शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

पुरातन भारतवर्ष में उच्च शिक्षा के संसथान

पुरातन भारतवर्ष में उच्च शिक्षा के संस्थान

आर्य सनातन वैदिक में ज्ञान और ज्ञान - प्राप्ति  को सर्वोच्च प्राथमिकता प्राप्त है। हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रोत्साहित करता है। अन्य धर्मों के विपरीत अन्धविशवास में यक़ीन करने के बजाय हिन्दू जीवन में जिज्ञासा को स्दैव सराहा गया है। धार्मिक विषयों पर जिरह करने पर कोई पाबन्दी नहीं। यही कारण है कि आदिकाल से ही हिन्दू सभ्यता ने संसार को विज्ञान, कला और विद्या के प्रत्येक क्षेत्र में अपूर्व, मौलिक तथा प्रभावशाली योगदान दिया है।

ज्ञान अर्जित करने की परिक्रिया

पुरातन भारतवर्ष में प्राथमिक ज्ञान माता-पिता के संरक्षण और घर के वातावरण में यम-नियम और सन्ध्या आदि के दैनिक कर्मों से शुरू होता था।

गुरुकुल में ज्ञान पीढी दर पीढी मौखिक तथा लिखित माध्यम से गुरू-शिष्य परम्परा दूारा वितरित किया जाता था। भारत के ऋषि आज के गुरूओं की तरह ‘गुरू-मंत्रों’ का व्यापार नहीं करते थे कि पहले से रजिस्ट्रेशन कर के गुरू मन्त्र शिष्यों कान में पढे जायें ताकि कोई दूसरा उसी अच्छी बात को सुन ना ले। ऋषि कोई निजी समुदाय भी नहीं बनाते थे। गुरू अपने शिष्य में केवल जिज्ञासा, परिश्रम करने की लग्न और चरित्र को देखते थे।

ज्ञान का लक्ष्य तथ्यों के आँकडे इकठ्ठे करना नहीं होता था बल्कि विद्यार्थी के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना होता था जिस के तीन मुख्य अंग थेः –

   श्रवण – ध्यान पूर्वक ज्ञान को सुन कर ग्रहण करना,
    मनन – श्रृवण किये गये ज्ञान पर स्वतन्त्रता पूर्वक विचार करना, तथा
    निद्यासना - ज्ञान को जीवन में क्रियात्मिक करना।

दिूतीय स्तर पर गणित, अंकगणित, भौतिक शास्त्र तथा पृथ्वी, आकाश और गृहों का ज्ञान सम्मिलित था। स्नातकों को वेद ज्ञान में पारंगत होना पडता था।

    जो निर्धारित स्तर तक नहीं पहुँच पाते थे, उन्हें वैश्य व्यवसाय अपनाने का परामर्श दिया जाता था।
    जो दिूतीय स्तर के परीक्षण में सफल होते थे, वह और आगे उच्च शिक्षा गृहण कर सकते थे। उन्हें ऋभु कहा जाता था और वह अशविन (वैज्ञिानिकों) के साथ रह कर रथ, विमान, जलयान के आविष्कारों तथा निर्माण में अपना योगदान करते थे।
    इस के ऊपर दक्ष पारंगतों को अंतरीक्ष विज्ञान, दार्शनिक ज्ञान आदि के विशेष क्षेत्रों में आचार्य आदि की संज्ञा से सुशोभित किया जाता था।

स्नात्कों का सम्मान

विद्यालयों तथा परिशिक्षण संस्थानों में प्रमाणपत्र देने का रिवाज उस समय नहीं था, परन्तु स्नातकों का वर्गीकरण थाः-

    ‘ब्रह्मचर्य’ – प्रथम स्तर के उन ब्रह्मचारी स्नात्कों को जो 24 वर्ष की आयु तक अविवाहित रह कर शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें ‘ब्रह्मचर्य’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता था।
    ‘रुद्राई’ – 36 वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करने वाले को ‘रुद्राई’ कहा जाता था।
    ‘आदित्य’ -44 वर्ष से 48 वर्ष तक के शिक्षार्थी को ‘आदित्य’ कहते थे।

आधुनिक संदर्भ में उन्हें क्रमशः ग्रेजुऐट, पोस्ट ग्रेजुऐट और डाक्ट्रेट आदि कह सकते हैं। कालान्तर वैदिक क्षेत्र में भी दक्षता के प्रमाण स्वरूप वेदी, दिूवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी की उपाधियाँ नामों के साथ संलग्न होने लगीं। धीरे धीरे वह जन्मजात हो कर जाति की पहचान बन गयीं और उन का व्यक्तिगत योग्यता से सम्पर्क टूट गया।

ज्ञान की वैज्ञानिक प्रमाणिक्ता

वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महाकाव्यों के अतिरिक्त भारत में विद्या पढने पढाने का प्रावधान वैदिक काल से ही सक्षम मापदण्डों के आधार पर स्थापित हो चुके थे। जिस समय पृथ्वी के अन्य भागों में सभ्यता वनों से गाँवों की ओर जाने का केवल प्रयत्न मात्र ही कर रही थी उस समय से पूर्व भारत के ऋषि मुनियों, अशविनों (वैज्ञानिको) तथा बुद्धिजीवियों ने धरती को माप लिया था। उस से भी आगे उन्हों ने वर्ष को मासो, ऋतुओं, पखवाडों, दिवसों, पलों एवम विपलों (नेनो सैकिण्डों) में बाँट लिया था और आज का विज्ञान उन्हीं खोजों की पुष्टि मात्र ही कर रहा है। वेद ज्ञान केवल अध्यात्मिक मोक्ष प्राप्ति का ज्ञान ही नहीं है बल्कि विज्ञान के सभी विषय वेदों में बखान किये गये हैं। ऋगवेद के कथन अनुसार विज्ञान के ज्ञान तथा उस के प्रत्यक्ष क्रियात्मिक प्रयोग के बिना दारिद्रता को समृद्धी में बदलना असम्भव है।

आज से तीन सौ वर्ष पूर्व ऐलोपैथी नाम का कोई विज्ञान विश्व में नहीं था परन्तु आयुर्वेद पद्धति से जटिल रोगों का भी  सफल उपचार होता था। जब विश्व की अन्य मानव जातियों को पृथ्वी के महादूीपों और महासागरों के बारे में ही पूर्ण जानकारी नहीं थी और वह जानवरों की खाल पहन कर खोह और गुफाओं में रहते थे और केवल मांसाहार पर ही निर्भर हो कर डार्क ऐज में जीवन व्यतीत कर रही थी तब भी वैदिक ज्ञान की पूर्णत्या वैज्ञिानिक धारणाओं के प्रमाण लिखित रूप में भारत को ज्ञात थे, उदाहरण स्वरूप जैसे किः-

    सूर्य कभी उदय नहीं होता ना ही वह अस्त होता है। पृथ्वी सूर्य की परिकर्मा करती है जिस से सूर्योदय तथा सूर्यास्त का आभास होता है। (सामवेद 121)
    सौर मण्डल के ग्रहों में आपसी ध्रुवाकर्षण के कारण पृथ्वी स्थिर रहती है  (ऋगवेद 1-103-2,1-115-4, 5-81-2)
    पृथ्वी की धुरी को कभी ज़ंग नहीं लगता जिस पर पृथ्वी सदा घूमती रहती है। (ऋगवेद 1-164 – 29)
    ऋगवेद में समय की गति का कालचक्र दिया गया है तथा भौतिक ज्ञान, कृषि विज्ञान, खगोल शास्त्र, गणित और अंक गणित का विवर्ण है।

भारत के प्राचीन ग्रन्थों में स्वर्ग, चौदह भवनों, लोकों तथा छः महादूीपों, चार महासागरों का वर्णन मिलता है जो आज प्रत्य़क्ष रूप मे विद्मान हैं। भारत के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य की परिकर्मा के मार्ग को पहचाना, अन्य गृहों की गति की विस्तरित तथा प्रमाणित जानकारी दी और उन के पृथ्वी पर पडने वाले प्रभावों का आंकलन कर के उस ज्ञान को मानव के दैनिक जीवन की क्रियाओं के साथ जोड दिया था।

प्रत्येक धार्मिक तथा सामाजिक अनुष्ठानों मे नव गृहों का आवाहन कर के उन को पूजित करना इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि प्राचीन खगोल शास्त्री हमारे सौर मण्डल के सभी गृहों की गति, दशा, मार्ग और उन के प्रभाव को ना केवल जानते थे बल्कि उन के दुष्प्रभाव को दूर करने के उपाय भी विभिन्न प्रकार के रत्नों से करने में सक्षम थे। समस्त संसार में राशि चक्रों (ज़ोडेक साईन) का जो चित्रण भारत की जन्त्ररियों में देखने को उपलब्द्ध है वही आँकडे (डाटा) नासा की स्टार अलामेनिक में भी आज छपते हैं।

भारत के विशेषज्ञ्यों ने पदार्थों की भौतिकता, पशु पक्षियों की पैत्रिक श्रंखला, और वनस्पतियों तथा उन के बीजों का भी पूर्ण आँकलन किया था। वाल्मिकि रामायण में सभी जीवों की उत्पति तथा श्रंखला का विवरण दिया गया है जो पूर्णत्या विवेक संगित है और डारविन को भी अपनी खोज पर पुनः विचार करने की सलाह दे सकता है।

विज्ञान, चिकित्सा, तथा गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारत की देन अदिूतीय है। भाषा, व्याकरण, धातु ज्ञान, रसायन, तथा मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में भारत का योगदान सर्वाधिक है। यह तथ्य उस काल के हैं जब यूनान के दार्शनिक अरस्तु (एरिस्टोटल), सुकरात (सोक्रेटस), अफलातून (प्लेटो) आदि पैदा भी नहीं हुये थे लेकिन पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के विचार में उन्हें ही आधुनिक ज्ञान विज्ञान का जन्मदाता कहा जाता है। .          

उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठान

प्राचीन भारत में शिक्षा के संस्थानों को गुरुकुल, आश्रम, विहार तथा परिष्द के नाम से जाना जाता था। ऐसे संस्थान देश भर में फैले हुये थे। राज तन्त्र की सहायता से विद्यार्थियों को बिना शुल्क परिशिक्षण तथा रहवास की सुविधायें प्राप्त थीं। उच्च शिक्षा के लिये तक्षशिला, काशी, विदर्भ, अजन्ता, नालन्दा, तथा विक्रमशिला (मगद्ध) में विश्विद्यालय थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। उच्च कोटि के आचार्यों, शिक्षकों, स्नातकों के नाम इन विश्वविद्यालयों से जुडे हुये हैं जिन में से व्याकरण रचिता पाणनि, शल्य चिकित्सा शास्त्री चरक, तथा नीतिज्ञ विष्णुगुप्त चाणक्य विश्विख्यात हैं। यह सभी अपने अपने ज्ञान क्षेत्रों मे यूनान तथा पाश्चात्य जगत के बुद्धि जीवियों के अग्रज थे। कुछ विश्वविख्यात विश्विद्यालय इस प्रकार थेः-

    तक्षशिला - ईसा के जन्म से सात सौ वर्ष पूर्व विश्व का प्रथम विश्विद्यालय तक्षशिला में स्थापित किया गया था। यह हिन्दू स्नात्कों का अग्रगामी शैक्षिक प्रतिष्ठान था। सिकन्दर महान के समय से पूर्व ही यह चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में ऐक  ख्याति प्राप्त केन्द्र था। तक्षशिला में 10500 स्नात्कों के रहने का प्रबन्ध था तथा वहाँ 60 प्रकार के विषयों मे उच्च शिक्षा की व्यव्स्था थी। मुख्यता धर्म, नीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, विज्ञान, गणित, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, राजनीति तथा संगीत शास्त्र में निपुणता प्राप्त करने हेतु  बेबीलोन, यूनान, इराक, अरब, ईरान, सीरिया तथा चीन के छात्र आते थे।
    विक्रमशिला – मगद्ध में गंगा तट पर स्थित विक्रमशिला प्रतिष्ठान खगोल शास्त्र के लिये प्रसिद्ध था। वहां 8000 शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। यह विश्वविद्यालय चार सौ वर्ष तक फलता रहा। महाकवि कालीदास नें वहाँ के प्रशिक्षण के बारे में उल्लेख किया है तथा वहाँ काण्व ऋषि प्रकख्यात प्राचार्य कुलपति (वाईस चाँसलर) थे।
    अजन्ता – अजन्ता प्रतिष्ठान कला तथा वास्तु शास्त्र के लिये विश्व विख्यात था तथा आज भी वहाँ की भव्य कला कृतियाँ प्रमाण स्वरूप दर्शनीय हैं।
    नालन्दा - नालन्दा विशवविद्यालय की स्थापना ईसा के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी तथा भारत में शिक्षण क्षैत्र का यह ऐक अदिूतीय कीर्तिमान था। अपने जीवनकाल में महात्मा बुद्ध कई बार नालन्दा गये थे। सातवी शताब्दी में चीनी यात्री ऐवम बुद्धिजीवी फाह्यान भी नालन्दा में ठहरे थे तथा उन्हों ने वहाँ के .योगियों के पवित्र, सरल, कुशल प्रशिक्षण पद्धति का विस्तरित वर्णन अपने उल्लेखों में दिया है। नालन्दा में लगभग 2000 शिक्षक तथा विश्व भर के समस्त बुद्ध देशों से 10000 शिक्षार्थी रहते थे और यह विश्व स्तर का प्रतिष्टान था। यहां के प्राचार्यों में नागार्जुन, आर्यदेव, वसुभान्दु, असंगा, स्थिरमति, धर्मपाल, शिल्प्हद्र, शान्तिदेव, तथा पद्मसम्भव जैसे प्रकाणड विदूान उल्लेखनीय हैं।
    ओदान्तपुरी - ओदान्तपुरी विशवविद्यालय भी नालन्दा के निकट था जिसे महाराज गोपाल ने स्थापित किया था जहाँ 12000 शिक्षार्थी शिक्षा पाते थे। मुस्लिम आक्राँताओं ने इस के चारों ओर बनी ऊँची चार दिवारी के कारण विशवविद्यालय को दुर्ग समझ कर ध्वस्त कर दिया और स्नातकों तथा आचार्यों को मार डाला।
    जगद्दाला – जगद्दाला विशवविद्यालय राजा देवपाल (810-850) ने स्थापित किया था जहाँ बुद्धमत की तान्त्रिक पद्धति की शिक्षा दीक्षा होती थी। 1027 में मुस्लिम आक्राँताओं ने इसे ध्वस्त कर दिया था।
     वल्लभी – वल्लभी विशवविद्यालय में बौध ह्यीनयान मत के अतिरिक्त राजनीति, कृषि, अर्थशास्त्र, और न्याय शास्त्र के पाठ्यक्रम की शिक्षा का प्रावधान था। इसे मैत्रिका वंश के राजाओं ने स्थापित किया था।

विश्व ज्ञान को योगदान

आज हम आक्सफोर्ड, कैमब्रिज और हारवर्ड आदि विश्वविद्यालयों के नाम से प्रभावित हो कर भूल जाते हैं कि भारत में उन से भी भव्य विश्वविद्यालय थे। गुप्त वँश के सम्राटों ने भी बहुत से शिक्षा प्रशिष्ठानों को संरक्षण दिया तथा सम्राट अशोक और हर्ष वर्द्धन ने भी अपने शासन काल में मोनास्टरियों को संरक्षण प्रदान किया था।

भारत के विश्वविद्यालयों का मानव ज्ञान के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। वहाँ के स्नात्कों, आचार्यों तथा बुद्धिजीवियों ने विद्या, कला और विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अमूल्य तथा मौलिक योग दान दिया है जिस का प्रयोग आधुनिक वैज्ञानिक मानव विकास के लिये आधुनिक तकनीक और उपक्रमों से कर रहे है। कला और विज्ञान के हर क्षेत्र से सम्बन्धित मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये थे जिन में से अधिकाँश आज भी उप्लब्द्ध तथा प्रासंगिक हैं।

दुर्भाग्य से शिक्षा के कई महान संस्थान धर्मान्धता के कारण मुसलिम लुटेरों ने ध्वस्त कर दिये। उन्हों ने सभी मोनास्टरीयों को और शिक्षण परिष्ठानों को नष्ठ कर डाला था। नालन्दा विश्वविद्यालय को 1193 में बख्तियार खिलजी ने जला दिया था और वहाँ के सभी बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। उसी प्रकार अन्य विश्वविद्यालय विनाशग्रस्त हो गये। मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे ‘कुफर’ की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। आज नालन्दा विशवविद्यालय को पुनर्स्थापित करने का विचार अवश्य ही सराहनीय है

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