सोमवार, 18 अगस्त 2014

भारतीय शिक्षा का सत्य स्वरुप

भारतीय शिक्षा का सत्य स्वरूप 

हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिये कि अंग्रेजों ने इस देश में योजनापूर्वक लम्बे समय तक इस बात का प्रयास किया, कि इस देश का राष्ट्रीय समाज अपने इतिहास, संस्कृति तथा सभ्यता को पूरी तरह भुला दे. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये, उन्होंने शिक्षा की एक योजना बनाई. इस योजना के अंग्रेज मूलपुरुष ने कहा था, कि भारत में काले अंग्रेजों का निर्माण करना है. इसी प्रकार की स्वत्वशून्य शिक्षा की रचना, हमारे देश में चलती रही.

अंग्रेजों की इस कूटनीति को, उस समय हमारे देश के जानकार लोगों ने पहचाना था. इसीलिये देश की स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान अंग्रेजी शिक्षा का विरोध भी होता रहा था. पराधीनता के उस काल में, इसलिये स्वत्व और स्वाभिमान का आवेश था. राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से कुछ प्रयत्न भी प्रारम्भ हुये थे. उसी परम्परा के आधार पर शिक्षा-दीक्षा के लिये समाज प्रयत्नशील रहा था. परन्तु परकीय शासन समाप्त होते ही, यह स्वत्व की प्रेरणा लुप्त हो गई. हमारा जीवन, परानुकरण के दुश्चक्र में फँस गया. अपने ‘स्व’ का विस्मरण ही नहीं हुआ, अपितु हम उसका निषेध तक करने लगे. रहन-सहन, चारित्र्य, कर्तव्यबोध, वैचारिक भूमिका आदि किसी भी दिशा में देखें, तो हम पायेंगे कि यहाँ  विवेकशून्य अन्धानुकरण मात्र चल रहा है.

अपनेपन का विस्मरण और विदेशियों की अन्धी नकल के फेर में पड़कर हम अपने जीवन के मूलगामी सिद्धान्तों को भी भुलाते जा रहे हैं. इसीलिये शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझने में भी असमर्थ हो रहे हैं. बड़े-बड़े लोगों के मुँह से सुनने को मिलता है, कि शिक्षा रोजगारोन्मुख होनी चाहिये. ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपनी आवश्कतायें पूरी करता है. पैसा कमाता है. इसका अर्थ यह हुआ, कि शिक्षा मनुष्य को पैसा कमाने योग्य बनाती है. शिक्षा का यह अर्थ अत्यन्त निकृष्ट है.

शिक्षा का वास्तविक अर्थ है मनुष्य को जीवन के अन्तिम लक्ष्य की ओर उन्मुख करना. वास्तव में शिक्षा तो वह है, जिसके द्वारा मनुष्य उत्तरोत्तर अपनी उन्नति करता हुआ जीवन के सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त कर सके. यह कुरुक्षेत्र की भूमि है. कौरव-पांडवों का युद्ध, इसी भूमि पर हुआ बताया जाता है. युद्ध प्रारम्भ होने के दिन श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता द्वारा धर्मवृत्ति का उपदेश करते हुए अर्जुन को प्रेरित किया था. इसी उपदेश के अन्तिम भाग में मनुष्य-जीवन के लक्ष्य के विषयों में इस प्रकार का उल्लेख आया है -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु.

मामेवैष्यसि सत्यं त प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ..

‘मन्मना’ याने अपने याने अपने अन्तःकरण में मुझे पूरी तरह समा लें, अपना अन्तःकरण मेरे रंग में रंग लें. ‘मद्भक्तो’ अर्थात् मेरा भक्त याने जो विभक्त नहीं, उसे भक्त कहते हैं. इसलिये मुझसे विभक्त मत रहना.‘मद्याजी’ मेरे लिये यज्ञरूप जीवन चला और ‘मां नमस्कुरु’ याने वह नमस्कारपूर्वक मुझे समपर्ण कर दे.

यहाँ पर ‘मुझे’ अथवा ‘मन्मना’ का जो शब्द-प्रयोग हुआ है, वह श्रीकृष्ण जी ने व्यक्तिगत रूप से स्वयं के बारे में किया है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं. यहाँ श्रीकृष्ण नामक कोई व्यक्ति नहीं, अपितु सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय की जो मूल शक्ति भगवान के रूप में है, उसके लिये कहा गया है – ‘मन्मना भव’.

शिक्षा का अर्थ है मनुष्य को जीवन के इस अन्तिम लक्ष्य की ओर उन्मुख करना, तैयार करना. इस अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आवश्यक है, कि मनुष्य में अनेक प्रकार के सद्गुण हों. ये सद्गुण सहसा नहीं आयेंगे. इनके लिये प्रयत्न करना होगा. इसीलिये इन गुणों के संस्कार बचपन से ही अपने जीवन में करते रहने की आवश्यकता रहती है.  इन सद्गुणों का उल्लेख कई बार हमारे समाज-जीवन में होता रहता है. सच्चाई से रहना, किसी के बारे में अपने अन्तःकरण में द्वेष की, घृणा की भावना न रखना, काया, वाचा, मनसा, पवित्र रहना, काम-कंचन के सब प्रकार के व्यामोह से दूर रहना, अपने-आप को पूरी तरह काबू में रखना, इस प्रकार अन्तःकरण को विशाल बनाना कि पूरा विश्व ही मेरा परिवार है, इस विशाल मानव-समाज की सेवा में स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर देना, इस समर्पण में भी कोई स्वार्थ मन में आने न देना आदि संस्कार बहुत आवश्यक हैं.

सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानने की विशाल भावना में यह तथ्य अन्तर्भूत है. भारतीय जीवनदृष्टि की विशेषता है, कि विश्व के प्रत्येक भू-भाग में रहने वाला समाज अपने वैशिष्ट्य

से जीवन यापन करे. अपनी परम्परागत जीवन-प्रणाली को अपने देश में चलाने से, वह समाज उस देश के साथ सम्बद्ध रहता है. देश और समाज की इस सम्बद्ध भावना के फलस्वरूप, राष्ट्र के रूप में वे जगत् के सामने उपस्थित होते हैं, इसीलिये हमारी यह मान्यता है कि प्रत्येक राष्ट्र का अपना वैशिष्ट्य है और वह वैशिष्ट्य बना रहना विश्व की प्रगति में नितांत आवश्यक है. विश्व के विभिन्न मानव-समुदायों की इन जीवन-विशेषताओं को समाप्त करने का अर्थ होगा मनुष्य के हाथ, पैर, कान, नाक आदि सभी अवयवों को तोड़-मरोड़कर केवल मांस के एक गोले के रूप में देखना. क्या मनुष्य का ऐसा रूप हमें ग्राह्य लगेगा? यह बात अखिल जगत् के मानव के लिये कल्याणकारी कदापि नहीं हो सकती. इसलिये ऐसी स्थिति उत्पन्न करना ही विशालता की ओर जाना है कि विश्व के सभी मानव-समुदाय अपनी-अपनी विशेषताओं से अखिल मानवता का पोषण करें और जगत् को बहुविध विशेषताओं से पूर्ण देखकर आनन्द का अनुभव करें. सभी राष्ट्रों को अपने वैशिष्ट्य का आविष्कार करते हुए तथा उन विशेषताओं का सब प्रकार से संवर्धन करते हुए आपस  में मित्रता, प्रेम एवं बन्धुता से रहना चाहिये. सम्पूर्ण जगत् का हित साधनेवाला यह विचार अपने सामने रखकर चलना चाहिये. यह दृष्टि यदि नहीं रही, क्षुद्र स्वार्थवश आपस में मित्र-भाव का लोप हो गया, तो जगत् के राष्ट्र नित्य संघर्ष करते रहते हैं. आज विश्व में ऐसी स्थिति विद्यमान है. विभिन्न मानव-समुदायों की इन विविध विशेषताओं को नष्ट करने का प्रयत्न करने वाली विचारधारायें आज विश्व पर हावी हैं. वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये, विश्व में अन्य किसी को स्वतंत्र रहने देना नहीं चाहतीं. फलस्वरूप संघर्ष होते हैं. ऐसी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने पर किसी भी भू-भाग में रहने वाले एक वैशिष्ट्यपूर्ण मानव-समुदाय,जो राष्ट्र के रूप में संगठित रहता है, उसे अपना वैशिष्ट्य सुरक्षित रखना जरूरी है. अपनी राष्ट्रीय विशेषता को सुरक्षित रखते हुए जगत् के अन्य राष्ट्रों को अपनी इन विशेषताओं का अनुभव कराते हुए उसे रहना चाहिये ताकि विश्व के मानव-समुदायों की इन विविधताओं की विशेषताओं को नष्ट करने वाली विचारधारायें जगत् का विनाश करने से बाज आयें. यह नितान्त आवश्यक कार्य है. अपनी राष्ट्रगत् विशेषताओं को सुरक्षित रखना, मानव-कल्याण का ही कार्य है.

विश्व-कल्याण की भावना से प्रेरित यह दायित्व निभाना प्रत्येक जागरूक राष्ट्र का कर्तव्य है. हमें भी इसी उत्तरदायित्व की पार्श्र्वभूमि में, विश्व की वर्तमान संघर्षपूर्ण स्थिति में अपने राष्ट्र-जीवन को सुरक्षित रखने का विचार करना चाहिये. यह कार्य सरल नहीं है. इसे वही कर सकते हैं जो राष्ट्र की परम्परा को जानते हैं. अपने राष्ट्रीय पूर्वजों का समुचित आदर करना जानते हैं. राष्ट्र और मातृभूमि से नितान्त प्रेम करते हैं. अपने अन्तःकरण में इस विशुद्ध भाव को धारण करते हैं, कि राष्ट्र-हित के सामने व्यक्तिगत हित नाम की कोई चीज ही नहीं है.

जो सोचते है कि राष्ट्ररूपी भगवान् की पूजा करने के लिये जीवन का कोई भी पक्ष दुर्बल नहीं रहने देना है, इसलिये जीवन को पूर्ण पवित्र बनाने का जो प्रयत्न करते हैं, ऐसे व्यक्तियों की संगठित शक्ति द्वारा ही राष्ट्र के वैशिष्ट्य का रक्षण एवं संवर्धन होता है, और तभी संभव होता है इस संघर्षपूर्ण विश्व में राष्ट्र को अबाधित वैभवशाली बनाये रखना.

इस उद्देश्य और कार्य की पूर्ति के लिये, राष्ट्र में राष्ट्रभक्त और चरित्रवान् लोग तैयार करना नितान्त आवश्यक है. इसीलिये छात्रों-युवकों को कहा जाता है कि उन्हें राष्ट्र की जिम्मेवारी सँभालनी है. नित्य प्रति सभी लोग छात्रों को आवाहन् करते हैं-‘‘तुम्हारे ऊपर ही राष्ट्र का महल खड़ा होने वाला है. तुम्हारे कंधों पर ही प्रगति का मन्दिर बनेगा. तुम राष्ट्र के आधारस्तम्भ हो आदि.

जब मैं ऐसी घोषणाएँ सुनता हूँ, तो मेरे मन में विचार आता है कि आधारस्तम्भ कितने मजबूत होने चाहिये? निस्संदेह, इनमें किसी प्रकार का कीड़ा लगा हुआ नहीं होना चाहिये. यदि कोई कमजोरी रहेगी, तो सम्पूर्ण राष्ट्र-मन्दिर ढह जायेगा. इसलिये हमारे छात्र अतीव उत्तम होने चाहिये. तभी वे अपने कंधों पर मन्दिर को सुरक्षित रख सकेंगे. परन्तु इस सम्बन्ध में क्या आज की स्थिति सन्तोषजनक है? दिखाई देता है कि चारों ओर विपरीत भाव व्याप्त हैं. सभी लोग चारित्र्यहीनता के संकट की बात करते हैं. चरित्र-निर्माण का तरीका क्या है ?

चारित्र्य का प्रारम्भ तो ऊपर से होता है. समाज के श्रेष्ठ पुरुषों से प्रारम्भ होकर नीचे की ओर जाता है. परन्तु आज दिखाई यह देता है कि साधनसम्पन्न श्रेष्ठ वर्ग, अपने इस उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हैं. बड़े कहलाने वाले, चारित्रिक दृढ़ता का विचार तक करने के लिये तैयार नहीं हैं. तब क्या समाज की धारणा हो सकेगी ? राष्ट्र प्रगति कर सकेगा ? सुस्थिति बनेगी ? देश में शान्तिपूर्ण, सुख-समृद्धिपूर्ण जीवन की उपलब्धि हो सकेगी.

यही कारण है कि चरित्रगत ढीलापन चारों ओर फैल रहा है. इस स्थिति में तो छात्र को चरित्रवान् बनाने का कार्य और भी अधिक महत्व प्राप्त करता है. परन्तु क्या इस ओर किसी का ध्यान है? कहना होगा कि ध्यान नहीं है. हम विचार करें तो आज की शिक्षा-व्यवस्था में दिखाई देगा कि छात्र-वर्ग में अपने राष्ट्र-जीवन का कोई अभिमान नहीं है. हम उन्हें इस सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी देने की व्यवस्था नहीं करते. उन्हें विविध पहलुओं से ज्ञानवान् और स्वाभिमानी नहीं बनाते.  आज के विद्यार्थियों में इसी कारण स्वतः के जीवन के बारे में कोई अभिमान नहीं

हैं. उन्हें राष्ट्र-जीवन की कोई जानकारी नहीं है. राष्ट्र-पुरुषों की जीवनियाँ उन्हें ज्ञात नहीं. धर्म के श्रेष्ठ उद्गाताओं का, उनके द्वारा निर्मित प्रेरणाओं का उन्हें परिचय नहीं. किसी विद्यार्थी से यदि कहा कि अपने यहाँ हल्दीघाटी का एक बड़ा युद्ध हुआ है, तो पता चलेगा कि उसको हल्दीघाटी का श्रेष्ठ प्रसंग ही मालूम नहीं! उनसे बातचीत करते समय मुझे यही विदित होता है, कि अनेक छात्रों को हल्दीघाटी और उन जैसे अन्य राष्ट्रीय प्रसंगों के पराक्रम और पौरुष की जानकारी ही नहीं.

एक बार मैंने कुछ विद्यार्थियों से कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज के इतिहास के कालखंड में पावन-खिण्ड नामक एक स्थान का उल्लेख आता है, जहाँ अनोखे पराक्रम, देशभक्ति और समर्पण-भाव का बड़ा प्रेरक प्रसंग उपस्थित हुआ है. किन्तु मुझे दिखाई दिया कि जिन्हें मैं यह बता रहा था, उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं है. उनमें से एक ने पूछा कि यह स्थान किस बात के लिये प्रसिद्ध है ? मैंने बताया कि शिवाजी महाराज के साथी राष्ट्र-भक्तों ने जब देखा कि विशाल सेना लिये शत्रु चढ़ आया और अपने प्राणप्रिय नेता तथा पर्याय से राष्ट्र पर संकट आ उपस्थित हुआ है, तो उस आक्रमण को रोकने के लिये एक सँकरे पहाड़ी स्थान पर इन मुट्ठी भर राष्ट्रभक्तों ने शत्रु की विशाल सेना को रोक रखा और बारी-बारी से अपने बलिदान देते गये. इस प्रकार अपनी दृढ़ता और पराक्रम से उन्होंने शत्रु को उस स्थान से एक भी कदम आगे बढ़ने नहीं दिया. जब मैंने ऐसा बताया, तो उसने पूछा – ‘वह, क्या ऐसे प्रसंग कहीं अपने इतिहास में भी हैं? ये तो पुराने ग्रीक-इतिहास में थर्मोपायली नामक जो इतिहासप्रसिद्ध युद्ध हुआ था, वहाँ का प्रसंग है.’ कहने का मतलब यह कि उन्हें थर्मोपायली मालूम था, पर पावन-खिण्ड अथवा हल्दीघाटी मालूम नहीं थी. मैं अपने मन में सोचता रहा कि अपने स्वत्व का, स्वाभिमान का जिन पर कोई संस्कार ही नहीं, वे राष्ट्र के आधार स्तम्भ कैसे बनेंगे? छात्रों को शारीरिक शक्ति सम्पन्न बनाना यदि राष्ट्र का आधार मजबूत बनाना है, इन छात्रों को शक्तिशाली बनाना होगा. इन सुदृढ़ शक्तिशाली आधारस्तम्भों पर ही राष्ट्र का भव्य भवन निर्मित हो सकेगा. इसलिये प्रत्येक नवयुवक के निर्माण के विषय में सोचना चाहिये कि वह शक्तिशाली हो. इसका शरीर इतना बलवान हो, कि वह सभी प्रकार के उत्तरदायित्वों को वहन कर सके. उसी प्रकार मन और बुद्धि अत्यन्त मजबूत होनी चाहिये. इन सब शक्तियों को एकाग्रता और नियमपूर्वक वृद्धिंगत करना चाहिये. कुशाग्र बुद्धि, सर्वांगीण ज्ञान, परिपुष्ट शरीर, संस्कारयुक्त अन्तःकरण और राष्ट्र-सम्बन्धी विविध जानकारियों से भरा हुआ स्वाभिमानपूर्ण स्वावलम्बी मस्तिष्क का निर्माण युवकों में होना आवश्यक है.

मैं अनेक युवकों से पूछता हूँ कि भाई, शरीर को बलवान बनाने के लिये कुछ प्रयत्न करते हो? क्वचित् एकाध उत्तर ही ऐसा मिल पाता है, जिससे यह लगे कि वह शरीर को बलवान बनाने के लिये व्यायाम करता है. मलखम्भ और उसका व्यायाम देखकर मन में बड़ा प्रेम होता है. इसका अर्थ यही है कि मैंने बचपन में अपने शिक्षकों की प्रेरणा से ऐसे व्यायाम किये हैं, जिनका लाभ मुझे मिलता रहा. पिछले लगभग 40 वर्षों से लगातार मैं घूमता-फिरता रहा हूँ. खाना-पीना भी भगवान् की कृपा से तदनुरूप ही चलता हैं. निद्रा का तो कई बार कोई ठिकाना ही नहीं रहता. फिर भी इतने वर्षों से यह शरीर खड़ा है, कार्यक्षम है. मैं ऐसा समझता हूँ कि शरीर को पहले जो व्यायाम इत्यादि कर मजबूत बनाया था, उसी कारण यह शरीर कुछ कर सका. मैं सोचता हूँ कि हम लोग अपने शरीर केा सुदृढ़-बलवान नहीं बनायेंगे, तो राष्ट्र-कार्य भला किस प्रकार कर सकेंगे.

शारीरिक शक्ति के साथ चरित्र की शक्ति भी आवश्यक

शारीरिक शक्ति के साथ ही चरित्र की शक्ति भी आवश्यक है. हमारे जीवन में सादगी, निस्स्वार्थता, त्याग, सरलता, लगन, परिश्रमशीलता, तपस्या आदि सद्गुण निर्माण होने चाहिये. चरित्र की यह शक्ति, मनुष्य के अन्दर उसके द्वारा किए जाने वाले सतत् चिन्तन से प्राप्त होती है. चिन्तन का आधार राष्ट्र के प्रति प्रखर भक्ति ही है. भक्तिवान अंतःकरण ही चरित्रवान होगा. मातृभूमि की भक्ति हृदय में जागृत होगी, तो सद्गुणों को अर्जित करने की चेष्टायें प्रारम्भ होने में विलम्ब नहीं लगेगा. इसलिये राष्ट्र के प्रति भक्ति और उस भक्ति को सार्थकता प्रदान करने वाला चरित्र इन दोनों का चिन्तन नित्य करते रहना चाहिये. विभिन्न कार्यक्रमों और अध्ययन के माध्यम से, अपनी मातृभूमि का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न होना चाहिये. ऐसा करते समय स्वाभाविक ही उन महापुरुषों के जीवन-प्रसंगों में हमें अनेक सद्गुण दिखाई देंगे. इस प्रकार हमें न केवल सद्गुण प्राप्त करने की प्रेरणा मिलेगी वरन् उन्हें पा सकने के लिये प्रयत्नों की दिशा भी हम समझ सकेंगे.

आज यदि हम अपने चारों ओर देखें, तो हमें पता चलेगा कि भ्रष्टाचार का बड़ा बोलबाला है. बड़े-बड़े लोग सार्वजनिक जीवन के आदर्शों से कोसों दूर हैं. आम चर्चा है कि देश में चरित्रहीनता का संकट है. यह सब इतना व्यापक है कि इसके सम्बन्ध में बोलने में भी मुझे संकोच होता है. अभी कल-परसों की बात है, एक स्थान पर धर्मयुग साप्ताहिक का एक अंक पढ़ रहा था. उसमें एक लेखक द्वारा इस बात का वर्णन किया गया था कि व्यापार बढ़ाने के लिये लोग किस-किस प्रकार से स्त्री का उपयोग करते हैं. लाइसेन्स-परमिट देने का कार्य करने वाले बड़े अधिकारियों को प्रसन्न करने के लिये स्त्री का प्रयोग करने की बातें उस लेख में कही गयीं हैं. राजनीतिक क्षेत्र के भी कुछ उदाहरण दिये हैं. उसने लिखा है कि विरोधी पक्ष के भेद निकालकर उन्हें परास्त करने के लिये भी ऐसी बातों का उपयोग किया जाता है. इस प्रकार का व्यापार है. स्त्रियों के चित्रों का खूब उपयोग होता दिखाई देता है.

यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ, कि सेफ्टी रेजर-ब्लेड के विज्ञापन के लिये भी एक स्त्री का क्या वास्ता? परन्तु मनुष्य की विषय-वासना को उभाड़कर उसे कर्तव्यभ्रष्ट और सन्मार्गभ्रष्ट करने का प्रयत्न दिन-पर-दिन बढ़ता हुआ दिखाई देता है. इस प्रकार मनुष्यों को कर्तव्यभ्रष्ट करने के लिये अपनाये गए अनेक उदाहरण उस लेखक ने दिये हैं, जिनका अधिक उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं. आज ऐसे अनेक कार्य हो रहे हैं, जिनके चारों ओर भ्रष्टाचार फैलता जा रहा है. मनुष्य पर यह भीषण आक्रमण है. कई बार हम तलवार, बन्दूक आदि शस्त्रास्त्रों के वार से रक्षा की बात सोचते हैं. परन्तु भ्रष्टाचार के जो प्रयत्न होते हैं, उनसे रक्षा करना बहुत कठिन होता

है. अब इनका क्षेत्र, जैसा मैंने पहले कहा, काफी बढ़ा हुआ है. इसलिये इन विविध प्रकार के प्रलोभनों के प्रहारों को पहचान कर उनके साथ टकराने और उन पर विजय प्राप्त कर लेने का सामर्थ्य हममें होना चाहिये.

आज की परिस्थितियों में चरित्र के सम्बन्ध में विचार करते समय हमें निश्चयपूर्वक ऐसी शक्ति अर्जित करनी चाहिये, कि जिससे इन प्रलोभनों का हम पर कोई असर न हो. पद और प्रतिष्ठा के प्रलोभनों के सहारे ऐसे प्रहार कितनी कुशलता से किये जाते हैं, इसका एक उदाहरण मैं बताता हूँ. पिछले दिनों मैंने एक पत्रिका पढ़ी, जिसमें फ्रान्स की एक संस्था द्वारा हमारी प्रधानमंत्री की बड़ी चतुराई से प्रशंसा की गई है. पत्रिका में उस संस्था द्वारा चण्डीगढ़ नगर की बहुत प्रशंसा की गई है.

चण्डीगढ़ में पाण्डवों के काल का चण्डी का मंदिर है, इसलिये उसका नाम चण्डीगढ़ है. परन्तु पुराना चण्डीगढ़ अब नहीं है. सब-कुछ वहाँ नया बना है. इस नये चण्डीगढ़ के वास्तुशास्त्री की यदि फ्रान्सीसी संस्था ने तारीफ की है, तो कोई विशेष बात नहीं. परन्तु मैं जब सोचता हूँ तो मुझे लगता है, चण्डीगढ़ में प्रशंसा करने लायक कुछ भी नहीं. मुझे चण्डीगढ़ की रचना कभी अच्छी नहीं लगी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और बाद में राजस्थान के राज्यपाल डॅा. सम्पूर्णानन्द जैसे विद्वान ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में नगर-रचना करने वाले प्रान्तीय अधिकारियों से बात करते हुए कहा था कि आप लोग अपने प्रान्त के नगर अच्छे बनाना, परन्तु उत्तर प्रदेश में चण्डीगढ़ मत बनाना. उन्होंने कहा था कि मैं चण्डीगढ़ देखने गया. मुझे वह बहुत फैला-फैला हुआ मुर्दे के समान दिखाई दिया. इस कारण मुझे पसन्द नहीं आया. सम्पूर्णानन्द विविध शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता रहे हैं. उनकी उक्ति में सच्चाई है.

अब इस फ्रान्सीसी पत्रिका में ऐसे चण्डीगढ़ की प्रशंसा होना केवल इसलिये तो समझा जा सकता था कि उसका वास्तुशास्त्री फ्रान्सीसी था, परन्तु उसने प्रशंसा करते समय उस समय के अपने देश के प्रधानमंत्री पं. नेहरू जी का भी प्रशंसात्मक उल्लेख किया है. साथ ही यह निष्कर्ष भी निकाला है कि ऐसे सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व वाले नेहरू जी की सुकन्या, आज भारत की प्रधानमंत्री हैं. इस प्रकार इंदिरा गांधी जी का भी बड़ा गौरव गान किया है. जब वह मैंने पढ़ा, तो मुझे लगा कि ये लोग राजनीति में बड़े मँजे हुये हैं. कोई भी बहाना बनाकर व्यक्ति से सम्बन्ध जोड़ने और अपना काम निकालने का यह तरीका है. मराठी में एक कहावत है- ‘मधाचे बोट

लावणे’ याने शहद में उंगली डुबोकर दूसरे के मुँह पर लगा देना. ऐसा करने से सहज ही जीभ ललचाकर बाहर आयेगी ही. मनुष्य की दुर्बलता का उपयोग करने की दृष्टि से यह चतुराई का

प्रयोग है. मैं आशा करता हूँ कि अपने देश के उच्चपदस्थ बड़े-बड़े लोग और अपनी प्रधान-मंत्री जी भी इस प्रकार के प्रलोभन से भरी उनकी चतुराई को ठीक-ठीक समझ सकेंगे. कभी फिसलेंगे नहीं, और अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखेंगे.

इस प्रकार के प्रलोभन देने के प्रयोग विश्व भर में चल रहे हैं. बार-बार जब प्रशंसा के पुल बाँधे जाते हैं, तो मनुष्य को वास्तविकता समझा पाना कठिन हो जाता है और वह जाल में फँसता है. इन प्रलोभनों को पहचानने की ओर उनसे टकराने की शक्ति तथा उन पर विजय प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय, बचपन से ही प्रत्येक व्यक्ति को सिखाने की आवश्यकता है. प्रलोभनों से पथभ्रष्टता और स्वार्थों से भ्रष्टाचार इन दोनों ही प्रकार की आपत्ति टाल सकने योग्य चारित्र्य का विकास होना जरूरी है.

प्रत्येक छात्र के मस्तिष्क में यह बात अच्छी तरह बैठा देनी होगी कि मैं अपने राष्ट्र की सेवा करूँगा. राष्ट्र में ज्ञान-विज्ञान की विविध धाराओं को पुष्ट करूँगा. आधुनिक जगत् में प्रगति के जो-जो मार्ग दिखाई दे रहे हैं, उन सबका गहरा अध्ययन कर आगे बढ़ूँगा. अपने स्वार्थ का लेशमात्र भी विचार नहीं करूँगा.

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

14 अगस्त अर्थात अखंड भारत संकल्प दिवस

14 अगस्त अर्थात अखंड भारत संकल्प दिवस

अखण्ड भारत महज सपना नहीं, श्रद्धा है, निष्ठा है. जिन आंखों ने भारत को भूमि से अधिक माता के रूप में देखा हो, जो स्वयं को इसका पुत्र मानता हो, जो प्रात: उठकर “समुद्रवसने देवी पर्वतस्तन मंडले, विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यम् पादस्पर्शं क्षमस्वमे. “कहकर उसकी रज को माथे से लगाता हो, वन्देमातरम् जिनका राष्ट्रघोष और राष्ट्रगान हो, ऐसे असंख्य अंत:करण मातृभूमि के विभाजन की वेदना को कैसे भूल सकते हैं, अखण्ड भारत के संकल्प को कैसे त्याग सकते हैं? किन्तु लक्ष्य के शिखर पर पहुंचने के लिये यथार्थ की कंकरीली-पथरीली, कहीं कांटे तो कहीं दलदल, कहीं गहरी खाई तो कहीं रपटीली चढ़ाई से होकर गुजरना ही होगा.

15 अगस्त को हमें आजादी मिली और वर्षों की परतंत्रता की रात समाप्त हो गयी. किन्तु स्वातंत्र्य के आनंद के साथ-साथ मातृभूमि के विभाजन का गहरा घाव भी सहन करना पड़ा. 1947 का विभाजन पहला और अन्तिम विभाजन नहीं है. भारत की सीमाओं का संकुचन उसके काफी पहले शुरू हो चुका था. सातवीं से नवीं शताब्दी तक लगभग ढाई सौ साल तक अकेले संघर्ष करके हिन्दू अफगानिस्तान इस्लाम के पेट में समा गया. हिमालय की गोद में बसे नेपाल, भूटान आदि जनपद अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण मुस्लिम विजय से बच गये. अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिये उन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग अपनाया पर अब वह राजनीतिक स्वतंत्रता संस्कृति पर हावी हो गयी है. श्रीलंका पर पहले पुर्तगाल, फिर हॉलैंड और अन्त में अंग्रेजों ने राज्य किया और उसे भारत से पूरी तरह अलग कर दिया. किन्तु मुख्य प्रश्न तो भारत के सामने है. तेरह सौ वर्ष से भारत की धरती पर जो वैचारिक संघर्ष चल रहा था, उसी की परिणति 1947 के विभाजन में हुई. पाकिस्तानी टेलीविजन पर किसी ने ठीक ही कहा था कि जिस दिन आठवीं शताब्दी में पहले हिन्दू ने इस्लाम को कबूल किया, उसी दिन भारत विभाजन के बीज पड़ गये थे.

इसे तो स्वीकार करना ही होगा कि भारत का विभाजन हिन्दू-मुस्लिम आधार पर हुआ. पाकिस्तान ने अपने को इस्लामी देश घोषित किया. वहां से सभी हिन्दू-सिखों को बाहर खदेड़ दिया. अब वहां हिन्दू-सिख जनसंख्या लगभग शून्य है. भारतीय सेनाओं की सहायता से बंगलादेश स्वतंत्र राज्य बना. भारत के प्रति कृतज्ञतावश चार साल तक मुजीबुर्रहमान के जीवन काल में बंगलादेश ने स्वयं को पंथनिरपेक्ष राज्य कहा किन्तु एक दिन मुजीबुर्रहमान का कत्ल करके स्वयं को इस्लामी राज्य घोषित कर दिया. विभाजन के समय वहां रह गये हिन्दुओं की संख्या 34 प्रतिशत से घटकर अब 10 प्रतिशत से कम रह गई है और बंगलादेश भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र बन गया है. करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठिये भारत की सुरक्षा के लिये भारी खतरा बन गये हैं.

विभाजन के पश्चात् खंडित भारत की अपनी स्थिति क्या है? ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के अन्धानुकरण ने हिन्दू समाज को जाति, क्षेत्र और दल के आधार पर जड़मूल तक विभाजित कर दिया है. पूरा समाज भ्रष्टाचार की दलदल में आकंठ फंस गया है. हिन्दू समाज की बात करना साम्प्रदायिकता है और मुस्लिम कट्टरवाद व पृथकतावाद की हिमायत करना सेकुलरिज्म. अनेक छोटे-छोटे राजनीतिक दलों में बिखरा हिन्दू नेतृत्व सत्ता के कुछ टुकड़े पाने के लोभ में मुस्लिम वोटों को रिझाने में लगा है.

देश फिर से एक करने के लिये जिन कारणों से मनों में दरार पैदा होती है, उन कारणों को दूर करना आवश्यक है. यह आसान काम नहीं है. धार्मिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय शक्तियां सभी बाधाओं के रूप में खड़ी हैं. लेकिन क्या मुसलमानों और हिन्दुओं में सांस्कृतिक एकता का कोई प्रवाह है? हिन्दुओं और मुसलमानों के पुरखे एक हैं, उनका वंश एक है. ये मुसलमान अरबी, तुर्की या इराकी नहीं हैं. हिन्दू एक जीवन-पद्धति है और इसे पूर्णत: त्यागना हिन्दू से मुसलमान बने आज के मुसलमानों के लिये भी संभव नहीं है.

सैन्य सामर्थ्य भारत के पास है. लेकिन क्या पाकिस्तान पर जीत से अखंड भारत बन सकता है? जब लोगों में मनोमिलन होता है, तभी राष्ट्र बनता है. अखंडता का मार्ग सांस्कृतिक है, न की सैन्य कार्रवाई या आक्रमण. देश का नेतृत्व करने वाले नेताओं के मन में इस संदर्भ में सुस्पष्ट धारणा आवश्यक है. भारत की अखंडता का आधार भूगोल से ज्यादा संस्कृति और इतिहास में है. खंडित भारत में एक सशक्त, एक्यबद्ध, तेजोमयी राष्ट्रजीवन खड़ा करके ही अखंड भारत के लक्ष्य की ओर बढ़ना संभव होगा.



पुरातन भारतवर्ष में न्याय के सिद्घांत-वाक्य

पुरातन भारतवर्ष में न्याय के सिद्घांत-वाक्य


पुरातन भारतवर्ष में न्याय के विषय में विभिन्न नीति-वाक्यों की रचना की गयी। जिनसे कई मुहावरों का भी निर्माण हो गया। यदि इन नीति-वाक्यों को या मुहावरों के ध्वंसावशेषों को एक साथ जोडक़र देखा जाए तो न्याय के विषय में हमारे ऋषि पूर्वजों का बहुत ही उत्तम चिंतन उभरकर सामने आता है। वैसे न्याय के भी विभिन्न अर्थ हैं, यथा-प्रणाली, रीति, नियम, पद्घति, किसी कार्य को करने की एक सुंंदर और उत्तम योजना, राजनीति या अच्छा शासन (अच्छा शासन वह होता है जो लोगों को अज्ञान, अन्याय और अत्याचार से मुक्त कराये, अर्थात न्याय का पक्षधर हो) समानता-समाज में समान नागरिक संहिता के अनुसार न्यायपूर्ण परिवेश स्थापित हो, उपयुक्त दृष्टान्त, निदर्शना आदि।
अब न्याय के विभिन्न स्वरूपों पर भी चर्चा करनी उत्तम होगी। हमारे महान पूर्वजों ने न्याय के संबंध में विभिन्न सिद्घांत-वाक्य या लोकरूढ़ नीति-वाक्यों की रचना की। जिन्हें सुबुद्घ पाठकों की जानकारी के लिए हम यहां रखने का प्रयास कर रहे हैं। इन सिद्घांत वाक्यों या लोकरूढ़ नीति-वाक्यों के अवलोकन से स्पष्ट हो जाएगा कि हमने न्याय को कितने स्वरूपों में देखने या अवस्थित करने का प्रयास किया, इनमें से पहला है-
अंधचटक न्याय:
जब किसी व्यक्ति को संयोग से कोई चीज या अवसर उपलब्ध हो जाए और वह उसको अपनी पैतृक संपत्ति मानकर प्रयोग करने लगे, तो उसे अंधचटक न्याय कहा जाता है। मुहावरों में इसे ‘अंधे के हाथ बटेर लगना’ कहा जाता है। यदि ऐसी किसी चीज या अवसर का कोई अन्य व्यक्ति दावेदार नही होता है, तो समाज या विधि-व्यवस्था भी इन्हें उसी व्यक्ति की स्वीकार कर लेती है, जिसके पास ये संयोग-वियोग से मिली है, या चली गयी है।
अंध परंपरा न्याय
अंधपरंपरा न्याय से ‘युग-धर्म’ का निर्माण होता है। युग धर्म को ही लोग ‘जमाने का दौर’ कहा करते हैं। इसमें किसी नई परंपरा का जन्म होता है, वह बढ़ती है और रूढि़ का रूप लेती हैं, फिर उसके विरूद्घ विद्रोह होता है और वह परिवर्तित हो जाती है, या कर दी जाती है। देश में सती-प्रथा, बाल-विवाह, कन्या भ्रूण-हत्या, स्त्रियों व शूद्रों को पढऩे से रोकने की परंपरा आदि ऐसे उदाहरण हैं, जिनको कभी किसी परिस्थिति वश स्वीकार किया गया और ये ‘युगधर्म’ के रूप में मान्यता प्राप्त कर गये। पर जब इनके घातक परिणाम सामने आये तो लोगों ने इनसे मुंह फेर लिया। इनके विषय में यह ध्यातव्य है कि जब इन परंपराओं का प्रचलन होता है तो उस समय लोग इन्हें स्वेच्छा से अपनाते हैं और समाज इन्हें अंधपरंपरा न्याय या गतानुगतिक न्याय के नाम पर मान्यता देकर क्षमा कर देता है। लोक में इसे ‘भेड़चाल’ के नाम से भी जाना जाता है।
अशोक वाटिका न्याय
रावण ने सीताजी को अशोक वाटिका में ले जाकर रखा। यद्यपि वह उन्हें किसी अन्य स्थान पर भी रख सकता था। इसका अभिप्राय है कि जब व्यक्ति के पास एक ही कार्य को संपन्न करने के विभिन्न अवसर या साधन उपलब्ध हों, तो वह उस समय जिसे चाहे अपना सकता है आप उससे ये नही पूछ सकते कि आपने अमुक अवसर या साधन को क्यों नही अपनाया?
अश्मलोष्ट न्याय
जब आपकी सभा में कोई व्यक्ति आता है तो आप उसका सत्कार विशिष्ट व्यक्ति के रूप में करते हैं, परंतु कुछ कालोपरांत उस व्यक्ति से भी महत्वपूर्ण व्यक्ति आ धमकता है, तब उस पहले की अपेक्षा आप ही नही अन्य उपस्थित लोग भी नवागन्तुक विशिष्ट व्यक्ति को अधिक सम्मान देने लगते हैं। हो सकता है कि पहले वाला दूसरे के साथ न्याय करते हुए अपना स्थान भी छोड़ दे और नवागन्तुक को विशिष्ट शैली में विशिष्ट स्थान पर बैठने का आग्रह करने लगे। इसे पत्थर और मिट्टी के लौंदे का न्याय भी कहा जाता है। मिट्टी का ढेला रूई की अपेक्षा तो कठोर है पर पत्थर की अपेक्षा नरम है। कोई व्यक्ति किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा महत्वपूर्ण हो सकता है, परंतु वही किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा नगण्य भी हो सकता है। इसी को ‘सेर को सवा सेर’ मिलने वाला मुहावरा भी कहा जाता है।
कदम्ब गोलक न्याय
कदम्ब वृक्ष की एक विशेषता होती है कि उसकी कलियां निकलते निकलते ही खिलने लगती हैं। अभिप्राय ये हुआ कि उदय के साथ ही जब कार्यारम्भ हो जाए तो वहां इस न्याय का प्रयोग किया जाता है। यह अच्छे शकुन का प्रतीक है और पूर्णत: सकारात्मक परिस्थितियों की ओर संकेत करता है। कहने का अभिप्राय है कि एक व्यक्ति ने जिस मनोवांछा के साथ कार्यारम्भ किया उस का सुफल भी उसे तभी साथ-साथ ही मिलने लगे तो उसे ‘कदम्ब गोलक न्याय’ के रूप में समाज मान्यता प्रदान करता है।
काकतालीय न्याय
एक कौआ एक वृक्ष की शाखा पर जाकर बैठा ही था कि अचानक ऊपर से एक फल गिरा जो उसे आकर लगा और उसके लगने से उस कौवे के प्राण पखेरू उड़ गये। कहने का अभिप्राय ये हुआ कि जब कभी कोई घटना अप्रत्याशित रूप से अचानक घटित हो जाए तो उसे काकतालीय न्याय के रूप में अभिहित किया जाता है। इसे ही ‘सिर मुंडाते ही ओले पडऩा’ वाले मुहावरे के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। इसमें अप्रत्याशितता का भाव मिलता है, जिसकी कोई कल्पना भी नही कर सकता और वह घटित हो जाए।
काकदन्तगवेषण न्याय
कौवे के दान्त नही होते और चील के घोंसले में कभी मांस नही मिलता। सूर्य कभी पश्चिम से नही निकलता और अमावस्या को कभी चंद्रग्रहण नही होता। परंतु जब कोई व्यक्ति इन असंभव चीजों को खोजने या करके दिखाने के लिए अपनी ऊर्जा का अपव्यय कर रहा हो तो उस समय उसके लिए ‘काकदन्त गवेषण न्याय’ का प्रयोग किया जाता है।
ककाक्षि गोल न्याय
एकटक होकर देखना इसे इस मुहारे में भी सुना जाता है। कौवा के विषय में लोक में मान्यता है कि वह काना होता है, पर वास्तव में ऐसा नही है। ईश्वरीय व्यवस्था में उसके साथ ऐसा अन्याय भला कैसे संभव है? ईश्वर ने उसे एक विशेष गुण दिया है कि वह एक दृष्टि होने के लिए अपने गोलक को आवश्यकतानुसार दूसरे गोलक में ले जा सकता है। इससे वह काना सा लगता है। अत: आप आवश्यकतानुसार अपनी वस्तु का पुन: प्रयोग कर लें और अपने मनोरथ को भी साध लें तो उस समय इस न्याय का प्रयोग किया जाता है।
कूपयन्त्र घटिका न्याय
रहट में अनेकों घटक-डिब्बे होते हैं। उनमें कुछ नीचे को जा रहे होते हैं, तो कुछ ऊपर को आ रहे होते हैं। जिनकी गति नीचे की ओर है, वे खाली हैं, और जिनकी गति ऊपर की ओर है, वे भरे हुए हैं। जगत की रीति यही है यहां कुछ का आना हो रहा है, तो कुछ का जाना हो रहा है। यह कर्मफल न्याय चक्र चल रहा है। जिसके विभिन्न अर्थ हैं और आध्यात्मिक जगत में जिसकी विभिन्न परिभाषायें हैं। इस न्यायचक्र को देखकर व्यक्ति को विवेक होता है, वैराग्यानुभूति होती है और वह संसार से विरक्ति का मार्ग ढूंढने लगता है।
घट्टकुटी प्रभात न्याय
जब आप कोई कार्य करना तो नही चाहते और आपकी पूरी योजना भी अपने मनोरथ के अनुकूल बन जाती है, परंतु फिर भी संयोग ऐसा बने कि आपको वही कार्य करना पड़ जाए तो उसे घट्टकुटी प्रभात न्याय कहा जाता है। जैसे एक गाड़ीवान के लिए कहा जाता है कि वह चुंगी नही देना चाहता था, अत: वह ऊबड़ खाबड़ रास्ते से रात को ही चल दिया, परंतु रात में रास्ता भटक गया और प्रात: उसे उसी चुंगी पर ही आना पड़ गया। पौ फटी तो भौं भी फटी की फटी रह गयीं। जिसके लिए इतना परिश्रम किया था, वह व्यर्थ गया और चुंगी देनी ही पड़ गयी।
दण्डायूप न्याय
इसके लिए कहा गया है कि जब डण्डा और पूड़ा एक ही स्थान पर रखे थे तो एक व्यक्ति ने पूछा कि डंडा और पूड़ा कहां है? दूसरे ने उत्तर दिया कि डण्डे को तो चूहे घसीटकर ले गये। तब प्रश्नकर्ता स्वयं समझ लेगा कि माजरा क्या है? और अब पूड़ा भी नही मिलेगा। कहने का अभिप्राय है कि जब कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु के साथ अत्यंत संबद्घ होती है और एक वस्तु के संबंध में हम कुछ कहते हैं तो वही वस्तु दूसरी के साथ भी अपने आप लागू हो जाती है। इसी को दण्डाधूप न्याय कहा जाता है।
देहली दीप न्याय
जब कोई वस्तु एक समय में ही दो स्थानों पर काम आवे ‘आमों के आम गुठलियों के दाम’ वाला मुहावरा भी यही स्पष्ट करता है। एक दीपक को आप देहली में रख दें तो एक समय में ही उसका प्रकाश देहली के बाहर भी और भीतर कमरे में भी यथाशक्ति प्रकाश फेेला देता है इसलिए इसे देहली दीप न्याय कहा जाता है।
है न, हमारे पूर्वजों की बौद्घिक क्षमता प्रशंसनीय।

शनिवार, 9 अगस्त 2014

'काम' या 'सेक्स' की भारतीयों की दृष्टि में महत्ता

 'काम' या 'सेक्स' की भारतीयों की दृष्टि में महत्ता 
नारी की गूढ़ता और पुरूष की स्वाभाविक गंभीरता एवं उच्छंखलता के मध्य उनके यौनागों की बनावट एवं तज्जन्य उसकी अनुभूतियों में कहीं कोई संबंध तो नहीं। इस प्रश्न ने मेरे मन को अनेक बार मथा है। मैं समझता हूं कि भारत संवभत: पहला देश और ''हिन्दू'' पहली संस्कृति रही होगी जिसने ''काम'' सेक्स को देवता कहा और इस विषय पर विस्तृत शोध ग्रंथो की रचना की। इसकी चर्चा यहां हमारा उद्देश्य नहीं है किन्तु 'काम' या 'सेक्स' की भारतीयों की दृष्टि में महत्ता को स्पष्ट करना चाहूंगा।

आचार्य वात्सात्यन ने अपने ग्रंथ के मंगलाचरण में लिखा है - ''धर्मार्थकमेभ्य नम:'' अर्थात धर्म अर्थ और काम को नमस्कार है।'' 'धर्म' की वैशेषिक दर्शन की परिभाषा देखें - ''यतोsभ्यदुय नि:श्रेयस सिध्दिस: धर्म:।'' अर्थात इस लोक में सुख और परलोक में कल्याण करने वाला तत्व ही धर्म है इस लोक में अर्थात भौतिक संसार में सुख क्या है ?

चाणक्य का कथन है -

''भोज्यं भोजन शक्तिष्च रतिषक्तिर्वरागंनां
विभवो दान शक्तिष्च नाल्पस्यतपस: कलम॥''
अर्थात भोज्य पदार्थ और भोजन करने शक्ति, रति अर्थात सैक्स शक्ति एवं सुन्दर स्त्री का मिलना, वैभव और दानशक्ति का प्राप्त होना 'कम तपस्या' का फल नहीं है। (चा0नी0अ02/2)

स्पष्ट है कि भारतीय हिन्दू परम्परा में ''स्त्री और सेक्स'' सांसारिक सुखों का आधार है। 'काम' या सैक्स को लेकर कतिपय अन्य उदाहरण देखें -

कामो जज्ञे प्रथमे (अथर्ववेद - 9/12/19) कामस्तेदग्रे समवर्तत (अथर्ववेद - 19/15/17) (ऋग्वेद 10/12/18)

वृहदारव्यक में विषय-सुख की अनुभूति के लिए मिथनु अर्थात स्त्री पुरूष जोड़े की अनिवार्यता को वाणी दी गई है - ''स नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते। स द्वितीयमैच्छत।''

अर्थात किसी का अकेले में मन नहीं लगता ब्रहमा का भी नहीं। रमण के लिए उसे दूसरे की चाहना होती है।

मानव मन की मूलवासनाओं अथवा प्रवृत्तियों को हमारे आचार्यों ने इस प्रकार चिन्हित किया - ''वित्तैषणा, पुत्रषवणा तथ लोकेषणा'' इनको वर्गो में रखते हुए इनके मूल में ''आनन्द के उपभोग'' की प्रवृत्ति को माना है - ब्रहदारण्यक उपनिषद का कथन है - ''सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनम्'' अर्थात सभी सुख एकमात्र ''उपस्थ'' (योनिक एवं लिंग) के आधीन हैं। (उपस्थ - योनि एवं लिंग संस्कृत हिन्दी शब्द कोष - वा0शि0आप्टे - पृ0 213)

[इस चर्चा से यह भारतीय हिन्दू दृष्टिकोण स्वत: स्पष्ट है कि भौतिक सुखों के केन्द्र में है - ''नारी और यौन सुख अर्थात सेक्स है। इस प्रकार ''हिन्दू नारी विमर्श'' के लिए नारी की यौन संतुष्टि, उसके यौनाधिकार और उसकी संतानोत्पत्ति का अधिकार केन्द्र में आ जाता है। वेदों, उपनिषदों, आरण्यकों एवं नीति ग्रंथो में इसकी चर्चा है। अथर्ववेद में तो इस पर विस्तृत चर्चा देखी जा सकती है जिसे इस चार्ट से समझ सकते हैं। ]

यह कुछ उदाहरण हैं। ऐसे अनेकों काण्ड और सूक्त प्रस्तुत किया जा सकते हैं। हमारी परम्परा में ''वेदों'' को ''ज्ञान'' का ''इनसाइक्लोपीडिया'' माना गया है। मनु कहते हैं - वेदो अखिलोs धर्म ज्ञान मूलम''।

उपरोक्त उदाहरणों एवं चर्चा से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हमने ''सहचर्य'' जीवन की अनिवार्यता को कितना महत्व दिया और उस पर कितना विशद मनन एवं अध्ययन किया। प्रसंगत: यह चर्चा यहां यह भी समझने के लिए पर्याप्त है कि क्यों भारत में ही और हिन्दुओं द्वारा ही यौन रत् मूर्तियों के मन्दिर बनाये गए और क्यों ''कामसूत्र'' जैसी रचना का सृजन हमारे ही देश में हुआ। प्रसंगत: बता दूं कि महर्षि वात्सायन अपनी परम्परा के अकेले ऋषि नहीं है - ''इस परम्परा में भगवान ब्रहमा, बृहस्पति, महादेव के गण नन्दी, महर्षि उददालक पुत्र श्वेतकेतु, ब्रभु के पुत्र, पाटलिपुत्र के आचार्य दत्तक, आचार्य सुवर्णनाम्, आचार्य घोटकमुख, गोनर्दीय, गोणिका पुत्र, आचार्य कुचुमार आदि। प्रारम्भ में यह ग्रंथ एक लाख अध्यायों वाला था।''

यद्यपि सुधी जन इसे विषयान्तर मान सकते हैं तदापि हिन्दुओं में कामशास्त्र (सैक्स को एक विषय के रूप में मानना) की महत्ता, परम्परा एवं विशाल साहित्य का अनुमान लगाने के लिए यह जानकारी आवश्यक है।

इतनी व्यापक चर्चा के बाद यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि ''हिन्दू नारी विमर्ष के केन्द्र में ''नारी की दैहिक एवं भावात्मक संतुष्टि'' है। हमारा नारी विमर्श कैसे नारी की यौन संतुष्टि एवं संतान प्राप्ति (विशेषत: पुत्र) की उसकी इच्छा को लेकर केन्द्रित है। इसे आगे के प्रसंग से समझना चाहिए।

इस चर्चा से उन लोगों को उत्तर मिल जाना चाहिए जो यह मानते हैं कि - ''कामसूत्र की व्याख्या भारत में हुई। अजन्ता एलोरा तथा खजुराहों की जगहों में मूर्तिकला के विभिन्न यौनिक स्वरूप मिलते हैं। पर वैदिक संस्कृति का स्त्रीविरोध सैमेटिक धर्मों के व्यापन के दौरान भी बरकरार रहा।'' (स्त्री - यौनिकता बनाम अध्यात्मिकता : प्रमीला, के.पी. - अ0 4 पृ0 38) प्रमीला के.पी. जैसी नारीवादी चिन्तकों ने स्त्री-पुरूष सहचारी जीवन में आधुनिक नारी-विमर्श के सन्दर्भ में तमाम प्रश्न उठाये हैं। जिनके उत्तर स्वाभाविक रूप से इस लेख में मिल सकते हैं। जैसे उनका कथन है - ''मानव अधिकारों के नियमों की बावजूद व्यक्तिगत यौनिक चयन और प्रेम के साहस को सामाजिक मान्यता नहीं मिलती। क्यों ?'' (इसी पु0 के इसी अ0 के पृ0 44 से) यदि आधुनिक युग की एक नारीवादी विचारिका की यह पीड़ा है तो आप समझ सकते हैं कि आधुनिक पाश्चात्य-वादी ''नारी समानता'' के घाव कितने गहरे हैं।

हम सहचारी जीवन की यौनानुभूतियों की ओर चलते हैं। प्रमीला - के.पी. कामसूत्र के हवाले से लिखती हैं - ''विपरीत में कामसूत्र के अनुसार, यौनिक क्रिया में वह परम साथीवन का निभाव उपलब्ध होता है। उसके एहसास में युग्म एक स्पर्षमात्र से खुश रहते हैं। बताया जाता है कि मानव-शरीर इस तरह बनाया गया है कि उसमें यौनावयव ही नहीं किसी भी पोर में एक बार छूनेमात्र से एक नजर डाल देने मात्र से प्रेम की अथाह संवेदना जाग्रत होती है। पर यह नौबत सच्चे प्रेमियों को ही हासिल है।''

प्रोमिला जी सही जगह पर इस प्रसंग का पटाक्षेप करती हैं। वस्तुत: यौन जीवन में प्रेम के अतिरिक्त यौन उत्तेजना को पैदा करने, उसे बनाये रखने एवं सफल यौन व्यवहार एवं चरमसंतुष्टि प्रदान करने वाले संबंधों के लिए कामकला के ज्ञान की आवश्यकता होती है। स्त्री के लिए इसका विशेष महत्व होता है। ऐस वस्तुत: उसकी विशेष प्रकार की शरीर रचना के कारण होती है। कामग्रंथो यथा कामसूत्र, अनंगरंग, रतिरहस्य आदि में इसकी विशद चर्चा की गई है।

हमारा विषय कामशास्त्रीय चर्चा नहीं है किंतु यह प्रासंगिक होगा कि स्त्री के कामसुख की चर्चा कामशास्त्रीय दृष्टि से कर ली जाए। वात्सायन कृत कामसूत्र के ''सांप्रयोगिक नामक द्वितीय अधिकरण के रत-अवस्थापन'' नामक अध्याय में इस विषय पर कामशास्त्र के विभिन्न शास्त्रीय विद्वानों के मतों की चर्चा की गई है। किंतु ''कामसुख'' की व्यापकता की दृष्टि से आचार्य बाभ्रव्य के शिष्यों का मत अधिक स्वीकार्य प्रतीत होता है - ''आचार्य वाभ्रव्य के शिष्यों की मान्यता है - पुरूष के स्खलन के समय आनन्द मिलता है और उसके उपरान्त समाप्त हो जाता है। किन्तु स्त्री को संभाग में प्रवृत्त होते ही संभोगकाल तक और उसकी समाप्ति पर निरन्तर आनन्द की अनुभूति होती है। यदि भोग में उसे आनन्द न आता होता तो उसकी भोगेच्छा जाग्रत ही नही होती और यदि भोगेच्छा न होती तो वह कभी गर्भधारण नही कर पाती। उसका गर्भ स्थिर नही रह पाता।'' अन्तिम वाक्य से सहमति नहीं भी हो सकती है किंतु पूर्वार्ध से आचार्य बाभ्रव्य सहित वात्सायन भी सहमत नजर आते हैं।'' इसी विषय पर श्री काल्याणमल्ल विरचित अनगरंग अनुवादक श्री डा0 रामसागर त्रिपाठी का मत जानना भी समीचीन होगा। कल्याणमल्ल दो महत्वपूर्ण बात करते हैं। वह स्त्री और पुरूष के यौनसुख में आनन्द के स्वरूप और काल की दृष्टि से भेद स्वीकार नही करते हैं। स्त्री इस क्रिया में आधार है और पुरूष कर्ता है। पुरूष भोक्ता है अर्थात वह इस बात से प्रसन्न है कि उसने अमुक महिला को भोगा है और महिला इस बात से प्रसन्न है कि वह अमुक पुरूष द्वारा भोगी गई है। इस प्रकार स्त्री पुरूष में उपाय तथा अभिमान में भेद होता है। अस्तु:! इस विषय पर और चर्चा न करके यह स्वीकारणीय तथ्य है कि - ''यौन क्रिया में पुरूष को सुख की प्राप्ति स्खलन पर होती है उसके लिए शेष कार्य यहां तक पहुंचने की दौड़मात्र है जबकि स्त्री प्रथम प्रहार से आनन्दित होती है और अन्तिम् बिन्दु पर चरमानन्द को प्राप्त करती है।'' वार्ता करने पर कुछ महिलाओं ने इस तथ्य की पुष्टि की है किंतु शालीनता साक्ष्य के प्रकटीकरण की सहमति नहीं देती।

अब जरा इस बात पर ध्यान दें कि यदि नारी असंतुष्ट छूट जाए तो क्या होता है। मेरा मानना है कि वह शनै: शनै: इस प्रवृत्ति को दबाये रखने की आदत डाल लेती हैं इसके कारण उसका शरीर और भावजगत अनेक प्रतिक्रियायें उत्पन्न करता है जिसमे उसकी यह गूढ़ प्रवृत्ति भी शामिल है। जो स्वंय के अन्तरमन को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं देती। हिन्दू नारी विमर्श का मूल आधार उसके शरीरगत और भावगत यौनानुभूतियों का वैषम्य है। इसे किस प्रकार हिन्दू नारी विषयक वैदिक चिंतन अभिव्यक्त करता है। उन्हें इन शीर्षकों में देखना उचित होगा।

वर चयन की स्वतंत्रता एवं विवाह :- यदि वैदिक साहित्य का अनुशीलन किया जाए तो यह स्वत: स्पष्ट हो जायेगा कि स्त्रियों को वर-चयन में स्वतंत्रता प्राप्त थी। डा0 राजबली पाण्डेय अपनी पुस्तक हिन्दू संस्कार के अध्याय आठ ''विवाह संस्कार'' में विवाह के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं - ''प्रसवावस्था के कठिन समय में अपने व असहाय शिशु के समुचित संरक्षण के लिए स्त्री का चिन्तित होना स्वाभाविक ही था। जिसने उसे स्थायी जीवन सहयोगी चुनने के लिए प्रेरित किया। इस चुनाव में वह अत्यन्त सतर्क थी तथा किसी पुरूष को अपने आत्म समर्पण के पूर्व उसकी योग्यता, क्षमता व सामर्थ्य का विचार तथा सावधानीपूर्वक अन्तिम निष्कर्ष पर पहुंचना उसके लिए अत्यन्त आवश्यक था।'' इस विषय को महाभारत में वर्णित ''प्राग् विवाह स्थिति से भी समझा जा सकता है, ''अनावृता: किल् पुरा स्त्रिय: आसन वरानने कामाचार: विहारिण्य: स्वतंत्राश्चारूहासिनि॥ 1.128

अर्थात अति प्राचीन काल में स्त्रियां स्वतंत्र तथा अनावृत थीं और वे किसी भी पुरूष के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकती थी।''
इस स्थिति से समझौता कर उन्होने विवाह संस्था को स्वीकार किया होगा तो यह तो संभव नही कि पूर्णत: पुंस आधिपत्य स्वीकार कर लिया हो अर्थात पुरूष जिससे चाहें विवाह कर ले और स्त्री की इच्छा का कोई सम्मान न हो। वर चयन की स्वतंत्रता के समर्थन में यह तर्क भी दिया जा सकता है कि ''औछालकि पुत्र श्वेतकेतु'' को विवाह संस्था की स्थापना का श्रेय जाता है और यह कि इन महर्षि की गणना ''कामशास्त्र'' के श्रेष्ठ आचार्यों में की जाती है। अत: विवाह संस्था की स्थापना करते समय इस ऋषि ने स्त्री की यौन प्रवृत्तियों का ध्यान न रखा हो, यह संभव नही।

एक अन्य उदाहरण के रूप में इस पुराकथा को प्रमाणरूप ग्रहण किया जा सकता है। - ''मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री अत्यंत रूपवती थी। उसने अपने लिए स्वंय पर खोजना प्रारम्भ किया और अन्त में शाल्व नरेश सत्यवान का चयन कर विवाह किया।'' यह वही सावित्री है जिसने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस ले लिए थे और हिन्दू मानस में जो सती सावित्री के नाम से प्रसिध्द हुई। डा0 राधा कुमुद मुखर्जी ''हिन्दू सभ्यता'' अध्याय 7 भारत में ऋग्वेदीय ''आर्य - समाज - विवाह और परिवार'' पृ0 91 में यह स्वीकार करते हैं कि - ''विवाह में वर वधू को स्वंयवर की अनुमति थी (10/27/12 ऋग्वेद) गुप्त काल में ''कौमुदी महोत्सव'' मनाये जाने के प्रमाण मिलते हैं कौमुदी महोत्सव वस्तुत: मदनोत्सव या कामदेव की पूजा का ही उत्सव था। ऐसे उत्सव जहां बच्चो, प्रौढ़ो तथा वृध्दों के लिए सामान्य मनोरंजन ही प्रदान करते हैं वही युवक-युवतियों के लिए पारस्परिक चयन की स्वतंत्रता प्रदान करते थे। आज भी ''बसन्त पंचमी'' का त्यौहार मनाया जाता है जो कामदेव की पूजा ही है। ''बसन्तपंचमी'' से होली का महोत्सव या फाल्गुनी मस्ती और हंसी ठिठोली छा जाती है। इस मदनोत्सव का समापन ''होलिका दाह'' पर होता है और होली के पश्चात ''नवदुर्गो'' के पश्चात लगनों से विवाह कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं।

विवाह :- वैदिक परम्परा में पत्नी को जो स्थान प्राप्त था उससे ही विवाह के महत्व को समझा जा सकता है।

''जायेदस्तम् मघवनत्सेदु योनिस्तदित त्वा युक्ता हस्यो वहन्तु। यदा कदा च सुनवाम् सोममग्निष्टवा द्रतो धन्वात्यछा।(ऋ 3.83.4)। भावार्थ यह है कि पत्नी ही घर होती है। वहीं घर में सब लोगो का आश्रय स्थान है। स्त्री के कारण ही परिवार का संगठन होता है। ऋग्वेद का ही मंत्र संख्या 3.53.6 भी स्त्री (पत्नी) का ऐसे ही गौरवान्वित करता है। ऋग्वेद के इन मंत्रो में आधुनिक नारी जिस अस्तित्व और अस्मिता के संकट से गुजर रही है शायद उसका समाधान मिल जाए। अस्तित्व संकट कार्य है। संकट प्रोमिला के.पी. के शब्दो में देखिए - ''वरजीनिया वुल्फ'' ने अपने कमरे को लेकर जो बाते बताई थीं : उसकी पूरी संभावनाएं कम से कम आज की मध्यवर्गीय औरत के पास हैं। पर उसने अपनी रसोई को छोड़ दिया : उसे उपभोगवादी सामग्री के हवाले कर दिया। घरेलू जगह में भी ऐसे अनेक कोने थे जो स्त्रियों के अपने थे। - पर हड़बड़ी में जगह ही खोने की नौबत उभर आई।'' यह है आधुनिकता के दंभ में छिपा आधुनिक नारी का दर्द। किंतु वैदिक ऋषि तो कहता है ''जायेदस्तम्'' पत्नी ही घर है। कोना नहीं सारा आवास ही आपकी कृपा के आश्रित हैं। श्रीमति प्रोमिला के.पी. का यह आरोप कि भारत में वात्स्यायन के पश्चात से हिन्दू धर्म भी मनुवादी रास्ते पर चला अर्थात यौनिकता या देह को हेय मानने का रास्ता। यह आरोप सर्वथा गलत है मनु विवाह के संबंध में कहते हैं - सुंख चेहेच्छता नित्यं योsधार्यों दुर्बलेन्द्रियौ: अर्थात दुर्बलेन्द्रिय व्यक्ति ग्रहस्थाश्रम को धारण नही कर सकता।'' (मनु. स्मृति 3-99-79) स्पष्ट है कि यह कथन स्त्री पुरूष की यौनिकता को ध्यान में रखकर ही कहा गया होगा। आइये, इस तथ्य का परीक्षण वैदिक मनीषियों द्वारा स्वीकार्य विवाह पध्दतियों के अनुशीलन से किया जाए।

वैसे तो आठ विवाह स्वीकार किए गए है - चार प्रशस्त या श्रेष्ठ और चार अप्रशस्त या निष्कृष्ट। यहां पर हम उन्हीं प्रकारों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे जिसमें स्त्री के स्त्रीत्व की मर्यादा का सबसे अधिक ध्यान रखा गया हो। विवाह पध्दतियों में ''पिशाच विवाह'' को मैं प्रथम स्थान पर रखना चाहूंगा।

पिषाच विवाह :- ''सुप्तां, मत्तां, प्रमत्तां व रहो यत्रोपगच्छति। सा पापिष्ठो विवाहानां पैशाचाष्टमोsधम: मत। प्रमत्त, अथवा सेती हुई कन्या से मैथुन करना। (म.स्मृ.3.24) ही पिशाच विवाह है।'' वस्तुत: यह विवाह उस कन्या को विवाह, गृहस्थ जीवन, संतानोत्पति और सामाजिक वैधता का अधिकार देता है जिसके साथ बलात्कार किया गया हो। यद्यपि प्रत्येक स्थिति में ऐसा संभव नही होता होगा तो उसके लिए दण्ड संहिताओं मे अलग से विधान है - जिनका अध्ययन एक अलग विषय है। किंतु जिस नारी और विशेषत: कन्या से या अविवाहिता से, बलात्कार किया गया हो उसकी पीड़ा वही स्त्री ही समझ सकती है। प्राय: ऐसी स्थिति में लड़कियों को चुप रहने या आत्महत्या करते ही देखा गया है। आधुनिक राज्य और उनके दण्ड विधान इस दिशा में दोषी को दण्ड (जो त्रृटिपूर्ण व्यवस्था में प्राय: नहीं हो पाता) और पीड़िता को कुछ रूपयों का अनुतोष प्रदान करता है। ''बलात्कार'' के बदले ''अनुतोष'' की स्थिति क्या दयनीय और मजाकिया नहीं लगती ? इस व्यवस्था से उत्पन्न क्षोभ देखिए कि अभी हाल ही समाचार पत्रों की सुर्खियां बना यह समाचार कि एक निचली अदालत की जज ने बलात्कार के वाद में निर्णय देते हुए यह सुझावात्मक टिप्पणी की - ''कि बलात्कारियों को इंजेक्शन द्वारा नपुसंक बना देना चाहिए।''

इससे यह तो स्पष्ट है कि तमाम महिला संगठनों और बड़े-बड़े कानूनो व दावों के बाद भी बलात्कार से पीड़िता ''नारी के हक'' में कुछ भी नहीं कर पाता। ''पिशाच विवाह'' कम से कम निम्न वर्गीय महिलाओं जैसे खेतिहर, मजदूर, वनवासी, खदानों में काम करने वाली, श्रीमती के घरो में काम करने सेविकाओं को आदि यौन शोषण के विरूध्द सामाजिक सुरक्षा, सम्मान और नारी के अधिकार प्रदान करता है। जो आधुनिक समाज भी देने में सक्षम नहीं है। इसके पीछे निश्चय ही राज्य की सहमति और शक्ति रही होगी क्योंकि उसके बिना ''बलात्कृता नारी'' को ''विवाह'' की सुरक्षा प्रदान कर पाना संभव ही नहीं। यह ध्यान रखना चाहिए कि प्राचीन हिन्दू समाज में ''बहुपत्नी प्रथा'' स्वीकार्य थी। अत: ऐसे विवाह के लिए बाध्य किए गए पुरूष को अन्य पत्यिों का चयन करने में और पुन: पूर्ववत् हरकत करने में, दोनो ही स्थितियों में विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता होगा।

राक्षस विवाह :- मनु ने इसके लक्षण में कहा है -

''हत्वा, छित्वा, च भित्वा च क्रोशन्तीं, रूदतीं गृहात्
प्रसध्यं कन्यां हरतो, राक्षसो विधिरूच्यते।'' (मनु-3.33)
अर्थात रोती, पीटती हुई कन्या का उसके संबंधियों को मारकर या क्षत विक्षत कर बलपूर्वक हरण कर विवाह करना ''राक्षस'' प्रकार का विवाह कहा जाता था।

मैं इस पध्दति को ''नारी'' की सामाजिक स्वीकार्यता और सम्मान से जोड़कर क्यों देखता हूं : उसका कारण है। पहली बात यह विवाह ''अपहरण और बलात्कार नही हैं।'' अपितु इसमें विवाह पूर्व ''प्रेम'' का स्थायी भाव पुष्पित होता है। ऐसा कतिपय विद्वान स्वीकार करते हैं। भगवान कृष्ण और रूक्मणी तथा पृथ्वीराज चौहान और संयुक्ता के विवाह को उदाहरण में रख सकते हैं। जहां ''राक्षस विवाह'' हुआ है और विवाहपूर्व ''प्रेम'' का स्थायी भाव विद्यमान है। यद्यपि इसके विरूध्द भी उदाहरण दिए जा सकते है किंतु बहुमान्य तथ्य विवाह पूर्व प्रेम का स्थायी भाव ही है।

अब मैं अपना मत रखता हूं कि यह नारी के ''सम्मान'' से कैसे संबंधित है। सामान्यत: यह विवाह राजन्यों या क्षत्रियों कुलों में सम्मानित माना गया। विवाह पूर्व ''प्रेम'' की स्थिति में एक अन्य उपाय ''गान्धर्व विवाह'' था (असुर विवाह भी) किंतु चोरी छिपे विवाह करने में वीर ''स्त्री-पुरूषों'' का सामाजिक अपमान था तो इस तरह ''राक्षस'' प्रकार के विवाह में दोनो पक्षों से निकट संबंधियों के युध्द में मारे जाने का भय था। ऐसी स्थिति में इन हत्याओं का सामाजिक कलंक नववधू को ही ढोना था। उल्लेखनीय है कि आज भी यदि नववधू के आगमन के पश्चात परिवार में कोई दुर्घटना हो जाए तो अशिक्षित परिवारों की तो छोड़िए शिक्षित परिवारों में भी इसका दोष ''नवागन्तुका'' के सिर पर ही थोप देते हैं। ऐसी स्थिति से ''कन्या'' को बचाने व युगल के ''प्रेम'' को सर्वोच्च सम्मान देते हुए ''राक्षस विवाह'' को न केवल स्वीकार किया गया अपितु क्षत्रियों के लिए सर्वाधिक प्रतिष्ठित विवाह पध्दतियों में रखा गया। स्पष्ट है कि राक्षस विवाह का विधान नारी की प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान को बनाये रखने और विवाह पूर्व युगल के प्रेम को सामाजिक स्वीकरोक्ति का ही प्रकार है।

गान्धर्व विवाह :- यह संभवत: विवाह संस्था के जन्म से भी पूर्व से विद्यमान विवाह पध्दति है जिसे बाद में सभ्य समाज ने सामाजिक स्वीकरोक्ति प्रदान की है। मनु की गान्धर्व विवाह की परिभाषा देखें -
''इच्छायाsन्योन्यसंयोग: कन्यायाश्च वरस्य च
गान्धर्वस्य तु विज्ञेयो मैथुन्य: कामसंभव:।'' (मनु 3.32)
अर्थात कन्या और वर पारस्परिक इच्छा से कामुकता के वशीभूत होकर संभोग करते हैं। ऐसे स्वेच्छापूर्वक विवाह को गान्धर्व विवाह कहा जाता है।'' यह परिभाषा बहुलत: स्वीकार्य है।

इस विवाह में विवाह पूर्व कामुकता के वशीभूत स्वेच्छया किए गए संभोग को सामाजिक स्वीकृति से विवाह में बदल दिया गया है। इसमें न केवल नारी के सम्मान और गरिमा की रक्षा हुई है अपितु विवाह पूर्व जो बीज नारी के गर्भाशय में स्थापित हुआ है। उसकी भी मर्यादा और सामाजिक सम्मान का संरक्षण हुआ।

उपरोक्त के अतिरिक्त प्राजापत्य विवाह जिसे प्रशस्त विवाह श्रेणियों में माना गया है। को भी मैं नारी के सम्मान और गरिमा को महत्व प्रदान करने वाला विवाह मानता हूँ।

प्राजापात्य विवाह :- मनु की परिभाषा देखिए :-
''सहोभौ चरतां धर्मीमति वाचानुभाटय च
कन्याप्रदानमभ्यचर्य प्राजापत्यो विधि स्मृत:।''
अर्थात ''विवाह का वह प्रकार जिसमें तुम दोनों धर्म का साथ-साथ आचरण करो'' ऐसा आदेश दिया जाता है।'' इसमें विशेष बात यह है कि वर स्वंय वधू के पिता के पास प्रार्थी के रूप में आता था और पिता उसकी योग्यता पर विचार कर उस वर के साथ पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न कर देता था।'' वर का स्वंय वधू के पिता के पास प्रार्थी के रूप में आना वर-वधू का परस्पर पूर्व परिचय आकर्षण, एवं प्रेम सिध्द करता है और वधू के पिता द्वारा योग्यता के परीक्षणोपरान्त विवाह सम्पन्न करना पिता के दायित्व और कन्या के परिचय एवं प्रेम के बीच अद्भुत समन्वय का उदाहरण है।

उपरोक्त विवाह प्रकारों पर चर्चा करते हुए हम यह समझ सकते हैं कि वैदिक हिन्दू व्यवस्था द्वारा सुविचारित ''नारी विमर्श'' कितना आधुनिक और नारी की यौन स्वतंत्रता एवं सामाजिक मर्यादा के बीच कितना अद्भुत सामंजस्य स्थापित करता है।

आधुनिक सहचारी जीवन का चिन्त्य विषय स्त्री-पुरूष मित्रता और नारी की यौन स्वतंत्रता आदि कितना आधुनिक है। इसको यदि हिन्दू सभ्यता के परम्परागत साहित्य के द्वारा देखने का प्रयास करें तो स्थिति स्वत: स्पष्ट हो जायेगी।

सभ्यता के शैशव काल में युवक तथा युवतियां बिना किसी शक्ति अथवा छल के स्वंय परस्पर आकर्षित होते रहेंगे। ऋग्वेद 10.27.17 के अनुसार - ''वही वही वधु भ्रदा कहलाती है जो सुन्दर वेश-भूषा से अलंकृत होकर जनसमुदाय में अपने पति (मित्र) का वरण करती है।'' युवा लड़कियां ग्राम-जीवन अथवा अन्य अनेक उत्सवों व मेलों में जहां उनका स्वतंत्र चुनाव तथा परस्पर आकर्षण उनके संबंधियों को अवांछित न लगे इस प्रकार से एक दूसरे के सहवास का अनुभव कर चुके हो अथर्ववेद का मंत्र देखें :-

आ नो अग्ने सुमतिं संभलो गमेदिमां कुमारीं सहनो मगेन्
जृष्टावरेषु समनेषु वल्गुरोयां पत्या सौभगत्वमस्यै। अथर्ववेद 2.36

इस मंत्र से ऐसा प्रतीत होता है कि - ''प्राय: माता-पिता पुत्री को अपने प्रेमी (भावी पति) के चयन के लिए स्वतंत्र छोड़ देते थे और प्रेम प्रसंग में आगे बढ़ने के लिए उन्हें प्रत्यक्षत: प्रोत्साहित करते थे। ऋ.वे. 6.30.6 के अनुशीलन से ऐसा विदित होता है कि कन्या की माता उस समय का विचार करती रहती थी जब कन्या का विकसित यौवन (पतिवेदन) उसके लिए पति प्राप्त करने मे सफलता प्राप्त कर लेगा। यह पूर्णत: पवित्र व आनन्द का अवसर था जिसमें न तो किसी प्रकार कलुष था और न अस्वाभाविकता।

अन्त में महाभारत के निम्न उध्दरण को प्रस्तुत करना चाहूंगा -
''सकामाया: सकामेन निर्मन्त्र: श्रेष्ठ उच्यते।'' (म.भा. 4.94.60)
अर्थात् सकामा स्त्री का सकाम पुरूष के साथ विवाह भले ही धार्मिक क्रिया व संस्कार से रहित क्यो न हो, सर्वोत्त्म है।''

डा0 राजबली पाण्डेय कृत हिन्दू संस्कार - विवाह संस्कार से ''गृहीत उक्त सन्दर्भ से यह भलीभांति समझ में आ सकता है कि स्त्री को ''यौन स्वतंत्रता'' हिन्दू/वैदिक समाज के लिए महत्वपूर्ण रहा है। महाभारत के उपरोक्त श्लोक में ''सकामा'' शब्द पर बल देना भी यही स्पष्ट करता है कि यदि कामातुरा नारी कामातुर पुरूष से संबंध बना ले तो किसी विधि विधान के बिना भी वह ''सर्वोत्तम'' विवाह है। महाभारतकार ''श्रेष्ठ'' शब्द का उच्चारण कर रहे हैं। स्पष्ट है कि स्त्री की ''यौन संतुष्टि'' का भाव हमारे सामाजिक सहचारी जीवन की व्यवस्था करते समय नीतिकारों के मन में कितना गहरा बैठा हुआ है।