गुरुवार, 19 सितंबर 2013

पुरातन भारतीय परम्परा के अनुसार आदर्श जीवन का निर्माण

पुरातन भारतीय परम्परा के अनुसार आदर्श जीवन का निर्माण

स्वयं जीना पशुता है और दूसरों को भी जीने देना ही धर्म है। यही मानव धर्म का मूलमंत्र है। सात्विकिता तथा आदर्शों के बिना हिन्दू के लिये जीवन व्यर्थ होता है। हिन्दू जीवन के संस्कारों की आधारशिला बचपन से ही माता पिता घर के वातावरण में रख देते हैं तथा उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है। हिन्दू धर्म में कुछ मानवीय मर्यादाओं को जीवन पद्धति के रूप में पिरोया गया है ताकि उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास निरन्तर चलता रहै। प्रथम गुरु के नाते माता अपने शिशु को आदर्शवादी वीरों की कहानियाँ सुना कर उसे भी आदर्शवादी वीर बनने की प्रेरणा देती है। पशु पक्षियों से प्रेम करना, पेड़ पौधों की रक्षा करना, अपने से बड़ों का आदर करना आदि कथाओं और दृष्टान्तों दूारा सिखाया जाता है। माता-पिता सकारात्मिक विचारों का बीजारोपन बच्चों में अपने कुल की मर्यादाओं के अनुसार अपने घर में यम-नियम से अवगत करवा कर शुरु करते हैं जिस में खानपान, बैठना उठना भले बुरे का फर्क सभी कुछ शामिल है। यही संस्कारों की प्रथम पादान है जिस पर आगे चल कर चरित्र का दुर्ग निर्माण होता है।

मर्यादाओं के आधार-यम और नियम

हमारे ऋषियों ने जीवन के आदर्शों तथा समाज की मर्यादाओं को संक्षिप्त कर के दो सूत्रों में बाँध दिया है जिन्हें ‘यम’ और ‘नियम’ कहते हैं। बालक को ‘यम-नियम’ घर के वातावरण में माता पिता के संरक्षण में प्रत्यक्ष क्रिया से सिखाये जाते हैं जो बालक के मानवी विकास की दिशा में प्रथम पादान है। उन्हीं की आधारशिला पर जीवन का निर्माण आरम्भ होता है।

यम – यम आदर्शवाद के सामाजिक सिद्धान्त हैं। यदि इन का पालन दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में किया जाये तो चाहे हम किसी भी स्थान पर रहैं और किसी भी धर्म के अनुयायी हों, हमारे जीवन में तथा समाज में अधिकतर समस्यायें पैदा ही नहीं होंगी, ना ही जीवन में कोई तनाव या हताशा उपजे गी। यम समाज कल्याण के लिये मानवीय मूल्यों के निम्नलिखित पाँच सिद्धान्त हैं -

    अहिंसा – अहिंसा से तात्पर्य है कि किसी भी जीव को मन से, वचन से तथा कर्म से दुःख ना दिया जाय तथा उस की इच्छा के विरुद्ध उस से कुछ भी ना करवाया जाये। उस के ऊपर कोई प्रतिबन्ध ना लगाया जाये। अहिंसा का सिद्धान्त ही जियो और जीने दो का मूल मन्त्र है। किन्तु यदि अहिंसा की भावना कर्तव्य पालन में बाधा डाले तो वही अहिंसा कायरता बन जाती है जिस का त्याग करना चाहिये।
    सत्य - सत्य का तात्पर्य है कि हम अपनी सभी क्रियाओं में, लेन-देन में, बोल-चाल में सत्यता पर अडिग रहें तथा कभी भी मन से, वचन से, कर्म से झूठ और छलावे का आश्रय ना लें। किन्तु यह ना भूलें कि कभी कभी झूठ के बोझ तले दबाये गये सत्य को बाहर निकाल कर मनवाने के लिये शक्ति की आवश्यकता भी पडती है।
    अस्तेय – अस्तेय का तात्पर्य है कि हम दूसरों के साधनो को हडपने की चेष्टा, इच्छा या प्रयत्न कभी ना करें और अपने निजि सुखों को निजि साधनों पर ही आधिरित रख कर संतुष्ट रहैं। अपनी चादर के अनुसार ही पाँव फैलायें किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने साधनों को ही गँवा बैठें या परिश्रम से उन में वृद्धि ना करें।
    ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है कि हम अपनी सभी इन्द्रीयों पर नियन्त्रण रख कर प्राकृतिक जीवन जियें। उन सभी विचारों, क्रियाओं तथा वस्तुओं का प्रयोग जीवन में कभी ना करें जो अप्राकृतिक तथा निजि कर्तव्यों से विमुख होने के लिये प्ररेरित करने वाली हौं। ब्रह्मचर्य का पालन आयु पर्यन्त करना होता है।
    अपरिग्रह - अपरिग्रह का तात्पर्य है कि हम अपनी निजि आवश्यक्ताओं को भी नियन्त्रण में रखें तथा भौतिक वस्तुओं से अधिक मोह ना करें। इच्छाओं को नियन्त्रण में रखें, अन्यथा पूरा जीवन वस्तुओं को चाहने, जुटाने तथा संग्रह करने में ही व्यतीत हो जाये गा। जीवन जितना सादगी भरा होगा उतना ही सुखदायक भी हो गा।

देखने में यह सिद्धांत बहुत साधारण से दिखते हैं किन्तु यदि विचार करें तो हमारे जीवन के शत प्रति शत कष्ट और तनाव तभी आते हैं जब स्वार्थ वश हम इन सिद्धान्तों का उल्लंघन करते हैं या दूसरे लोग हमारे प्रति इन सिद्धान्तों का पालन नहीं करते। यदि सभी लोग इन सिद्धान्तों को स्वेच्छा से अपना लें तो समस्त समाज सुखमय बन सकता है। माता पिता स्वयं उदाहरण बन कर यदि अपनी संतान में इस प्रकार के संस्कारों का बीजारोपण करें तो जीवन में हताशा निराशा कभी नहीं आये गी।

नियम – यमों का दैनिक जीवन शैली में पालन करना आवश्यक है जिस के लिये संकल्प तथा अनुशासन ज़रूरी है। अनुशासन स्वेच्छित होना चाहिये। अतः निरन्तर अभ्यास के लिये  नियम बनाये गये हैं जिन का पालन माता पिता तथा प्राथमिक गुरू के सानिध्य में हो सके और नियम जीवन की दैनिक दिनचर्या का ही हिस्सा बन जायें। अनुशासित मानवीय जीवन के लिये पाँच नियम इस प्रकार हैं

    शौच – शौच का सम्बन्ध स्वच्छता से है। मानव को अपना शरीर, रहवास, कार्यशाला, पर्यावरण साफ रखने चाहियें। इन के अतिरिक्त अपने विचार, मन, वाणी तथा आचरण को भी स्वच्छ रखना चाहिये। पर्यावरण से विचार, विचारों से क्रियायें, तथा क्रियाओं से प्रतिक्रियायें जन्म लेती हैं। स्वच्छता के बिना जीवन दूषित हो जाता है।
    संतोष – संतोष से तात्पर्य है कि मानव अपनी इच्छाओं तथा आकाँक्षाओं पर नियन्त्रण रखे। उन की पूर्ति जहाँ तक निजि सामर्थ्य से हो सके उसी पर संतोष करे। इस का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम कर्म करना ही छोड़ दे। कर्म अवश्य करे परन्तु यदि वाँछित फल ना मिले तो हताश होने के बजाय संतोष पूर्वक कर्म करते रहैं।
    तप – तप से तात्पर्य है कि मानव अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कठिन से कठिन परिश्रम से ना हिचकिचाये। जीवन में कठिनाईयाँ झेलने की क्षमता तप से ही आती है। किसी क्रिया को बार बार करते रहना, इन्द्रियों के ऊपर नियन्त्रण करते हुये कडा परिश्रम करते रहना ही तप कहलाता है। भूख पर उपवास से, वाणी पर मौन वृत से, भावनाओं पर ब्रह्मचर्य और शरीरिक विपदाओं पर योग साधना से ही विजय पायी जाती है। तप स्वेच्छा से ही किया जाता है। जो मानव अपने आप पर नियन्त्रण कर लेता है वही सर्वत्र विजयी होता है।
    स्वाध्याय – स्वाध्याय से तात्पर्य है कि बचपन से ही अपने विकास की ओर हम स्वयं प्रेरित हो तथा जिज्ञासु बनें। ज्ञान प्राप्ति के लिये स्वयं यत्न करे। गुणी, शिक्षित और सदाचारी लोगों का संग और उन का अनुसरण करें।
      ईश्वरीय प्राणिधाना – ईश्वरीय प्राणिधाना से तात्पर्य है कि मानव सर्वथा गर्वरहित रहे। अपने कर्मों तथा उपलब्धियों को ईश्वरीय शक्ति के आधीन ही समझें।

भारतवासी कानवेन्ट स्कूलों की चकाचौंध से बहुत प्रभावित रहते हैं लेकिन सोच कर देखें तो उन स्कूलों में भी भारतीय  यम नियम ही ‘मोरल साईंस’ के नाम से सिखाये जाते हैं। अन्तर यह है कि वहाँ ब्रह्मचर्य पर विशोष महत्व नहीं दिया जाता और यही पाशचात्य जगत में मानसिक तनाव का मुख्य कारण है। विध्यार्थी जीवन से ही जब ब्रह्मचर्य का खण्डन, ड्रग्स, नशीले पदार्थ, समलैंगिक्ता, लिविंग इन रिलेशनशिप्स, गर्भ निरोधक, अनैतिक गर्भपात, और हिंसा आदि जीवन में बेतहाशा प्रवेश कर जाते हैं तो जीवन नकारात्मिक दिशा में चल पडता है। केवल निराश और हताशा जीवन के साथ चल पडती हैं।

यम तथा नियम किसी विशेष धर्म, जाति, या देश के लिये नहीं – अपितु समस्त मानव कल्याण के लिये हैं। यदि उन का पालन किया जाये तो कोई विद्यार्थी हताश हो कर आत्महत्या नहीं करे गा, ना ही कोई व्यस्क जीवन में तनाव और मानसिक-हीनता का शिकार होगा। यम-नियम का पालन करने वाले के कदम किसी भी परिस्थिति में नहीं डगमगायें गे।

यम-नियम के निरन्तर अभ्यास से निम्नलिखित व्यक्तिगत गुण अपने आप ही विकसित होने लगते हैं जो सफल और सुखमय जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं -

    धृति – अपने लक्ष्य पर अडिग रहने की क्षमता।
    दया – मानव में दूसरों के प्रति संवेदना तथा दूसरों को भी जीने देने की भावना।
    अर्जवा –सामाजिक सम्बन्धों में इमानदारी बर्तने का साहस।
    मिताहार – स्वस्थ तथा सुखी जीवन का मूल-मंत्र।
    हरि – अपने दोषों से सीख लेना निजि विकास की प्रथम पादान है।
    दान – दूसरों के दुख तथा अपने सुखों को दूसरों के साथ बाँटनें की भावना।
    आस्तिक्य – जीवन में निराशा मिटा कर आत्मविशवास भरने का गुण।
    मति – तथ्यों, विचारों, कर्मों तथा निर्णयों का सूक्ष्म विशलेण करने का गुण।
    वृतः – वृत पालन और संकल्प को दृढता से क्रियावन्त करने की क्षमता।
    जप – तथ्यों के सूक्षम ज्ञान को समर्ण रखने की क्षमता।
    धैर्य – प्रतिकूल प्रतिस्थितियों में कृतसंकल्प रहने की क्षमता।
    क्षमा – बदला लेने की परवर्ति तथा संकीर्णता से छुटकारा पाने की क्षमता।

प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था

काँनवेंट की तरह के रहवासी स्कूल भारत में इसाईयों के आगमन से पहिले ही थे जिन्हें गुरुकुल कहते थे। उन का खर्चा राजकीय सहायता, सामाजिक दान, तथा उन की निजि आन्तरिक अर्थ व्यवस्था से चलता था। गुरुजन विदूान तथा चरित्रवान होते थे और उन को समाज में सर्वोच्च सम्मान दिया जाता था। पाँच वर्ष की आयु पश्चात बालक-बालिकाओं को गुरुकुल में विद्या ग्रहण के लिये भेजा जाता था। कृष्ण – सुदामा तथा द्रुपद-द्रौणाचार्य का एक ही गुरुकुल में साथ साथ पढ़ना साक्षी हैं कि गुरुकुल का वातावरण भेद-भाव रहित था। आज की तरह विद्या बिकाऊ वस्तु नहीं थी। उसे गुरु की कृपा और आशीर्वाद समझ कर ही ग्रहण किया जाता था। गुरु शिष्य का सम्बन्ध आज की तरह व्यापारिक सम्बन्ध नहीं थे।

पाठ्यक्रम में आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता था। गुरुकुल के वातावरण में व्यसनों, ऐशवर्य तथा अकर्मणता के लिये कोई स्थान नहीं था। स्वस्थ शरीर में स्वच्छ मन को लक्ष्य रख कर य़ोग साधना के प्रथम चार अंगों (यम, नियम, आसन तथा पराणायाम) पर विशेष ध्यान दिया था। विद्यार्थीयों में उदण्डता का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। विद्यार्थियों को राजनीति का ज्ञान दिया जाता था किन्तु उन्हे आज की तरह का विद्यार्थी राजनैता बना कर स्वार्थी और महत्वकाँक्षी नहीं बनाया जाता था।

गुरुकुल में विद्यार्थियों को तथ्यों के साथ साथ प्रत्यक्ष और क्रियात्मिक  परिशिक्षण भी दिया जाता था। अस्त्र शस्त्र, सैनिक अभ्यास, तकनीकी शिक्षा तथा व्यवसाईक परिशिक्षण का भी प्रावधान होता था। शिक्षा  के स्तर का आँकलन करने के लिये परीक्षायें भी ली जाती थी।

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा केवल उन्हीं को दी जाती थी जिन में रुचि, जिज्ञासा तथा परिश्रम करने की क्षमता होती थी। इस में कोई शक नहीं कि शरीर के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति अपने माता पिता के संस्कार भी जन्म के अतिरिक्त घर के वातावरण से ग्रहण करता है। यही कारण था कि उच्च शिक्षा का आधार साधारणत्या जाति की पहचान के साथ जुडा था। आजकल भी उच्च शिक्षा में प्रवेश रुचि के आधार पर ही होता है जिसे एप्टीच्यूड टेस्ट कहते हैं। जिन में रुचि और परिश्रम की क्षमता नहीं होती वह उच्च शिक्षा से आज भी वँचित रहते हैं।

शिक्षा के पश्चात दीक्षान्त समारोह भी होता था। सफल विद्यार्थियों को यज्ञोपवीत पहना कर दीक्षा दी जाती थी कि वह स्दैव शिक्षा का समाज हित में स्दोप्योग ही करें गे तथा किसी अयोग्य तथा असामाजिक व्यक्ति को वह शिक्षा नहीं सिखायें गे। हमारे ग्रंथों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहाँ शिक्षा का दुरोप्योग करने के कारण गुरु ने शिष्य को शापित कर के अथवा अन्य किसी तरह से उसे उच्च शिक्षा के प्रयोगात्मिक लाभ से वँचित कर दिया था।

प्राचीन भारत का शिक्षा तन्त्र आजकल की शिक्षा पद्धति की तरह ही उन्नत था किन्तु वह समाज कल्याण के आदर्श पर टिका था। आज का शिक्षा तन्त्र व्यक्तिगत स्वार्थों पर केन्द्रित है। आज के युग में परिशिक्षण संस्थानो का वातावरण हिंसा, उद्दण्डता नशीले पदार्थों का सेवन तथा अय्याशी के प्रसाधनों की वजह से दूषित हो चुका है। यदि उस को सुधारना है तो हमें प्रचीन भारतीय शिक्षण पद्धति के सिद्धान्तों को पुनर्जाग्रित करना होगा।

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