मंगलवार, 17 सितंबर 2013

उपनिषद् ग्रंथों में ॐ

उपनिषद् ग्रंथों में ॐ
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्ति!!!

अर्थातः- मेरे (हाथ-पाँव आदि) अङ्ग सब प्रकार से पुष्ट हों, वाणी, प्राण,नेत्र, श्रोत्र पुष्ट हों तथा सम्पूर्ण इन्द्रियाँ बल प्राप्त करें। उपनिषद् में प्रतिपादित ब्रह्म ही सब कुछ है। मैं ब्रह्म का निराकरण (त्याग) न करूँ और ब्रह्म मेरा निराकरण न करे। इस प्रकार हमारा अनिराकरण (निरन्तर मिलन) हो, अनिराकरण हो। उपनिषदों में जो शम आदि धर्म कहे गये हैं वे ब्रह्मरूप आत्मा में निरन्तर रमण करने वाले मुझमें सदा बने रहें, मुझमें सदा बने रहें। आध्यात्मिक, अधिभौतिक और अधिदैविक ताप की शान्ति हों।

ॐ - उदगीथशब्दवाच्य-ॐ- इस अक्षर की उपासना करे--ॐ- यह अक्षर परमात्मा का सबसे समीपवर्ती (प्रियतम) नाम है। ॐ यह अक्षर उदगीथ है।
इन (चराचर) प्राणियों का पृथिवी रस (उत्पत्ति, स्थिति, और लय का स्थान) है। पृथिवी का रस जल है, जल का रस औषधियाँ हैं, औषधियों का रस पुरुष है, पुरुष का का रस वाक् है, वाक् का रस ऋक् है, ऋक् का रस साम है और साम का रस उदगीथ (ॐ) है। ऋक् और साम के कारणभूत वाक् और प्राण ही मिथुन है। वह यह मिथुन ॐ इस अक्षर में संसृष्ट होता है। जिस समय मिथुन (मिथुन के अवयव) परस्पर मिलते हैं उस समय वे एक दूसरे की कामनाओं को प्राप्त कराने वाले होते है। अतः ॐ अक्षर(उदगीथ) की उपसना करने वाले की संम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है। ॐकार ही अनुमति सूचक अक्षर है।
श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणित वेदान्त-दर्शन के अनुसार जो तीन मात्राओं वाले ओम् रूप इस अक्षर के द्वारा ही इस परम पुरुष का निरन्तर ध्यान करता है, वह तेजोमय सूर्यलोक मे जाता है तथा जिस प्रकार सर्प केंचुली से अलग हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से वह पापो से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इसके बाद वह सामवेद की श्रुतियों द्वारा ऊपर ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है। वह इस जीव-समुदाय रूप परमतत्त्व से अत्यन्त श्रेष्ठ अन्तर्यामी परमपुरुष पुरुषोत्तम को साक्षात् कर लेता है। तीनों मात्राओं से सम्पन्न ॐकार पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ही है, अपरब्रह्म नहीं।
(ओ३म्) यह ओङ्कार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि यह तीन अक्षरों अ, उ, और म से मिल कर बना है, इनमें प्रत्येक अक्षर से भी परमात्मा के कई-कई नाम आते हैं। जैसे- अकार से विष्णु, विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से महेश्वर, हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ब्रह्मा, ईश्वर, आदित्य और प्रज्ञादि नामों का वाचक है। तथा अर्धमात्रा निर्गुण परब्रह्म परमात्मास्वरूप है। वेदादि शास्त्रों के अनुसार प्रकरण के अनुकूल ये सब नाम ईश्वर के ही हैं।

तैत्तरीयोपनषद शीक्षावल्ली अष्टमोंऽनुवाकः में ॐ के विषय में कहा गया हैः-

ओमति ब्रह्म। ओमितीद ँूसर्वम्।
ओमत्येदनुकृतिर्हस्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति।
ओमति सामानि गायन्ति।
ओ ँूशोमिति शस्त्राणि श ँूसन्ति।
ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति। ओमिति ब्रह्मा प्रसौति।
ओमित्यग्निहोत्रमनुजानति।
अमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति।
ब्रह्मैवोपाप्नोति।।

अर्थातः- ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत् है। ॐ ही इसकी (जगत की) अनुकृति है। हे आचार्य! ॐ के विषय में और भी सुनाएँ। आचार्य सुनाते हैं। ॐ से प्रारम्भ करके साम गायक सामगान करते हैं। ॐ-ॐ कहते हुए ही शस्त्र रूप मन्त्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मन्त्रों का उच्चारण करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ किया जाता है। अध्ययन के समय ब्राह्मण ॐ कहकर ही ब्रह्म को प्राप्त करने की बात करता है। ॐ के द्वारा ही वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

अर्थातः- ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण; क्योंकि पूर्ण से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है। तथा (प्रलयकाल में) पूर्ण (कार्यब्रह्म) का पूर्णत्व लेकर (अपने में ही लीन करके) पूर्ण (परब्रह्म) ही बच रहता है। त्रिबिध ताप की शान्ति हो।
ॐ को प्रणव भी कहते हैं; जिसका अर्थ पवित्र घोष भी है। यह शब्द ब्रह्म बोधक भी है; जिससे यह विश्व उत्पन्न होता हे, जिसमें स्थित रहताहै और जिसमें लय हो जाता है। यह विश्व नाम-रूपात्मक है, उसमें जितने पदार्थ है इनकी अभिव्यक्ति वर्णों अथवा अक्षरों से ही होती है। जितने भी वर्ण है वे अ (कण्ठ्य स्वर) और म् ओष्ठय स्वर के बीच उच्चरित होते हैं। इस प्रकार ॐ सम्पूर्ण विश्व की अभिव्यक्ति, स्थिति और प्रलय का द्योतक है।
सर्वे वेदा यतपदमामन्ति
तपा ँूसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति
तत्तेपद ँू संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।१५।
(कठोपनषद् अध्याय १ वल्ली २ श्लोक १५),

अर्थातः- सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति के साधक कहते हैं, जिसकी इक्षा से (मुमुक्षुजन) ब्रह्मचर्य का पालन करते है, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ॐ यही वह पद है।

ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं
सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते।
तमोङ्कारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति।।७।।
(प्रश्नोपनिषद् प्रश्न ५ श्लोक ७),

अर्थातः- साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा आन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विद्वजन जानते हैं। तथा उस ओंङ्काररूप आलम्बन के द्वारा ही विद्वान् उस लोक को प्राप्त होता है जो शान्त, अजर, अमर, अभय एवं सबसे पर (श्रेष्ठ) है।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत।।
(मुन्डकोपनिषद्-मुन्डक २ खन्ड २ श्लोक-४)

अर्थातः- प्रणव धनुषहै, (सोपाधिक) आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक बेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।।४।।

ओमित्येतदक्षरमिद ँ्सर्व तस्योपव्याख्यानं भूत,
भवभ्दविष्यदिति सर्वमोंङ्कार एव।
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव।।१।।
( माण्डूक्योपनिषद् गौ० का० श्लोक १)

अर्थातः-ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिये यह सब ओंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है वह भी ओंकार ही है।

सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति।।८।।
( माण्डूक्योपनिषद् आ०प्र० गौ०का० श्लोक ८ )

वह यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ओंङ्कार है; वह मात्राओं का विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार हैं।

यह आत्मा अध्यक्षर है; अक्षर का आश्रय लेकर जिसका अभिधान(वाचक) की प्रधानता से वर्णन किया जाय उसे अध्यक्षर कहते हैं। जिस प्रकार अकार नामक अक्षर अदिमान् है उसी प्रकार वैश्वानर भी है। उसी समानता के कारण वैश्वानर की अकार रूपता है। अकार निश्चय ही सम्पूर्ण वाणी है श्रुति के अनुसार अकार से समस्त वाणी व्याप्त है। ओङ्कार की दूसरी मात्रा ऊकार है उत्कर्ष के कारण जिस प्रकार अकार से उकार उत्कृष्ट-सा है उसी प्रकार विश्व से तैजस उत्कृष्ट है। जिस प्रकार उकार अकार और मकार के मध्य स्थित है उसी प्रकार विश्व और प्राज्ञ के मध्य तैजस है। सुषुप्ति जिसका स्थान है वह प्राज्ञ मान और लय के कारण ओङ्कार की तीसरी मात्रा मकार है। जिस प्रकार ओङ्कार का उच्चारण करने पर अकार और उकार अन्तिम अक्षर में एकीभूत हो जाते हैं उसी प्रकार सुषुप्ति के समय विश्व और तैजस प्राज्ञ में लीन हो जाते हैं। अमात्र-जिसकी मात्रा नहीं है वह अमात्र ओङ्कार चौथा अर्थात तुरीय केवल अत्मा ही है। इस प्रकार अकार विश्व को प्राप्त करादेता हैतथा उकार तैजस को और मकार प्राज्ञ को; किन्तु अमात्र में किसी की गति नहीं है। अतः प्रणव ही सबका आदि, मध्य और अन्त है।प्रणव को इस प्रकार जानने के अनन्तर तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है। प्रणव को ही सबके हृदय में स्थिति ईश्वर जाने। इस प्रकार सर्वव्यापी ओङ्कार को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नहीं करता। तैतरीयोपनिषद में कहा है कि जिस प्रकार शंकुओं(पत्तों की नसों) से संपूर्ण पत्ते व्याप्त रहते हैं उसी प्रकार ओंकार से सम्पूर्ण वाणी व्याप्त है-ओंकार ही यह सब कुछ है।

1 टिप्पणी:

  1. नमस्कार, श्रीमान जी,
    आपके द्वारा दी गयी जानकारी अत्यंत दुर्लभ होने के साथ साथ अत्यंत आवश्यक है मानवजाति के सम्पूर्ण विकास को एक नयी राह दिखने में साक्षम और राष्ट्र को एक नयी उचाई तक ले जाने वाला जो ज्ञान हमे हमारे वेदों में मिल सकता है वह अन्यत्र जगत में कही नहीं है हम पथभ्रमित होकर ठीक उस म्रग की भाँती भटक रहे है जिसकी अपनी ही कुंडली में अमृत होता है आपके इन लेखों में जो ज्ञान है वो सचमुच हमे सही राह के द्वार तक ले जाता है आशा करता हूँ आप आपने इन लेखो को इसी तरह निरंतर रखेंगे आपसे निवेदन है की अपना संपर्क हेतु कोई ईमेल या फ़ोन जरुर लिखे

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