपदेशामृत श्रवण करने का अवसर मिलता है। यज्ञ करना एक प्रकार का उत्कृष्ट दान है। हम जो पदार्थ यज्ञ में आहुत करते हैं और जो दक्षिणा पुरोहित व विद्वानों को देते हैं उससे यज्ञ की परम्परा जारी रहती है जिससे हमें उसका पुण्य लाभ मिलता है। यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण होता है जिसमें हमारे जीवन के सुखों की प्राप्ति, धन ऐश्वर्य की वृद्धि, यश व कीर्ति की प्राप्ति, ईश्वर आज्ञा के पालन से पुण्यों की प्राप्ति जिससे प्रारब्ध बनता है और जो हमारे परजन्म में लाभ देने के साथ हमारे मोक्ष रूपी अभीष्ट व उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ हमें मोक्ष के निकट ले जाता है। हमारे आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम तथा श्री योगेश्वर कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द भी यज्ञ करते कराते रहे हैं। महर्षि दयानन्द ने आदि ऋषि व राजा मनु का उल्लेख कर प्रत्येक गृहस्थी के लिए प्रातः सायं ईश्वरोपासना-ब्रह्मयज्ञ-सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र को अनिवार्य कर्तव्य बताया है। हम ऋषि-मुनियों व विद्वान पूर्वजों की सन्ततियां हैं। हमें अपने इन पूर्वजों का अनुकरण व अनुसरण करना है तभी हम उनके योग्य उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं। यह सब लाभ यज्ञ व अग्निहोत्र करने से होते हैं। अन्य बातों को छोड़ते हुए अपने अनुभव के आधार पर हम यह भी कहना चाहते हैं कि यज्ञ करने से अभीष्ट की प्राप्ति व सिद्धि होती है। उदाहरणार्थ यदि हम रोग मुक्ति, सुख प्राप्ति व लम्बी आयु के लिए यज्ञ करते हैं तो हमारे कर्म व भावना के अनुरूप ईश्वर से हमें हमारी प्रार्थना व पात्रता के अनुसार फल मिलता है अर्थात् हमारी सभी सात्विक इच्छायें पूरी होती हैं और प्रार्थना से भी कई बार अधिक पदार्थों की प्राप्ति होती है। इसके लिए अध्ययन व अखण्ड ईश्वर विश्वास की आवश्यकता है।

मृत्युंजय मन्त्र ‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्। उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।’ में कहा गया है कि हम आत्मा और शरीर को बढ़ानेवाले तथा तीनों कालों, भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता परमेश्वर की प्रतिदिन अच्छी प्रकार वेद विधि से उपासना करें। जैसे लता से जुड़ा हुआ खरबूजा पककर सुगन्धित एवं मधुर स्वाद वाला होकर बेल से स्वतः छूट जाता है वैसे ही हे परमेश्वर ! हम यशस्वी जीवनवाले होकर जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर आपकी कृपा से मोक्ष को प्राप्त करें। यह मन्त्र ईश्वर ने ही रचा है और हमें इस आशय से प्रदान किया कि हम ईश्वर से इसके द्वारा प्रार्थना करें और स्वस्थ जीवन के आयुर्वेद आदि ग्रन्थों में दिए गये सभी नियमों का पालन करते हुए ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना को करके बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त हों। हम शिक्षित बन्धुओं से अनुरोध करते हैं कि वह यज्ञ विज्ञान को जानकर उससे लाभ उठायें।

नास्तिकता बनाम् आस्तिकता

नास्तिकता बनाम् आस्तिकता


हमारे देश व समाज में कुछ बन्धु स्वयं को नास्तिक कहते हैं। उनसे पूछिये कि नास्तिक का क्या अर्थ होता है तो वह कहते हैं कि हम ईश्वर और जीवात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते। यदि उनसे पूछा जाये कि क्या आपने ईश्वर व जीवात्मा से सम्बन्धित उपलब्ध सभी साहित्य का अनुसंधानात्मक अध्ययन किया है तो हमें लगता है कि एक व्यक्ति भी इसका उत्तर हां में नहीं देगा। अपने आप को नास्तिक कहना भी एक प्रकार का फैशन हो गया है। जैसे हमने टीवी या चलचित्र में कुछ देखा, हमें अच्छा लगा और हमने उसे स्वीकार कर लिया। यह बात अलग है कि हमने जिसे स्वीकार किया वह हमारा निर्णय विवेक पूर्ण है या नहीं। वैज्ञानिक ईश्वर व जीवात्मा को नहीं मानते तो उसके पीछे के कारण और हैं और सामान्य लोगों के अन्य। वैज्ञानिक हर चीज को मानने से पूर्व उसे अपनी प्रयोगशाला में सिद्ध करते हैं। वह ईश्वर को प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं कर सके तो उन्होंने कहा कि ईश्वर नहीं है। दो बातें हैं, पहली तो यह कि वैज्ञानिकों ने विगत 40-50 वर्षों में जो नई खोजें की हैं वह इससे पूर्व अस्तित्व में नहीं आईं थीं। इसका मतलब यह है कि इससे पूर्व वह इन खोजों को भी नहीं मानते थे कि यह हो सकेंगी? उन्होंने प्रयास किया और वह सफल हो गये अतः एक असम्भव व कठिन लगने वाला कार्य सिद्ध हो गया। हम इसके लिए वैज्ञानिकों का साधुवाद ही करेंगे और साथ में यह कहेंगे कि जो वस्तु प्रयोगशाला में सिद्ध की ही नहीं जा सकती उसको प्रयोगशाला में सिद्ध करने का प्रयास करना और अससफल होना बेमानी व निरर्थक है। तो फिर ईश्वर का अस्तित्व कहां सिद्ध हो सकता है?

इसके लिए हमें विज्ञान का कारण-कार्य-कारण सिद्धान्त लेना होगा। विज्ञान के अनुसार हर कार्य का एक या अनेक कारण होते हैं जिससे वह कार्य अस्तित्व में आता है। दर्शन शास्त्र में कहा गया है कि एक मिट्टी का घड़ा, एक कुम्हार (कुम्भकार), मिट्टी और कुम्हार के चाक आदि उपकरणों से अस्तित्व में आता है। अन्य प्रकीर्ण कुछ और साधनों की सहायता भी कुम्भ या घड़ा बनाने में ली जाती है। इस उदाहरण में घड़ा कार्य है और कुम्हार, मिट्टी, कुम्हार के घड़ा बनाने के उपकरण यथा चाक आदि कारण कहलाते हैं। यह कारण मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं एक निमित्त कारण, दूसरा उपादान और तीसरा साधारण कारण। यहां निमित्त कारण कुम्हार है और मिट्टी उपादान कारण तथा उपकरण आदि साधारण कारण कहे जाते हैं। अब हम इस सृष्टि या ब्रह्माण्ड पर विचार करते हैं। यहां सृष्टि या ब्रह्माण्ड “कार्य” हैं। अब इनके सम्भावित व आवश्यक कारणों पर विचार करते हैं।  सृष्टि के पदार्थों में पंच महाभूत यथा पृथिवी, अग्नि, वायु, जल और आकाश का मुख्य अस्तित्व है। पृथिवी के जड़ पदार्थों यथा एक पत्थर का जब हम विभाजन व खण्डन करते हैं तो वह छोटे-छोटे टुकड़ों, फिर कणों और उसके बाद सूक्ष्म कणों में विभाजित होता जाता है। यह छोटे से छोटा कण या तो अणु समूह होता है या अणु। यह अणु विज्ञान के अनुसार कुछ परमाणुओं से मिलकर बना है। यह परमाणु भी इससे सूक्ष्म कणों व पदार्थ जिसे कारण प्रकृति कहा जाता है और जो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है, उससे बने हैं। इस सत्व, रज व तमो गुणवाली मूल प्रकृति को कोई बनाता नहीं है। यह शाश्वत, सनातन, नित्य, अनादि, अविनाशी है जो सदा व हमेशा से है। यह मूल प्रकृति ही इस सृष्टि का उपादान कारण है अर्थात् इसी से वर्तमान सृष्टि अस्तित्व में आई है। इसी मूल प्रकृति से अग्नि, वायु व जल भी अस्तित्व में आते हैं।



अब सृष्टि के उपादान कारण को जान लेने के बाद हमें इसके निमित्त कारण पर विचार करना है। घड़े को बनाने वाला जिस प्रकार से कुम्हार निमित्त कारण है उसी प्रकार से इस सृष्टि को मूल अनादि प्रकृति से बनाने वाला भी इस सृष्टि के अन्दर, जगत में, ब्रह्माण्ड में एक निमित्त कारण है। वह हमें दिखाई दे या न दे, समझ में आये या न आये, यह हमारे ज्ञान व बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है, परन्तु वह है अवश्य। यदि न हो तो मूल प्रकृति से परमाणु, परमाणु से अणु, अणुओं से विभिन्न पदार्थ यथा पृथिवी, अग्नि, वायु, जल आदि कैसे अस्तित्व में आये इसका उत्तर न तो हमारे नास्तिक बन्धुओं के पास है और न ही हमारे वैज्ञानिक मित्रों के पास है। इसका उत्तर वेद, हमारे दर्शन और उपनिषदें प्रमाण पुरस्सर देती हैं। यह उत्तर पूरी तरह से वैज्ञानिक है, तर्क संगत है, युक्ति प्रधान, बुद्धि संगत है, इसका इसके विपरीत व अन्य और कोई उत्तर नहीं है। इसलिये इसी उत्तर को स्वीकार करना ही उचित है। अब बात केवल यही है कि इसको और किस प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है। इसका उत्तर भी हमारे पास है और वह है कि इसके लिए योग की शरण में जाना होगा। योगासन और योग में बहुत अन्तर है। आजकल योगासनों तथा प्राणायाम को ही योग मान लिया गया है। जबकि यह दोनों अंग योग का 2/8 भाग या हिस्सा है। योग के आठ अंग में से दो अंग आसन व प्राणायाम है और शेष छः अंग, यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। इन अंगों को जानने व समझने के लिए किसी ताम-झाम की आवश्यकता नहीं है। एक योग गुरू के सान्निध्य में जाकर इन्हें जाना जा सकता है।



योग दर्शन ईश्वर व आत्मा के अस्तित्व व आत्मा द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार करने-कराने के ज्ञान व विधि का एक वैज्ञानिक ग्रन्थ है। अष्टांग योग के अन्तर्गत यम से आरम्भ कर समाधि की अवस्था पर पहुंच कर ईश्वर का साक्षात्कार अर्थात् ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान व अनुभूति योग-साधक को होती है। जिन लोगों ने समाधि अवस्था प्राप्त की है उनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि ईश्वर नहीं है या समाधि में भी उन्हें ईश्वर दिखाई नहीं दिया है। समाधि में ईश्वर का निभ्र्रान्त ज्ञान योगी को होता है। समाधि में योगी का आत्मा द्रष्टा बन कर ईश्वर की सत्ता को दृश्य की भांति प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है। मुण्डकोपनिषद के ऋषि बताते हैं कि इस अवस्था को प्राप्त होने पर योग द्रष्टा कहता है कि “भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।।“ अर्थात् समाधि में ईश्वर-साक्षात्कार की अवस्था सिद्ध हो जाने पर जीवात्मा के हृदय की अविद्या-अज्ञानरूपी गांठ कट जाती है और सब संशय छिन्न होकर उसके दुष्ट व पाप कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी आत्मा के भीतर और बाहर व्यापक हो रहे परमात्मा में उस योगी का जीवात्मा निवास करता है और आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने समाधि को सिद्ध किया और उनके ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करने वाले शब्द हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही सब मनुष्यों के द्वारा उपासना करने योग्य है। अन्य कोई जन्मधारी मनुष्य, महापुरूष या अवतार उपासना के योग्य नहीं है।



योग व समाधि में ईश्वर के दर्शन व साक्षात्कार कहां व किस प्रकार से होता है इस विषय में भी स्वामी दयानन्द के शब्द उद्धृत हैं। वह कहते हैं कि ‘‘कण्ठ के नीचे और उदर से ऊपर तथा दोनों स्तनों के बीच में जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से (अर्थात् योग रीति से उपासना के द्वारा समाधि प्राप्त हाने पर) मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।’’



ईश्वर कोई भौतिक पदार्थ नहीं है जिसे कि वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा प्रयोगशाला में सिद्ध कर सके। यह सर्वातिसूक्ष्म, एकरस, निरवयव एवं विशुद्ध आध्यात्मिक चेतन तत्व है। इसको तो केवल अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर योग साधना द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। अन्य कोई विधि, मार्ग व साधन आदि ईश्वर को प्राप्त करने का नहीं है। यही कारण है कि किसी भी मत में प्रयोग में लाई जाने वाली उपासना पद्धतियों से यह प्राप्त नहीं होता है। आज संसार की यदि 7 अरब जनसंख्या मान ली जाये तो हम समझते हैं कि योगियों के अतिरिक्त अन्य कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसे ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है। ईश्वर का साक्षात्कार केवल योगी को ध्यान के द्वारा समाधि प्राप्त होने की अवस्था में ही होता है। जिसे साक्षात्कार करना है, उसे योगाभ्यास करना चाहिये। चूहे द्वारा बिल्ली के सामने आंखे बन्द करके यह कहने से यहां कोई बिल्ली दिखाई नहीं दे रही है, समस्या का हल नहीं है। वैज्ञानिकों ने इसलिए भी ईश्वर के अस्तित्व से इनकार किया कि वह सभी यूरोप में हुए हैं। यूरोप में ईसाई मत का प्रचार था। वहां ईश्वर को सातवें आसमान पर मनुष्यों की भांति आकार वाला निवासी बताया गया है। यह कथा वैज्ञानिकों की दृष्टि में अप्रमाणित है। वेद और वैदिक साहित्य की दृष्टि में भी इस विवरण की सत्यता अपुष्ट एवं अस्वीकार्य है। इस मत के किसी मतावलम्बी ने इस पर अनुसंधान कर इस आख्यान या मान्यता को सत्य व यथार्थ सिद्ध नहीं किया है जबकि वेद और योग के अनुयायियों में से अनेकों ने समाधि को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार किया है। योग दर्शन स्वयं ईश्वर के सत्यस्वरूप का वर्णन करता है और वह महर्षि दयानन्द के पूर्व उल्लिखित विचारों के अनुरूप है। अतः ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व सिद्ध है। विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश, 11 उपनिषद्, 6 दर्शन, मनुस्मृति एवं चारों वेदों का अध्ययन करना उचित है।



एक आख्यान देकर हम इस लेख का उपसंहार करते हैं। एक परिवार में पिता नास्तिक थे और उनका पुत्र आस्तिक था। पिता को सीख देने के लिए पुत्र ने एक दिन पिता के कार्यालय जाने पर घर की बैठक की दीवार पर लगे अपने दादाजी का चित्र को उतार कर घर में कहीं रख दिया। शाम को पिता जी कार्यालय से घर आये तो बैठक में अपने पिताजी के चित्र को न देखकर पुत्र से पूछा कि वह चित्र कहां है? पुत्र ने कहा कि पिताजी, मुझे नहीं पता कि चित्र कहां गया। बार-बार पूछने पर उसने कहा कि कहीं चला गया होगा। इस पर पिता ने निश्चयात्मक रूप से कहा कि चित्र अपने आप कहीं नही जा सकता। वह जो जड़ है कोई चेतन पदार्थ नहीं है जिसे कुछ ज्ञान हो। इस पर समझदार व ज्ञानी पुत्र ने कहा कि पिताजी, जब यह सारा ब्रह्माण्ड अपने आप बिना किसी परमात्मा, ईश्वर व सृष्टिकर्ता के बन सकता है और व्यवस्थित रूप से सृष्टि-नियमों का पालन करते हुए चल सकता है तो क्या यह छोटा सा चित्र स्वमेव दीवार से उतर कर कहीं आसपास भी नहीं आ-जा सकता? इससे पिता की आंखे खुल गई और उन्होंने संसार की उत्पत्ति, इसका संचालन व प्रलय करने के लिए ईश्वर के अस्तित्व व उसकी महत्ता समझ में आ गई और उसने ईश्वर के अस्तित्व का होना स्वीकार कर लिया। एक अन्तिम बात कह कर लेख को विराम देते हैं। यदि ईश्वर नहीं भी है तो उसे मानने में किसी को कोई हानि नहीं होगी क्योंकि वह तो है ही नहीं, हानि कहां से पहुंचायेगा। परन्तु यदि ईश्वर है और हम उसे नहीं मानेगें तो हमारी हानि होना स्वाभाविक व अपरिहार्य है। हम उससे प्राप्त होने वाली सुख-शान्ति व मृत्यु के बाद मिलने वाले जन्म में सुधार व उन्नति के प्रयासों से वंचित रह जायेगें जो कि एक बड़ा आत्मघाती कार्य होगा, इससे कुछ कम नहीं। 

जवाहर लाल नेहरु की यादगार घटनाएँ

जवाहर लाल नेहरु की यादगार घटनाएँ 

जवाहर लाल नेहरु के सम्बन्ध में सोचते ही नेहरु से संबन्धित निम्न घटनायें स्मृति-पटल पर साकार हो उठती हैं  —

१. कमला नेहरू की मृत्यु के बाद नेहरूजी अकेले हो गये थे। उनकी देखरेख के लिये पद्मजा नायडू जो भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की पुत्री थीं, आगे आईं। उन्होंने अपनी सेवा से नेहरूजी का दिल जीत लिया। दोनों के संबन्ध अन्तरंग से भी कुछ अधिक हो गए। दोनों विवाह करना चाहते थे, लेकिन गांधीजी ने इसकी इज़ाज़त नहीं दी। वे चाहते थे कि वे दोनों शादी करें, लेकिन आज़ादी मिलने के बाद क्योंकि पहले ही ऐसा काम करने से कांग्रेस और स्वयं जवाहर लाल नेहरू की छवि खराब होने की प्रबल संभावना थी। नेहरूजी मान गये और पद्मा को वचन भी दिया कि आज़ादी मिलने के बाद वे विधिवत ब्याह रचा लेंगे। पद्मा भी मान गईं और दोनों पहले की तरह पति-पत्नी की भांति रहने लगे।

२. भारत आज़ाद हो गया। नेहरूजी तीन मूर्ति भवन में रहने लगे। पद्मजा भी नेहरूजी के साथ ही तीन मूर्ति भवन में ही रहने लगीं। तभी नेहरूजी की ज़िन्दगी में हिन्दुस्तान के तात्कालिक गवर्नर जेनरल लार्ड माउन्ट्बैटन की सुन्दर पत्नी एडविना माउन्ट्बैटन का प्रवेश हुआ। नेहरूजी के दिलो-दिमाग पर वह महिला इस कदर छा गई कि भारत विभाजन में उसकी छद्म भूमिका को भी वे पहचान नहीं सके। अल्प समय में ही यह प्यार परवान चढ़ गया। पद्मजा ने सारी गतिविधियां अपनी आंखों से देखी, अपना प्रबल विरोध भी दर्ज़ कराया लेकिन नेहरूजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। रोती-बिलखती पद्मजा ने १९४८ में त्रिमूर्ति भवन छोड़ दिया। वे आजन्म कुंवारी रहीं। नेहरूजी ने उनकी कोई सुधि नहीं ली।

३. भारत-विभाजन के लिए एडविना ने ही नेहरूजी को तैयार किया। फिर क्या था – एडविना की मुहब्बत में गिरफ़्तार नेहरू लार्ड माउन्ट्बैटन के इशारे पर खेलने लगे और पाकिस्तान के निर्माण के लिये सहमति दे दी। गांधीजी ने घोषणा की थी कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। वे जीवित भी रहे और अपनी आंखों से देखते भी रहे। नेहरू की ज़िद के आगे उन्हें समर्पण करना पड़ा। १४ अगस्त, १९४७ को देश बंट गया। लाखों लोग सांप्रदायिक हिंसा की भेंट चढ़ गये, करोड़ों शरणार्थी बन गये, गांधीजी ने किसी भी स्वतन्त्रता-समारोह में शामिल होने से इन्कार कर दिया लेकिन उसी समय नेहरु २१ तोपों की सलामी के बीच लाल किले पर अपना ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश की पूर्ति का दिन था १५, अगस्त, १९४७ जिसकी बुनियाद में भारत का विभाजन और लाखों निर्दोषों की लाशें हैं। (सन्दर्भ – Freedom at midnight by Abul Kalam Azad)

४. इतिहास के किसी कालखंड में भारत और चीन की सीमायें एक दूसरे से कहीं नहीं मिलती थीं। संप्रभु देश तिब्बत दोनों के बीच बफ़र स्टेट की भूमिका सदियों से निभा रहा था। चीन तिब्बत पर माओ के उद्भव के साथ ही गृद्ध-दृष्टि रखने लगा। सरदार पटेल, जनरल करियप्पा आदि दू्रदृष्टि रखनेवाले कई राष्ट्रभक्तों ने चीन की नीयत से नेहरू को सावधान भी किया लेकिन वे हिन्दी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में मस्त थे। चीन ने तिब्बत को हड़प लिया और भारत तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान्यता देनेवाला पहला देश बना। चीन यहीं तक नहीं रुका। उसने १९६२ में भारत पर भी आक्रमण किया और हमारी पवित्र मातृभूमि के ६० हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर जबरन कब्ज़ा भी कर लिया। आज भी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के पूरे भूभाग पर अपना दावा पेश करने से बाज़ नहीं आता।

५.पाकिस्तान ने कबायलियों के रूप में १९४८ में कश्मीर पर आक्रमण किया। कबायली श्रीनगर तक पहुंच गये। नेहरू शान्ति-वार्त्ता में मगन थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तात्कालीन सर संघचालक माधव राव सदाशिव गोलवलकर और सरदार पटेल के प्रयासों के परिणामस्वरूप कश्मीर के राजा हरी सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय के समझौते पर दस्तखत किया। सरदार पटेल ने कश्मीर की मुक्ति के लिए भारत की फ़ौज़ को कश्मीर भेजा। सेना ने दो-तिहाई कश्मीर को मुक्त भी करा लिया था, तभी सरदार के विरोध के बावजूद नेहरू ने इस मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ को समर्पित कर दिया और उसके निर्देश पर सीज फायर लागू कर दिया। कश्मीर एक नासूर बन गया, आतंकवाद पूरे हिन्दुस्तान में छा गया और अपने ही देश में मुसलमानों की राष्ट्रनिष्ठा सन्दिग्ध हो गई।

गिरफ्तारी और जमानत – एक दुधारू गाय

गिरफ्तारी और जमानत – एक दुधारू गाय


वैसे तो संविधान में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक अमूल्य मूल अधिकार माना गया है और भारत के सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्ट ने गिरफ्तारी के विषय में काफी दिशानिर्देश दे रखें हैं किन्तु मुश्किल से ही इनकी अनुपालना पुलिस द्वारा की जाती है| सात साल तक की सजा वाले अपराधों के अभियुक्तों को गिरफ्तार करने की कानूनन भी कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु छिपे हुए उद्देश्यों के लिए पुलिस तो असंज्ञेय और छिटपुट अपराधों में भी गिरफ्तार कर लेती है और जमानत भी नहीं देती| निचले न्यायालयों द्वारा जमानत नहीं लेने के पीछे यह जन चर्चा का विषय होना स्वाभाविक है कि जिन कानूनों और परिस्थितियों में शीर्ष न्यायालय जमानत ले सकता है उन्हीं परिस्थितियों में निचले न्यायालय अथवा पुलिस जमानत क्यों नहीं लेते| देश का पुलिस आयोग भी कह चुका है कि 60 % गिरफ्तारियां अनावश्यक होती हैं तो आखिर ये गिरफ्तारियां होती क्यों हैं और जमानत क्यों नहीं मिलती? इस प्रकार अनावश्यक रूप से गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत छोड़ दिया जाना चाहिए व पुलिस आचरण की भर्त्सना की जानी चाहिए  किन्तु न तो वकीलों द्वारा ऐसी प्रार्थना कभी की जाती है और न ही मजिस्ट्रेटों द्वारा ऐसा किया जाता है| ये यक्ष प्रश्न आम नागरिक को रात दिन कुरेदते हैं| दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 में प्रावधान है कि किसी  गैर-जमानती अपराध के लिए  पहली बार गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को पुलिस द्वारा भी जमानत दी सकती है यदि अपराध मृत्यु दंड अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय न हो| किन्तु स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल जहां पुलिस ने इस प्रावधान की  अपनी शक्तियों का कभी विवेकपूर्ण उपयोग किया हो और किसी व्यक्ति को जमानत दी  हो| पुलिस का बड़ा अजीब तर्क होता  है कि यदि वे इस प्रावधान में जमानत स्वीकार कर लेंगे तो उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे इसलिए वे जमानत नहीं लेते|   इस प्रकार जमानत जो भी अधिकारी लेगा उस पर भ्रष्टाचार के आरोप तो लगेंगे ही चाहे उसका स्तर कुछ भी क्यों न हो | आश्चर्य की बात है कि जो कार्य पुलिस को करना चाहिए वह कार्य देश के न्यायालय प्रसन्नतापूर्वक  करते हैं और वे पुलिस से जमानत नहीं लेने का कारण तक नहीं पूछते, न ही वकील निवेदन करते कि पुलिस ने जमानत लेने से इन्कार  कर दिया इसलिए उन्हें न्यायालय आना पडा | क्या यह स्पष्ट दुर्भि संधि नहीं है ? न ही कभी सुप्रीम कोर्ट ने अपने इतिहास में इस हेतु किसी पुलिस अधिकारी से जवाब पूछा है कि उसने जमानत क्यों नहीं ली|



हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की स्थापना संवैधानिक प्रावधानों  कि व्याख्या करने के लिए की जाती है किन्तु राजस्थान उच्च न्यायालय में एक वर्ष में लगभग 18000 जमानत आवेदन आते हैं जिससे इस रहस्य को समझने में और आसानी होगी| अन्य हाई कोर्ट  की स्थिति भी लगभग समान ही है|  जमानत के बहुत से प्रकरण सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचते हैं | जमानत देने में निचले न्यायालयों और पुलिस द्वारा मनमानापन बरतने के अंदेशे के कारण प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन को सीधे ही सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी थी | शायद विश्व में भारत ही ऐसा देश है जहां लोगो को जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक की यात्रा करनी पड़ती है  फिर  अंतिम न्याय किस मंच से मिलेगा …विचारणीय प्रश्न है |

गिरफ्तारी का उद्देश्य यह होता है कि अभियुक्त न्यायिक प्रक्रिया से गायब न हो और न्याय निश्चित किया जा सके | किन्तु भारत में तो  मात्र 2% से भी कम मामलों में सजाएं होती हैं अत: 2% दोषी लोगों के लिए 98% निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी करना अथवा उन्हें पुलिस, मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायालय अथवा हाई कोर्ट द्वारा जमानत से इन्कार कर सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए विवश करने  का क्या औचित्य रह जाता है –समझ से बाहर है | बम्बई उच्च न्यायालय ने आपराधिक अपील संख्या  685/ 2013 के निर्णय में कहा है कि यदि एक मामले में दोषी सिद्ध होने की संभावना कम हो व अभियोजन से  कोई उद्देश्य पूर्ति न हो तो न्यायालय को मामले को प्रारम्भिक स्तर पर ही निरस्त कर देना चाहिए | मेरे विचार से जब भी किसी मामले में अनावश्यक गिरफ्तार किया जाए या जमानत से इन्कार  किया जाए तो अभियुक्त की ओर  से यह निवेदन भी  किया जाना चाहिए कि मामले में दोष सिद्धि की अत्यंत क्षीण संभावना है अत: उसकी गिरफ्तारी या जमानत से इन्कारी  अनुचित होगी और यदि अभियुक्त आरोपित अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया गया तो हिरासत की अवधि के लिए उसे उचित क्षति पूर्ति दी जाए | इस दृष्टि से तो भारत के अधिकाँश मामले, आपराधिक न्यायालय, अभियोजन  और पुलिस के कार्यालय ही बंद हो जाने चाहिए|

इंग्लैंड में पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम की  धारा 44  के अंतर्गत  पुलिस द्वारा रिमांड की मांग करने पर उसे शपथपत्र देना पडता है| कहने के लिए भारत में कानून का राज है और देश का कानून सबके लिए समान है किन्तु अभियुक्त को तो जमानत के लिए विभिन्न प्रकार के वचन देने पड़ते हैं और न्यायालय भी जमानत देते समय कई अनुचित शर्तें थोपते हैं और दूसरी ओर पुलिस को रिमांड माँगते समय किसी प्रकार के वचन देने की कोई आवश्यकता नहीं है मात्र जबानी तौर मांगने पर ही रिमान्ड दे दिया जाता है| पुलिस द्वारा रिमांड मांगते समय न्यायालयों को पुलिस से अंडरटेकिंग लेनी चाहिए कि वे रिमांड के समय देश के संवैधानिक न्यायालयों द्वारा जारी समस्त निर्देशों और मानवाधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि की समस्त बातों की अनुपालना करेंगे|

यद्यपि देश का कानून गिरफ्तारी के पक्ष में नहीं है फिर भी  गिरफ्तारियां महज  इसलिए  की जाती हैं कि पुलिस एवं जेल अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को यातना न देने और सुविधा देने, दोनों के लिए वसूली करते हैं तथा अभिरक्षा के दौरान व्यक्ति पर होने वाले भोजनादि व्यय में  कटौती का लाभ भी जेल एवं पुलिस अधिकारियों को मिलता है| इस प्रकार गिरफ्तारी में समाज का कम किन्तु न्याय तंत्र से जुड़े सभी लोगों का हित अधिक निहित है|

आस्ट्रेलिया में जमानत को व्यक्ति का अधिकार बताया गया है तथा जमानत के लिए अलग से एक कानून है  किन्तु हमारे यहाँ तो धन खर्च करके स्वतंत्रता खरीदनी पड़ती है | उत्तर प्रदेश में तो सत्र न्यायाधीशों द्वारा अग्रिम जमानत लेने का अधिकार ही दिनांक 01.05.1976   से छीन लिया गया है और इस लोक तंत्र में स्वतंत्रता के अधिकार को  एक फरेब व मजाक बनाकर रख दिया है | पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार मात्र तभी होना चाहिए जब कोई सात साल से अधिक अवधि की सजा वाला अपराध उसकी मौजूदगी में किया जाए अन्यथा जब मामला न्यायालय में चला जाए व  गिरफ्तारी उचित और वांछनीय हो तो सक्षम मजिस्ट्रेट  से वारंट प्राप्त किया जा सकता |  गिरफ्तारियों और जमानत का यह सिलसिला इसलिए जारी है क्योंकि यही भारतीय न्याय प्रणाली उर्फ़  मुकदमेबाजी उद्योग की रीढ़ है  और सम्बद्ध लोगों के लिए दुधारू गाय है | सत्तासीन लोग भी पुलिस क्रूरता और पुलिस की भय उत्पन्न करने वाली कर्कश आवाज़ के दम पर ही शासन कर रहे हैं |

महापुरुषों को बांटने की राजनीति क्यों?

महापुरुषों को बांटने की राजनीति क्यों?


पहले सरदार पटेल, फिर महात्मा गांधी और अब पं. जवाहरलाल नेहरू की विरासत को लेकर भाजपा व कांग्रेस की राजनीतिक लड़ाई सार्वजनिक हो चुकी है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती पर कांग्रेस द्वारा आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भाजपा और उसके घटक दलों को आमंत्रित न करना बताता है कि कांग्रेस किस तरह की राजनीति पर उतर आई है। देश के महा -पुरुषों को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करने की इस राजनीति ने ओछेपन की सभी सीमाओं को पार कर लिया है। पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, बाबा साहब अंबेडकर, लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसी विभूतियों पर राजनीतिक दलों द्वारा अधिकार जमाने की कोशिश करने का यह कोई पहला मामला भी नहीं है। आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जो बताते हैं कि राजनीतिक दलों ने अपने निहित स्वार्थो की पूर्ति तथा अपनी राजनीति को चमकाने के मकसद से किसी न किसी महापुरुष पर अपना ही अधिकार जताने की कोशिश की व उन्हें दूसरों के लिए बेगाना बना दिया।
जैसे- शिवसेना शिवाजी को केवल और केवल अपना ही मानती है, तो बाबा साहब अंबेडकर को मायावती व उनकी पार्टी।मगर, कांग्रेस यदि पं. जवाहरलाल नेहरू या महात्मा गांधी या सरदार पटेल को केवल अपना बनाने पर तुली है, तो इससे यही साबित होता है कि अब वह बेहद कमजोर हो गई है। वह डरने लगी है कि उसके प्रतीकों को कोई छीन न ले। चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गांधी जयंती पर स्वच्छता अभियान की शुरुआत कर देश को एक सार्थक संदेश देने में सफल रहे और सरदार पटेल की जयंती पर उन्होंने सशक्त भारत का जो खाका पेश किया था, उससे कांग्रेस की बेचैनी बढ़ गई है कि नेहरू जी को भी मोदी कहीं उससे छीन न लें। यहीं पर कांग्रेस का दोहरापन भी साफ हो जाता है। एक तरफ तो कांग्रेस ने यह शिकायत की थी कि मोदी इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर उनके समाधिस्थल पर क्यों नहीं गए। कांग्रेस ने कहा था कि मोदी को वहां जाकर इंदिरा गांधी के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए था। दूसरी ओर नेहरू जी के कार्यक्रम में मोदी या भाजपा-एनडीए को बुलाया तक नहीं। यह महापुरुषों के राजनीतिक इस्तेमाल का ही उदाहरण है।
मजे की बात यह भी है कि जिस महापुरुष को भुनाया नहीं जा सकता, कांग्रेस उसे याद भी नहीं करती। इस पर तो वैचारिक रूप से मतभेद हो सकता है कि मोरारजी देसाई, वीपी सिंह, पीवी नरसिम्हाराव को महापुरुष माना जाए अथवा नहीं। कुछ लोग इन नेताओं को महापुरुष मानेंगे, तो कुछ कहेंगे कि नहीं, ये साधारण नेता थे। मगर, इसमें कोई दोराय नहीं है कि मोरारजी देसाई, वीपी सिंह, पीवी नरसिम्हाराव भारत के प्रधानमंत्री थे। चौ. चरण सिंह भी देश के प्रधानमंत्री रहे थे। इन चारों नेताओं की जड़ें कांग्रेस पार्टी में ही थीं। मगर, उसने इन्हें कभी याद नहीं किया, क्योंकि उसे पता है कि इन दिवंगत नेताओं के नाम पर वोट नहीं बटोरे जा सकते। अत: कांग्रेस छोड़कर राजनीति करने वाले मोरारजी देसाई, वीपी सिंह और चौ. चरण सिंह को तो उसने भुलाया ही, उन नरसिम्हाराव को भी भुला दिया, जिन्होंने कांग्रेस और देश, दोनों की धारा को बदला था। यानी, कांग्रेस केवल उन्हें ही याद रखती है, जिसके नाम पर वोट मिलते हैं व सबसे ज्यादा चलने वाले सिक्के तो गांधी जी और नेहरू जी हैं ही।
आजादी के बाद से लेकर अब तक कांग्रेस ने अपने बुरे दौर में इन महान नेताओं के प्रति जनता की सहानुभूति को ही भुनाया। नेहरू जी के नाम पर अब तो कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष दलों की अगुआ बनने की फिराक में भी है, ताकि वह भाजपा का मुकाबला कर सके, मगर दिक्कत यह है कि कोई भी धर्मनिरपेक्ष नेता छोटे भाई की भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं है। हाल ही में जनता परिवार को जिंदा करने के प्रयास के दौरान भी कांग्रेस को इससे दूर ही रखा गया था। इन परिस्थितियों में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की सोच यह है कि नेहरू जी की विरासत को भुनाकर खुद की खोई जमीन तलाशी जाए। वरना, और क्या कारण है कि जो कार्यक्रम नेहरू जी का स्मरण करने के लिए आयोजित हुआ था, उसमें राजनीतिक बातें होती रहीं। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा गया। यह निशाना राहुल गांधी ने भी साधा और सोनिया ने भी।कांग्रेस को राजनीति करने का भी अधिकार है। मगर, किसी भी दल को किसी महापुरुष पर एकाधिकार जताने का कोई हक नहीं है। गांधी, नेहरू, पटेल पूरे देश के हैं, अकेले कांग्रेस के नहीं हैं। न लोहिया मुलायम के हैं और न ही दीनदयाल उपाध्याय पर भाजपा का एकाधिकार है। जयप्रकाश नारायण जितने नीतीश एवं लालू के हैं, उतने ही राष्ट्र के। बाबा साहब अंबेडकर भी केवल मायावती के नहीं हैं, बल्कि पूरे देश के हैं। यही बात हमारे सभी महापुरुषों पर लागू होती है। छोटे-छोटे दल अगर किसी महापुरुष विशेष पर अपना अधिकार जताएं, तो चलता है, मगर कांग्रेस यह गलती कैसे कर सकती है। उससे तो देश जवाब मांगेगा।

महाराजा हरि सिंह की जीत को नेहरु ने पराजय में बदल दिया

महाराजा हरि सिंह की जीत को नेहरु ने पराजय में बदल दिया



जम्मू कश्मीर के चुनाव सिर पर हैं तो ज़ाहिर है राज्य में महाराजा हरि सिंह की चर्चा होगी ही । लेकिन इस बार प्रदेश में नेहरु की भूमिका को लेकर भी बहस शुरु हो गई है । जम्मू कश्मीर की वर्तमान हालत के लिये ज़िम्मेदार कौन है ? नेहरु या महाराजा हरि सिंह ? जब बहस शुरु हो ही गई है तो जरुरी है कि नीर क्षीर न्याय हो ।

ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि महाराजा हरि सिंह को 1947 में रियासत पर संभावित कबाइली आक्रमण की पूर्व सूचना नहीं थी । वे जानते थे कि पाकिस्तान रियासत को हथियाने के लिये बल प्रयोग कर सकता है । जम्मू कश्मीर के उस समय के राजनैतिक वातावरण को देख कर कोई भी चतुर राजनीतिज्ञ सहज ही अन्दाज़ा लगा सकता था कि नेहरु किसी भी हालत में रियासत को देश की नई सांविधानिक व्यवस्था में शामिल होने नहीं देंगे क्योंकि उनकी एक ही शर्त थी कि महाराजा अपना सिंहासन त्याग कर उस पर उनके मित्र शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को बिठा दें । महाराजा के लिये इस शर्त को मानना संभव ही नहीं था । इसका कारण केवल यही नहीं था कि शेख़ अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ डोगरो कश्मीर छोड़ो का आन्दोलन छेड़ा था । उसका एक दूसरा प्रमुख कारण भी था । शेख़ अब्दुल्ला का जनाधार सारी रियासत में नहीं था , बल्कि रियासत के पाँच संभागों में से एक संभाग कश्मीर घाटी की जनसंख्या के एक हिस्से तक ही सीमित था । गिलगित-बल्तीस्तान में शिया समाज का बहुमत था जिनका शेख़ की नैशनल कान्फ्रेंस से कोई भी ताल्लुक़ नहीं था । वैसे भी शिया समाज , मुसलमानों द्वारा सताया हुआ समाज था और शेख़ मुसलमानों के समर्थक थे । इसी प्रकार जम्मू संभाग और लद्दाख संभाग में भी शेख़ की पकड़ नहीं थी । इस स्थिति में यदि महाराजा प्रशासन का व्यापक लोकतंत्रीकरण करना भी चाहते तो उसका तरीक़ा बिना चुनाव करवाये और लोक इच्छा को जाने बिना शेख़ अब्दुल्ला के हवाले रियासत कर देना तो नहीं हो सकता था ।

अब हरि सिंह दो ओर से घिर चुके थे । पाकिस्तान रियासत को हथियाने के लिये कोई भी तरीक़ा इस्तेमाल कर सकता था और माऊंटबेटन किसी भी तरीक़े से रियासत पाकिस्तान को दिलवाने के लिये कोई चाल चल सकते थे । इन दोनों की कूटनीति और बलनीति को पराजित करने के लिये महाराजा ने भी तुरप का पत्ता चल दिया । उन्होंने पाकिस्तान को यथास्थिति संधि के लिये लिखा और यह प्रस्ताव उसने दिल्ली के पास भी भेजा । पाकिस्तान ने तो इसे स्वीकार कर लिया लेकिन दिल्ली में नेहरु इसे लेकर भी आँख मिचौनी खेलने लगे । जबकि दिल्ली को यथास्थिति संधि की जो शर्तें भेजी गईं थीं , वे देश की नई संघीय व्यवस्था के पक्ष में थीं । विभाजन के बाद बचा भारत डोमीनियन अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार ब्रिटिश इंडिया का उत्तराधिकारी राज्य था । इसलिये १८३६ में कश्मीर घाटी को लेकर जम्मू रियासत व ब्रिटिश इंडिया में हुई अमृतसर संधि के पालन का दायित्व , यथास्थिति संधि के बाद स्वाभाविक रुप से ही दिल्ली पर आ जाता । महाराजा हरि सिंह परोक्ष रुप से यह स्थिति पैदा कर रहे थे कि यदि पाकिस्तान बल प्रयोग से जम्मू कश्मीर हथियाने का प्रयास करता है तो भारत सरकार उसमें वैधानिक रुप से दख़लंदाज़ी कर सकती है । लेकिन भारत सरकार में बैठ कर इस संधि को होने से रुकवाने के पीछे किस का दिमाग़ था ? यह अभी भी रहस्य ही बना हुआ है । संधि के प्रस्ताव को अस्वीकार करके दिल्ली ने एक सुनहरे अवसर गँवा दिया था ।

लेकिन यथा स्थिति संधि को लेकर टालमटोल वाला रवैया अख़्तियार कर लेने से महाराजा को इतना तो स्पष्ट हो ही गया था कि यदि कल पाकिस्तान रियासत पर आक्रमण करता है तो नेहरु रियासत की मदद नहीं करेंगे । नेहरु ने स्पष्ट ही महाराजा हरि सिंह के आगे दो लकीरें खींच दी थीं । जब तक सत्ता उनके मित्र शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को नहीं सौंप देते , तब तक देश की नई संघीय व्यवस्था का हिस्सा बनने का रास्ता बंद और दूसरी लकीर उससे भी ख़तरनाक थी कि यदि पहली शर्त नहीं मानते तो रियासत पर पाकिस्तानी हमले की हालत में संघीय सेना रियासत की सहायता भी नहीं करेगी ,जबकि नेहरु और महाराजा हरि सिंह दोनों ही अच्छी तरह जानते थे कि पाकिस्तान निकट भविष्य में हमला करने वाला है ।

इस आक्रमण के समय भारत में स्थिति क्या थी , इसका सहज अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय हिन्दोस्तान डोमीनियन का सेना प्रमुख भी अंग्रेज़ था और पाकिस्तान का सेना प्रमुख भी अंग्रेज़ ही था । भारत डोमीनियन और पाकिस्तान डोमीनियन का संयुक्त सेना प्रमुख भी अंग्रेज़ ही था । ऊपर से सबसे बड़ी बात यह कि भारत डोमीनियन के गवर्नर जनरल लार्ड माऊंटबेटन भी सैनिक पृष्ठभूमि के ही थे । जब पाकिस्तान ने कबायलियों की आड़ में जम्मू कश्मीर पर हमला किया तो इन सभी में आपस में साँझी संवाद रचना होती थी , ऐसे अनेक प्रमाण अब उपलब्ध हैं । इसे महाराजा का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि रियासत का अपना सेना प्रमुख भी एक अंग्रेज़ ही था । उस समय इंग्लैंड सरकार की घोषित नीति पाकिस्तान को सशक्त बनाना था ताकि वह रुस के साम्यवादी विस्तार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके । इस वातावरण में रियासत को लेकर किसी भी निर्णय की चाबी महाराजा के पास थी , इसलिये श्रीनगर में सबसे ज़्यादा ख़तरा उनके जीवन को ही था । इन विपरीत परिस्थितियों में भी महाराजा हरि सिंह अपने राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी में डटे हुये थे । वे किसी भी हालत में उसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं थे ।

इतना ही नहीं , पाकिस्तान सरकार ने रियासत के साम्प्रदायिक तत्वों की सहायता से मीरपुर ज़िला के तरन खेल नामक गाँव में ३० अगस्त १९४७ को जम्मू कश्मीर की स्वतंत्र अन्तरिम सरकार की घोषणा भी करवा दी । मक़सद केवल दुनिया को यह विश्वास दिलाना था कि अब रियासत में महाराजा हरि सिंह का शासन नहीं रहा है और वहाँ नई सरकार का गठन हो गया है । इस तथाकथित सरकार ने महाराजा हरि सिंह को गिरफ़्तार करने के नाम पर आदेश पारित कर दिये और उसकी आड़ में पाकिस्तान सरकार ने गुप्त रुप से किसी भी तरीक़े से महाराजा का अपहरण करने के लिये अपने एजेंट भी भेज दिये । महाराजा के लिये संदेश साफ था , या तो पाकिस्तान में रियासत को शामिल कर दो या फिर अपहरण करके बलपूर्वक यह काम करवा लिया जायेगा । जब जम्मू कश्मीर राज्य , जो भारत का मुकुट माना जाता है , अपने अस्तित्व के लिये सबसे विकट संघर्ष कर रहा था , तब नेहरु के नेतृत्व में दिल्ली ने पीठ दिखा दी । दिल्ली की अपनी शर्त थी । शेख़ अब्दुल्ला की ताजपोशी महाराजा हरि सिंह स्वयं अपने हाथों से करें । महाराजा हरि सिंह का जीवन ही संकट में था । पिछले एक हज़ार साल से हिन्दोस्तान पर सभी हमले दर्रा ख़ैबर के रास्ते से ही होते आये थे और अब जब कई सौ साल की ग़ुलामी के बाद देश आज़ाद हो रहा था तो उसी ओर से एक बार फिर कबायली हमले की छाया साफ़ दिखाई दे रही थी । यह इतनी साफ़ और गहरी थी कि जिस शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की ताजपोशी को लेकर प्रधानमंत्री नेहरु कोप भवन में जा बैठे थे , वह अब्दुल्ला अपना परिवार लेकर इन्दौर भाग गया । लेकिन महाराजा हरि सिंह श्रीनगर में ही डटे रहे ।

बहुत से लोगों ने उनको सलाह दी कि देश भर में फैले हुये मज़हबी उन्माद को देखते हुये , उन्हें सेना के मुसलमान सैनिकों को शस्त्र विहीन कर देना चाहिये । लेकिन महाराजा हरि सिंह का अपनी प्रजा और सैनिकों पर विश्वास इतना गहरा था कि उन्होंने ऐसी सलाह देने वालों को ही लताड़ लगाई । रियासत के अंग्रेज़ सेनापति ने रियासती सेना को निष्प्रभावी बनाने के लिये , उसे राज्य की लम्बी सीमा पर छितरा दिया । ऐन वक़्त पर मुसलमान सैनिक हथियारों समेत दुश्मन के साथ जा मिले । महाराजा हरि सिंह ने एक सच्चे सैनिक की तरह श्रीनगर में अपना मोर्चा संभाले रखा । प्रजा में घबराहट न फैले , इसके लिये महाराजा ने अपनी दिनचर्या और शासन व्यवस्था सामान्य तरीक़े से ही जारी रखी । ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को सेना का दायित्व सौंपते हुये कहा कि अंतिम सैनिक और अंतिम गोली तक लड़ो ।

पाकिस्तानी सेना के नियंत्रण में कबायली रियासत की सीमा में प्रवेश कर गये । लूटपाट और हत्या का बाज़ार गरम हो गया । हरि सिंह का सेनापति राजेन्द्र सिंह अपनी पूरी सामर्थ्य से शत्रु की सेना को रोकने का प्रयास कर रहा था । रियासत में भय व्याप्त न हो जाये , इसलिये हरि सिंह सारे काम सामान्य तरह से ही निपटा रहे थे । विजय दशमी का उत्सव परम्परागत तरीक़े से मनाया जा रहा था और हरि सिंह वहाँ उपस्थित थे । ख़तरा उन की ओर क़दम दर क़दम बढ़ रहा था लेकिन वे अडिग थे । दिल्ली को उन्होंने सूचित कर दिया था कि हमला शुरु हो चुका है । अब सरकार को सहायता भेजने में और बिलम्ब नहीं करना चाहिये ,नहीं तो जम्मू कश्मीर हाथ से चला जायेगा । लेकिन दिल्ली में नेहरु-माऊंटबेटन की जोड़ी ज़मीं बैठी थी । जम्मू कश्मीर को लेकर दोनों की अपना अपना एजेंडा था । माऊंटबेटन ने अपनी रणनीति बना ली थी । उन्होंने पहली शर्त लगा दी । सहायता तब मिलेगी जब रियासत देश की संघीय शासन व्यवस्था में शामिल होने के लिये तैयार नहीं हो जाती । माऊंटबेटन को लग रहा होगा कि यह तो संभव हो ही नहीं सकेगा क्योंकि नेहरु बिना शेख़ अब्दुल्ला की ताजपोशी करवाये , हरि सिंह को देश की प्रस्तावित संघीय शासन व्यवस्था के नज़दीक़ भी नहीं फड़कने देंगे । लेकिन मान लो हरि सिंह ने नेहरु की यह शर्त मान ली तब ? उसका रास्ता भी माऊंटबेटन के पास था । भारत की संघीय व्यवस्था में जम्मू कश्मीर रियासत को शामिल करने के बाद वे महाराजा हरि सिंह को अलग से एक पत्र लिख देंगे जिसमें कहा जायेगा कि कालान्तर में इस प्रस्ताव पर जनता की इच्छा भी जानी जायेगी ।

लेकिन जैसा माऊंटबेटन को आशा थी ही । नेहरु संकट की इस घड़ी में भी भारत माता के मुकुट को बचाने के लिये सहमत नहीं हुये । वे अपनी शर्त पर पहले की तरह अडे थे । उनके मित्र शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की ताजपोशी । इस प्रस्ताव को लेकर रियासती मंत्रालय के सचिव वी. के मेनन श्रीनगर पहुँचे । मेनन ने सारी उम्र अंग्रेज़ सरकार की ही नौकरी बजाई थी । वे तुरन्त समझ गये संकट की इस घड़ी में महाराजा हरि सिंह का श्रीनगर में रहना कितना जोखिम भरा है । कबायलियों के भेष में पाकिस्तानी सेना किसी क्षण भी श्रीनगर में आ सकती थी । एक बार महाराजा हरि सिंह पाकिस्तानी सेना या कबायलियों के हाथ में पड़ गये तो फिर कश्मीर को पाकिस्तान में जाने से कोई नहीं बचा पायेगा । इसलिये उन्होंने महाराजा हरि सिंह को तुरन्त श्रीनगर छोड़ कर जम्मू जाने की सलाह दी । महाराज ने अत्यन्त अस्त व्यस्त स्थिति में रात्रि को जम्मू जाने की तैयारी कर ली । ऐसी बदबहासी , मानिकशाह ने लिखा , मैंने कभी नहीं देखी थी ।

तब महाराजा ने वह ऐतिहासिक निर्णय लिया । उन्होंने देश की संघीय सरकार को देश की नई संघीय व्यवस्था में शामिल होने का प्रस्ताव भेजा । लेकिन इस व्यवस्था में शासन व्यवस्था के कौन से विषय राज्य के पास रहेंगे और कौन से संघीय सरकार के पास जायेंगे , इसका निर्णय हरि सिंह ने नहीं लिया था । वह सारा निर्णय तो संघीय सरकार के रियासती मंत्रालय ने ही निर्णय किया था । वह सभी रियासतों पर समान रुप से लागू होता था । लेकिन महाराजा हरि सिंह को तो एक दूसरा निर्णय इस प्रस्ताव के साथ ही पंडित नेहरु को सूचित करना था । वह था कि मैंने सत्ता आपके मित्र शेख़ अब्दुल्ला को सौंपने का निर्णय कर लिया है । क्योंकि हरि सिंह अब तक इतना तो समझ ही गये थे कि जब तक वे नेहरु की यह माँग पूरी नहीं करेंगे तब तक नेहरु जम्मू कश्मीर की तबाही अपनी आँखों से देखते तो रहेंगे लेकिन उसको देश की संघीय व्यवस्था में शामिल कर उसको बचाने का प्रयास नहीं करेंगे ।

लेकिन शायद नेहरु के पुराने व्यवहार को देख कर महाराजा हरि सिंह को यह भी लगता था कि हो सकता है इसके बाबजूद वे जम्मू कश्मीर के संघीय व्यवस्था का हिस्सा बनने के प्रस्ताव को ख़ारिज कर सैनिक सहायता देने से इन्कार कर दें । यदि ऐसा होता है तब ? तब उन्होंने अपने ए.डी.सी कैप्टन दीवान सिंह को आदेश दिया , यदि ऐसा होता है तो मुझे नींद से जगाने की जरुरत नहीं है । मेरी कनपटी पर गोली मार कर मुझे सदा के लिये सुला देना । यह कह कर वे सोने के लिये चले गये ।

महाराज हरि सिंह हार कर भी जीत गये थे और नेहरु जीत कर भी हार गये थे । लेकिन इधर दिल्ली में माऊंटबेटन की रणनीति का अध्याय पढ़ा जाना अभी बाक़ी था । महाराजा हरि सिंह के लिखे दोनों दस्तावेज़ प्राप्त होते ही उसने अपनी शतरंज की बिसात बिछा दी । महाराजा हरि सिंह का देश की संघीय व्यवस्था में शामिल होने का प्रस्ताव तो अब अमान्य किया ही नहीं जा सकता था । वह स्वीकार हो गया । विधिक कर्मकांड पूरा हो गया । लेकिन उसके बाद माऊंटबेटन ने हरि सिंह को अलग से एक चिट्ठी भी लिख दी कि रियासत में शान्ति स्थापित हो जाने के बाद इस प्रस्ताव पर लोगों की राय भी ली जायेगी । लेकिन माऊंटबेटन अच्छी तरह जानते थे कि लोगों की राय के सहारे ही ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हितों की रक्षा नहीं हो पायेगी । इसलिये शान्ति स्थापित ही न हो सके इसलिये वे नेहरु को मना कर इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में ले गये । वैसे तो लोगों की राय जानने वाली चिट्ठी की कोई क़ानूनी हैसियत नहीं थी लेकिन ख्याली कनकौआ उड़ाने वालों के लिये वह ही काफ़ी थी । नेहरु की कांग्रेस से लेकर शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का परिवार उसी को इतने लम्बे अरसे से कनकौआ की तरह उड़ा रहा है । महाराजा हरि सिंह की जीत को नेहरु-माऊंटबेटन और शेख़ अब्दुल्ला ने पराजय में बदल लिया जिस का दंश महाराजा हरि सिंह भी जीवन भर भोगते रहे और जम्मू कश्मीर की जनता आज तक भोग रही है ।

रविवार, 9 नवंबर 2014

हम्मीर देव चौहान ने झुका दिया था जलालुद्दीन का मस्तक



                           हम्मीर देव चौहान ने झुका दिया था जलालुद्दीन का मस्तक


कायर कौन होता है
यह दोषारोपण सामान्यत: हिंदुओं पर किया जाता है कि वे विगत 1200-1300 वर्षों के इतिहासकाल में कायर रहे हैं। हमने भी यहां कायर के विषय में ही प्रश्न कर दिया है कि ये होता कौन है?
अब इस प्रश्न के उत्तर पर विचार करें। सहज रूप से देखें -अपने चारों ओर के परिवेश को और उन परिस्थितियों को जिनमें हम डाकू को या किसी क्रूर व्यक्ति को या किसी आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को वीर के रूप में प्रसिद्घि पाते देखते हैं, ख्याति प्राप्त करते देखते हैं। संसार के लोग सामान्यत: ऐसे व्यक्ति को साहसी मानते हैं, और ऐसे व्यक्ति का साहसी के रूप में ही महिमामंडन भी करते हैं, पर वैसे उससे और उसके नाम तक से डरते हैं। डरने का या आतंकित करने वाला उसका आवरण ही उसके विषय में यह भ्रांत धारण बनाते हैं कि वह व्यक्ति साहसी है या वीर है।
हमारी मान्यता इस धारणा के सर्वथा विपरीत है। हमारी मान्यता है किसाहसी या वीर व्यक्ति वह होता है जिससे दूसरे लोगों के भय का हरण होता है। इसका अभिप्राय है कि दूसरे के प्राणों को लेने वाला साहसी या वीर नही होता, अपितु दूसरों के प्राणों की दुष्टों से रक्षा कराने में समर्थ व्यक्ति साहसी या वीर होता है। हमारा मानना है कि क्रूर व्यक्ति कायर होता है, क्योंकि वह जितने लोगों के प्राण लेता है, उनका ‘पापबोध’ उसे भीतर से पलायनवादी और कायर बनाता है। इसलिए वह अपराध करके भागता है, अपने चारों ओर सुरक्षा का घेरा बढ़ाता है, और अपने निकटस्थ लोगों से भी सदा आशंकित रहता है, आतंकित रहता है। आशंकित और आतंकित रहने के इस भ्रम में वह अपराध पर अपराध करता जाता है।
मुस्लिम आक्रांताओं का सच यही है
बस यही बात मुस्लिम आक्रांताओं पर लागू होती है। इन लोगों ने अपनी धार्मिक मान्यताओं के वशीभूत होकर तो भारत में नरसंहार किये ही कई बार तो अपनी क्रूरता का प्रदर्शन केवल इसलिए किया कि उन्हें इससे पहले एक बार या निरंतर कई बार व्यापक हिंदू प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। इसलिए समय मिलते ही शत्रु का व्यापक संहार कर उसे  पूर्णत: समाप्त कर देना ही उन्होंने उचित समझा। यह सोच भयभीत, आशंकित और आतंकित मानसिकता को प्रकट करने वाली है। इसलिए जहां क्रूरता है वहां कायरता है। इसे आप यूं भी कह सकते हैं कि क्रूरता का दूसरा नाम ही कायरता है।
हिन्दुओं में क्रूरता कभी नही रही
हिन्दुओं में क्रूरता कभी नही रही। इनके यहां शौर्य होता है, वीरता होती है। इसलिए शत्रु को मारकर भागने की भारत में परंपरा नही रही। वीर पुरूष ना तो रण छोड़कर भागता है और ना ही शत्रु को मारकर भागता है। क्योंकि वह जो भी कार्य करता है, पूर्ण विवेक  के साथ करता है। इसलिए केवल भारत की ही ये परंपरा है कि यहां वीरता के साथ आशंकित या आतंकित होने के भाव व्यक्ति का पीछा नही करते, अपितु यहां वीरता को विवेक अपना संबल प्रदान करता है, और वीर विवेकपूर्ण ढंग से वसुंधरा का उपभोग करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि वीर भोग्या वसुंधरा:।
रोग प्रतिरोधक क्षमता का होना जीवन होने का प्रमाण है
शरीर में यदि रोग प्रतिरोधक क्षमता है तो वह जीवित कहा जाता है, और यदि ‘रोग प्रतिरोधक’ क्षमता समाप्त होते-होते शून्य हो जाए तो शरीर को चिकित्सक लोग मृत घोषित कर देते हैं।
हिंदू के पास क्या था? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दू के पास उस काल में केवल सुदृढ़ रोग प्रतिरोधक क्षमता थी, वीरता थी, शौर्य था, और साहस था।
इतनी सारी वस्तुओं के होते हुए भी इस जाति का महिमामंडन करने वाला इतिहास लुप्त कर दिया जाना मानवता के इतिहास की सबसे अधिक लज्जास्पद और मर्मान्तक घटना है।
औरंगजेब की वसीयत
औरंगजेब ने अपनी वसीयत लिखी थी, जिसमें उसने हिंदुओं को और उनकी वीरता को लेकर कहा था-”तूरानी जो हमारे पूर्वजों के देश से आए हैं, हमारे बिरादर हैं….उन्हें जब युद्घ में पीछे हटने का आदेश दिया जाता है, तो इसमें वह लज्जा का अनुभव नही करते। वह इन महामूर्ख हिंदुओं से सैकड़ों गुना श्रेष्ठ हैं, जो सिर कटाना स्वीकार करते हैं, पर पीछे नही हटते।”
सुबुद्घ पाठक वृन्द! हिंदू इसी मिट्टी से बना था जिसे औरंगजेब ने ‘महामूर्ख’ कहकर महिमामंडित किया है। जबकि मुस्लिम किस मिट्टी से बना था, इसका उल्लेख इस प्रकार है-”जब तुमने किसी किले को घेर रखा हो, और उसके लोग अल्लाह और उसके पैगंबर के नाम पर तुमसे रक्षा की अपील करें तो उनको अल्लाह और उसके पैगंबर की ओर से सुरक्षा की गारंटी मत दो, अपितु अपनी और अपने साथियों की ओर से ही सुरक्षा की गारंटी दो, क्योंकि अल्लाह और उसके पैगंबर के नाम पर दी गयी गारंटी को भंग करने से अपनी ओर से दी गयी गारंटी को भंग करने में बहुत कम पाप है।”
‘सही मुस्लिम’- पृष्ठ 4294
अब तनिक औरंगजेब की वसीयत की उस पंक्ति पर विचार करें, जिसमें उसने हिन्दुओं को ‘महामूर्ख’ कहकर महिमामंडित किया है। इस ‘महामूर्ख’ शब्द को हमीर देव चौहान के साथ स्थापित करके देखें तो ज्ञात होगा कि हम्मीर देव चौहान औरंगजेब की दृष्टि में चाहे महामूर्ख हो परंतु हिंदू समाज में तो ‘हमीर हठ’ आज तक सम्मानित है।
हम्मीर देव चौहान
हम्मीर की हठ को समझना हिंदुओं की वीरता को समझने के लिए अति आवश्यक है। हमने ऐसे प्रसंग और कहानियां तो बहुत सुनी हैं कि अमुक मुस्लिम आक्रांता ने भारत पर प्रतिवर्ष आक्रमण करने की प्रतिज्ञा ली और अमुक समय पर भारत के अमुक क्षेत्र में अमुक राजा पर इस प्रकार के अत्याचार किये, परंतु कभी उक्त विदेशी आक्रांता का हर स्थिति में प्रतिरोध करने की प्रतिज्ञा लेने वाले आर्य हिंदू वीरों का स्मरण नही किया। पिछले पृष्ठों में हमने राजस्थान के रणथम्भौर और वहां के शासकों की वीरता का उल्लेख किया है।
किले बन गये थे राष्ट्र मंदिर
भारत के लोगों ने पत्थरों की पूजा करके बहुत कुछ हानि उठाई है, परंतु यह भी सत्य है कि कई लोगों ने पत्थरों से सीखा भी बहुत कुछ है। मध्यकाल में जब हमारा यौवन देश के काम आना ही अनिवार्य कर दिया गया था, तो उस समय यह देश राष्ट्रदेव की आराधना में लग गया था। सारे देवों को इसने भुला दिया और मानो सारे देवों को उठाकर अपने-अपने क्षेत्रों में बने पत्थरों के राष्ट्रमंदिरों अर्थात दुर्गों में लाकर स्थान दे दिया था। बहुत से किले उस समय पत्थरों के भवन मात्र न रहकर हमारे गर्व और गौरव का जीवंत प्रमाण बनकर रह गये थे। जिस किले ने जितना अधिक पौरूष दिखाया, शौर्य का प्रदर्शन किया या वीरता की अनुपम कहानी लिखी वह उतना ही हमारे लिए आज तक सम्माननीय है। झांसी का किला, दिल्ली का लालकिला, आगरा का लालकिला, चित्तौडग़ढ़ का किला, रणथम्भौर का किला इत्यादि हमारे मध्यकालीन राष्ट्र मंदिर हैं। इनके विजय, वैभव और वीरता के इतिहास को नमन करने और उसे अपनी भावपूर्ण विनम्र श्रद्घांजलि अर्पित करने के लिए जब कोई दर्शक यहां पहुंचता है तो उसके हृदय में स्वयं ही एक सुखद अनुभूति होती है। बांहें फड़कने लगती हैं, और हृदय में स्वयं ही हम सबका सामूहिक देव अर्थात राष्ट्रदेव अपना विशाल और विराट स्वरूप दिखाने लगता है। कहने लगता है-”वत्स! मैं वर्षों से यहां तुम्हारी कारागार में बंदी हूं। मुझे मुक्त कराओ और अपने अतीत के वैभव का गौरवपूर्ण इतिहास लिखो। मैं काल हूं और मैंने इस राष्ट्र के लिए समर्पित रहने वाले अनेकों वीरों के जीवन को राष्ट्रवेदी पर बलि होते देखा है, पर दुख के साथ कहना पड़ता है कि उन बलियों का सम्मान करना हमने नही सीखा।”
पत्थरों की भी अपनी भाषा होती है और वह उस भाषा में हमसे अपना सीधा संवाद स्थापित करते हैं। वह हमसे पूछते हैं कि मध्यकाल के जिन मंदिरों में स्थापित राष्ट्रदेव की मूर्ति के लिए तुम्हारे पूर्वजों ने जीवन भर  संघर्ष किया उन स्थानों की इतनी घोर उपेक्षा क्यों की जा रही है? तब ज्ञात होता है कि ये किले मात्र कुछ पत्थरों का सुव्यवस्थित और सुसज्जित रूप में संवरा हुआ एक स्वरूप नही हैं, अपितु इसका एक एक कण हमारे पूर्वजों की वीरता का मुंह बोलता प्रमाण है। हमने पत्थरों में जीवन की खोज इसीलिए की है कि वे अतीत को हमारे समक्ष लाकर जीवन्त बनाकर प्रस्तुत करने की क्षमता और सामथ्र्य रखते हैं। इस सच से कोई व्यक्ति कितना भाग सकता है?
बात पुन: रणथम्भौर की
बात रणथम्भौर की करें, तो उसके लिए अब पुन: परिचय कराना तो उचित नही होगा कि इसे हिंदू वीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के महान वंशजों ने अपना रक्त देकर सींचा था। इसलिए मध्यकाल में यह किला भारत की वीर हिन्दू जनता के लिए वीरता का एक स्मारक या तीर्थ ही बन गया। यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत शस्त्र और शास्त्र दोनों का उपासक राष्ट्र रहा है, इसलिए इसने अपने मंदिर भी दो प्रकार के बनाये एक थे शास्त्रों की बात करने वाले तो दूसरे थे शस्त्र की बात करने वाले। शस्त्र की बात करने वाले मंदिर ही हमारे दुर्ग थे। पृथ्वीराज चौहान के पूर्वजों की राजधानी अजयमेरू (जिसे आजकल अजमेर कहते हैं) रही थी। उस राजधानी का नाम अजयमेरू रखा गया-तो बात स्पष्ट थी कि वहां भी पत्थरों ने हमें शिक्षा दी कि सदैव अजेय रहना है। इसलिए पृथ्वीराज चौहान ने तो अजेय रहने की प्रतिज्ञा ली ही, उसके वंशजों ने भी उस प्रतिज्ञा को आगे बढ़ाया और रणथम्भौर में जाकर अपने अजेय रहने का प्रमाण दिया। हमें पत्थरों ने शिक्षा दी और हमने इतिहास बनाया।
तेजसिंह तरूण अपनी पुस्तक ”राजस्थान के सूरमा” के पृष्ठ 18 पर लिखते हैं-”पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज ने तराईन के युद्घ अर्थात 1192 ई. के पश्चात 1194 ई. में रणथम्भौर के पर्वतीय अंचल में अपना एक पृथक राज्य स्थापित कर लिया और आगे के शासक राज्य को सुसंगठित करने में लगे रहे। गोविन्दराज और हमीर के बीच के समय में रणथम्भौर की कीर्ति पताका दूर दूर तक फहराती रही।…हमीर द्वारा भीमरसपुर, मदालकीर्ति दुर्ग, घाना नगर, उज्जैन (मालवा) आदि कई प्रमुख स्थानों पर अधिकार कर लेने के उपरांत रणथम्भौर दिल्ली के सुल्तानों को और भी अधिक खटकने लगा। कारण भी स्पष्ट था, हमीर ने न केवल उज्जैन पर विजय प्राप्त की, वरन क्षिप्रा के तट पर बने महाकालेश्वर मंदिर का, जिसे इल्तुतमिश ने धूल धूसरित कर दिया था, जीर्णोद्घार करवाकर अपने इष्ट देव शंकर भगवान (महाकाल) की पूजा अर्चना जो की थी, यह भला दिल्ली के मुस्लिम शासकों को स्वीकार कैसे हो सकता था (अर्थात हमारे हिन्दू शासक का यह वीरता पूर्ण कृत्य कि वह किसी धूल धूसरित हुए मंदिर का जीर्णोद्घार कराये और फिर वहां अपने इष्ट देव की पूजा करें) इससे उनका भयभीत होना स्वाभाविक था।”
विद्वान लेखक के शब्द ‘भयभीत’ पर विचार करने की आवश्यकता है। इसी शब्द ने मुस्लिमों को सदा आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया, वह किसी उठते हुए और अपने राष्ट्र धर्म के प्रति पूर्णत: सजग और सावधान हिंदू शासक के प्रति सदा ही आशंकित और आतंकित रहते थे, इसलिए वह भयभीत हो उसे क्रूरता से मिटा देना ही अपना सर्वोपरि धर्म समझते थे।
हिंदू वीर हमीर देव की वीरता
हिंदू वीर हमीर देव के स्वाभिमान और वीरता को नष्ट करने के लिए अलालुद्दीन खिलजी  ने 1209ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। जलालुद्दीन खिलजी वंश का संस्थापक कहा जाता है। जिस गुलाम वंश की गरम राख पर इसने भारत में खिलजी वंश की स्थापना की थी  वह तो अब अतीत के गर्त में चला गया था, पर यह सत्य है किभारत के लिए इस वंश के शासकों के सपने भी वही रहे जो इसके पूर्ववर्ती के थे। ना आदर्शों में कोई परिवर्तन आया और ना ही उद्देश्यों में कोई परिवर्तन आया। अत: कहना पड़ेगा कि भारत के लिए वंश परिवर्तन सत्ता परिवर्तन न होकर मात्र ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ ही थी। जिसे सही अर्थों में परिवर्तन नही कहा जा सकता।
रणथम्भौर और उसके वीर शासक हम्मीर देव चौहान ने अपनी परंपरागत वीर शैली में दिल्ली के नये सुल्तान जलालुद्दीन की सेना का सामना किया, जलालुद्दीन भी जानता था कि उसका सामना किस हिन्दू वीर से होने जा रहा है? उसे भली प्रकार ज्ञात था कि अब से पूर्व में राजस्थान के इस पवित्र वीर मंदिर (रणथम्भौर के दुर्ग) ने क्या क्या गुल खिलाए हैं? इसने अभी तक मस्तक झुकाया नही है, अपितु आक्रांता का मस्तक झुकवाया है। अत: ऐसे वीर मंदिर की ओर बढऩा ‘भारी भूल’ भी हो सकती है।
जलालुद्दीन की सेना भारत के मस्तक बने रणथम्भौर दुर्ग की ओर बढ़ती जा रही थी। देश की हवाओं की सनसनाहट ने हिंदू वीर हम्मीर देव चौहान को उसके वीर पूर्वजों की गौरव गाथा जाकर बतानी आरंभ कर दी। जिससे वीर हम्मीर देव चौहान के शरीर में झनझनाहट हो उठी, वह शेर की भांति उठ खड़ा हुआ, और शत्रु की प्रतीक्षा करने लगा।
हवा ने अपना काम कर दिया था तो सूर्य देव भी पीछे नही थे, हमारे क्षत्रिय राजवंशों में सूर्यवंश की गरिमा से भला कौन परिचित नही है? सूर्य सम तेजस्विता को धारण कर ‘शत्रु हन्ता’ बनने की परंपरा भारत में युगों पुरानी है। इसलिए सूर्य ने अपने पुत्र हम्मीर देव की तेजस्विता को सावधान किया कि आपत्ति आने वाली है। अत: अपने क्षात्रधर्म और राष्ट्रधर्म के लिए सावधान हो जाओ। राजा ने सूर्य के आवाहन को समझा और रणथम्भौर के ध्वजदण्ड को स्मरण कर उसे नमन किया। हम्मीर के सामने आज मानो पृथ्वीराज चौहान भी साक्षात आ खड़े हुए थे, जो कहे जा रहे थे-”वत्स! मैंने जिस स्वाधीनता के लिए अपना बलिदान दिया था, आज उसी स्वाधीनता की रक्षा करना तुम्हारा पवित्र कत्र्तव्य है। ना तो पताका झुकनी चाहिए और ना ही मस्तक झुकना चाहिए। सावधान होकर संघर्ष करो, और मां भारती के ऋण से उऋण होने के लिए रण के लिए प्रस्थान करो।”
हम्मीर देव ने अपने सैन्याधिकारियों और सरदारों से युद्घ विषयक चर्चा की और आसन्न संकट से देश के उन  रक्षकों को अवगत कराया। सभी ने एकमत से आततायी के आक्रमण का सामना करने का प्रस्ताव पारित किया। सेना को सतर्क किया गया। युद्घ के लिए आपात ध्वनि विस्तारकों की नाद से आकाश गूंज उठा। राजधानी की प्रजा भी सतर्क और सावधान हो गयी कि राष्ट्रधर्म के निर्वाह का एक और अवसर उपलब्ध हो गया है।
उधर जलालुद्दीन अपने आतंक का खेल खेलता रणथम्भौर की ओर बढ़ा चला आ रहा था और इधर रणथम्भौर का कण-कण राष्ट्रवाद की भावना से मचल रहा था। शेरों ने व्रत रखना आरंभ कर दिया था कि अब तो भोजन भी रण में किया जाएगा और भोजन भी शिकार के ताजे रक्त का। चारों ओर वीरोचित परिवेश था, कहीं से भी कायरता की या पलायनवाद की संभावना तक दृष्टिगत नही हो रही थी।
वैसे भी यह वो काल था जब हिंदू समाज में कायरता और रण के प्रति पलायनवाद को देश द्रोह, धर्मद्रोह और जातिद्रोह माना जाता था और ऐसे देशद्रोही को, धर्मद्रोही को या जातिद्रोही को लोग समाज से बहिष्कृत कर दिया करते थे। यही कारण है कि जिस व्यक्ति ने धर्मांतरण कर मुस्लिम मत स्वीकार किया, या उनसे विवाहादि का प्रस्ताव स्वीकार कर ऐसे संबंध बनाकर उन्हें अपनी लड़कियां दीं उनसे लोग घृणा करते थे। हम आज तक भी इस घृणा को अपने समाज में यथावत देखते हैं। यह घृणा एक इतिहास की ओर और एक संस्कार की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है, जो सदियों पुराना संस्कार है, वह कभी हमारे वीरों के सिर चढ़कर बोलता था। इस संस्कार को तनिक सहेजकर रखने की आवश्यकता है।
जलालुद्दीन अपनी पूर्ण तैयारी के साथ रणथम्भौर में आ डटा। उधर रणथम्भौर के शेर पहले से ही अपने शिकार की प्रतीक्षा में थे। उन्हें अपने स्वामी के एक संकेत मात्र की प्रतीक्षा थी। वह मिले और हमारे भूखे शेर अपने शिकार पर झपटे। अंत में राजा हम्मीर देव चौहान ने अपनी सेना को संकेत दिया और युद्घ प्रारंभ हो गया। जलालुद्दीन ने उस हिंदू वीरता का आज पहली बार सामना किया था, जिसे उसने अब से पूर्व कभी नही देखा था। भयंकर रक्तपात हुआ, अनेकों हिंदू वीरों ने अपना बलिदान दिया पर रण नही छोड़ा। अंत में शत्रु सेना को ही रण से भागना पड़ा। जलालुद्दीन खिलजी परास्त और लज्जित होकर दिल्ली लौट आया और फिर कभी रणथम्भौर की ओर पैर करके भी नही सोया। रणथम्भौर के किले पर लहराती हिन्दू पताका को हम्मीर देव चौहान ने अपने पूर्वजों को नमन किया और उन्हें विनम्र श्रद्घांजलि देकर अपनी जीत को उन्हीं का आशीर्वाद मानकर उनके श्री चरणों में सादर समर्पित कर दिया। जलालुद्दीन को यह हम्मीर सपनों में भी डराता रहा और वह इस वीर से सपनों में भी कहता रहा कि-”अब उधर नही आऊंगा…नही आऊंगा….नही आऊंगा।”
ये थे हमारे वीर जिनके कारण हम आज तक जीवित हैं। उनके मंदिरों (दुर्गों) में आज कोई पुजारी नही है, चारों ओर धूल कण हैं, स्मारकों पर झाड़ खड़े हैं। नई पीढ़ी का दायित्व है कि इन हिंदूवीरों के मंदिरों की वह स्वयं को पुजारी सिद्घ करे, और इनकी दिवंगत आत्माओं को पूर्णत: आश्वस्त करे कि हम आज भी रणथम्भौर की यश गाथा को दुबारा दोहराने के लिए कृत संकल्प है, और तब तक रहेंगे जब तक इस देश को हिंदू राष्ट्र मानने समझने और स्थापित करने की भावना हमारे भीतर जीवित है।
इसी हम्मीर देव चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी के सामने समर्पण कर देने के उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था और युद्घ क्षेत्र में ही सामना करने की हठ पर बैठ गया। इसीलिए कवि को ‘हम्मीर हठ’ लिखने का अवसर मिल गया था।