शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

सम्पूर्ण भारतवर्ष कभी भी परतंत्र अर्थात गुलाम न रहा

सम्पूर्ण भारतवर्ष कभी भी परतंत्र अर्थात गुलाम न रहा

भारत की पराधीनता का काल पराधीनता का नही अपितु स्वाधीनता के
संघर्ष का काल है , परन्तु यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां सुनी सुनाई
बातों पर अधिक चिंतन किया जाता है, अपेक्षाकृत स्वयं अध्ययन करने के
यहां का सारा इतिहास विदेशियों ने लिख मारा। अब उसी इतिहास
का शवोच्छेदन करने वाले भारतीय इतिहासकारों की एक लंबी सूची है,
जो ‘अशोक महान’ को छलिया और ‘अकबर छलिया’ को महान बताने के
लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहते हैं। उन्हें पीएच.डी. या डी.लिट.
की उपाधि भी तो ऐसी ही अतार्किक और अनर्गल धारणाओं को स्थापित
करने पर मिलती है। भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप
भी तभी जिंदा रहता माना जाता है जब राम और कृष्ण को कोसा जाए
या रामायण और महाभारत को तो काल्पनिक माना जाए और मुस्लिम
सुल्तानों के पापों को भारत के लिए पुण्य सिद्घ करने का प्रयास
किया जाए। पश्चिमी बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने तो इस प्रकार की एक
राजाज्ञा ही जारी कर दी थी कि मुस्लिम शासकों के कार्यों को भारतीयों के
हित में सिद्घ किया जाए।
बस यही कारण है कि भारत को गुलाम बताने वाले गुलामी के उस कथित
काल को गुलामी के विरूद्घ संघर्ष का काल नही बता पाते, अन्यथा विश्व
इतिहास के परिप्रेक्ष्य में यदि भारतीय इतिहास के इस सबसे बड़े झूठ
का अवलोकन किया जाए तो पता चलता है कि यदि एक सौ वर्ष तक
भी कोई देश या जाति मन से गुलाम होकर किसी विदेशी जाति या शासक के
अधीन हो गयी तो वह कभी फिर इतिहास में अपनी अस्मिता और
निजता को स्थापित नही कर पायी। यूनान, मिश्र, रोम, अफगानिस्तान,
ईरान, ईराक आदि क्या अपने-अपने गौरवमयी अतीत को बचा पाए? नही,
और डंके की चोट कहा जा सकता है कि नही बचा पाए। पर भारत की बात
अलग है। इसने सौ वर्ष की बात तो छोड़िये दस वर्ष
भी किसी विदेशी शासक या शासन को निष्कंटक होकर राज्य नही करने
दिया। कहीं न कहीं कोई न कोई उपद्रव, विद्रोह या बगावत विदेशी शासक
या शासन के प्रति हर काल में निरंतर बनी रही। हर ‘अकबर’ के लिए कोई न
कोई ‘महाराणा प्रताप’ और हर ‘औरंगजेब’ के लिए कोई न कोई ‘शिवाजी’
कहीं न कहीं चुनौती बना रहा। ऐसी जीवट और जीवंत इतिहास
की साक्षी हिंदू जाति के लिए एक हजार वर्ष तक गुलाम
बताया जाना उसका अपमान करना नही तो क्या है? जो जीवंत जाति है उसे
मृत सिद्घ करना-कितना बड़ा राष्ट्रघात है।? ऐसे राष्ट्रघात के लिए
लेखनी दण्ड का प्राविधान करते हुए भी कांपती है।
जिन लोगों ने हिंदू जाति को कायर कहते हुए हजार वर्ष तक उसके गुलाम
रहने की घोषणा का महापाप किया उन्हें लाला लाजपतराय जी ने
अपनी पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ की प्रस्तावना में इन शब्दों में
लताड़ा है-’जो जाति अपने पतन के काल में भी राजा कर्ण, गोरा और बादल,
महाराणा सांगा और प्रताप, जयमल और फत्ता, दुर्गादास और शिवाजी, गुरू
अर्जुन, गुरू तेगबहादुर, गुरू गोविंद सिंह और हरि सिंह नलवा जैसे
हजारों शूरवीरों को उत्पन्न कर सकती है, उस आर्य हिंदू जाति को हम
कायर कैसे मान लें? जिस देश की स्त्रियों ने आरंभ से आज तक श्रेष्ठ
उदाहरणों को पेश किया है, जहां सैकड़ों स्त्रियों ने अपने हाथों से अपने
भाईयों, पतियों और पुत्रों की कमर में शस्त्र बांधे और उनको युद्घ में भेजा,
जिस देश की अनेक स्त्रियों ने स्वयं पुरूषों का वेश धारण कर अपने धर्म व
जाति की रक्षा के लिए युद्घ क्षेत्र में लड़ कर सफलता पायी,
अपनी आंखों से एक बूंद भी आंसू नही गिराया, जिन्होंने अपने पातिव्रत्य
धर्म की रक्षा के लिए दहकती प्रचण्ड अग्नि में प्रवेश किया, वह
जाति यदि कायर है तो संसार की कोई भी जाति वीर कहलाने
का दावा नही कर सकती।’
राष्ट्रवाद और संस्कृति के संस्थापक हम थे
जिस जाति की महिलाएं अपने पतियों को, अपने भाईयों को और अपने
पुत्रों को कमर में शस्त्र बांधकर संस्कृति विध्वंसक और राष्ट्र विनाशक
शत्रुओं से लड़ने के लिए भेजती रहीं और उनके बलिदानों को अपने लिए गर्व
और गौरव का विषय मानती रहीं वो नारियां साधारण महिलाएं नही थीं,
बल्कि वो ऐसी महान नारियां थीं, जिन्होंने चूड़ियों की खनक
को तलवारों की झनक से कभी भी अधिक मूल्यवान नही समझा।
चूड़ियां भी राष्ट्रधर्म के जागरण में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं-ये
केवल भारतीय नारियों की वीरगाथाओं से ही सिद्घ किया जा सकता है। यह
सच है कि भारत की नारियों के लिए प्रेमगाथाएं उतनी महत्व पूर्ण
नही रही जितनी ज्ञान गाथाएं और वीरगाथाएं प्रेरक रही हैं।
यहां ब्रहन्नलाओं ने प्रेमगाथाओं के माध्यम से इस देश को ‘हीर-रांझे’
का देश बनाने का चाहे जितना प्रयास किया हो, परंतु हीर रांझे
की कहानी कभी भारतीय नारी का आदर्श नही हो सकता। ‘हीर-रांझे’
को भारतीय नारी का आदर्श बनाने का प्रयास झूठा है और हमारे
अनुसंधानों की भटकती दिशा का प्रतीक है, अन्यथा अनुसंधान तो उन
हजारों नारियों पर होने चाहिए थे जिन्होंने जौहर रचाए या अपने पतियों,
भाईयों और पुत्रों के बलिदानों पर भी देश धर्म और जाति के हित में आंसू
नही बहाए। कहां हैं ऐसी मांऐं ऐसी बहनें-या ऐसी पत्नियां विश्व इतिहास के
पन्नों पर? कहीं नही मिलेंगी, सिवाय भारत के। तब हम अपने अतीत
का जश्न मनाएं या उस पर आंसू बहायें?
हमने राष्ट्रवाद और संस्कृति का विकास किया, उनकी स्थापना की और
उनके लिए काम करना प्रारंभ किया। बस इसीलिए यहां की नारियों ने विश्व
की सर्वोत्कृष्टï आर्य संस्कृति के नाशकों को विश्व संस्कृति का नाशक
समझा। उन भारतीय नारियों का चिंतन तो देखिए कि उन्होंने भारतीय आर्य
संस्कृति के विध्वंसकों को विश्व संस्कृति का विनाशक समझा। इसलिए
अपने सुहाग की चिंता नही की। इस अर्थ में तो भारत की नारियों का यह
उपकार भारत पर नही, अपितु विश्व पर भी है-क्योंकि उन्होंने विश्व
संस्कृति को उजड़ने से बचाने के लिए अपने आंसुओं को चुपचाप पिया।
ऐसी वीर जाति के लिए ही इकबाल ने लिखा था-
यूनान, मिश्र, रोमां सब मिट गये जहां से,
बाकी मगर है अब तक नामोनिशां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।।
क्या बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी?-अनुसंधान तो वीरों और
वीरांगनाओं के उन कृत्यों पर होना चाहिए था जिनके कारण
हमारी हस्ती मिटी नही। यह रहस्य कब तक
रहेगा कि हमारी हस्ती मिटती क्यों नहीं-
हमारी जीवंतता सदा ही बनी क्यों रही?
कासिम के रूप में मुस्लिमों के आरंभिक आक्रमण
भारत के विषय में एक ऐसी धारणा सफलतापूर्वक स्थापित की गयी है
कि जो इसकी केन्द्रीय सत्ता का किसी भी प्रकार से
अधिपति हो गया इतिहास को उसी की परिक्रमा करने के लिए विवश
किया गया। फिर चाहे उस बलात रूप से अधिपति बने शासक का शासन
क्षेत्र कितना ही छोटा क्यों न हो? यहां तक कि पेंशन भोगी मुगल
सम्राटों तक को भी यहां का सम्राट मनवाने के लिए इतिहास के साथ क्रूर
उपहास किया गया है। जिन लोगों का आदेश दिल्ली के लालकिले के भीतर
तक ही सीमित होकर रह गया, और भी सच कहें तो जिनका आदेश उनके
अधीनस्थ लोग भी नही मान रहे थे, वो भी भारत के सम्राट कहे जाते हैं और
जिन मराठों का शासनादेश उसी समय महाराष्ट्र से उड़ीसा, दिल्ली,
राजस्थान, बिहार के कुछ क्षेत्रों और दक्षिणी भारत के सुदूर प्रदेशों तक
मजबूती के साथ चलता था, उन्हें देश में आतंकी, विद्रोही या लुटेरे
कहा गया। यही स्थिति पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के विशाल राज्य
की थी। इनका उल्लेख हम आगे करेंगे।
मुस्लिमों के द्वारा पहला आक्रमण भारत पर 712 ई. में मौहम्मद बिन
कासिम के द्वारा किया गया। यह मुस्लिम आक्रांता भारत के सिंध प्रांत से
टकराया और थोड़ा आगे बढ़ा। यह लुटेरा था जो अपने खलीफा को खुश करने
के लिए यहां से धन लूटकर ले जाने के उद्देश्य से आया था। इसे सिंध के
शासक दाहर की बेटियों सूर्य प्रभा और चंद्रप्रभा ने अपने बौद्घिक कौशल
से इसी के खलीफा के द्वारा मरवा दिया था। वह
कहानी यदि लिखी जाएगी तो मालूम होगा कि भारत की नारियों ने
संस्कृति नाशकों का नाश कराने में पहले दिन से ही कितना प्रशंसनीय
योगदान दिया था। पर यहां उसे लिखना प्रासंगिक नही है। यहां तो केवल ये
देखना है कि जो इतिहासकार ऐसी धारणा बनाते हैं कि भारत को मौहम्मद
बिन कासिम ने गुलाम किया था, उसी के आक्रमण से ही भारत
गुलामी की ओर बढ़ गया था, वो कितने गलत हैं? मौहम्मद बिन कासिम ने
भारत पर कोई राज्य स्थापित नही किया। वह तूफान की भांति आया और
चला गया। लुटेरों से आर्थिक हानि हो सकती है, लेकिन उनसे राजनीतिक
हानि नही होती है। क्योंकि मौहम्मद बिन कासिम अपने खलीफा के एजेण्ट
के रूप में भारत आया था और उसे अपने लूट के माल में से
शरीयती व्यवस्था के अनुसार अपने खलीफा को एक निश्चित
धनराशि देनी थी। बात साफ है कि मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण
का उद्देश्य लूट था उसका उद्देश्य राजनीतिक नही था, जैसे बाद में
इसी तर्ज पर यहां ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी आयी थी,
तो उसका उद्देश्य भी आर्थिक लाभ अर्जित करना ही था। उसके भारत
आगमन का उद्देश्य राजनीतिक नही था।
हमें मौहम्मद बिन कासिम को इतिहास के एक अमर पुरूष के रूप में
पढ़ाया जाता है और राजा दाहर को एक पराजित शासक के रूप में-
जबकि राजा की दोनों बेटियों का तो कहीं उल्लेख भी नही आता। इतिहास
का गला घोंट दिया जाता है और तथ्यों को बदल दिया जाता है।
712 की इस घटना को चाटुकार इतिहास कारों ने कुछ इस प्रकार
महिमा मंडित किया है, जैसे कि यहीं से अरब और भारत के सांस्कृतिक संबंध
स्थापित हुए और उन संबंधों के आधार पर इस्लाम और भारत
की संस्कृति का मिलन हुआ। जिससे ‘गंगा-जमुनी’ संस्कृति का विकास
हुआ। कितना बड़ा झूठ है ये? लज्जा नही आती ऐसी बात करने वालों को।
जो आक्रांता सिंध से आगे महत्वपूर्ण बढ़त ही नही ले पाया, वह
क्या सांस्कृतिक संबंध बना गया? सिंध भारत का एक प्रांत था-वह भारत
नही था, और यहां तो महत्वपूर्ण बात ये है कि सिंध ने भी कासिम के
आक्रमण को हृदय से स्वीकार नही किया था। एक दिन के लिए भी प्रतिकार
बंद नही हुआ था। सांस्कृतिक संबंध तो तभी स्थापित होते हैं, जब आक्रमण
स्वीकार कर लिया जाए और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व का भाव अंगीकार
हो जाए। परंतु यहां ऐसी कोई संभावना नही थी, क्योंकि कासिम को लुटेरे
और हत्यारे आक्रांता के रूप में भारतीय पहली बार देख रहे थे। इससे पहले
भारत में युद्घ के नियमों का पालन हुआ करता था और जनसाधारण से
या सार्वजनिक स्थलों से कोई छेड़छाड़ या हिंसक
रणनीति नही अपनायी जाती थी। जिन जिन क्षेत्रों में कासिम पहुंचा उन उन
क्षेत्रों में उसने लूटमार और मारकाट का जो खेल खेला वह भारतीयों के
लिए पहला अनुभव था। इसलिए सांस्कृतिक संबंध कहां से और कैसे स्थापित
हो सकते थे? साथ ही यह बात भी विचारणीय है कि भारत में तलवार अब से
पूर्व कभी भी जनसंहार के लिए प्रयुक्त नही की गयी थी। वह योद्घाओं
का आभूषण थी और सदा ही आतंकियों के विरूद्घ ही प्रयोग
की जाती रही थी-अब तो वह पहली बार जनसंहार करती देखी जा रही थी।
इसलिए उसके प्रति भारतीयों में घृणा थी और उसे प्रयोग करने वालों के
प्रति आक्रोश था। जहां घृणा और आक्रोश होते हैं वहां कभी भी विपरीत
लोगों का मिलन संभव नही होता है और जब तक मिलन नही, तब तक
सांस्कृतिक संबंध कैसे स्थापित मान लिए जाएं? इसलिए कासिम के
आक्रमण को इतने संदर्भों तक ही लिया जाना चाहिए। उसके आक्रमण
का अन्यथा महिमामण्डन करना स्वयं अपने राष्ट्रीय चरितनायकों और
राष्ट्रीय चरित्र के साथ अन्याय करना होगा।
वास्तविक चरितनायक भुला दिये गये
जिस समय मौहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया था उस समय
के वास्तविक चरितनायकों और राष्ट्रनायकों को भुला दिया गया है।
समकालीन इतिहास को कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, कि एक
लुटेरा नायक दीखता है और नायक खलनायक दीखते हैं, या राष्ट्रीय पटल
से गायब दीखते हैं। सातवीं सदी के प्रारंभ में जब अरब में 610ई. में इस्लाम
की स्थापना हुई थी तो उस समय भारत पर सम्राट हर्षवर्धन (606-647
ई.) का शासन था। सम्राट हर्षवर्धन के समय में सिंध पर भी हर्ष
का ही शासन था। परंतु हर्ष की मृत्यु के उपरांत भारत की केन्द्रीय
सत्ता दुर्बल पड़ गयी। राजनीतिक अव्यवस्था फेेल गयी। इसी राजनैतिक
अव्यवस्था के कारण हर्ष की मृत्यु के 65 वर्ष पश्चात मौहम्मद बिन
कासिम ने भारत के सीमावर्ती राज्य सिंध पर हमला किया।
मौहम्मद बिन कासिम के लौटते ही सिंध में स्वतंत्रता के लिए विद्रोह फैल
गये और राजा दाहर के बेटे जयसिंह ने पुन: सिंध का राज्य प्राप्त कर लिया।
यद्यपि जयसिंह कालांतर में इस्लामिक हमलावरों से दुखी होकर मुस्लिम बन
गया था, परंतु अपनी भूल की अनुभूति होते ही वह फिर से स्वधर्म में लौट
आया। बाद में वह मुस्लिमों के द्वारा ही मार दिया गया। अत: राजा दाहर के
सैनिक और उसकी दो बेटियां स्वतंत्रता के युद्घ के पहले स्मारक हैं
तो राजा जयसिंह और उसके वीर सैनिक इस युद्घ के दूसरे स्मारक हैं।
मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के पश्चात अरबों की ओर से आक्रमण
परंपरा को सिंध में राजा जयसिंह के स्थान पर चुने गये मुस्लिम शासक जुनैद
ने आगे बढ़ाया। जुनैद व उसके सेनापति मर्मद, मण्डल, बैलमान, दहनज,
बरबस और मलीबा को आक्रांत करते हुए उज्जैन तक आगे बढ़ गये थे।
यहां मर्मद मरूदेश के लिए, बरबस भड़ौंच के लिए मलिवा मालवा के लिए,
बैलमान बल्लमंडल (गुर्जर राज्यों का संघ) के लिए कहा गया है। इतिहास
हमें बताता है कि अरबों ने चाहे कितनी ही दूर तक धावा बोल दिया था, परंतु
वे यहां अपने प्रभुत्व को अधिक देर तक स्थापित नही कर पाए। अवन्ति के
गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट, लाट देश (दक्षिणी गुजरात) के चालुक्य
राजा अवनिजनाश्रम, पुलकेशीराज ने उन्हें परास्त कर भगा दिया।
लुटेरों को अपनाया नही गया, अपितु उनके साथ वही व्यवहार
किया गया जिसके वह पात्र थे। स्वतंत्रता का तीसरा दैदीप्यमान स्मारक है
इन स्तवनीय राजाओं का ये स्तवनीय कृत्य।
इसी स्तवनीय कृत्य में नांदीपुरी के गुर्जर राजा जयभट्ट चतुर्थ ने
भी संघर्ष में सम्मिलित होकर सहयोग दिया था। चित्तौड़ के राणा वंश के
वीर प्रतापी शासक बप्पा रावल का गौरवपूर्ण शासन भी इसी समय फलफूल
रहा था, उनका म्लेच्छों को मार भगाने में उल्लेखनीय रूप से सहयोग
मिला था। अरब के इतिहास अभिलेखों से ही ज्ञात होता है कि जयसिंह
की मृत्यु के पश्चात जिस सिंध पर मुसलमानों ने अपना शासक जुनैद
बैठाया वह चौथाई सदी तक ही मुस्लिम आधिपत्य में रहा और देश के
चरितनायकों के प्रयासों से उन्हें यहां से शीघ्र ही भाग जाना पड़ा। इस बात
की साक्षी अरब के इतिहास अभिलेखों से ही मिलती है। अब प्रश्न है
कि अरब सिंध से भागे क्यों? इसलिए भागे कि यहां के लोगों ने स्वतंत्रता के
अपहरण के पहले प्रयास के विरूद्घ पहले दिन से ही तलवार उठा ली, और
लग गये स्वतंत्रता के स्मारक पर स्मारक बनाने। भारतीयों की स्मारक
लिखने की यह अद्भुत परंपरा आगे भी चलती रही। रूकी नही, झुकी नहीं।
उत्तर भारत में कश्मीर के प्रतापी शासक ललितादित्य और कन्नौज के
शासक यशोवर्मा ने सिंध की सेनाओं का सामना किया और जुनैद को आगे
बढ़ने से रोक कर स्वतंत्रता का एक शानदार स्मारक उन्होंने भी खड़ा कर
दिया। सत्यकेतु विद्यालंकार ने बड़े गर्व से लिखा है:-’अरबों की जिन
सेनाओं ने पूर्वी रोमन साम्राज्य और पर्शियन साम्राज्य की शक्ति को धूल
में मिला दिया था, ईजिप्ट और उत्तरी अफ्रीका को जीतकर यूरोप में स्पेन
की भी जिन्होंने विजय कर ली थी और मध्य एशिया के बौद्घ राज्य
भी जिनके सामने नही टिक सके थे, वे भारत को जीत सकने में असमर्थ
रहीं।’ भारत के इतिहास का अध्ययन करते हुए इस तथ्य को आंखों से
ओझल नही करना चाहिए। भारत की सैन्यशक्ति इस काल में
अरबों की तुलना में उत्कृष्ट थी, यह सर्वथा स्पष्ट है। इसलिए
बड़ी निराशा के साथ मौलाना हाली ने भी लिखा था-
‘वो दीने हजाजी का बेबाक बेड़ा,
जो कुलजम में झिझका,
न जेहु में अटका,
मुकाबिल हुआ कोई खतरा न जिसका,
किये थे पार जिसने सातों समंदर,
वो डूबा दहाने में गंगा के आकर।’
सच भी ये ही है कि दीने हजाजी का बेबाक बेड़ा गंगा के दहाने में आकर डूब
गया। फिर भी झूठा पढ़ने और जूठन खाने की किसी की प्रवृत्ति ही बन
हो गयी हो तो क्या कहा जा सकता है?
यदि अपनी सर्वोत्कृष्ट वैदिक संस्कृति के प्रति असीम अनुराग और वेदों के
राष्ट्रधर्म के प्रति गहन निष्ठा का भाव हमारे तत्कालीन हिंदू शासकों में
नही होता तो यह निश्चित था कि वे मुश्लिम आक्रांताओं के सामने
सहजता से घुटने टेक देते। परंतु यह सौभाग्य केवल और केवल
भारतीयों का है जिनकी सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद में ही ‘स्वराज्य’
के गीत गाने की बात कही गयी है। युगों से स्वराज्य
की उद्घोषिका इसी संस्कृति का पान करते करते हम सदा ही इतने आत्मबल
के धनी रहे कि स्वराज्य के स्थान पर पराधीनता को देश के शासकों ने
कभी अपनाया नही। यह हमारी पारस्परिक ईर्ष्या थी जिसने हममें फूट
डाली और विदेशी शक्तियां यहां कालांतर में देर तक टिके रहने में सफल
हो गयी थीं। फिर भी जिस काल की बात हम कर रहे हैं, उसमें स्वतंत्रता के
जितने स्मारक गढ़े गये उन्होंने अपनी इतनी तीव्र चमक फेेलायी कि देर तक
मुस्लिम आक्रांताओं की आंखें चुंधियायीं रहीं और हमारी ओर देखने
का उनका साहस नही हुआ। कौन झाड़ेगा इन स्मारकों की धूल को? और
कौन चढ़ाएगा इन पर गरिमा के इक फूल को?
झूठे चाटुकारों से और लेखनी को बेचकर व आत्मा को गिरवी रखकर लिखने
वाले इतिहासकारों से स्वतंत्रता के अमर सैनानियों के ये पावन स्मारक
यही प्रश्न कर रहे हैं। समय के साथ हम इन प्रश्नों को जितना उपेक्षित
और अनदेखा करते जा रहे हैं-उतना ही बड़ा प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा है।
हमारी नई पीढ़ी इतिहास के झूठ पढ़ते-पढ़ते उन्हें ही सच मान रही है।
तथ्यों के आधार पर आज जब उनके समक्ष वस्तु स्थिति को अक्षरश:
स्पष्ट किया जाता है तो उन्हें विश्वास नही होता कि जो उन्हें
बताया जा रहा वही सच है। हमें पहले अपनी प्राचीन वैदिक संस्कृति से
काटा गया, इसलिए स्वराज्य हमसे बहुत दूर का शब्द हो गया। जब हमें
अंग्रेजों के उपकार बताए गये और इतिहास की पुस्तकों में
लिखा गया कि स्वतंत्रता के बारे में हमें पहले पहल अंग्रेजों से
अथवा यूरोपीयन जातियों से ज्ञान हुआ तो हमने स्वराज्य और
स्वतंत्रता के इन्हीं ‘झूठे शहंशाहों को’ मंदिर की मूर्ति समझकर
पूजना आरंभ कर दिया। इसलिए वैदिक चिंतन का अनुसंधान का क्रम समाप्त
हो गया। आज हमारी युवा पीढ़ी भारत को समझने के लिए भारत के प्राण-
वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, स्मृति आदि की ओर न देखकर
विदेशियों की ओर देख रही है और इसीलिए विश्व के सबसे अधिक
सांस्कृतिक रूप से समृद्घ भारत वर्ष को कंगाल और यूरोप को इस क्षेत्र में
सर्वाधिक समृद्घ समझने की भूल कर रही है। इस भूल के मूल में दुष्चिंतन
का शूल है, जिसे खोजा जाना आवश्यक है। हमने अपने गौरवमयी अतीत के
गौरवमयी स्मारकों को कभी गंगाजल से पवित्र करने का या धोने का प्रयास
नही किया, इसलिए हम अपवित्रता के उपासक बन बैठे हैं। इतिहास के
छलछदमों और झूठों को पूजने का क्रम बढ़ता ही जा रहा है। हमारा दुर्भाग्य
है कि स्वतंत्रता के पश्चात इस देश की शिक्षा नीति इस देश के अतीत के
स्मारकों को उत्कीर्ण कर उन्हें पूज्यनीय बनाने के लिए लागू
नही की गयी अपितु उन्हें अपमानित और तिरस्कृत करने के लिए लागू
की गयी। वर्तमान पीढ़ी उसी अपमानित और तिरस्कृत करने की भावना से
लिखे गये इतिहास को पढ़कर अपने अतीत के बारे में जो कुछ समझ
पा रही है, वह उसके लिए निराशाजनक है।
indian is myस्वामी विवेकानंद और योगी अरविंद का मत रहा है कि भारत
की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य अपने देश की विरासत की आध्यात्मिक
महानता पर बल देना और उसे बनाए रखने के लिए हमारे दायित्व के निर्वाह
पर बल देना होना चाहिए, जिससे हम विश्व को प्रकाश का मार्ग
दिखा सकें। यदि आध्यात्मिकता भारत से लुप्त हो गयी तो वह विश्व से
भी लुप्त हो जाएगी। अत: यह एक राष्ट्रीय दायित्व ही नही है, मानव
सभ्यता की सुरक्षा का कर्त्तव्य भी है।
सचमुच व्यक्ति के भीतर आत्मगौरव तभी जागता है जब उसके पूर्वजों के
गौरवमयी कृत्यों का उल्लेख उसके समक्ष किया जाता है, या उसे उनके ऐसे
कार्यों की किन्हीं स्रोतों से ज्ञान उपलब्ध होता है। ऐसे उल्लेख या ज्ञान
होने से ही व्यक्ति आत्मोत्थान के मार्ग पर चल निकलता है। भारत के
युवा को यदि उसके अतीत का सही सही आंकलन और निरूपण करके
दिया जाए तो कोई कारण नही कि सबसे अधिक युवा शक्ति को लेकर आगे
बढ़ रहे भारत को हम शीघ्रातिशीघ्र विश्व गुरू के गौरवमयी पद पर आरूढ़
होते ना देखें। इसीलिए अरविंद जी का मत था कि हमें अपने बच्चों के
(युवा वर्ग के) मनों में उनके बचपन से ही देशभक्ति के भाव भर देने हैं और
हर बार उनके सामने विचार को प्रस्तुत कर देना है, उनके संपूर्ण युवक
जीवन को गुणों के अभ्यास का एक पाठ बना देना है, जिससे वे भविष्य में
देशभक्त और अच्छे नागरिक बन जाएं। यदि हम ऐसा प्रयास नही करते हैं
तो हमें भारतीय राष्ट्र के निर्माण के विचार को ही पूर्णत: त्याग
देना चाहिए। क्योंकि ऐसे अनुशासन के अभाव में राष्ट्रवाद
देशभक्ति पुनर्निर्माण केवल शब्द मात्र ही रह जाएंगे।
भारत में स्वतंत्रता मिलने के पश्चात धर्मनिरपेक्षता के सिद्घांत
को अपनाने पर बल दिया गया। वस्तुत: ये एक ऐसा सिद्घांत है
जो राष्ट्रभक्ति, मानवतावाद और आत्मगौरव से भरने वाले इतिहास के
पुनर्लेखन का विरोधी है। बस यही कारण है कि भारत में यह सिद्घांत हमें
सार्वत्रिक दिशाओं में मार रहा है, और हम हैं कि मरते ही जा रहे हैं। हमें
मारने के दृष्टिकोण से मैक्समूलर ने हमारे विषय में बहुत कुछ लिखा। बहुत
लज्जा की बात है कि मैक्समूलर के उस लिखे को हम आज तक दुम
हिला हिलाकर खा रहे हैं और दूसरों को भी बता रहे हैं कि बड़ा स्वादिष्ट
भोजन है, आनंद आ गया। शोक! महाशोक!! जबकि मैक्समूलर का उद्देश्य
हमारे विषय में क्या था? यह उसके 1886 में अपनी पत्नी के लिए लिखे गये
एक पत्र की इन पंक्तियों से स्पष्टï हो जाता है :- ‘यदि ऋग्वेद ही उनके
(हिंदुओं के) धर्म (हिंदुत्व) का मूल है और उन्हें मूल
की वास्तविकता का प्रदर्शन करने के लिए मेरा विश्वास है कि पिछले तीन
हजार वर्षों में जो कुछ उससे (ऋग्वेद) नि:सृत हुआ है, उसका समूलोच्छेदन
ही एक मात्र उपाय है।’
जब मैक्समूलर को अपने उद्देश्य में कुछ सफलता मिलती दीखी तो दो वर्ष
पश्चात उसने भारत के लिए ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट’ के लिए लिखा था-भारत
का प्राचीन धर्म तो अब विनाश की ओर अग्रसर है। यदि ईसाइयत
उसका स्थान नही लेती है तो दोष किसका होगा?
इस प्रकार की शत्रुतापूर्ण भावनाओं के वशीभूत होकर हमारा अतीत हमारे
सामने विदेशी इतिहास लेखकों (जिन्हें भारत के संदर्भ में ‘संस्कृति-नाशक’
कहा जाना ही उचित होगा) ने प्रस्तुत किया। उसी विष को हम अमृत
समझकर पीएं तो इसमें भी पूछा जा सकता है कि दोष किसका है?
दक्षिणी भारत के विविध राज्यवंश
भारत के इतिहास को समझने के लिए उसे समग्र रूप से समझना आवश्यक
है। भारत को अपने ही विषय में भ्रमित करने के लिए इसका इतिहास
एकांगी करके प्रस्तुत किया गया है और अधिकतर इतिहास इंद्रप्रस्थ
अथवा दिल्ली के सम्राटों, राजाओं, बादशाहों तक सीमित करके
देखा गया है। यह सोच सिरे से ही अनुचित है।
जब मौहम्मद बिन कासिम भारत आया था तो उसका महत्वपूर्ण कारण
था सम्राट हर्षवर्धन जैसे शक्तिशाली राजा का अंत हो जाना। परंतु इसके
उपरांत भी भारत में विभिन्न शक्तियां देर तक शासन करती रहीं, जिन्होंने
गलती ये की कि अपने अपने साम्राज्य विस्तार के दृष्टिकोण से
या किन्हीं अन्य राजनीतिक कारणों से पारस्परिक ईर्ष्या भाव को बढ़ाया।
परंतु सुखद आश्चर्य है कि इस ईर्ष्याभाव के परिणामस्वरूप भी सदियों तक
देश में मुस्लिम शासन स्थापित नही हो सका।
दक्षिण के दुर्ग को इस काल में चालुक्य साम्राज्य ने सुरक्षित रखा। इसके
पूर्व कई अन्य राजवंश भी ऐसे थे, जिन्होंने अपने अपने साम्राज्य दक्षिण में
स्थापित कर रखे थे। इनमें सर्वप्रथम नाम कल्चुरि वंश का आता है।
इसका शासन गुजरात और पश्चिमी मालवा में था। छठी शती के अंत में
यहां शंकरगण नामक राजा राज्य कर रहा था। 595 ई. में
इसका बेटा बुद्घराज राजसिंहासन पर बैठा। दूसरा राजवंश भोज था।
छठी शती के अंत में तथा सातवीं शदी के प्रारंभ में भोजों के
दो राज्यों की सत्ता का पता चलता है। इनमें से एक बरार (विदर्भ) क्षेत्र में
तथा दूसरा गोआ के क्षेत्र में था। गोआ राज्य की राजधानी चंद्रपुर थी।
जिसे आजकल चंदौर कहा जाता है। यह राजवंश भी पर्याप्त शक्तिशाली था।
तीसरा, राजवंश त्रिकूटक था। कोंकण के उत्तरी क्षेत्र में इस राज्य
की सीमाएं थीं। चौथा, राजवंश राष्ट्रकूट था। यह राजवंश मानांक
द्वारा स्थापित किया गया, जिसने मानपुर को अपनी राजधानी बनाया।
वर्तमान सतारा (महाराष्ट्र) प्रदेश में इनकी सत्ता थी। संभवत: महाराष्ट्र
(सतारा का विशाल स्वरूप) इन्हीं राष्ट्रकूट शासकों की देन है। इस
प्रतापी राजवंश ने 8वीं सदी के अंत तक शासन किया। इसके पश्चात पांचवां,
राजवंश पौराणिक राजा नल का था। छठी सदी से इस वंश का उल्लेख
मिलता है। यह राज्य भी विदर्भ क्षेत्र में स्थित रहा है। कालांतर में इसने
अपना राज्य विस्तार किया परंतु चालुक्य राज्यवंश ने इसकी समाप्ति कर
दी थी। छठा, राजवंश विष्णुकुण्डी का था। इसके राजा माधव वर्मा जनाश्रय
(535-585) का विशेष उल्लेख मिलता है। इसका राज्य आंध्र प्रदेश
की ओर था। इसने उसी क्षेत्र में अपनी सीमाओं का विस्तार किया। इसके
शासक विक्रमेन्द्र वर्मा तृतीय (620-631) को पराजित करके पुलकेशी ने
उसकी सत्ता समाप्त कर दी थी।
सातवां, राजवंश कलिंग का था, यह वंश वर्तमान गंजाम जिले के मुखलिंगम्
(कलिंग नगर) से शासित होता था। इसके राजा इंद्र वर्मा तृतीय
को सातवीं सदी के प्रारंभ में चालुक्य राज पुलकेशी ने हरा दिया था।
आठवां राजवंश दक्षिण कौशल का था। मध्यप्रदेश के रायपुर बिलासपुर
क्षेत्रों में इसका शासन रहा था। 634 ई. में इस राजवंश के राजा हर्षदेव
को पुलकेशी ने ही पराजित कर दिया था। गुप्त काल से आरंभ होकर यह
राजवंश 634 ई. में समाप्त हो गया।
सुदूर दक्षिण के स्वतंत्र राज्य
कांची में पल्लव राज्य, माइसूर के उत्तरी प्रदेशों तथा उनके साथ लगे
महाराष्ट्र के दक्षिणी प्रदेशों में कदम्बवंश, कर्णाटक के दक्षिणी प्रदेशों में
एक अन्य स्वतंत्र राज्य जिसकी राजधानी उदयवर थी जहां आलूपवंश
का शासन था। इस प्रकार सुदूर दक्षिण भी सारा का सारा सुरक्षित और
स्वतंत्र था।
चालुक्य सम्राट पुलकेशी द्वितीय
सातवीं सदी के पूर्वार्ध में वातापी का चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय था।
यह राजा हर्षवर्धन की भांति ही प्रतापी और महत्वाकांक्षी था। इसीलिए
वह एक विशाल साम्राज्य को स्थापित करने में सफल हुआ। इस राजवंश
का संस्थापक कीर्ति वर्मा था परंतु इसे प्रसिद्घी पुलकेशी द्वितीय के काल
में ही मिली। इस प्रतापी शासक ने कहीं गुर्जरों को तो कहीं आलूपवंश,
पल्लववंश, गुजरात के शासकों को परास्त किया और अपने साम्राज्य
का विस्तार किया। यह हर्षवर्धन का समकालीन था। अत: हर्षबर्धन से
भी इसका संघर्ष हुआ और हर्ष को भी पुलकेशी द्वितीय के सामने
झुकना पड़ा था। पुलकेशी द्वितीय का साम्राज्य कलिंग प्रदेश, दक्षिण
कौशल बिष्पाकुण्डी (आन्ध्र) तक फेेला था। चालुक्यों का यह राज्य
दक्षिण में देर तक शासन करता रहा। इसके कई प्रतापी शासक हुए। लगभग
757 ई. में राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग द्वारा वातापी के चालुक्य राज्य
का अंत कर दिया गया था।
तीन प्रतापी राजवंश
वास्तव में हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात उत्तर और दक्षिण भारत में तीन
प्रतापी राजवंश शासन कर रहे थे-पहला था पाल वंश, दूसरा था गुर्जर
प्रतिहार तथा तीसरा था राष्ट्रकूट राजवंश। इनमें पाल वंश
की स्थापना गोपाल नामक शासक ने 750 ई. में की थी और यह वंश 1025
ई. तक चला। तब तक इस राजवंश में धर्मपाल, देवपाल, विग्रहपाल,
नारायणपाल, राजपाल, गोपाल द्वितीय, विग्रहपाल द्वितीय नामक
राजा हुए। यह राजवंश बंगाल और मगध तक के प्रांतों पर शासन करता रहा।
यद्यपि उत्तर भारत पर शासन करने के लिए गुर्जर प्रतिहारों और
राष्ट्रकूटों से भी इनके युद्घ हुए।
दूसरा महत्वपूर्ण राजवंश गुर्जर प्रतिहार था। इस राजवंश
का पहला महत्वपूर्ण शासक नागभट्टï प्रथम था। जिसने 730 ई. में इस वंश
की स्थापना की थी। यह वंश 942 ई. तक शासन करता रहा। इस वंश
का साम्राज्य सामान्यत: कन्नौज से शासित रहा। इस वंश में प्रमुख शासक
कक्कुक देवराज, वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, रामभद्र, भोज (इस वंश
का वास्तविक प्रतापी शासक भोज ही कहा जाता है, इसका शासनकाल
836ई. से 885 ई. तक माना गया है) महेन्द्र पाल, भोज द्वितीय और
महीपाल थे।
तीसरे राजवंश का नाम राष्ट्रकूट था। इस वंश की स्थापना दन्तिदुर्ग नामक
राजा ने 733 ई. में की थी। इसके शासकों में प्रमुख रहे कृष्ण प्रथम, गोविंद
धु्रव, गोविंद तृतीय, अमोघवर्ष, कृष्ण द्वितीय, इंद्र तृतीय, गोविंद चतुर्थ,
अमोघ वर्ष द्वितीय एवं कृष्ण तृतीय। इस वंश ने 733ई. से 968 ई. तक
शासन किया। इस वंश की राजधानी वर्तमान शोलापुर के पास मान्यखेत
या मलखेड़ थी। एलोरा का शिवमंदिर इसी वंश के शासक कृष्ण प्रथम
द्वारा नवीं शताब्दी में बनाया गया था।
यहां हमें चित्तौड़ के राणावंश को भी नही भूलना चाहिए। राजा गुहिल के
द्वारा इस वंश की स्थापना 7वीं शताब्दी के प्रारंभ में की गयी थी। इस
राजवंश का सिक्का अफगानिस्तान तक चला था। इसके प्रतापी शासक
बप्पा रावल ने ही रावल पिण्डी को बसाया था।
बप्पा रावल ने गुर्जर सम्राट नागभट्ट के साथ मिलकर मुसलमानों को देश
की सीमाओं से बाहर खदेड़ा था। यह वंश मेदपाट (मेवाड़) पर शासन कर
रहा था, और प्रारंभ में गुर्जरों का सामंत रहा था। फिर भी यह स्मरण
रखना चाहिए कि भारत में हर्ष के पश्चात शक्ति के बिखराव का समय
आया। विभिन्न राजवंशों में देश की राजनीतिक व्यवस्था विकृत सी हो गयी।
ये सारी शक्तियां कई बार परस्पर संघर्षरत रहीं और इस प्रकार
अपनी शक्ति का अपव्यय करती रहीं। संतोष का विषय ये है कि इन
राजवंशों के कई प्रतापी शासकों ने अलग अलग समयों पर तिब्बत, नेपाल,
भूटान, आसाम, और पश्चिम में अफगानिस्तान और दक्षिण में श्रीलंका तक
अपनी विजय पताका फहराई उनके प्रताप और शौर्य के कारण
पश्चिमी सीमा से मुसलमानों के प्रवेश की संभावनाएं क्षीण से क्षीणतर
होती चली गयीं।
यही कारण था कि 712ई. से लेकर जब तक ये शक्तियां भारत में विद्यमान
रहीं तब तक पश्चिम की ओर से मुसलमानों का कोई ऐसा घातक आक्रमण
नही हुआ जो अपना विशेष प्रभाव रखता हो। गुर्जर प्रतिहार शासकों ने
मुसलमानों से कई संघर्ष किये और उन्हें भारत में घुसने से रोका। नागभट्ट
ने सिन्ध के अरब शासकों को राजस्थान, गुजरात, और पंजाब जैसे
सीमावर्ती प्रांतों पर अधिकार करने से रोका। अरब गुजरात की ओर आगे
बढ़ना चाहते थे परंतु गुजरात के चालुक्य राजा के हाथों 738 ई. में
उनको करारी पराजय का सामना करना पड़ा था।
गुर्जर प्रतिहार वंश का प्रमुख शासक मिहिर भोज था। बगदाद
का निवासी अल मसूदी 915ई.-16ई. में गुजरात आया था। वह कहता है
कि जुज्र (गुर्जर) साम्राज्य में 1,80,000 गांव, नगर तथा ग्रामीण क्षेत्र थे
तथा यह दो हजार किलोमीटर लंबा और दो हजार किलोमीटर चौड़ा था।
राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक में सात लाख से नौ लाख सैनिक
थे। उत्तर की सेना लेकर वह मुलतान के बादशाह और दूसरे मुसलमानों के
विरूद्घ युद्घ लड़ता है।….उसकी घुड़सवार सेना देश भर में प्रसिद्घ थी।
जिस समय अलमसूदी भारत आया था उस समय मिहिर भोज तो स्वर्ग
सिधार चुके थे परंतु गुर्जर शक्ति के विषय में अल मसूदी का उपरोक्त विवरण
मिहिर भोज के प्रताप से खड़े गुर्जर साम्राज्य की ओर संकेत करते हुए
अंतत: स्वतंत्रता संघर्ष के इसी स्मारक पर फूल चढ़ाता सा प्रतीत
होता है।
दक्षिण भारत और उत्तर भारत सहित पूरब व पश्चिम के
सभी शासकों को संस्कृति नाशक इतिहासकारों ने नितांत उपेक्षित करने
का राष्ट्रघाती प्रयास किया। पाठक तनिक ध्यान दें कि एक
विदेशी आक्रांता मौहम्मद बिन कासिम हमारे समकालीन इतिहास के लिए
इतना कौतूहल और जिज्ञासा का विषय क्यों बन गया, जिसने भारत पर
केवल आक्रमण किया यहां पर कोई लंबा शासन नही किया,
ना ही यहां की जनता के लिए कोई विशेष सुधारात्मक कार्य किये।
जबकि पूरे देश के तत्कालीन राजाओं ने और सम्राट मिहिर भोज देश के लिए
और देश की जनता के लिए जो कुछ किया वह अंतत: किस षडयंत्र के
छलप्रपंचों की भेंट चढ़ गया? चिंतन करना पड़ेगा,
छलप्रपंचों को समझना पड़ेगा, और उनकी एक एक परत को उधेड़-उधेड़ कर
देखना पड़ेगा कि अंतत: हमें हमारे ही अतीत से और गौरवमयी इतिहास से
क्यों और किसलिए इतनी निर्ममता से काट दिया गया?
क्या सब में एक षडयंत्र दृष्टिगोचर नही होता? जब तथ्य हमारे पास हैं और
हम जानते हैं कि पूरा देश कभी भी बिना शासकों के नही रह
सकता तो ऐसा काल हम अपने विषय में ही क्यों काल्पनिक आधार पर तैयार
कर लेते हैं कि अमुक काल में देश में कोई राजनीतिक तंत्र कार्य ही नही कर
रहा था? हमारे पास राजनीतिक तंत्र था पर उस राजनीतिक तंत्र को हमने
स्वतंत्रता का स्मारक न बनाकर उपेक्षा और छलप्रपंचों की भेंट
चढ़ा दिया। सारा भारत एक राजनीतिक चिंतन से अभिभूत था और
मां भारती की वंदना में लगा हुआ था, दोष केवल इतना था कि हमारे पास
सम्राट हर्षवर्धन और सम्राट मिहिर भोज के पश्चात शनै: शनै:
सम्राटों की परंपरा अपने अधोपतन की ओर अग्रसर हो रही थी।
हो गये तीन से आठ
भारतीय राजनीतिक शक्तियां हर्ष के पश्चात एक से तीन हो गयीं। ये सारी की सारी शक्तियां भारत में प्रतापी चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने के लिए संघर्ष करने लगीं। इनकी संघर्ष की यह भावना ही हमारे लिए कष्टindia1कारी बनी। गुर्जर प्रतिहार शासक, पाल शासक और राष्ट्र कूट शासक परस्पर उलझने लगे। फलस्वरूप इनकी शक्ति का पतन और क्षरण होने लगा। तब देश के विभिन्न भागों में कई राजवंश उभरे। इन सारे राजवंशों में से प्रमुख राजवंशों की संख्या आठ थी। इस प्रकार शक्ति का एकीकरण होने के स्थान पर विघटन होने लगा। सार्वभौम सत्ता राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में आवश्यक होती है, जिसका इन आठ राजवंशों की उपस्थिति के कारण अब अभाव सा हो गया। परंतु हमारा मूल विषय है कि हमारा देश कभी पूर्णत: गुलाम नही रहा, तो इसी विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जाएगा।

सर्वप्रथम हम नये आठ राजवंशों के विषय में सूक्ष्म सी जानकारी लेते हैं। गुर्जर प्रतिहार वंश के पतन अथवा हृास काल में इस वंश के भग्नावशेषों पर ही नए आठ राजवंशों में से कई ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के स्वर्णिम सपने बुनने प्रारंभ किये थे। इनमें जेजाकभुक्ति (आजकल का बुंंदेलखण्ड) का चंदेल राजवंश सर्वप्रमुख है। इसका प्रथम शासक नन्नुक था। ये राजवंश प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार वंश का सामन्त था। गुर्जर प्रतिहारों से मुक्त होकर इस वंश ने गोपगिरि (ग्वालियर) भास्वत (भिलसा) काशी को भी अपने साम्राज्य में मिलाया। महमूद गजनी ने दसवीं शताब्दी के अंत में जब भारत पर आक्रमण करने आरंभ किये तो उस समय राजा धंग चंदेल इस राज्य का स्वामी था।

(2) चंदि का कल्चूरि राज्य

इस वंश की राज्य की स्थिति आजकल के मध्य प्रदेश के जबलपुर के आसपास थी। इनकी राजधानी का नाम त्रिपुरी था। यह राजवंश प्राचीन है, परंतु गुर्जर प्रतिहार शासकों के काल में इसकी स्थिति केवल एक सामंत की सी थी। इस वंश की स्थापना कोकल्ल प्रथम ने की थी। गजनी के आक्रमण के पूर्व इस वंश के कई शासक आए। गजनी के आक्रमण समय कोकल्ल द्वितीय शासन कर रहा था। चेदि के अलावा कलचूरि वंश का एक अन्य राज्य भी था जिसे इतिहास में ‘सरयूपार का कल्चूरि राज्यÓ कहा जाता है। इसकी स्थिति सरयू और गण्डक नदियों के मध्य थी।

(3) मालवा का परमार वंश

चेदि के पश्चिम में धारा नगरी में मालवा का परमार वंश शासन कर रहा था। परमार राजपूत आबू पर्वत के समीपवर्ती चंद्रावती तथा अचल गढ़ के क्षेत्र में निवास करते थे। कालांतर में वे वहां से मालवा आ बसे थे। प्रारंभ में ये लोग भी गुर्जर प्रतिहार शासकों के अधीन थे, परंतु इस वंश की शक्ति क्षीण होने पर अन्य वंशों की भांति ये वंश भी स्वतंत्र हो गया। इस वंश का प्रतापी शासक मुंज था जो कि 973 ई. के लगभग राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ था। उससे पूर्व सीयम इस राज्य पर शासन रहा था। सीयम का मुंज (मूंज के खेत में मिलने से) दत्तक पुत्र था। सीयम को संन्यास लेने पर मुंज ही शासक बना।

इसने अपने राजवंश की सीमाओं में वृद्घि की। 995 ई. के लगभग इसके शासन का अंत हो गया। बाद में इसके भाई सिन्धुराज ने शासन किया। सिंधुराज अपने पिता के द्वारा मुंज के गोद लेने के उपरांत उत्पन्न हुआ था। इसी सिंधुराज का लड़का राजा भोज था। गजनी के तुर्कों के आक्रमण के समय अपने राजवंश का शासक यही भोज ही था। उसका नाम भारतवर्ष में प्रचलित दन्तकथाओं में अब तक बड़े सम्मान से लिया जाता है।

(4) राजपूताना के राज्य

राजपूताना के अनेक राजपूत राज्य 8वीं नौवीं शती में गुर्जर प्रतिहार सम्राटों के आधिपत्य में रहे थे। इनमें चाहमानों का शाकम्भरी का राज्य (वर्तमान साम्भर) चित्तौड़ का गुहिल या गहलोत राजवंश (जिसमें आगे चलकर महाराणा प्रताप उत्पन्न हुए) धनवर्गता का गुहिलवंश वर्तमान हरियाणा और दिल्ली (ढिल्लिका) का तोमरवंश, इत्यादि प्रमुख थे। ये सभी राजवंश गुर्जर प्रतिहार वंश के कभी सामन्त थे।

गुर्जर प्रतिहारों के पतन के काल में इन वंशों ने अपना अपना राज्य विस्तार करना आरंभ किया। शाकम्भरी का प्रथम शासक आठवीं शती के आरंभ में चंद्रराज था। इस वंश में आगे चलकर दुर्लभराज शासक बना, उसका उत्तराधिकारी गोविंद राज बना। जो कि गुर्जर शासक नागभट्ट (795-833 ई.) की राजसभा में सम्मानपूर्ण स्थान रखता था। इसके काल में सिंध के शासक बशर ने आक्रमण किया था, जिसे इस राजा ने असफल किया था। शाहम्भरी का पूर्ण स्वतंत्र राजा  सिंहराज था। गजनी के तुर्कों के आक्रमण के समय सिंहराज का उत्तराधिकारी विग्रहराज शाकम्भरी पर शासन कर रहा था। चौहान (चाहमान) वंश की एक शाखा नडोल पर दूसरी धौलपुर तथा तीसरी प्रतापगढ़ के प्रदेशों पर शासन कर रही थी। ये तीनों चाहमान शासकों की शाखाएं थीं जो कि कभी गुर्जर प्रतिहार सम्राटों की सामन्त थीं।

राजपूतानों का एक अन्य महत्वपूर्ण राजवंश गुहिलोत था, इसकी दो शाखाएं मेदपाट (मेवाड़) और धवगर्ता (चित्तौड़) थी। मेदपाट के प्रतापी शासक बप्पारावल का उल्लेख हमने पूर्व में किया है। मेदपाट की राजधानी कभी आधार नगरी (उदयपुर के पास) थी। कालांतर में चित्तौड़ बनी। बहुत संभव है कि अकबर के आक्रमण के समय जब राणा उदयसिंह मेवाड़ छोड़कर भागने को विवश हुए तो पुरानी राजधानी आधार नगरी को ही उदयपुर के नाम से बसाया हो। दसवीं शती में इस वंश ने स्वतंत्र शासकों के रूप में कार्य करना आरंभ किया।

दिल्ली के तोमर भी प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार वंश के सामन्त थे। तोमर राजा गोग्य ने पृथूदक (वर्तमान पिहोबा) में तीन विष्णु मंदिरों का निर्माण कराया था। यह राजा गुर्जर प्रतिहार वंश के महेन्द्रपाल प्रथम (885-908) का समकालीन था और उसके प्रभुत्व को स्वीकार करता था। यह वंश 12वीं शताब्दी के मध्य तक दिल्ली पर शासन करता रहा। हां, बाद के दिनों में यह राज्य चाहमानों के आधिपत्य में चला गया था। चाहमान विशाल देव ने तोमरों की सत्ता दिल्ली से समाप्त की थी जिससे दिल्ली और हरियाणा पर चाहमानों या चौहानों का शासन स्थापित हो गया।
गुजरात और कठियावाड़ के राज्य

गुजरात और काठियावाड़ के कई राजवंश प्रारंभ में कभी राष्ट्रकूटों के तो कभी गुर्जर प्रतिहारों के सामन्त रहे थे। परंतु राष्ट्रकूटों तथा गुर्जर प्रतिहार वंश के दुर्बल हो जाने पर वहां भी कई स्वतंत्र राज्य वंशों ने शासन करना आरंभ कर दिया था। इनमें अनहिलपाटक का चौलुक्य राज्य और सौराष्ट्र का सैंधव राज्यवंश प्रमुख हैं। अनहिलपाटक को आजकल अन्हिलवाड़ा कहा जाता है। सौराष्ट्र के सैंधव राज्य वंश की राजधानी भूताम्बिलिका (वर्तमान भुमिली) थी। इन दोनों राज्यवंशों के कई राजाओं ने देर तक शासन किया। जिनके विषय में पर्याप्त जानकारी हमें इतिहास से मिलती है।

उत्तर पश्चिमी भारत के राज्य

कन्नौज के पतन के पश्चात उत्तर पश्चिमी भारत में भी कई राज्यवंश उभर कर ऊपर आए। इनमें उत्तर पश्चिमी भारत का हिंदू शाही राज्यवंश सर्वप्रमुख हैं। गुप्तवंश में इस राज्यवंश को गुप्त शासकों ने उभरने नही दिया था। कश्मीर के राजा ललितादित्य ने भी इन्हें अपने अधीन रखा, पर अब अवसर आते ही इन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। इसके शासक कल्लर या लल्लिय का राज्यक्षेत्र काबुल तक फेेल गया था। यद्यपि 870 में काबुल को अरब सेनापति याकूब ने जीत लिया। लल्लिय ने अपनी राजधानी सिंध नदी के पश्चिमी तट पर अटक से 15 मील उत्तर की ओर स्थित उदभाण्डपुर को बनाया था। लल्लिय के पुत्र कमल वर्मा या कमलुक ने अरब अक्रांताओं को कई बार परास्त किया था, वह 904ई. में गद्दी पर बैठा था। इसके रहते अरब के मुस्लिम आक्रांता भारत में घुसपैठ नही कर पाये थे। इसी राज्यवंश में अगले शासक भीमपाल, जयपाल आदि थे। तुर्कों के आक्रमण के समय इस वंश का शासक जयपाल था। वह अत्यंत पराक्रमी था। उदभाण्डपुर से काबुल तक परचम फहराने वाले और देश की स्वतंत्रता के लिए सदा सजग रहने वाले इस राज्यवंश के प्रति भी इतिहास में उपेक्षा भाव अपनाया गया है। आज का काबुल यदि हिंदूसाही राज्यवंश को या उसके जयपाल सरीखे राजाओं को भूलता है तो बात समझ में आ सकती है लेकिन उसे भारत भी भूल जाए, यह समझ नही आता।

सिन्ध का राज्य

सिन्ध का अपना केन्द्र बनाकर अरब के आक्रान्ता भारत के गुजरात, काठियावाड़, राजपूताना और उत्तर भारत के अन्य राज्यों पर आक्रमण करते रहे। जिनका उल्लेख पूर्व में हो चुका है। नौंवी शताब्दी में अरब राज्य भी दो भागों में विभक्त हो गया-मंसूर और मुल्तान में। मंसूर का राज्य सिंध की राजधानी अलोर से लेकर समुद्र तट तक फेेला था जबकि उत्तरी भाग मुल्तान राज्य के आधीन था।

सूर्य मंदिर बना दुर्बलता

मुलतान में उस समय एक प्राचीन सूर्य मंदिर था। भारत वर्ष के गुर्जर प्रतिहार शासकों ने कई बार मुलतान के मुस्लिम शासक को परास्त कर मुलतान को अपने राज्य में मिलाने का प्रयास किया था, लेकिन मुस्लिम शासकों ने सूर्य मंदिर को नष्ट करने की धमकी देकर गुर्जर प्रतिहारों से अपना पीछा छुड़ाने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार एक मंदिर के टूटने का डर हमारे शासकों से मुस्लिम आक्रान्ताओं की रक्षा कराता रहा।

कश्मीर

कश्मीर में नागककोर्ट वंश का राज्य था। जिसका अंत 855 ई. में माना गया है। यहां का शासक ललितापीड़ एक जयादेवी नामक कन्या के प्रेमजाल में ऐसा फंसा कि उसी के भाईयों द्वारा उसका अंत (855ई.में) कर दिया गया। जयादेवी के भाई उत्पल के लड़के अवन्ति वर्मा ने इस वंश को समाप्त कर उत्पल वंश की स्थापना की। इस वंश में अवन्ति वर्मा (855ई.-883ई.) स्वयं एक प्रतापी शासक था। उसने अवन्तिपुर नामक नगर बसाया तथा नहरें आदि निकालकर जनहित के बहुत से अच्छे कार्य भी किये। अवन्ति वर्मा के बाद उसका लड़का शंकर वर्मा (855ई.-902ई.) काश्मीर की गद्दी पर बैठा। उसने त्रिगर्त (कांगड़ा) तक अपना राज्य विस्तार किया। इस राजा की मृत्यु के पश्चात उत्पल वंश धीरे धीरे पतन की ओर बढ़ने लगा था। इसके पश्चातवर्ती शासक क्रूर और प्रजा पीड़क सिद्घ हुए, तब ब्राह्मणों की एक सभा ने यशस्कर को कश्मीर का राजा नियुक्त किया। यशस्कर एक योग्य और न्यायप्रिय शासक सिद्घ हुआ। उसने 936ई. से 948ई. तक कश्मीर पर शासन किया। उसके मंत्री पर्वगुप्त ने उसकी हत्या कर दी और राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया था। परंतु अगले ही वर्ष पर्वगुप्त की मृत्यु हो गयी तो उसका पुत्र क्षेमगुप्त सिंहासन पर बैठा। वह भी अयोग्य सिद्घ हुआ। 958 ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र अभिमन्यु काश्मीर का राजा बना। लेकिन अभिमन्यु अभी अल्पव्यस्क ही था इसलिए राजमाता दिद्दा ने उसके नाम पर राज्य संचालन किया। दिद्दा महारानी एक योग्य शासिका थी परंतु अपने ही दरबारी तुंग के साथ उसके अनैतिक संबंध थे। इसलिए वह अधिक लोकप्रिय सिद्घ न हो सकती। उसने अपने ही बेटे अभिमन्यु की मृत्यु (972 ई.) हो जाने पर शासन सूत्र अपने हाथों में ले लिया और पूर्ण शासक बनकर राजा करने लगी। प्रेमासक्ता रानी ने अपने पौत्रों को भी मरवा दिया, जिससे कि वह निष्कंटक राज्य कर सकें। 980ई. में वह पूर्ण शासिका बनी थी। 1003 ई. में उसकी मृत्यु हुई तो उससे पूर्व अपने भतीजे संग्राम राज को उसने अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। जिसने कश्मीर में लोहरवंश की स्थापना की। इसने गजनी के विरूद्घ शाही राजा त्रिलोचन पाल की सहायता के लिए महामंत्री तुंग के नेतृत्व में सेना भेजी थी।

(8) पर्वतीय क्षेत्र के अन्य राजा

हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में उस समय राजपुरी दार्वाभिसार, कीर चम्बा, और कुलूत (कुल्लू) में विभिन्न राज्यों की सत्ता स्थापित थी। इसी प्रकार वर्तमान उत्तराखण्ड के गढ़वाल तथा कुमायूं क्षेत्रों के भी अलग-अलग राजा थे। इसी प्रकार अलमोड़ा के बैजनाथ नामक स्थान पर उस समय कार्त्तिकेयपुर नामक नगर था जो कि अल्मोड़ा के राजाओं की राजधानी रही थी।

हमारा आशय क्या है

गुर्जर प्रतिहार वंश के पतन के पश्चात भारत में विभिन्न राजवंशों का जिस प्रकार उल्लेख हमें उपलब्ध होता है उसे यहां स्पष्ट करने का या उसका यहां वर्णन करने का हमारा आशय मात्र इतना है कि गजनी के आक्रमण के समय तक भारत की राजनीतिक शक्तियों में विखण्डन तो था पर राष्ट्रीयता का भाव पूर्णत: जीवित था। तभी तो इस्लामिक आक्रांताओं के विरूद्घ वे परस्पर एक दूसरे की सहायता करते रहे। शत्रु हमारी सीमा पर घात लगाये बैठा रहा और हमारे शासक निरंतर तीन सौ वर्षों तक उनके आक्रमणों के प्रति जागरूक रहे। शत्रु ताक में बैठा था कि कब हम सो जाएं और वह अपना काम कर जाए, पर हम थे कि सो ही नही रहे थे। एक तो हम इस तथ्य को स्थापित करना चाहते हैं।दूसरे जिस गुर्जर प्रतिहार वंश ने अपना प्रतापी विशाल राज्य स्थापित किया और समकालीन इतिहास में राष्ट्रीय एकता का पवित्र स्मारक स्थापित किया उस वंश के साथ इतना अन्याय क्यों किया गया कि उसे अपेक्षित सम्मान और स्थान इतिहास में दिया ही नही गया? यही स्थिति अन्य शासकों की है। जब पूरा भारत स्थानीय राजाओं के राज्य में स्वाधीन था तो 712 ई. में मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के पश्चात से गजनी के आक्रमण के समय (लगभग 1000 ई.) तक पूरे भारत को ऐसा क्यों दिखाया जाता है कि जैसे सारे भारत से ही इस काल में राजनीतिक चेतना की बिजली गुल हो गयी थी और सर्वत्र पूर्णत: अंधकार छा गया था। विशेषत: तब जबकि राष्ट्रीय एकता के विभिन्न स्मारक इस काल में बड़े ही गौरवमयी ढंग से स्थापित किये गये थे पूरे भारत वर्ष में फेेले विभिन्न राजवंशों के इतिहास को समेकित करने की आवश्यकता है। जो इतिहासकार ये कहते हैं कि उस समय के भारतीय राजवंशों में परस्पर समन्वय नही था और शत्रु से भिड़कर राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का भाव नही था वो अंशत: सत्य हो सकते हैं, पूर्णत: नही। ऐसे लोगों का यह आरोप या धारणा भी है कि उस समय भारत में राष्ट्र ही नही था। इनका यह आरोप या धारणा तो नितांत निर्मूल ही है।

भ्रान्ति निवारण

इन इतिहासकारों का ज्ञान अपूर्ण है। भारत में राष्ट्र प्राचीन काल से रहा है। राष्ट्र एक अमूर्त्त भावना होती है। जिसे उस देश के सांस्कृतिक,सामाजिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, धार्मिक व नैतिक मूल्य बलवती करते हैं। विभिन्न राज्यवंशों के रहते हुए भी भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और नैतिक मूल्य बराबर क्रियाशील थे। हां, राजनीतिक रूप से विभिन्न राजवंश परस्पर संघर्षरत अवश्य थे। परंतु वह संघर्ष भी सम्राट बनने के लिए था, जिसका अर्थ था पूरे देश में राजनीतिक एकता लाना, राजनीतिक मूल्यों से अलग जितने ऊपरिलिखित मूल्य हैं वे सब तो कार्य करते रहे पर राजनीतिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी। फिर भी एक बात संतोषजनक थी कि बाहरी आक्रामकों के विरूद्घ अधिकांश राजवंश एक थे और यह भाव भी राष्ट्र होने के भाव को ही इंगित करता है। परस्पर संघर्ष करते करते इन विभिन्न राजवंशों में से कोई राजवंश सम्राट तो नही बन पाया। परंतु लंबे संघर्षों के कारण इनमें परस्पर घृणा का भाव अवश्य विकसित होने लगा। सत्य को स्थापित करने या नकारने में कभी भी अतिरेक नही वर्त्तना चाहिए। न्यायपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना ही उचित होता है। अब तनिक विचार करें कि भारत में यदि राष्ट्र नही था तो कश्मीर का राजा गुर्जर राजा को अरबों के विरूद्घ सहायता क्यों देता? राष्ट्र था तभी तो कश्मीर ने भारत की सीमाओं की चिंता की। हां, कश्मीर का राजा अपने राज्य की सीमाओं के प्रति भी किसी अन्य देशी राजा से यही अपेक्षा करता था कि हमें मत छेड़ना। हम अपनी स्वतंत्रता अलग बनाये रखेंगे। अपनी स्वतंत्रता के प्रति सजग रहना कोई अपराध नही था-केवल एक दोष था और यह दोष भी एक दिन में नही आ गया था, अपितु बहुत दूर और बहुत देर से क्षरण की यह प्रक्रिया चल रही थी।

अश्वमेध यज्ञ की परंपरा

हमारे यहां अश्वमेध यज्ञ करने की परंपरा रही है। अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार साधु समाज उसी राजा को देता था जिसके राज्य में प्रजा पूर्णत: सुखी, संपन्न और प्रसन्न रहती थी। किसी राजा के राजतिलक के समय वह राजा अपने राज्य की भूमि को तिलक करने वाले पुरोहित को ही दान दिया करता था। फिर वह ब्राह्मण उस दान में ली गयी भूमि को (जिसे राष्ट्र कहा जाता था) पुन: अपने राजा को लौटा देता था। पुरोहित धर्म का प्रतीक था तो राजा दण्ड का प्रतीक था। पुरोहित और राजा का ब्रह्म बल और क्षत्र बल मिलकर राष्ट्र का निर्माण करते थे। अकेले ब्रह्मबल से शासन नही चलता, इसलिए ब्रह्मबल का प्रतिनिधि पुरोहित उस राष्ट्र को राजा को देता था कि तुम क्षत्रबल के द्वारा इसका शासन करो। इससे राजा ब्रह्मबल का प्रतिनिधि बनकर धर्मानुसार शासन चलाता था। धर्मानुसार शासन चलाने वाले ऐसे राजा के राज्य कार्यों की समीक्षा धर्मसभा करती थी और यदि राजा अपनी परीक्षा में सफल हो जाता था तो उसे अश्वमेध यज्ञ की अनुमति दी जाती INDIAथी। तब ऐसे राजा के पीछे धर्म की शक्ति होती थी और उसके आभामण्डल के सामने अधिकांश छोटे छोटे राजा स्वयं ही झुक जाते थे। महाभारत के युद्घ के पश्चात सामान्यत: इस उच्च राजनीतिक व्यवस्था में क्षरण होने लगा था। परिणाम स्वरूप राजा अपने राजधर्म से राष्ट्रपति (सम्राट) बनने की भावना उनमें लुप्त हो रही थी और सैनिक अभियानों के प्रजापीड़क कार्यों से वो अपने को ‘राष्ट्रपति’ बनाना चाहते थे। स्पष्ट है कि धर्म की शक्ति तब उनके आभामण्डल से लुप्त होने लगी थी। जिसके कारण संघर्ष की अनैतिकता बढ़ी और उस अनैतिकता ने घृणा का रूप लेकर राष्ट्र की भावना को दूषित व प्रदूषित किया। सत्य को इस प्रकार विवेकपूर्ण ढंग से समझने में ही लाभ है। राष्ट्र की भावना दूषित व प्रदूषित हुई यह कहना ही न्याय संगत है। ये कहना तो सर्वथा अन्यायपरक ही होगा कि भारत में तब राष्ट्र था ही नही। विश्व की सबसे प्राचीन जिस संस्कृति में राष्ट्रोपासना प्रारंभ से ही रही है, उसमें राष्ट्र का अभाव देखना समीक्षक के अध्ययन की कमी को स्पष्ट करता है। यह भी एक बौद्घिक राष्ट्रघात ही है।

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