गुरुवार, 29 अगस्त 2013

हमारे राष्ट्रनायक श्रीकृष्ण

हमारेराष्ट्रनायक श्रीकृष्ण
लोकनायक या जननायक ही वास्तव में राष्ट्रनायक होता है। श्रीकृष्ण अपने
युग के ऐसे ही नायक थे। श्रीकृष्ण जिस युग में धरा पर अवतरित हुए थे, उस
समय सत्ता के दो प्रमुख केन्द्र विद्यमान थे। एक था हस्तिनापुर और
दूसरा था मथुरा। श्रीकृष्ण चाहे मथुरा में रहे या हस्तिनापुर में,
कहीं भी सत्ता पर आसीन नहीं रहे। लेकिन उस समय विश्वभर के
सत्ताधारी उनके इर्दगिर्द ऐसे मंडराते थे, मानो उनके चतुर्दिक् चक्र
का वलय हो। श्रीकृष्ण ने अन्य लोगों को सत्ता सौंपी, लेकिन स्वयं
सत्ता से विरक्त रहे। वास्तव में श्रीकृष्ण राष्ट्रनायक इसीलिए बन सके,
क्योंकि उन्होंने लोकशक्ति को संगठित करने की महती भूमिका निभाई थी।
तत्कालीन समाज में यदुवंश की जो तमाम शक्तियां बिखरी हुई थीं,
उनको संगठित किया। उनमें चेतना का संचार किया। अत्याचार करने
वाली तत्कालीन शक्तियों के विरुद्ध उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करने
का आह्वान किया। जो सत्ताधारी बिना कुछ किए समूची जनता का शोषण
करके स्वयं राजवंश का कहलाकर इतराते रहते थे, श्रीकृष्ण ने उसका यथार्थ
बोध कराया।
चाणक्य भी अपने युग के इसी तरह के राष्ट्रनायक रहे, जो पाटलिपुत्र के
कुटीर में रहते हुए समूचे साम्राज्य का सूत्र संचालन करते थे। उनके इंगित
मात्र पर चन्द्रगुप्त सिंहासन से उतरकर भागता हुआ उनकी पर्णकुटीर तक
नंगे पॉंव पहुंचता था। उनके तेवर ने नंद वंश को इस तरह धराशायी कर
दियाथा कि उस वंश में आगे चलकर कोई पुनः राजसत्ता में आने के लिए सिर
उठाने वाला नहीं रह गया। लेकिन स्वयं चाणक्य जीवन पर्यन्त सत्ता से दूर
रहे । उनकी भृकुटि संचालन मात्र से अन्य आमात्यों का संचालन होता था।
राक्षस और पर्वतेश्वर जैसे आमात्यों को उन्होंने अपनी नीति का सही पाठ
सिखा दिया था। वह इसलिए नहीं कि चाणक्य के पास कोई सत्ता थी। हॉं,
एक सत्ता थी उनके पास, लोकसत्ता! और किसी भी राष्ट्रनायक
की वास्तविक पूंजी और शक्ति यही है।
जो समूचे जनमानस को इस तरह चेतना से से उद्वेलित कर दे कि जिस
अभीष्ट दिशा में वह समूचे समाज को ले जाना चाहता है, उसी दिशा में
सैलाब की तरह समूचा समाज चल पड़े और उसके प्रबल प्रवाह को उन्नत
पर्वत शिखर भी न रोक सकें। श्रीकृष्ण भी ऐसे ही राष्ट्रनायक थे, जिनके
इंगित मात्र पर सभी गोप-गोपियॉं ब्रज छोड़कर तत्कालीन नरेश कंस के
विरुद्ध एकजुट हो गए थे। मध्यकाल में गोस्वामी तुलसीदास
हालांकि सत्ता से कोसों दूर थे,लेकिन उनकी रामचरितमानस आज भी जन-
जन की कंठहार बनी हुई है और आज भी किसी भी सत्तासीन राजा-
महाराजा या सम्राट की अपेक्षा भारत में अधिकांश भागों में तुलसी का नाम
गूंज रहा है। जयप्रकाश नारायण ने देश में सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान करके
सत्ता परिवर्तन कर दिया था। इसलिए नहीं कि वे सत्ता में थे, बल्कि उनके
पास लोकसत्ता थी और इसीलिए वे "लोकनायक' कहलाए। लोगों का उन्होंने
अगाध विश्वास जीता था।
राष्ट्रनायक श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना सम्मोहक
था कि मनुष्यों की कौन कहे, जब वे बांसुरी बजाते थे तो गायें भी दौड़कर
उनके पास आ जाती थीं। वे उन्हें भी सम्मोहित कर लेते थे। सत्ता से
जो व्यक्ति दूर रहता है और दूर रहते हुए भी समूचे राष्ट्र को दिशा देता है,
वही सच्चा राष्ट्रनायक होता है। राष्ट्रनायक का जीवन त्यागमय होता है।
उसके जीवन में पदलिप्सा नहीं होती। भगवान राम को उनके पिता दशरथ ने
सिंहासन सौंपा था। उस सिंहासन पर वे बने रह सकते थे। लेकिन वे सत्ता से
अनासक्त थे। श्रीकृष्ण भी उसी परम्परा से जुड़ते हैं। उनके अन्दर तीन गुण
विशेष रूप से विद्यमान थे- त्याग, सत्ता से
अनासक्ति तथा लोकशक्ति को संगठित करने की अद्भुत क्षमता। इन
तीनों गुणों के कारण ही श्रीकृष्ण ने अपनी इच्छानुसार युग परिवर्तन लाने में
सफलता प्राप्त की। श्रीकृष्ण का वैचारिक धरातल व्यावहारिक धरातल से
बहुत ऊंचा था। तथापि वे अपने वैचारिक और व्यवहारिक धरातल के बीच
समन्वय इस तरह करते थे कि दोनों धाराएं एक-दूसरे में कहॉं विलीन होती हैं,
उसका पता भी नहीं चलता था।
श्रीकृष्ण के जीवन में विभिन्न प्रकार के गुणों का ऐसा सुन्दर समन्वय
था कि एक ओर जहॉं वे सामान्य जन में रम सकते थे, वहीं अपने हाथों से
कुवलयापीड़ जैसे मदोन्मत्त हाथी के दांतों को भी उखाड़कर फेंक सकते थे।
अद्भुत क्षमता का यह समन्वय श्रीकृष्ण को अन्य नायकों से बिल्कुल
भिन्न पंक्ति में लाकर खड़ा कर देता है। वैचारिक और व्यावहारिक धरातल
को समाविष्ट करने की श्रीकृष्ण की सार्थकता की जो धारा भारतीय समाज
में अविछिन्न रूप से प्रवाहित हुई उसी को चाणक्य ने कूटनीति से,
तुलसीदास ने भक्ति से और जयप्रकाश ने जनजागरण के माध्यम से चिंतन
की व्यावहारिक उपयोगिता को सिद्ध कर दिखाया। श्रीराम सत्तासीन रहते
हुए भी सदैव उससे उसी प्रकार निर्लिप्त रहे, जैसे अहर्निश जल में रहते
हुए भी कमल पत्र उससे लिप्त नहीं होता। राम
की इसी परम्परा को श्रीकृष्ण ने और आगे बढ़ाया। श्रीराम तो अपने जीवन
में कुछ समय सत्ता पर आसीन भी रहे, लेकिन श्रीकृष्ण हमेशा सत्ता से दूर
रहे। उन्होंने अन्य लोगों को तो सत्ता पर बिठाया, लेकिन स्वयं
आराधना करते रहे। उनकी विनम्रता इस सीमा तक थी कि राजसूय यज्ञ में
जब सभी को काम सौंपा गया, तो श्रीकृष्ण ने लोगों की झूठी पत्तलें उठाने
का जिम्मा खुद ले लिया। यह थी उनकी विनम्रता।
इसी विनम्रता का परिणाम रहा कि सभी नरेशों के मुकुटमणि उनके चरणों पर
अवनत होते रहे। उनके इन्हीं गुणों की वजह से आज भी हम उन्हें
षोडशकलापूर्ण व्यक्ति मानते हैं। सम्पूर्ण भारत में प्राचीन काल से
अर्वाचीन काल तक किसी अन्य व्यक्ति को यह सम्मान प्राप्त
नहीं हो सका।
श्रीकृष्ण के समग्र विचार दर्शन का संक्षेप में केवल एक संदेश है- कर्म।
कर्म के माध्यम से ही समाज की अनिष्टकारी प्रवृत्तियों का शमन करके
उनके स्थान पर वरेण्य प्रवृत्तियों को स्थापित करना संभव होता है।
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व असीम करुणा से परिपूर्ण है। लेकिन अनीति और
अत्याचार का प्रतिकार करने वाला उनसे कठोर व्यक्ति शायद ही कोई
मिले। जो श्रीकृष्ण अपने सेे प्रेम करने वाले के लिए नंगे पांव दौड़े हुए चले
जाते थे, वही श्रीकृष्ण दुष्टों को दण्ड देने के लिए अत्यन्त कठोर और
निर्मम भी हो जाते थे। गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन
को यही कहा था कि मोह वश होकर रहने का कोई लाभ नहीं। ये सगे
सम्बन्धी सब कहने को हैं, लेकिन तुम्हें अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए
यहॉं युद्ध कर्म में प्रवृत्त होना पड़ेगा। उन्होंने गीता में जीवन के
उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म और भक्ति के प्रतिपादन
पर बल दिया। श्रीकृष्ण के विषय में अनेक किम्वदन्तियॉं और मिथक
प्रचलित हैं। लेकिन समकालीन संदर्भ में उनका उचित और युक्तिसंगत
ऐतिहासिक मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
श्रीकृष्ण भारत के तत्कालीन समाज में विद्यमान ज्ञान का अवगाहन कर
चुके थे और गीता में उन्होंने उपदेश के रूप में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह
तत्कालीन समाज के पूंजीभूत ज्ञान के मथे हुए घृत जैसा है।
तभी तो गीता के बारे में कहा जाता है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।
यानी सभी उपनिषदें गाय सदृश हैं और गोपालनन्दन श्रीकृष्ण उन्हें दुहने
वाले ग्वाल सदृश हैं। ऐसे गीतामृत का पान अर्जुन ने वत्स के रूप में किया।
वास्तव में श्रीकृष्ण उस कोटि के चिंतक थे, जो काल की सीमा को पार कर
शाश्वत और असीम तक पहुंचता है। जब-जब अनीति बढ़ जाती है, तब-तब
श्रीकृष्ण जैसे राष्ट्रनायक को अवतीर्ण होना पड़ता है। जैसा कि स्वयं
श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। अर्थात् अन्याय के प्रतिकार
के लिए ही राष्ट्रनायक को जन्म लेने की आवश्यकता पड़ती है।
यदि हम भारत के वर्तमान परिदृश्य पर ध्यान से देखें तो हमें राष्ट्रनायक
श्रीकृष्ण की याद आती है। आज हमें सत्ता से चिपकने वाले राजनेताओं
की आवश्यकता नहीं है। इस समय हमें आवश्यकता है श्रीकृष्ण जैसे
राष्ट्रनायक की, जो सत्ता से दूर रहते हुए भी सम्पूर्ण सत्ता का लोकहित
में संचालन करता हो। ऐसा ही लोकनायक वास्तव में राष्ट्रनायक कहलाने
योग्य होता है।

बुधवार, 28 अगस्त 2013

जयतु राष्ट्रम - वैदिक ग्रंथों में राष्ट्र

जयतु राष्ट्रम - वैदिक ग्रंथों में राष्ट्र


हमें सर्वप्रथम वैदिक ऋषियोंं की वाणी में राष्ट्रीयता का गौरव गान सुनाई
देता है। विश्व को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का राजमार्ग प्रदर्शित
करने वाले, आत्मा और परमात्मा का सत्यस्वरूप प्रतिपादित करने वाले
तथा ज्ञान, विज्ञान के आलोक से वसुधा को आलोकित करने वाले, वेदों मे
यत्र-तत्र सर्वत्र, राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित होता रहा है। तथा लौकिक
कवियों की कृतियों में भी अभिव्यंजित राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित
होता रहा है। परन्तु लौकिक कवियों की अभिव्यंजित राष्ट्रीयता में
तथा वैदिक संहिताओं में अभिव्यक्त राष्ट्रीयता में एक मौलिक अन्तर यह है,
कि लौकिक कवियों का राष्ट्र प्रेम अपने-अपने राज्यों अथवा देशों और
स्वदेशीय प्रजा के कल्याण तक सीमित है, जबकि वैदिक संहिताओं
का राष्ट्र-प्रेम सम्पूर्ण वसुधा को और प्राणीमात्र को अपने आंचल में
समेटे हुए है। ‘‘यत्र विश्वं भवत्येक नीडम’’ की व्यापक दृष्टि वेदों में सर्वत्र
परिलक्षित होती है। वेदों में अनेक स्थानों पर अपनी मातृभूमि की रक्षा में
सर्वस्व समर्पण का सन्देश दिया गया है। वेदों में अनेक स्थानों पर
अपनी मातृभूमि की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई है, जिसे पढ़कर या सुनकर
प्रत्येक देशवासी के हृदय में अपने देश के लिए, गौरव का भाव पनपता है।
वैदिक ट्टषि अपनी मातृभूमि के वन-पर्वत, सरित-सागर आदि के सौन्दर्य
पर मुग्ध हैं, वहां निवास करने वाली प्रजा के सांस्कृतिक जीवन पर भी वे
मुग्ध हैं। भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी, भिन्न-भिन्न प्रकार की वेशभूषा धारण
करने वाले लोगों को देखकर, उनका मन मयूर प्रसन्नता से नृत्य करने
लगता है। अथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त इस दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व साहित्य में
अनुपम है। इस सूक्त में राष्ट्र-प्रेम की ऐसी धारा प्रवाहित हो रही है,
जिसके अवगाहन से रोम-रोम में राष्ट्रीयता हिलोरंे लेने लगती है। अथर्ववेद
का ट्टषि अपनी जन्म-भूमि के प्रति दिव्य भावों के स्फुरण के लिये
कहता है- ‘यही वह भूमि है जिसमें हमारे पूर्वजों ने नाना प्रकार के महान
कार्य किये। यहीं पर देवों ने असुरों को पराजित किया। यहीं गौ आदि अमृत
तुल्य दुग्ध प्रदान करने वाले, अश्वादि द्रुतगति से दौड़ने वाले पशुओं
का और मुक्त गगन में उड़ने वाले पक्षियों का सुन्दर निवास है। ऐसी यह
मातृभूमि, हमें तेज और ऐश्वर्य से परिपूर्ण कर दे।’
‘यस्यां पूर्वे पूर्वजना वि चक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन्।
गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु।।’ (अथर्व.
12/1/5)
यह मातृभूमि कितनी श्रेष्ठ है जिसकी रक्षा देवों के समान कुशल विद्वान
राजा और प्रजा सदैव जागरूक रहकर बिना प्रमाद के करते हैं।
‘यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिं पृथिवीमप्रमादम्’ (अथर्व.
12/1/7)
सम्पूर्ण विश्व में स्वर्णाक्षरों में अंकित किये जाने योग्य, वह वाक्य जिसके
प्रत्येक वर्ण में देश-प्रेम का ज्वालामुखी छिपा हुआ है, इसी पृथ्वी सूक्त में
है-
‘माता भूमिः फत्रो{हं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु।’
भूमि को माता कहकर फकारना और पर्जन्य अर्थात् मेघ को पिता कहकर
सम्मानित करना, एक ऐसा सिद्धांत है जिससे हमारे नीति निर्माता बहुत
कुछ सीख सकते हैं। आज जो हमारे राष्ट्र में कृषि की महत्ता पर बड़े-बड़े
सेमिनार हो रहे हैं, कृषिनीति की तैयारियां हो रही हैं, उसका सूत्ररूप वेदों में
विद्यमान है।
‘विश्वस्वं मातरमाषधीनां ध्रुवां भूमि पृथिवीं धर्मणा धृताम्।
शिवा स्योनामनुचरेम विश्वहा।’ (अथर्व. 12/1/17)
भूमिसूक्त में भावप्रवण प्रार्थना करते हुए निवेदन किया गया है- हे
मातृभूमि! तुम से जो गन्ध उत्पन्न हो रहा है, जिस गन्ध
को औषधियां धारण करती हैं, जिसको जल धारण कर रहे हैं, जिसको सुन्दर
युवक और युवतियां प्राप्त कर रहे हैं, उस अपने गन्ध से मुझ को भी सुन्दर
गन्ध वाला बना दे और कोई भी हमसे द्वेष न करे।
‘यस्ते गन्धः पृथिवि संबभूव यं बिभ्रत्योषधयो यमापः।
यं गन्धर्वा अप्सरश्च भेजिरे तेन मा सुरभि कृणु। मा नो द्विक्षत
कश्चन।’ (अथव. 12/1/23)
हमारे राष्ट्र की यह भूमि स्थल रूप में देखने पर केवल शिलाओं, पत्थरों और
धूल-मिट्टी का ढ़ेर प्रतीत होती है, किन्तु राष्ट्रवासियों द्वारा सम्यक्
प्रकार से धारण किये जाने पर तथा इसे प्राणो से भी प्रिय समझ लेने पर,
यही धरती राष्ट्रवासियों को आश्रय देने वाली मातृभूमि बन जाती है और
हम सबको धारण कर लेती है। इस मां के वक्षः स्थल में हिरण्यादि पदार्थ
छिपे हुए है। यह अपने भक्तों को इन सुवर्णादि से परिपूर्ण कर देती है,
ऐसी मातृभूमि को हम नमन करते हैं-
‘शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमि संधृता धृता।
तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः।।’ (अथर्व 12/1/26)
ग्रीष्म, वर्षा, शरद वसन्त, हेमन्त और शिशिर ये 6 ट्टतुएं
इसकी शोभा बढ़ाती हैं। इस भूमि पर यजुर्विद यज्ञीय-स्तूपों का निर्माण
करते हैं, ब्राह्मण ऋग्वेद के मन्त्रों एवं सामवेद के मधुर गान से
परमात्मा की अर्चना करते हैं। इसी भूमि में हम मानव गाते हैं, नाचते हैं।
योद्धा युद्ध करते हैं, शोर मचाते हैं, दुन्दुभि बजाते हैं, ऐसी यह
पृथ्वी माता हमारे शत्रुओं को मार भगावें और हमें शत्रुरहित कर देवें-
‘यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति भूम्यां मर्त्या व्यैलबाः।
युध्यन्ते यस्यामाक्रन्दो यस्यां वदति दुन्दुभिः।
सा नो भूमिः प्रणुदतां सपत्नानसपन्न मां पृथिवी कृणोतु।’ (अथर्व.
12/1/41)
अथर्ववेद के अतिरिक्तं ऋग्वेद, यजुर्वेद में वर्णित राष्ट्रीयता के दिव्य भाव
हृदय आनन्द विभोर कर देते हैं।
एक देश में जन्म लेने वाले हम सब देशवासियों में एक रागात्मक सुदृढ़
बन्धुता का उदय होता है, जिससे प्रेरित होकर हम लोग छोटे-बड़े
(ज्येष्ठत्व, कनिष्ठत्वश् का भेदभाव भूलकर और सभी एक
ही धरती माता की गोद से उत्पन्न हुए हैं (पृश्निमातरःश्, ऐसा मानकर
अपनी मातृभूमि के विकास एवं रक्षा में पूर्ण शक्ति से लगने में ही गौरव
अनुभव करते हैं-
‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय।’ (ऋग्वेद
5/60/5)
अनेक पाश्चात्य चिन्तकों तथा उनके अनुगामी, भारतीय राजनीति शास्त्र के
लेखकों का विचार है कि राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता भारत को पश्चिम की देन
है, किन्तु वैदिक संहिताओं का अध्ययन करने पर, यह धारणा सर्वथा भ्रान्त
एवं मिथ्या प्रतीत होती है। वेदों में राष्ट्र की परिकल्पना स्पष्ट रूप से
उपलब्ध होती है। राष्ट्र शब्द वेद के अनेक मन्त्रों में प्राप्त होता है।
राष्ट्र के सर्वविध कल्याण के लिये राष्ट्र भृत् यज्ञ का वर्णन (यजुर्वेद
के 9.10 अध्याय में) विस्तार से किया गया है। यहां तक कि विवाह संस्कार
के अवसर पर भी राष्ट्रभृत यज्ञ का विधान किया गया है।

ॐईश्वरस्तुतिप्रार्थानोपासना- मंत्र स्वामी दयानंद सरस्वती




ईश्वरस्तुतिप्रार्थानोपासना- मंत्र
स्वामी दयानंद सरस्वती
संध्या उपासना हेतु वैदिक मनर -
ओ३म्। विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव।
यद् भ॒द्रन्तन्न॒ आ सुव ॥१॥
अर्थ – हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकत्-र्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त
(देव) शुद्धस्वरूप, सब सुखें कें दाता परतेश्वर! आभ कृपा करके (नः) हमारे
(विश्वानि) सम्पुर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुव्-र्यसन और दुःखों को (परा,
सुव) दुर कर दूजिए, (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव
आर पदार्थ है (तत्) वह सब हमको (आ, सुव) प्रप्त कीजिए॥१॥
हि॒र॒ण्य॒गर्भः सम॑वत्-र्त॒ताग्रे॑ भूतस्य॑ जातः पति॒रेक॑ आसीत्।
स दा॑धार पृथि॒वीन्ध्यामुतेमाक्ङस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम।२॥ यर्ज० १३।२
(अर्थ) – जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप आर जिसने प्रकाश करने-
हारे सुर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये है, जो (भुतस्य)
उत्पन्न हुए सम्पुर्ण जगत् का (जातः) ;प्रसिद्ध (पतिः) स्वामी (एकः) एक
ही चेतन-स्वरूप (आसोत्) था, जो (अग्रे) सब जगत् के उत्पन्न होने से
पुर्व (समवत्-र्तत) वर्तमान था, (सः) सो (इमाम्) इस (पृथिवीम्)
भुमि (उत) आर (ध्याम्) सुर्यादि को (दाधार) धारण कर यहा है, हम लोग
उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए (हविषा) ग्रहण
करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भकि्त किया करें॥
२॥
य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॒ दे॒वाः ।
यस्य॒ छा॒याऽमृतं॒ यस्य मृत्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥३॥ – यजु० २५।
११
अर्थ – (यः) जो (आतमदाः) आत्मज्ञान का दाता, (बलदाः) शरीर,
आत्मा और समाज के बल का देनेहाया, (यस्य) जीसकी (विश्वे) सब
(देवाः) विद्धान् लोग (उपासे) उपासना करते हैं, और (यस्य)
जिसका (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष, सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात
शिक्षा को मानते हैं, (यस्य) जिसका (छाया) आश्रय हू (अमृतम्)
मोक्षसुखदायक है, (यस्य) जिसका न मानना अर्थस् भकि्त न
करना ही (मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस (कस्मै)
सुस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमास्मा की लिए (हविषा)
आस्मा और अन्सःकरण से (विधेम) भकि्स अर्थात् उसी की आ
ज्ञा पालन में सस्पर रहें॥३॥
यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक इद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑ ।
य ईशे॑ऽअ॒स्य व्दिपद॒श्पदः कस्मै॑ ढे॒वाय॒ ह॒विषा॑ विधेम ॥४॥यजु० २३ ।३
अर्थ – (यः) जो (प्राणतः) प्राणवाले और (निमीषतः) अप्राणिरूप (जगतः)
जगत् का (महित्वा) अपने अनन्त महिमा से (एक इत्) एक ही (राजा)
विराजमान राजा (बभूव) है, (यः) जो (अस्य) इस (द्धिपदः) मनुष्यादि और
(चतुष्पदः) गौ आदि प्राणियों कें शरीर की (ईशे) करता है, हम लोग उस
(कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकलैश्वर्य के देहv66रे परमात्मा के (हविशा)
अपनी सकल उत्तम से (विधेम) विशेष भकि्त करें ॥४॥
येन॒ ध्यौरूग्रा पृ॑थि॒वी च॑ ढृढा येन॒ स्वॆ॒ सतभितं येन॒ नाकः॑।
योऽअन्तरि॑क्षे कज॑सो वि॒मानः कस्मै॑ देवाय॑ हविषा॑ विधेम ॥५॥ – यजु०
३२।६१
अर्थ – (येन) जिस परमात्मा ने (उग्र) तीक्ष्ण स्वभाववाले (ध्यौः) सूर्य
आदी (च) और (पृथिवी) भूमि को (दढा) धारण, (येन) जिस जगदीश्वर
(स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण, और (येन) जिस (नाकः) दुःखरहित
मोक्ष को धारण किया है। (यः) जो (अन्तरिक्षे) आकाश में (रजसः) सब
लोक-लोकान्तरों को (विमानः) विशेषमानुक्त अर्थात जैसे आकाश में
पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम
लोग उस (कस्मै) सुखदायक (देवाय) कामना करने के योग्य
परब्रहा की प्राप्-ति के लिए (हविषा) सब सामथ्-र्य से (विधेम) विशेष
भकि्त करें॥५॥
प्रजा॑पते॒ न त्वढेतान्य॒न्यो विश्वा॑ जा॒तानि परि॒ ता व॑भूव।
यत्का॑मास्ते जुहुमस्तन्नो॑ऽअस्तु व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयीणाम् ॥६॥
अर्थ – हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामी परमात्मन्! (त्वत्) आपसे
(अन्यः) भीन्न दुसरा कोई (ता) उन (एतानी) एन (विश्वा) सब (जातानि)
उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को (न) नहीं (परि, बभूव) तिरस्कार करता है
अर्थात् आप सर्वोपरि है। (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले
हम लोग (ते) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत) उस-
उसकी कामना (नः) हमारी सिद्ध (अस्सु) होवे, जिससे (वयम्) हम लोग
(रयीणाम्) धनैश्वर्य के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥६॥
सनो॒ बन्धरजनिता स विधा॒ता धामा॑नि वे॒द भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
यत्र॑ देवा अ॒मृत॑मानशा॒नास्तृतीये॒ धाम॑न्न॒ध्यैर॑यन्त ॥७॥
अर्थ – हे (प्रजापते) सब प्रजा के स्वामि परमात्मन! (त्वत) आपसे
(अन्यः) भिन्न दूसरा कोई (ता) उन (एतानि) इन (वश्वा) सब (जातानि)
उत्पन्न हए जड़-चेतनादिकों को (न) नही (परि, बभूव) तिरस्कार करता है
अर्थात आप सर्वोपरि हैं (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम
लोग (से) आपका (जुहुमः) आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, (तत्) उस-
उसकी कामरा (नः) हमारी सिद्ध (अस्तु) होवे, जिससे (वयम्) हम लोग
(रयीणाम) धनैश्वर्यो के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥८॥
अग्ने॒ नय सु॒पथा॑ रायेऽअस्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान् ।
युयो॒ध्य स्मज्जु॒हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठान्ते॒ नम॑ऽउक्तिंविधेम ॥८॥
अर्थ-(हे अग्ने) स्वप्रकाशक ज्ञानस्वरूप सब जगत् के प्रकाश करने-हारे
(देव) सकल सुखदाता परमेश्वर! आप दिससे (विव्दान) सम्पुर्ण विध्य-
युवत हैं, कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान
वा राज्यादि ऐश्वर्य कि प्राप्-ति के लिए (सुपथा) अच्छे, धर्मयुक्त, अप्त
लोगों के मार्ग से (विश्वानिं) सम्पुर्ण
(वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्-त कराइए, और
(अस्मत्) हमसे (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि)
दुर कीजिए। इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत
प्रका की स्तुतिरूप (नमउकि्तम्)
नम्रतापुर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा रिया कें और सर्वदा आनन्द में रहें। ॥
८।।
इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम