गुरुवार, 12 सितंबर 2013

कौटिलीय अर्थशास्त्र के मतानुसार– शासकीय धन का अपहरण राजकर्मियों का स्वभाव है

कौटिलीय अर्थशास्त्र के मतानुसार– शासकीय धन का अपहरण राजकर्मियों का स्वभाव है

कौटिल्य सुविख्यात ऐतिहासिक पुरुष चाणक्य का वैकल्पिक नाम है । चाणक्य का परिवार-प्रदत्त असली नाम विष्णुदत्त था किंतु चणक के पुत्र होने के नाते वे चाणक्य नाम से ही विख्यात हुए । कुटिल राजनीति में पारंगत होने के कारण उन्हें कौटिल्य नाम से भी संबोधित किया जाता है ।
उल्लेखनीय है कि चाणक्य की राजनीति उस अर्थ में
कुटिल नहीं थी जिस रूप में हमें वर्तमान में देखने को मिल रही है । अपने वैयक्तिक हित साधने में उन्होंने कुटिलता का मार्ग कभी नहीं अपनाया। चातुर्यपूर्ण राजनीति का समाज एवं राष्ट्रहित में उन्होंने भरपूर प्रयोग किया और यही औसत आदमी की दृष्टि में कुटिलता थी ।
कौटिलीय अर्थशास्त्र चाणक्य की एक कृति है जिसमें उन्होंने राजकाज की कारगर व्यवस्था कैसी होनी चाहिए इसका वर्णन किया है । राजा ने जनहित में क्या करना चाहिए एवं क्या नहीं इसका उल्लेख किया है ।
चाणक्य ने ईसा से करीब 320 वर्ष पूर्व चंद्रगुप्त मौर्य का शासन स्थापित
किया था । यूनानी शासक सिकंदर उनका समकालीन था । बाद में उसी मौर्य
कुल में अशोक महान सम्राट हुए थे । उस काल की व्यवस्था राजा-केंद्रित
थी और परिस्थितियां आज से सर्वथा भिन्न थीं । अतः कौटिलीय
अर्थशास्त्र की समस्त बातें आज के युग के लिए बहुत अर्थ नहीं रखती हैं ।
फिर भी उसमें ऐसी बहुत-सी बातें पढ़ने को मिल जाती हैं जो काफी महत्व
की हैं । अधोलिखित पाठ में मैंने कौटिल्य के उन वचनों का उल्लेख किया है
जो यह स्पष्ट करते हैं कि कैसे शासकीय कार्य के लिए नियत धन
राजकर्मियों द्वारा ‘लूटी’ जाती है और उसका पता तक नहीं चल पाता है ।
तत्संबंधित दो श्लोक आगे दिए गए हैं:
यथा ह्यनास्वादयितुं न शक्यं जिह्वातलस्थं मधु वा विषं वा ।
अर्थस्तथा ह्यर्थचरेण राज्ञः स्वल्पोऽप्यनास्वादयितुं न शक्यः ॥
(कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रकरण 25 – उपयुक्तपरीक्षा)
(यथा हि जिह्वा-तल-स्थं मधु वा विषं वा अन्-आ-स्वादयितुं न शक्यं,
तथा हि राज्ञः अर्थ-चरेण स्वल्पः अर्थः अपि अन्-आ-स्वादयितुं न
शक्यः ।) (अन्-आ-स्वादयितुं = न आस्वादयितुं)
अर्थः जिस प्रकार जीभ पर पड़ा मधु (शहद या मधुर खाद्य पदार्थ)
अथवा विष (घातक या कष्टप्रद अखाद्य) पदार्थ का स्वाद लिये
बिना रहना असंभव है, उसी प्रकार का कल्याण-कार्य में नियुक्त कर्मी के
लिए योजना हेतु प्रदत्त धन के एक अंश का स्वाद लिए बिना रह
पाना मुश्किल है ।
तात्पर्य यह है कि जब किसी अधिकारी को योजना के लिए धन मिलता है
तो उसकी लार टपकने लगती है, और वह उसमें से चुंगी निकालकर अपनी जेब
में डालने की कोशिश करता है । यह प्रवृत्ति मनुष्य में सदा से ही रही है ।
खर्च को थोड़ा बढ़ाचढ़ाकर दिखाने और वास्तविक खर्च कुछ कम करके
पैसा बटोरने का रास्ता सदा से अपनाया जाता रहा है । दुर्भाग्य से आजकल
हालत यह हो चुकी है कि कागज पर कार्य दिखाकर पूरा पैसा हजम करने में
भी अब लोगों को लज्जा नहीं आती । देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के हाल
सभी के समक्ष है ।
मत्स्या यथान्तःसलिले चरन्तो ज्ञातुं न शक्याः सलिलं पिबन्तः ।
युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्ता ज्ञातुं न शक्या धनमाददानाः ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(यथा अन्तः-सलिले चरन्तः मत्स्याः सलिलं पिबन्तः ज्ञातुं न शक्याः,
तथा कार्य-विधौ युक्ताः नियुक्ताः धनम् आददानाः ज्ञातुं न शक्याः ।)
अर्थः जिस प्रकार यह जान पाना संभव नहीं हो पाता है कि कब तालाब के
चल में तैरती मछलियां पानी पा रही हैं और बक नहीं, उसी प्रकार राजकीय
कार्य में लगाये गए कर्मचारी के बारे में यह पता लगा पाना मुश्किल होता है
कि वह कब धन हड़प रहा है ।
शासकीय कार्य का धन शासन द्वारा नियुक्त कर्मचारियों के हाथों में
होता है । वे कब किस प्रकार उसे खर्च कर रहे हैं इसका पता सरलता से
नहीं लगता है । उनकी हरकतों पर नजर रखने के लिए जांच-पड़ताल
वाली संस्थाएं जरूर होती हैं । किंतु वे हर क्षण नजर नहीं रखती हैं ।
अधिकांशतः सब कुछ कर्मचारियों के विवेक एवं निष्ठा पर टिका रहता है ।
इसी का लाभ उठाकर वे स्वयं को सोंपे गये धन का अपव्यय कर डालते हैं ।
इस अपव्यय का पता चलाना और उसे सिद्ध कर
पाना कितना पेचीदा होता है यह हम देख ही रहे हैं ।
धन के गबन का पता करना असंभव-सा
इस ब्लॉग की पिछली प्रविष्टि में मैंने सरकारी धन के दुरुपयोग के संदर्भ में
कौटिल्य (चाणक्य) के विचारों का आंशिक उल्लेख किया था । इस आलेख में
उसी सिलसिले में अन्य तीन श्लोकों की मैं चर्चा कर रहा हूं ।
अपि शक्या गतिर्ज्ञातुं पततां खे पतत्त्रिणाम् ।
न तु प्रच्छन्नभावानां युक्तानां चरतां गतिः ॥
(कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रकरण 25 – उपयुक्तपरीक्षा)
(खे पततां पतत्त्रिणाम् गतिः ज्ञातुं अपि शक्या, प्रच्छन्न-भावान
ां चरतां युक्तानां गतिः तु न ।)
अर्थः आकाश में उड़ते-विचरते पक्षियों की गति को समझना (कि वे किस
दिशा में आगे बढ़ेंगे या चक्कर लगाने लगेंगे, आदि) संभव है, किंतु राजकाज में
नियुक्त व्यक्ति के मन में (धन लूटने, उसके दुरुपयोग करने, आदि) छिपे
भावों को जान पाना संभव नहीं ।
सरकारी धन के दुरुपयोग के बारे किसी शासकीय
कर्मी की योजना का पता कोई नहीं कर सकता । दुरुपयोग हो चुकने पर
ही पता चलता है कि उसने क्या-क्या हथकंडे अपनाए होंगे ।
आस्रावयेच्चोपचितान् विपर्यस्येच्च कर्मसु ।
यथा न भक्षयन्त्यर्थं भक्षितं निर्वमन्ति वा ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(कर्मसु उपचितान् च आस्रावयेत्, विपर्यस्येत् च, यथा अर्थं न भक्षयन्ति,
भक्षितं वा निर्वमन्ति ।)
अर्थः (राजा का कर्तव्य है कि गबन करने वाले) राजकार्य में नियुक्त
व्यक्तियों की संपदा छीन ले और उन्हें निम्नतर पदों पर अवनत कर दे,
ताकि वे राज्य-धन न डकार पावें तथा उदरस्थ किये गये को उगल दें ।
मंतव्य यह है कि भ्रष्ट राज्यकर्मी को दंडित किया जाए । सबसे सार्थक
एवं भयोत्पादक दंड यही है उसकी संपदा छीन ली जाए, ताकि उसे लेने के
देने पड जाएं । दुर्भाग्य से अपने मौजूदा शासकीय व्यवस्था में आर्थिक
अपराधी मुश्किल से ही कभी दंडित होते हैं । दंड के अभाव में उनके हौसले
बुलंद रहते हैं ।
न भक्षयन्ति ये त्वर्थान् न्यायतो वर्धयन्ति च ।
नित्याधिकाराः कार्यास्ते राज्ञः प्रियहिते रताः ॥
(यथा पूर्वोक्त)
(ये तु अर्थान् न भक्षयन्ति, न्यायतः वर्धयन्ति च, राज्ञः प्रिय-हिते
रताः ते नित्य-अधिकाराः कार्याः ।)
अर्थः जो शासकीय धन नहीं हड़पते बल्कि उचित विधि से
उसकी वृद्धि करते हैं, राजा के हित में लगे रहने वाले ऐसे
राज्यकर्मियों को अधिकार-संपन्न पदों पर नियुक्त किया जाना चाहिए ।
राज्यकर्मी की नियुक्ति की योग्यता का एक आवश्यक पहलू है
उसकी निष्ठा । महज शैक्षिक योग्यता राज्यहित नहीं साधती है । शासन
को चाहिए कि वह व्यक्ति की नीयत एवं राज्य के
प्रति कर्तव्यशीलता को ध्यान में रखते हुए उसे नियुक्त करे ।
हमारी व्यवस्था में कागजी योग्यता ही सर्वोपरि समझी जाती है ।
उसका चारित्रिक आकलन शायद ही कहीं किया जाता है । सर्वत्र व्याप्त
आर्थिक भ्रष्टाचार इस बात का प्रमाण है ।

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