मंगलवार, 24 सितंबर 2013

पुरातन भारतीय परंपरा के अनुसार राष्ट्र की अवधारणा

पुरातन भारतीय परम्परा के नुसार राष्ट्र की वैज्ञानिक अवधारणा

पुरातन भारतीय परम्परानुसार जिस प्रकार एक जीवात्मा का निवास एक शरीर में होता है और परमात्मा का निवास इस विशाल ब्रह्मांड में है, ठीक उसी प्रकार देश एक शरीर है तो राष्ट्र उसकी आत्मा है। देश भौतिक तत्व है, दृश्यमान है, स्थूल है, दीखता है। जबकि राष्ट्र अदृश्य है, सूक्ष्म है, दीखता नही है। देश सभ्यता है, तो राष्ट्र संस्कृति है। देश भौतिक है तो राष्ट्र एक आध्यात्मिक विचार है। देश को आध्यात्मिक विचार से या सांस्कृतिक मूल्यों से ही महान बनाया जा सकता है। भारत कभी विश्वगुरू था तो केवल अपने उत्तुंग राष्ट्रीय आध्यात्मिक भावों के कारण ही था। भौतिक विकास को हमारे यहां इतिहास के लेखन के योग्य नही माना जाता था।
हमारे पूर्वजों ने इतिहास में संस्कृति का और धर्म का ऐसा सम्मिश्रण किया कि इतिहास भी संस्कृति का पर्याय बन गया। रामायण, महाभारत, गीता उपनिषद इत्यादि में जब इतिहास देखा जाता है तो इन सांस्कृतिक ग्रंथों का अमृतरस निचोड़ने पर आनंद ही आनंद आता है।

सुर-असुर संग्राम इतिहास की पहेली
भारतीय परंपरा में इतिहास लेखन सदा ‘सत्यमेव जयते’ और ‘शस्त्रमेव जयते’ की परंपरा का उद्घोषक रहा है। हम मौलिक रूप से अहिंसा को धर्म का एक अंग स्वीकार करते हैं, परंतु उस धर्म की भी अपनी सीमाएं हैं। भानुप्रताप शुक्ल लिखते हैं-’कुछ लोग और विशेषकर छद्म सैकूलरिस्ट इस पर प्रश्न करेंगे या कर सकते हैं कि यदि हिंदू लोक जीवन और हिंदुत्व इतना सर्वव्यापक इतना उदार और इतना सर्वसमावेशक है तो बीच-बीच में दूसरे मतों के साथ उसके टकराव और संघर्ष क्यों होते रहते हैं? यह प्रश्न अनुभव जन्य है तो इसका उत्तर भी अनुभव जन्य ही होगा कि यदि कोई किसी संत, ऋषि या आचार्य के आश्रम पर आक्रमण करके उसका यज्ञ ध्वंस करने का प्रयास करे तो वह ऋषि या आचार्य क्या करे? यदि कोई शांति और मानवता की प्रयोगशाला को तोड़ने लगे, तो उसकी रक्षा की जाए कि नहीं? यदि कोई किसी नारी का शीलहरण करता हो, लोक मर्यादा तोड़ रहा हो, शुचिता को नष्टï और पवित्रता को भ्रष्ट कर रहा हो, लूट मार कर रहा हो तो उसे रोका टोका जाए कि नहीं? यदि नही तो अमानुषी प्रवृत्तियां मानुष जीवन को नष्टï कर देती हैं या कर देंगी, तो क्या होता या क्या होगा? यही है सुर असुर संघर्ष और संग्राम का मूल कारण।’
हम इससे आगे बढ़कर कहते हैं कि भारत की सत्यमेव जयते और शस्त्रमेव जायते की इतिहास परंपरा का रहस्य भी यही है। जो इस रहस्य को समझ लेता है वो जान लेता है कि सुरासुर संग्राम सनातन है और इस संघर्ष के प्रति राष्ट्र को या राष्ट्रवासियों को कभी भी प्रमाद का प्रदर्शन नही करना चाहिए। अतिवादियों या आतंक वादियों के प्रति सदा ही शक्ति प्रदर्शन करना उचित होता है। राष्ट्र ऐसे अतिवादियों के प्रति दृढ़ता दिखाने के लिए संकल्पबद्घ होता है, और यह संकल्पबद्घता जैसे एक व्यक्ति का अपने प्रति अत्याचार करने वाले के विरूद्घ एक हथियार है, वैसे ही राष्ट्र का भी एक हथियार है और एक संस्कार भी है।
राष्ट्र एक सजीव शरीर है
इतिहास की गंगोत्री राष्ट्र है। इतिहास की गंगा कहीं भी जाकर विलीन नही होती है अर्थात उसके लिए कोई हुगली जैसा स्थान नही है जहां गंगा समुद्र में जा मिलती है। इतिहास की गंगा तो राष्ट्र के अतीत की गंगोत्री से उठती है, वर्तमान की छाती पर प्रवाहित होती है और अनंत भविष्य के लिए प्रवाहमान रहने का संदेश देती रहती है।
हमारे परमज्ञानी महामानव ऋषियों ने राष्ट्र को एक सजीव शरीर माना था। जैसे शरीर में शरीर, मन, बुद्घि व आत्मा का समन्वय है, वैसे ही राष्ट्र में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। व्यवस्थापिका एक शरीर है, कार्यपालिका मन है, और न्यायपालिका बुद्घि है। जैसे शरीर में  शरीर मन व बुद्घि से परे आत्मा होती है जो कि चेतन है, वैसे ही राष्ट्र में व्यवस्थापिका कार्यपालिका और न्यायपालिका से ऊपर राष्ट्रपति होता है। वह राष्ट्र का स्वामी भी है और सबसे बड़ा सेवक भी है।
वेद भी त्रयी विद्या-ज्ञान, कर्म और उपासना है। ज्ञान व्यवस्थापिका के सदस्यों के लिए आवश्यक है वह अपने अपने क्षेत्रों के लोगों की मौलिक समस्याओं, राष्ट्र की आवश्यकताओं व अपेक्षाओं से भली प्रकार परिचित होने चाहिएं। इन ज्ञानशील लोगों से उच्चतर स्थिति कर्मशील लोगों की है, जो कि कार्यपालिका में होते हैं। इसके पश्चात उपासना (ईश्वर के समीप आसनस्थ हो जाना) है। मानो ईश्वर की भांति पूर्णत: न्यायशील होकर न्यायपालिका के कार्यों को पूर्ण करना।
भारत ने इसी परंपरा के बल पर प्राचीन काल में उन्नति की थी और विश्व को राष्ट्र की वैज्ञानिक अवधारणा प्रदान की थी। उसी महान खोज ने भारत को सांस्कृतिक रूप से समृद्घ किया और वह ‘विश्वगुरू’ कहलाया था। भारत का यह सांस्कृतिक समृद्घशाली स्वरूप ही उसका सनातन धर्म है। इस  प्रकार धर्म और राष्ट्र भी अन्योन्याश्रित हैं। ये दोनों एक दूसरे के बिना जीवित ही नही रह सकते। स्वामी विवेकानंद हों चाहे स्वामी दयानंद हों या योगी अरविंद जिस जिसने भी भारत के सत्य सनातन धर्म के पुनरूस्थान की या भारत के जागरण की बात कही, उस उसने ही भारत के पुन: विश्वगुरू बनाने का संकल्प लिया। इसीलिए योगी अरविंद ने कहा था-मैं इसे आज पुन: कहता हूं….मैं कभी नही कहता कि राष्ट्रीयता एक जाति, पंथ या एक धार्मिक मत है, मैं कहता हूं कि हमारे लिए सनातन धर्म ही राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद है।
वेद का उपदेश है….
येन देवं सवितारं परि देवा अधारयन्।
तेनेमम ब्रह्मïणस्पते परि राष्ट्राय धत्तन।। (अ. 19 /24/1)
इस मंत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी वेदानंद तीर्थ जी अपनी पुस्तक ‘स्वाध्याय संदोह’ में लिखते हैं-कोई सज्जन अपना जन-धन राष्ट्र को अर्पण करने की भावना से राष्ट्ररक्षक के पास आया है और कह रहा है कि इमं…..परि राष्ट्राय धत्तन-इसे राष्ट्र के लिए धारण करो।
कई लोगों का विचार है कि वेद में राष्ट्रनिर्माण की कल्पना है ही नही। ऐसा कहने वाले वेद को देखे बिना ऐसा कहते हैं। वेद में राष्ट्रकल्पना और वह अत्यंत उदात्त तथा ऊंचे दर्जे की है। यजुर्वेद के दशम अध्याय के पहले चार मंत्रों में तो मानो राष्ट्र की मुहारनी ही है। यजुर्वेद 22/22 राष्ट्र में क्या क्या होना चाहिए। इसका संक्षिप्त किंतु प्रांजल वर्णन है। अथर्ववेद के 12वें काण्ड का पहला संपूर्ण सूक्त (वर्ग) मातृभूमि विषयक है। ऋग्वेद का 1/80 सूक्त स्वराज्यपरक है। इन मंत्रों में जो विचारतत्व है वे इतने गंभीर और विमलभावों से भरे हैं कि उनके अनुसार आचरण मानव समाज के सभी दुखों को मिटा सकता है। वेद सदा उत्तम राष्ट्र की भावना का प्रचारक है। यथा-सा नो भूमि स्विार्षि बलम राष्ट्रे दूधातूत्तमे (अ. 12/128) वह हमारी भूमि मातृभूमि उत्तम राष्ट्र में कान्ति तथा शक्ति धारण करे। वेद काव्य है अत: कविता की भाषा में उपदेश करता है। देशवासियों के स्थान में भूमि मातृभूमि से कान्ति और शक्ति धारण करने की प्रार्थना की गयी है। उस कान्ति और शक्ति धारण करने का प्रयोजन उत्तम राष्ट्र है। यदि वेद के उत्तम राष्ट्र के निर्माण के संकल्प को अपनाया जाता तो विश्व में पिछले दो हजार वर्षों से सम्प्रदाय के आधार पर जो रक्तिम क्रांतियां या युद्घ हुए हैं वो ना हुए होते। क्योंकि वेद का राष्ट्रवाद शुद्घ सांस्कृतिक है, आध्यात्मिक है। इसीलिए आज तक भी विश्व शांति की सर्वाधिक सुंदर अवधारणा केवल भारत के पास है।
राष्ट्र निर्माण के लिए क्या अपेक्षित है?
यजुर्वेद (22/22) कहता है -
ओउम्। आ ब्रह्मन ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्य: शूर इषव्योअति व्याधि महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढाअनअवानाशु: सप्ति: पुरन्धि योषा जिष्णु : रथेष्ठा: सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न औषधय: पच्यन्तां योग क्षेमो न: कल्पताम्।
यहां बताया गया है कि कोई भी राष्ट्र तभी समृद्घ हो सकता है जब उसमें ब्रह्मïवेता तत्वदर्शी ब्राह्मïण हो, बौद्घिक संपदा के धनी वैज्ञानिक हों, सकल विज्ञानों की शिक्षा देने वाले महाचार्य्य हों। जहां ऐसे विद्वान लोग या वैज्ञानिक नही होंगे वह राष्ट्र अज्ञान के अंधकार में फंसकर अपनी स्वतंत्रता को ही खो बैठेगा। इसीलिए वेद ने राष्ट्र संचालकों से ये अपेक्षा की है कि प्रामाणिक विद्वानों को सदा प्रोत्साहित करना, उन्हें सदा संरक्षण प्रदान करना। इसी से नये नये आविष्कार होंगे और राष्ट्र समृद्घि को प्राप्त करेगा। अतार्किक और विज्ञान विरूद्घ बातें करने वाले लोग हो सकता है कि विद्या व्यसनी हों, परंतु वे कभी भी राष्ट्र निर्माता नही हो सकते। इसी मंत्र में वेद ने ब्रह्मï शक्ति को यदि राष्ट्र निर्माण के लिए अपेक्षित माना है तो राष्ट्र रक्षा के लिए शस्त्रास्त्र व्यवहार में निपुण शत्रु को कंपा देने वाले महारथी और शूरवीर योद्घाओं के होने की बात भी कही है। राष्ट्र सचमुच शास्त्र और शस्त्र के उचित समन्वय से ही समृद्घ बनता है। इसी प्रकर देश में दुधारू गौओं यातायात के साधनों की-घोड़े, बैल इत्यादि की भरमार होने तथा अन्नादि के होने की बात भी कही है। स्पष्टï है कि राष्ट्र में वैश्य वर्ग भी ऐसा होना चाहिए जो संपन्न हो, समृद्घ हो। स्त्रियां बुद्घिमती हों, सारी शिक्षाओं को ग्रहण करने का उनका अधिकार हो, संतान बलशाली हो, अतिवृष्टिï या अनावृष्टिï कभी ना हो। कभी दुर्भिक्ष ना पड़े। सभी को आजीविका कमाने में किसी प्रकार की बाधा ना हो अर्थात शूद्र वर्ण के लोगों की स्वतंत्रता भी निर्बाध हो, समय पर सारी फसलें पकें।
वेद ने कहीं पर भी शूद्र को दास बनाकर रखने की बात नही की है। शूद्र भी संपन्न हो और उसे भी ब्राह्मïण बनने का अधिकार हो, इसके लिए वेद ने राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित की है, और योगक्षेमकारी स्वाधीनता के होने की बात की है। योगक्षेमकारी स्वाधीनता की बात को अथवा इसके अर्थ को अथवा रहस्य को विश्व की कोई भी विचारधारा समझ नही पाई, इसलिए मनुष्य ने मनुष्य को ही अपना दास बनाकर रखना चाहा, जिससे दास प्रथा का चलन आरंभ हुआ और अंत में उपनिवेशवादी व्यवस्था विकसित हुई। जिसने विश्व को महायुद्घों में झोंक दिया। तब इस व्यवस्था के खिलाफ  आवाज उठी तो  यूएनओ जैसी विश्व संस्थाओं का जन्म हुआ। परंतु शोषण तो आज भी जीवित है। स्पष्टï है कि पश्चिमी विचारक आज भी योगक्षेम का अर्थ नही समझ पाए हैं। जिन लोगों ने विश्व में समानता और भाईचारे की ऊंची ऊंची डीगें मारी हैं उन्होंने ही विश्व में दास प्रथा को चलाकर असमानता और शोषण को बढ़ावा दिया है। हमने अपना आदर्श वेद खो दिया तो हम भी राह से भटक गये। भविष्य में राह केवल वेद के सन्मार्ग दर्शन से ही मिलेगी।
मिश्रित संस्कृति कभी नही होती
भारत में मिश्रित संस्कृति की बातें करने वाले भी बहुत हैं। ऐसी उधारी मानसिकता से ग्रस्त इन लोगों ने भारत के इतिहास को भी इसी रूप में लिखने का या प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। परंतु मिश्रित संस्कृति की बातें नितांत भ्रामक और मूर्खतापूर्ण है। क्षितीश वेदालंकर जी लिखते हैं :-
भूभाग तो राष्ट्र का शरीर मात्र है, उसकी आत्मा तो है उसकी संस्कृति। ऋषि दृष्टि में वह संस्कृति है-वैदिक संस्कृति अर्थात वेद पर आधारित संस्कृति। अन्य राष्ट्रचेत्ता व्यक्ति उसे भारतीय संस्कृति या सम्मिश्र कहते हैं। इनके अनुसार इस देश में केवल आर्य संस्कृति नही अनार्य,मुगल और आंग्ल संस्कृतियों का भी घालमेल है, इसलिए केवल वैदिक संस्कृति या वेद की बात करना अनुचित है, पर मैं इससे असहमत हूं।
मेरा तर्क  है-गंगोत्री और गोमुख से निकलने के पश्चात गंगा ज्यों ज्यों आगे बढ़ती है त्यों त्यों उसमें अन्य नदी नाले, कारखानों के उच्छेष और तटवर्ती नगरों के मलमूत्र से भरे गंदे नाले भी गिरते चले जाते हैं। कलकत्ता पहुंचकर तो उसका नाम ही बदल जाता है वहां वह हुगली कहाती है। पर प्रदूषण तो प्रदूषण है। रंगरूप स्वच्छता, तासीर और नाम बदल जाने पर भी वह तब तक गंगा ही रहेगी जब तक गंगोत्री का स्रोत अक्षुण्ण है। इस लिए जिसे हम सम्मिश्र संस्कृति कहते हैं, वह तो प्रदूषण की परिचायक है। असली संस्कृति तो वैदिक संस्कृति है, वही इस भूखण्ड में चैतन्य भरती है।
संस्कृति कहती है कि एक दूसरे के अधिकारों का स्वेच्छया सम्मान करो और चार्तुवर्ण मिलकर राष्ट्र का निर्माण करो। संस्कृति में किसी का तुष्टिïकरण नही है , अपितु सबके अधिकारों का पुष्टिïकरण है, इसलिए राष्ट्र तुष्टिïकरण से दुर्बल होता है और पुष्टिïकरण से सबल होता है। इसी प्रकार संस्कृति में किसी के लिए आरक्षण नही है अपितु सबके लिए समान संरक्षण है। राष्ट्र आरक्षण से दुर्बल और संरक्षण से सबल होता है। सम्मिश्र संस्कृति ने राष्ट्र की चादर को तुष्टिïकरण और आरक्षण के नाम पर टुकड़े टुकड़े कर दिया है, जिससे राष्ट्र दिन प्रतिदिन दुर्बल होता जा रहा है।
जैसे मेरा हाथ मैं नही हूं, मेरा कान मै नही हूं, मेरी आंख मैं नही हूं वैसे ही आरक्षण और तुष्टिïकरण के लिए लड़ रहे विभिन्न सम्प्रदाय राष्ट्र नही होते। राष्ट्र तो हमारी सामूहिक सदिच्छा और सामूहिक अंतश्चेतना का नाम है, जो हमें एक दूसरे के अधिकारों का स्वभावत: सम्मान करने हेतु प्रेरित और बाध्य करती है। दूसरे के अधिकारों को छीनने के लिए आतुर कोई भी इच्छा या चेतना कभी सामूहिक नही हो सकती। हां, वह वर्गीय अथवा अवश्य साम्प्रदायिक हो सकती है। इसलिए जो लोग सामूहिक सदिच्छा को या सामूहिक अन्तश्चेतना को उपेक्षित ओढ़कर अपने अपने अधिकारों के लिए लड़ते झगड़ते हैं और राष्ट्र की मुख्यधारा को बाधित करते हैं वो राष्ट्र्र प्रेमी ना होकर राष्ट्रघाती या आतंकी होते हैं।

इसीलिए महाभारत (अ. 145) में कहा गया है कि शासक को चाहिए कि भयातुर मनुष्यों की भय से रक्षा करे, दीन दुखियों पर अनुग्रह करे, कर्त्तव्य अकर्त्तव्य को विशेष रूप से समझे, तथा राष्ट्र हित में संलग्न रहे। सबको यह कामना करनी चाहिए कि राष्ट्र में पवित्र आचरण वाले ब्रह्म तेज धारण करने वाले विद्वान उत्पन्न हों और शत्रुओं को पराजित करने वाले महारथी बलवान उत्पन्न हों।यहां शत्रु से अभिप्राय राष्ट्रवासियों के सामूहिक अधिकारों में व्यवधान उत्पन्न कर अपने अधिकारों को वरीयता देने वाले लोगों अथवा लोगों के समूह से है। वस्तुत: हमारा राजधर्म यही था। जिन लोगों ने भारत में राष्ट्र की अवधारणा के न होने की भ्रांति पाल रखी है वो तनिक मनु स्मृति (81345, 346) के इस श्लोक पर भी ध्यान दें :-

वग्दुष्टा तस्कराच्चैव दण्डेनैव च हिंसात:।

साहसस्य नर: कर्त्ता विज्ञेय: पापकृत्तम:।।

साहसे वर्तमानंतु यो मर्षमति पार्थिव:।

स विनाशं ब्रजज्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति।।

अर्थात जो राष्ट्र के लिए अपमान जनक शब्द बोलता है, शस्त्रास्त्रों की या नशीले पदार्थों की तस्करी करता है, और निर्दोषों की हत्या करता है, ऐसे दुस्साहसी आतंकवादी को सबसे बड़ा पापी समझना चाहिए। जो राजा (आज के परिप्रेक्ष्य में- प्रधानमंत्री) ऐसे लोगों को सहन करता है, वह शीघ्र ही विनाश को प्राप्त हो जाता है, और प्रजा में अपने लिए द्वेष तथा घृणा पैदा करता है।

मनुस्मति में ही कहा गया है कि जब राजा राजकाज की उपेक्षा करता है तो वह कलियुग होता है, और जब वह साधारण रूप से कार्य करता है तब द्वापर होता है। जब राजा सदा राज्य और प्रजा के हित में लगा रहता है तब त्रेतायुग कहलाता है, और जब राजा सभी कार्यों को तत्परतापूर्वक करते हुए अपनी प्रजा के सुख-दुख में सम्मिलित होता है तब वह सतयुग कहलाता है। वस्तुत: राजा ही युग बनाता है, इस प्रकार राजा युग-निर्माता होता है। इसीलिए भारत में वास्तविक राष्ट्रपुरूषों को अब तक ‘युग-निर्माता’ कहने की परंपरा रही है।

राष्ट्र निर्माता युग निर्माता होता है।

उपरोक्त प्रमाणों से सिद्घ होता है कि राष्ट्र निर्माता ही युग निर्माता होता है। राष्ट्रनिर्माण और राष्ट्रधर्म की उपरोक्त सुंदर झांकी से उत्तम विचार विश्व के किसी भी देश के पास नही है। जिन इतिहासकारों ने हम भारतीयों के विषय में यह धारणा रूढ़ की है कि यहां राष्ट्रीय भावना का सदा लोप रहा है, वो असत्य कथन के अपराधी हैं। जिस राष्ट्र में राष्ट्र के लिए अपमान जनक शब्द बोलने वालों तक को सहन न करने की घोषणा की गयी हो, वहां से उत्तम राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय भावना भला कहां हो सकती है? यही कारण था कि जब कासिम, गजनवी और गौरी जैसे विदेशी आक्रांता यहां आए तो अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को बचाने के लिए इस देश की राष्ट्रवादी जनता ने 1235 वर्षों का रक्तिम संघर्ष किया। इसके उपरांत भी 1235 वर्षों के इस रक्तिम संघर्ष को विस्मृत कर स्वतंत्रता दिलाने का सारा श्रेय गांधी की अहिंसा को दे दिया जाए तो अपनी राष्ट्रीय भावना के साथ इससे बड़ा छल कोई और नही हो सकता?

हमने वचन भंग किया है

गांधी की अहिंसा को अपनी स्वतंत्रता का एकमेव कारण घोषित कर हमने विश्व समाज से किये गये अपने एक वचन को भंग किया है, और यह वचन था कि हम विश्व को वैश्विक शांति और व्यवस्था की नई दिशा देंगे, और विश्व को अपने आदर्शों से परिचित कराके नया बोध कराएंगे। स्वतंत्रता मिलने पर नेहरू जी ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए यह वचन राष्ट्र की ओर से दिया था। परंतु गांधी की अहिंसा ने हमें अत्याचार और शोषण को सहन करने की ओर प्रेरित किया। आश्चर्य  है कि जिस देश की आत्मा ने 1235 वर्षों तक अत्याचार और शोषण के विरूद्घ अपनी आवाज को कभी शांत नही होने दिया, वह देश 66 वर्षों में ही अपना ‘राष्ट्रधर्म’ भूल गया।

श्री अरविंद जी ने 11 जून 1908 को ‘वंदेमातरम्’ पत्रिका में स्वदेशी लेख में लिखा था-’विदेशी शक्तियों द्वारा भारत के शोषण के विरोध के राष्ट्रीय और वैश्विक दोनों ही पक्ष हैं। राष्ट्रीय आयाम यह है कि भारत को पर्याप्त अन्न, मकान और दूसरी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त साधन चाहिए, जिससे यह देश और इस देश के लोग अपना विकास भली भांति कर सकें। वैश्विक पक्ष यह है कि भारत का पूरी मनुष्यता से वायदा है और वह है अध्यात्म के आधार पर नई व्यवस्था प्रस्तुत करना। यह आध्यात्मिक आधार समाजशास्त्रियों और राजनीति के पंडितों को नये क्षितिज कर लाएगा।’

सचमुच हमने मानवता के प्रति और अपने ‘विश्वगुरू’ की आत्मा के प्रति वचन भंग किया है। फलित विडंबनावश हम उसे शेष विश्व के सामने प्रस्तुत करने में ही लज्जा का अनुभव कर रहे हैं। यह राष्ट्र की हत्या है, राष्ट्र के मूल्यों की हत्या है। गर्व के स्थान पर शर्म, शोक और ग्लानि का विषय है।

गांधी को भी समझो

गांधी का राष्ट्रवाद भी समझने योग्य है। 1947 में जब पाकिस्तानी कबायलियों के रूप में पाक सेना ने भारत के कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था तो सरदार पटेल ने गांधी जी से कहा कि बापू अब आपका क्या विचार है? क्या सीमा पर कुछ चरखे सीमाओं की सुरक्षार्थ भेज दिये जाएं, या अहिंसा के स्थान पर हिंसा को अपनाया जाए? तब गांधी जी ने कहा था कि अहिंसा का अर्थ कायरता नही है-आज निश्चय ही करो या मरो की नीति पर काम करने का अवसर उपस्थित हुआ है?

हां, यह बात सत्य है कि गांधी को ‘करो या मरो’ का रहस्य अपने जीवन के अंतिम समय में समझ में आया। जबकि ये देश तो इस ‘करो या मरो’ के संकल्प को 1235 वर्षों से अपना राष्ट्रीय संकल्प बनाकर चल रहा था। एक ऐसा संकल्प जिसे विश्व के किसी भी देश ने इतनी देर तक अपना राष्ट्रीय संकल्प नही बनाया।

भारत में राष्ट्रीय भावना नही थी, ऐसी धारणा में जीने वाले ‘चुल्लू भर पानी में डूब मरें।’ तथ्यों की कहां तक उपेक्षा करोगे?

4 मई 1907 को दक्षिण अफ्रीका प्रवास के समय गांधी जी ने भी कहा था-

हिंदुस्तान एक ईश्वरीय उद्यान है (जिसे वेदों ने और आर्य साहित्य ने देव निर्मित देश कहा है, आध्यात्मिक राष्ट्र कहा है, उसे गांधीजी  ईश्वरीय उद्यान कह रहे हैं तो अंतर क्या है-कुछ नही, अपनी पुरातन मान्यता पर ही तो बल दे रहे हैं) खुदा का बनाया बगीचा है। इस बगीचे में सुंदर रमणीय झरने हैं। पवित्र नदियां हैं, और बड़े-बड़े तपस्वी पुरूषों द्वारा पवित्र बनाये गये वन और उपवन उपलब्ध हैं। हिंदुस्तान की रज मेरे लिए पवित्र है।

हिंदुस्तान में जन्मे अनेक वीर और पवित्र पुरूषों का रक्त मेरी नसों में बहता है। हिंदुस्तान में जन्मे ऐसे महापुरूषों की हड्डियों से ही मेरी हड्डियां बनी हैं।……….हर एक नर नारी को हिंदुस्तान के लिए अपनी जान और अपनी जायदाद कुरबान करनी चाहिए। हिंदुस्तानी भाई बहनों की सेवा ही मेरे जीवन का उद्देश्य है, और वही मेरा आधार है। इसलिए हे भारत माता तेरी सेवा करने में तू मेरी सहायता करना।

इस कथन में गांधी जी भारत के सनातन राष्ट्रधर्म को नमन कर रहे हैं, और इस राष्ट्र की पुरातन परंपरा के सामने नत मस्तक हैं। त्रुटि हमने की है कि इस देश को 15 अगस्त 1947 को जन्मा हुआ मान लिया। इससे पीछे यह क्या था, कैसा था, इसका इतिहास क्या था, क्या इस की परंपराएं थीं? ये सोचने का ही समय नही निकाला। बीते 15 अगस्त 2013 पर फेसबुक पर कई लोगों ने ‘हैप्पी बर्थ डे इंडिया’ का संदेश देकर अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन किया, और खेद का विषय है कि यह अज्ञानता दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।

आज राष्ट्र गा रहा है-

मैं मूरख फल कामी….

क्षितीश वेदालंकर अपनी पुस्तक ‘चयनिका’ में पृष्ठ 112 पर लिखते हैं-यह अस्तित्वकाय जितना दृश्यमान जगत है, उसके सबसे उच्च शिखर पर यदि कोई आसीन है, तो वह ‘मैं’ हूं, ‘मैं’ उत्तम पुरूष हूं, ‘मैं’ पुरूषोत्तम हूं, ‘मैं’ नर के रूप में नारायण हूं, ‘मैं’ शक्ति का भण्डार हूं।

परंतु पौराणिक काल में अवैदिक विचारधारा भारत में फेल गयी। उसी समय सर्वत्र इस भावना का प्रसार हुआ।

पापोअहं पापकर्माहं पापात्मा पापसंभव:।

अर्थात मैं पापी हूं, पाप कर्म करने वाला हूं, पापात्मा हूं, और पाप के कारण ही मेरा जन्म हुआ। जो उत्तम पुरूष और पुरूषोत्तम था, उसकी  इतनी अवमानना, उसका इतना पतन? समस्त वेदों और उपनिषदों में ऐसा एक भी वाक्य नही आया जिसमें मनुष्य के जन्म को पापमूलक बताया गया हो, जिसमें उसका इस प्रकार अपमान किया गया हो, जो अमृत का पुत्र है (श्वन्तु सर्वे अमृतस्य पुत्रा:) वह पाप की संतान कैसे हो गया?

…मनुष्य जनम को पाप मूलक मानने की प्रवृत्ति कदाचित बौद्घधर्म से पुराणों में आयी और बौद्घ धर्म से ही वह ईसाइयत और इस्लाम जैसे सैमेटिक मतों में गयी। मनुष्य जाति के अध:पतन का बहुत कुछ उत्तरदायित्व इस अवैदिक विचारधारा के सिर है। मैं कौन हूं? इसका उत्तर वेद ने  यों दिया है-

अहम इन्द्रो  न पराजिय इदच्छनम्।

न मृत्यवे अवतस्ये कदाचन।।

मैं इंद्र हूं, मेरा धन मुझे पराजित करके कोई नही छीन सकता। मैं अपने ऐश्वर्य के कारण कभी पराजित नही हो सकता, कभी मृत्यु को प्राप्त नही हो सकता।

यह था हमारा राष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्य। पर आज हम गाये जा रहे हैं-मैं मूरख फल कामी….। पहले तो स्वयं को पाप की संतान माना और अब मूर्ख मान रहे हैं। ईश्वरोपासना की जाती है कि मुझे कोई पराजित न कर सके, मेरा विवेक और बौद्घिक कौशल सदा मेरी जय कराए और अब ईश्वरोपासना  के पश्चात भी हम कह रहे हैं मैं तो मूर्ख के रूप में ही जन्मा हूं और मूर्ख ही हूं। जब तक राष्ट्रीय प्रार्थना-मुझे कोई पराजित नही कर सकता और मैं अमृत पुत्र हूं मैं कभी मर नही सकता, ऐसी रही, तब तक पूरा राष्ट्र राष्ट्रीय वीरोचित भावों से मचलता रहा और सदियों तक अपने स्वराज्य के लिए लड़ता रहा पर जब अमृत पुत्र मूरख बन गया तो अपने विषय में ही कहने लगा कि हमारे यहां तो कभी राष्ट्रीय भावना ही नही रही। शक्ति का केन्द्र पराभव को प्राप्त हो गया।

यदि भारत मूरख फलकामियों का देश होता तो स्वातंत्रय वीर सावरकर अपने काले पानी की सजा होने से ठीक पूर्व यह ना कहते-मातृभूमि अपने इस बालक की अल्पसेवा पूर्णत: सत्य जानकर स्वीकार करो, हम अत्यधिक ऋणयुक्त हो गये हैं। अपने स्तनों का अमृत तुल्य दूध पिलाकर तूने हमें धन्य कर दिया है। उस ऋण की प्रथम किश्त आज शरीर अर्पण करके चुकाता हूं। (उन्हें लग रहा था कि फांसी की सजा भी हो सकती है) मैं पुन: जन्म लेकर तेरे दास्य विमुक्ति यज्ञ में फिर से अपने देह की आहूति दूंगा। तेरा सारथी कृष्ण है तथा सेनानायक राम हैं। तेरी तीस करोड़ सेना है। मेरे बिना तेरा काम न रूकेगा। दुष्ट का दमन करके तेरे वीर सैनिक हिमगिरि की उत्तुंग चोटियों पर विजय पताका फहराएंगे। तथा प्रिय मां अपने अबोध बालक की अल्पस्वरूप सेवा को स्वीकार करो।

सावरकर जी के शब्द तो आज हमारे पास उनकी पुस्तकों के माध्यम से उपलब्ध हैं। इसलिए उनका राष्ट्रवाद और राष्ट्रबोध समझने में तो कोई कठिनाई नही आती परंतु ऐसे कितने ही ‘सावकर’ हैं जिन्होंने अपनी मौन आहुति राष्ट्र यज्ञ में दी और ना कुछ कहकर गये और ना ही कुछ लिखकर गये। अब जो पिता अपनी विरासत के प्रबंध के विषय में लिखकर नही जाता क्या उसकी विरासत को संभाला नही जाता? सपूत तो भावनाओं को समझकर ही पिता की विरासत की सुरक्षा करता है, उसके विचारों का और वैचारिक संपत्ति का प्रचार प्रसार करता है। तब हमें ‘मौन सावरकरों’ की मौन आहुतियों का और उनके राष्ट्रवाद का सम्मान करना भी सीखना होगा। अमृत पुत्रों ने अपने अमृत कलश से अमृत छलकाकर इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अमृत रस बिखेर रखा है, बस हमें तो उस अमृत रस को बंूद बूंद कर इकट्ठा करना मात्र है। तब देखना विश्व में कोई जाति या कोई देश हमसे अधिक समृद्घ होने का दावा करना भूल जाएगा। सचमुच विश्वगुरू अपने स्वरूप को पहचाने और अपने अमृत पद के लिए छलांग लगाने के राष्ट्रीय शिव संकल्प को धारण करके तो देखे, सारी दिशाएं इसके स्वागत के लिए हाथ फेेलाए खड़ी हैं। सर्वत्र भारत का मंगल गान हो रहा है, अमृतमयी रसधारा बह रही है। कमी केवल हममें है कि हम अपने वास्तविक स्वरूप को विस्मृत किये बैठे हैं।

स्वाति बूंद के ये वचन ध्यान धरने योग्य हैं-

मैंने अमावस्या की अंतहीन सर्पाकार रात्रि में टिमटिमाते तारों से पूछा-रात भर जागते क्यों हो?

उत्तर मिला-धरा की कुरूपता देखी नही जाती। मैंने खिलते हुए फूलों से पूछा-अपने सौरभ को यों बिखराते क्यों हो?

बोले दुर्गंध सही नही जाती।

नयनों में पानी की बूंदें लिए दूवंदिल से पूछा-यों आंसू बहाती क्यों हो? क्षीण वाणी में उत्तर दिया-विछोह देखा नही जाता।

मिटती श्वासों के तारों से पूछा-इस प्रकार रूक रूक कर आती क्यों हो? बोलीं-जिंदगी मुड़-मुड़ कर नही आती।

और खीजकर अंत में जैसे कुछ न समझते हुए अशांत मन से पूछा हर बात झुठलाते क्यों हो? संक्षिप्त उत्तर मिला-क्योंकि आशा बन बन रह जाती है।

यदि मैं और आप अपने अंतर्मन से पूछें कि इतने चिंतित क्यों हो? तो उत्तर यही मिलेगा कि अपने इतिहास के साथ इतना बड़ा छल देखा नही जाता।

मुक्ति के अभिलाषी हो गये दास

जो भारत प्राचीन काल से महामृत्युंजय मंत्र का जप करता आया है और मातृभूमि के ऋण से मुक्त होने के लिए अपने बड़े से बड़े बलिदान को भी सदा तुच्छ मानता आया है, जो मित्र के प्रति हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर पड़ी बर्फ सा पवित्र, निर्मल, उदार और ठंडक से भरपूर रहा तथा शत्रु के प्रति अपने तीनों ओर उफनते समुद्र की भांति ‘सूनामियों’ से भरपूर रहा उस भारत की आत्मा को पहचानने का प्रयास नही किया गया। जिस भारत ने अपने राष्ट्र का निर्माण ‘सूर्य्याचन्द्रम्साविव’ के आदर्श को लक्ष्य बनाकर रखा और प्रचारित किया  कि सूर्य और चंद्रमा हमारे दोनों ही देवता हैं, हम सूर्य की भांति आग भी बरसा सकते हैं तो चंद्रमा की भांति शीतलता भी दे सकते हैं, उस भारत के इस राष्ट्रीय मूल्य को इतिहास से सर्वथा विलुप्त किया गया। इस राष्ट्र ने गायत्री मंत्र को अपनी राष्ट्रीय प्रार्थना बनाकर ईश्वर से केवल बुद्घि मांगी-धियो योन: प्रचोदयात। कहा-कि हमारी (सबकी, एक व्यक्ति की नही) बुद्घियों को सन्मार्गगामिनी बनाओ। इसी प्रार्थना ने भारत को भारत (आभा-ज्ञान की दीप्ति में रत) बनाया।

परंतु जैसे ‘मैं मूरख फल कामी’ का अज्ञानपूर्ण गीत हमने गाया वैसे मुक्ति के अभिलाषी रहे संतों ने अपने नाम के पीछे ‘दास’ लिखवाने की परंपरा प्रचलित की। मुक्ति का अभिलाषी जो सबको मुक्त कराने आया था वही ‘दास’ हो गया, वह इंद्र नही रहा, अपने नामों में से उसने आनंद (जैसे श्रद्घानंद, विवेकानंद) निकाल दिया तो राष्ट्र में अज्ञानान्धकार छा गया। सारी दुष्ट वासनाओं से मुक्त भारत का ब्राह्मण वासनाओं से युक्त हो गया। फलस्वरूप उसी का अनुकरण क्षत्रियादि वर्णों ने किया। तब मोहासक्त ‘धृतराष्ट्र’ उत्पन्न होने लगे, कामासक्त ‘पृथ्वीराज चौहान’ उत्पन्न होने लगे, परिणाम निकला कि ‘राष्ट्र धूर्त्तां’ का बन गया। राष्ट्र के मूल्यों का पतन हुआ, तो इसका अभिप्राय यह नही था कि यहां राष्ट्र ही नही था। हम इतिहास पर चिंतन कर रहे हैं तो पतन पर भी चिंतन करना होगा, परंतु इसका अभिप्राय यह भी नही है कि सर्वत्र निराशा ही निराशा थी। आशा का सूर्य सदा चमकता रहा। प्रकाश पुंज सदा बना  रहा। अंधेरे में प्रकाशपुंजों का चिंतन ही मजा देता है। उन्हीं का चिंतन करो-आनंद आएगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें