गुरुवार, 19 सितंबर 2013

पुरातन भारतीय परंपरा के अनुसार सृष्टि और सृष्टिकर्ता

पुरातन भारतीय परंपरा के अनुसार सृष्टि और सृष्टिकर्ता

सृष्टि में सृजन-विसृजन का क्रम सदैव ही चलता रहता है। जिन तथ्यों को हम आज वैज्ञानिक सत्य मानते हैं, उन की जानकारी का श्रेय उन लोगों को जाता है , जो प्रकृति के निकट रहते थे , जिन्हें हम वनवासी कहते हैं। वही हमारे पूर्वज थे , जिन्होंनें निजि अनुभूतियों से प्राकृतिक तथ्यों का ज्ञान संचित कर के आने वाली पीढि़यों के लिये संकलन किया। वही ज्ञान आज के विज्ञान की आधारशिला हैं।

पुरातन भारतीय ग्रंथों के अनुसार सृष्टि की रचना अणुओं से हुई है जो शक्ति से परिपूर्ण हैं और सदा ही स्वचालति रहते हैं। वह निरन्तर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। आपस में जुड़ते हैं, और फिर कई बार बिखरते-जुड़ते रहते हैं। जुड़ने – बिखरने की परिक्रिया से वही अणु-कण भिन्न भिन्न रूप धारण कर के प्रगट होते हैं तथा पुनः विलीन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रिज़म के भीतर रखे काँच के रंगीन टुकड़े प्रिज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक बार अणुओं के बिखरने और जुड़ने से सृष्टि में भी सृजन – विसर्जन का क्रम चलता रहता है। पर्वत झीलें, महासागर, पशु-पक्षी, तथा मानव उन्हीं अणुकणों के भिन्न भिन्न रूप हैं। सृष्टि में जीवन इसी प्रकार अनादि काल से चल रहा है।

जड़ और चैतन्य

सृष्टि में जीवन दो प्रकार के हैं – जड़ और चैतन्य। सभी प्रकार  की वनस्पतियां जड जीवन की श्रेणी में  आतीं हैं। इन का जीवन वातावरण पर निर्भर करता है। यदि वातावरण अनुकूल हो तो फलते फूलते हैं अन्यथा मर जाते हैं। जड़ जीवन के प्राणी स्वयं को अथवा वातावरण को बदल नहीं सकते और ना ही प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं।

हर जीवित प्राणी में भोजन पाने की, फलने फूलने की, गतिशील रहने की, अपने जैसे को जन्म देने की तथा संवेदनशील रहने की क्षमता होती है। सभी जीवत प्राणी जैसे कि पैड़-पौधे, पशु-पक्षी भोजन लेते हैं, उन के पत्ते झड़ते हैं, वह फल देते हैं, मरते हैं और पुनः जीवन भी पाते हैं

चैतन्य श्रैणी में पशु-पक्षी, जलचर तथा मानव आते हैं। इन का जीवन भी वातावरण पर आधारित है, किन्तु इन के पास जीवित रहने के अन्य विकल्प भी हैं। यह प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं। अपने – आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं, अपने भोजन, आवास तथा सुरक्षा के लिये अन्य विकल्प भी ढूंड सकते हैं। जड़ प्राणी परिवर्तनशील  नहीं होते इस के विपरीत चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं।

मानव की श्रेष्ठता

मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल सकता है अपितु वातावरण को भी परिवर्तित करने की क्षमता प्राप्त कर चुका है। मानव मरूस्थल में, वनों में, पर्वतों पर, एवं अति-अधिक प्रतिकूल प्रतिस्थितियों में भी जीवित रहने का क्षमता प्राप्त कर चुका है। वृक्षों को काट कर, नये वृक्ष उगा कर, दुर्गम क्षेत्रों में जल की व्वस्था कर के, भोजन के अतिरिक्त साधन जुटा कर, विद्युत उत्पादन कर के, रोगों के उपचार के लिये औषधियों की खोज कर के तथा अन्य कई प्रकार के वैज्ञियानिक आविष्कारों दुआरा मानव वातावरण को नियन्त्रित कर चुका है।

इन उपलब्धियों से मानव ने ना केवल अपने जीवन को परिवर्तित किया है बल्कि अन्य जड़ एवं चैतन्य प्राणियों के जीवन में भी अपना अधिकार बना लिया है। समस्त प्राणियों में श्रेष्टता प्राप्त कर लेने के फलस्वरूप मानवों का यह उत्तरदाईत्व भी है कि वह अन्य प्राणियों के संरक्षण के लिये परियावरण की रक्षा भी करें क्योंकि मानव पशु-पक्षियों तथा अन्य प्राणियों से अधिक सक्ष्म भी हैं।

प्राणियों में समानता

जीवन आत्मा के बल पर चलता है। आत्मा ही हर प्राणी के अन्दर निवास करती है तथा हर प्राणी की देह का संचालन करती है। जिस प्रकार विद्युत कई प्रकार के उपकरणों को ऊरजा प्रदान कर के उपकरणों की बनावट के अनुसार विभिन्न प्रकार की क्रियायें करवाती है उसी प्रकार आत्मा हर प्राणी की शारीरिक क्षमता के अनुसार भिन्न भिन्न क्रियायें करवाती है। जिस प्रकार विद्युत एयर कण्डिशनर में वातावरण को ठंडा करती है, माइक्रोवेव को गर्म करती है, कैमरे से चित्र खेंचती है, टेप-रिकार्डर से ध्वनि अंकलन करती है, बल्ब से रोशनी करती है तथा करंट से हत्या भी कर सकती है – उसी प्रकार आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। विद्युत काट देने के पशचात जैसे सभी उपकरण  अपनी अपनी चमक-दमक रहने का बावजूद निष्क्रिय हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकल जाने पर शरीर निष्प्राण हो जाता है।

हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही स्त्रोत से विद्युत प्रदान कर सकते हैं और सभी उपकरण अलग अलग तरह की क्रियायें करते हैं। उसी प्रकार सभी प्राणियों में आत्मा का स्त्रोत्र भी ऐक है और सभी आत्मायें भी ऐक जैसी ही है, परन्तु वह भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। आत्मा शेर के शरीर में हिंसा करवाती है और गाय के शरीर में दूध देती है, पक्षी के शरीर में उड़ती है तथा साँप के शरीर में रेंगती है। इसी प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा केंचुऐ के शरीर की आत्मा से अधिक प्रभावशाली है। आत्मा के शरीर छोड़ जाने पर सभी प्रकार के शरीर मृत हो जाते हैं और सड़ने गलने लगते हैं। आत्मिक विचार से सभी प्राणी समान हैं किन्तु शरीरिक विचार से उन में भिन्नता है।

शरीरिक विभिन्नताओं के बावजूद सभी प्राणियों में बहुत सारी समानतायें भी हैं जिन के आधार पर हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि उन सभी का सर्जन स्त्रोत्र एक ही है। हर चैतन्य प्राणी के पास सूघंने के लिये एक ही नासिका है जो दो आँखों के मध्य में स्थित है, सुनने के लिये दो कान और बोलने के लिये एक ही मुख है, पकड़ने के लिये दो हाथ और चलने-फिरने के लिये दो ही पैर हैं। सभी प्राणियों में भोजन खाने, चबाने, पचाने, मल विसर्जन करने तथा अपने जैसे दूसरे जीव को उत्पन्न करने की एक समान प्रणाली है। सभी प्राणियों के शरीर के अंग उन के शरीर के आकार अनुसार अन्य अंगों के साथ ताल मेल रख के कार्य करते हैं और किसी जंगली घास की तरह नहीं उग पड़े। सभी अंग अत्यन्त सावधानी तथा कार्य-कुशलता के विचार से इस प्रकार अन्य अंगों के साथ संलग्न किये गये हैं कि सभी परिस्थितियों में शरीर को पूर्ण क्षमता प्रदान कर सकें। कुछ अंग आवश्यक्तानुसार शरीर के अन्दर से उपयुक्त समयोपरान्त ही प्रगट होते हैं जैसे कि दाँत आदि।

समस्त प्राणियों के शरीर में सामन्यता एक जैसी क्रियात्मक प्रणालियां हैं जैसे कि रक्तसंचार, श्वास, पाचन तथा स्नायु प्रणाली इत्यादी। सभी प्रणालियाँ अपने कार्य-क्षैत्र की प्रतिक्रियायों को प्राप्त करने तथा विशलेश्न करने के पश्चात उन को आवश्यक्तानुसार दूसरे अंगों को भेजनें में सक्ष्म हैं। प्रणालियां स्वचालित हैं तथा किसी प्रणाली में पनपी त्रुटि अन्य प्रणालियों को भी प्रभावित करती है। इतना ही नही बल्कि एक ही जीवित शरीर में कितनी प्रकार के अन्य सूक्ष्म जीवाणु  भी पलते रहते हैं जैसे कि रक्तकण, शुक्राणु तथा रोगाणु। प्रत्येक जीवाणु की निजि आयु सीमा तथा शरीर है। कई जीवाणु बिना उपकरण के नंगी आँख से दिखायी तो नहीं देते लेकिन उन के अस्तीत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। सहस्त्रों प्रकार की वनस्पतियां, कीटाणु, जीवाणु, मच्छलियाँ, पशु-पक्षी और वानर इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

मानवों के पास अन्य प्राणियों की अपेक्षा कई प्रकार की शरीरिक तथा मानसिक क्षमतायें अधिक हैं। पशु-पक्षियों की तुलना में मानव ना केवल अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियन्त्रण रख सकते हैं अपितु अन्य प्राणियों की भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं पर भी नियन्त्रण रख सकते हैं। अपनी इच्छानुसार मानव दूसरों के अन्दर क्रोध, प्रेम, वासना, लोभ, तथा भय के भाव उत्पन्न कर उन्हें अपनी इच्छानुसार नियन्त्रित भी कर सकते हैं। मानव परियावर्ण में होने वाले बदलाव का पूर्वाभास कर के तथा परिणाम का विचार कर के अग्रिम कारवाई करने में भी सक्ष्म हैं। मानव दूसरे मानवों के अतिरिक्त पशु-पक्षियों से भी विशेष प्रणाली दुआरा संदेशों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। मानव अपनी इच्छानुसार अपने निजि कार्यक्षैत्र का च्यन करते हैं और अपने को कार्यवन्त रखने के लिये उन्हों ने अपने आप को उच्चतर मानसिक शक्तियों से पूर्णतया सक्षम बना लिया हैं।

इन समानताओं के आधार पर निस्सन्देह सभी प्राणियों का सृजनकर्ता कोई एक ही है क्योंकि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। थोड़ी बहुत विभिन्नता तो केवल शरीरों में ही है। सभी प्राणियों में ऐक ही सर्जन कर्ता की छवि निहारना तथा सभी प्रणियों को समान समझना ऐक वैज्ञानिक तथ्य है अन्धविशवास नहीं।

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