गुरुवार, 30 जनवरी 2014

मोहनदास करमचंद गाँधी एक स्वाधीनता सेनानी नहीं वरण वीर इंग्लिश सैनिक था

मोहनदास करमचंद गाँधी एक स्वाधीनता सेनानी नहीं वरण वीर इंग्लिश सैनिक था

बोअर युद्ध १८९९ दक्षिण अफ्रिका
क्या आप इस सैनिक को जानते है! क्या? आपने नही पहचाना?
अरे ये तो वो है जिनका जन्म दिवस आप आज मना रहे है! आप जानते है इनकी महानता इन्होने भारत वासीयो के मनमे अंग्रेजो के प्रती अहिंसा की भावना निर्माण की! क्या आप जानते है इनको?
ये बड़े महान अहिसवादी थे! इन्होने जिस बोअर युद्ध में (१८९९) एक अहिंसक (?) सैनिक का कार्य किया था वो अद्वितीय है! अंग्रेज और दक्षिण अफ्रिका के बोअर गण राज्यों में जो भयानक युद्ध १८९९ में हुआ वह कुविख्यत है अंग्रेजो के अत्याचारों के लिए! इस युद्ध में अंग्रजो की सारे विश्व भर में निर्भात्सना हुई, क्यों की अंग्रेजी सैनिको ने युद्ध में अगणित अफ़्रीकी प्रजाजनों को मृत्यु के घाट उतार दिया, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार करके उन्ही क़त्ल कर दिया! अंग्रेजो की इस बदनाम सेना में ये अहिंसावादी क्या कर रहे थे? अब ये अहिंसात्मक लढाई थी? सब कुछ क्या बताना पड़ेगा? समझदार के लिए एक संकेत ही बहुत है!
और एक महत्वपूर्ण बात सुनिए! ये चित्र भारत सरकार द्वारा संचालित सैनिक समाचार नामक पत्रिका में प्रसारित हुए है! जब इस चित्रों को देख के बवाल खड़ा हुआ तो लोगों को मुर्ख बनाने के लिए एक कुतर्क दिया गया! ये महात्मा युद्ध में अहिंसक सैनिक थे! जो युद्ध फसे घायल अंग्रेजी सैनिको को युद्ध भूमि से बाहर निकलते थे! आप सोचिए सैनिक फिर वो कोई भी कार्य करता हो चाहे धोबी का या रसोइये का कभी अहिंसक होता है?
ये महान आत्मा महात्माजी गांधीजी, केवल अंग्रेजो के अब्युलंस कोर्प नामक टुकड़ी के लिए सेवा नहीं दे रहे थे! किन्तु इन्होने युद्ध में अंग्रजो की सहायता करने के लिए एक स्वतंत्र सेना स्वयसेवको की टुकड़ी खड़ी की थी! युद्ध काल में इस निस्पृह सेवा से प्रसन्न हो कर अंग्रेज सरकार ने महान आत्मा महात्माजी गाँधीजी को कैसर-ए-हिंद का पुरस्कार दिया था! क्या आप जानते है ये क्या पुरस्कार है! ये पुरस्कार उस समय का अंग्रेजो का सर्वोच्च पुरस्कार था मानो परमवीर चक्र!!!!!
फिर आप कहोगे की गांधीजीने अंग्रजो के विरोध में अपना पहला आन्दोलन तो दक्षिण अफ्रिका में किये था, फिर ये अंग्रेजो की सेना में क्या कर रहे है! तो वो ये बात है की १९४७ के उपरांत किस की सत्ता भारत में आई? और एसी पक्षपाती सत्ता के चलते ये सब लोगों के सामने आ सकता है क्या? पर वो बेचारे ये क्या जानते थे के आगे चल कर इंटरनेट का अविष्कार होगा और फेस बुक चलेगी!
हमें बताया ये गया के अंग्रेजो ने हमरे भगवान स्वरूप महात्माजी का अपमान किया, उनके पास १ श्रेणी के रेल डिब्बे की टिकिट होने के उपरांत उन्हें अपमान पूर्वक उतारा गया! महात्माजी के भीतर इस अपमान से स्वाभिमान जागा और उन्होंने अहिंसा और असहकार की लड़ाई अंग्रजो के विरुद्ध छेद दी! एक मिनिट रुकिय क्या आप जानते है जिस समय ये घटना घटी ऐसा हमे बताया जाता है, उस समय दक्षिण अफ्रिका में अंग्रजी शासन था और वहा की रेलवे में केवल गोरो को प्रवेश था जिसका अरक्ष्ण लन्दन से किया जाता था! जब प्रथम श्रेणी गोरो के लिए आरक्षित होती थी तो हमारे महात्माजी के पास उसकी टिकिट आयी कैसे? ये मूल भुत प्रश्न उठता है!
कुछ इतिहासकारो का कहना है की ये घटना काल्पनिक है और भारत में क्रांति की अग्नि को दबाने के लिए अंग्रेज सुरक्षा छिद्र (सेफ्टी वाल्व) का निर्माण करना चाहते थे! ये घटना उसी की कड़ी है! ६५ बरसो तक हम ठगे गए अब समय है इसे शेअर करके जागने का!
सन्दर्भ:
http://en.wikipedia.org/wiki/File:Gandhi_Boer_War_1899.jpg
http://en.wikipedia.org/wiki/Second_Boer_War
http://en.wikipedia.org/wiki/Gandhi_Under_Cross_Examination
http://en.wikipedia.org/wiki/Gandhi_Behind_the_Mask_of_Divinity

1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम के तथ्यों को छुपाने की साजिश

1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम के तथ्यों को छुपाने की साजिश

10 मई 1857 को शुभारम्भ हुए 1857 के स्वाधीनता संग्राम को याद करके आज भी यूरोपियनों की नीद हराम हो जाती है । इस संग्राम की यादों को दफन करने, इससे बदनाम करने, तथ्यों को छुपाने व तोड़ने-मरोड़ने के अनगिनत प्रयास तब भी हुए और आज भी चल रहे हैं ।  अंग्रेजों ने इसे एक छोटा सा सैनिक विद्रोह बतलाया ।

जबकि सच्चाई यह है कि यह संग्राम देश के हर कोने में लड़ा गया. एक ही दिन में १०,१५,२० जगह पर युद्ध चलता था ।  छोटे बड़े नगरों से लेकर वनवासियों तक ने इस युद्ध में भाग लिया ।  इस युद्ध के संचालकों की अद्भुत कुशलता और योग्यता का पता इस बात से चलता है कि जिस युद्ध की योजना में करोड़ों लोग भाग ले रहे थे उसका पता अंग्रजों के गुप्तचर विभाग को अंतिम दिन तक तक न चल सका । ऐसा एक भी कोई दूसरा उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं मिलता ।

आज भी हमारे उपलब्ध साहित्य में तथा अंतरजाल अर्थात इंटरनेट पर विश्व के इस सबसे बड़े स्वतंत्रता संग्राम को एक छोटा सैनिक विद्रोह बतलाने का झूठ चल रहा है । उस संग्राम में में 300000 ( तीन लाख ) वनवासियों, नागरिकों व सैनिकों की हत्या हुई थी । फ्रांस, जापान, अफ्रीका अदि संसार का एक भी देश ऐसा नहीं जिसके वीरों ने अपने देश की आजादी के लिए इतना लंबा संघर्ष किया हो या इतने लोगों के जीवन बलिदान हुए हों । ऐसा देश भी केवल भारत ही है जहां स्वतन्त्रता के बाद भी अपने देश के इतिहास को अपनी दृष्टी से न लिख कर देश के दुश्मनों द्वारा लिखे इतिहास को पढ़ा-पढ़ाया जा रहा हो । इससे लगता है कि अभी तक यह देश आज़ाद नहीं हुआ है । केवल एक भ्रम है कि हम आज़ाद है । वरना कोई कारण नहीं कि हम अपने देश के सही, सच्चे इतिहास को फिर से न लिखते । क्या इसका यह अर्थ नहीं कि अँगरेज़ जाते हुए भारत की सत्ता उन लोगों के हाथ में सौंप गए जो उनके ख़ास अपने थे, जो भारत में रह कर उनके हितों के रक्षा करते ? कथित आज़ादी के बाद के 67 वर्ष के इतिहास पर एक नज़र डालें तो इस बात के अनगिनत प्रमाण मिलते हैं कि देश का शासन भारत के शासकों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के हित में, अनके अनुसार चलाया । स्वतंत्र इतिहासकरों के अनुसार देश आज़ाद तो हुआ ही नहीं, सत्ता का हस्तांतरण हुआ. कई गुप्त देश विरोधी समझौते भी हुए जिन पर अभीतक पर्दा पड़ा हुआ है । जैसे कि एडविना बैटन के सम्मोहन में नेहरू जी ने बिना किसी को भी विश्वास में लिए देश के विभाजन का पत्र माउंट बैटन को सौंप दिया था । महान क्रांतिकारी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को अंग्रेजों की कैद में भेजने का गुप्त समझौता आदी । क्या इन सब तथ्यों और आजकल घट रही अनगिनत देश विरोधी घटनाओं व कार्यों के बाद भी कोई संदेह रह जता है कि यह सताधारी भारत में, भारत के लोगों द्वारा चुने जाकर विदेशी आकाओं के हित में, विदेशी आकाओं के इशारों पर काम कर रहे हैं ? अंतर है तो बस केवल इतना कि पर्दे के पीछे भारत के सत्ता के सूत्र संचालित करने वाला, इन विदेशी ताकतों का मुखिया पहले ब्रिटेन होता था जबकि अब इनका मुखिया अमेरिका है ।

पहले हमारी पाठ्य पुस्तकों में 1857 के वीरों की कथाएं होती थीं. ” खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी” हम बच्चे पढ़ते थे । रानी झांसी पर नाटक होते थे ।धीरे, धीरे वह सब हमारे स्कूली पाट्यक्रम में से कब गायब होता गया, पता भी न चला । इससे भी लगता है कि देश के शासक काले अँगरेज़ आज भी विदेशी आकाओं के इशारों पर देश का अराष्ट्रीयकरण करने के काम में लगे हुए है और देश की जड़ें चुपके, चुपके काट रहे है ।

संसार के देश कभी न कभी गुलाम रहे पर आज़ादी के बाद उन सब ने अपना इतिहास अपनी दृष्टी से लिखा । इसका एक मात्र अपवाद भारत है जहाँ आज भी देश के दुश्मनों द्वारा लिखा, देश के दुश्मनों का इतिहास यह कह कर हमें पढ़ाया जाता है कि यह हमारा इतिहास है । जर्मन के एक विद्वान ‘ पॉक हैमर’ ने भारत के प्रचलित इतिहास को पढ़ कर भारत पर लिखी एक पुस्तक ”इंडिया-रोड टू नेशनहुड” की भूमिका में लिखा कि जब मैं भारत का इतिहास पढता हूँ तो मुझे नहीं लगता कि यह भारत का इतिहास है । यह तो भारत को लूटने वाले, हत्याकांड करने वाले आक्रमणकारियों का इतिहास है । जिस दिन ये लोग अपने सही इतिहास को जान जायेंगे, उसदिन ये दुनिया को बतला देंगे कि ये कौन हैं । बस इसी बात से तो डरते हैं भारत के विदेशी आका । वे नहीं चाहते कि हम अपने सही और सच्चे इतिहास को जानें । हम समझें या न समझें पर वे अच्छी तरह जानते है कि हमारे अतीत में, हमारे वास्तविक इतिहास में इतनी ताकत है कि जिसे जानने के बाद हमें संसार का सिरमौर बनने से कोई भी ताकत रोक नहीं पाएगी. इसी लिए उन लोगों ने अनेक दशकों की मेहनत से भारत का झूठा इतिहास लिखा और मैकाले के मानस पुत्रों की सहायता से आज भी उसे भारत में पढवा रहे हैं ।

भारत का इतिहास विकृत करने वालों में एक अंग्रेज जेम्स मिल का नाम प्रसिद्ध है । उसके लिखे को प्रमाणिक माना जाता है । ज़रा देखे कि वह स्वयं अपने लिखे इतिहास की भूमिका में अपनी नीयत को स्पष्ट करते हुए क्या कहता है । वह कम से कम एक बात तो सच लिख रहा है कि ये लोग ( भारतीय ) संसार में सभ्य समझे जाते हैं, ये हम लोगों को असभ्य समझते है । हमें इन लोगों का इतिहास इस प्रकार से लिखना है कि हम इन पर शासन कर सकें । इस कथन से तीन बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि (१) सन 1800 तक संसार में भारतीयों की पहचान सभ्य समाज के रूप में थी. इस तथ्य को तो हम नहीं जानते न ? (२) तब तक भारत के लोग इन अंग्रेजों को असभ्य समझते थे जो कि वे थे भी । गो मांस खाना, कई- कई दिन न नहाना, स्त्री- पुरुष संबंधों में कोई पवित्रता नहीं, झूठ, ठगी, रिश्वत आदि ये सब अंग्रेजों में सामान्य बात थी जबकि आम भारतीय तब बड़ा चरित्रवान होता था । अधिकाँश लोग शायद मेरे बात पर विश्वास नहीं करेंगे, अतः इस बात के प्रमाण के लिए 2 फवरी, 1835 का टी. बी. मैकाले का ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिया वक्तव्य देख लें । उसे कभी बाद में उधृत करूंगा ।(३) तीसरा महत्वपूर्ण निष्कर्स मिल के कथन से यह निकालता है कि उसने भारतीयों को गुलाम बनाए रखने की दृष्टी से जो भी लिखना पड़े वह लिखा. यानी सच नहीं लिखा । भारतीयों में हीनता जगाने, गौरव मिटाने की दृष्टे से लिखा ।

इसी प्रकार उन्होंने भारत के सभी महल, किले, नगर, भवन भारतीयों की निर्मिती न बतला कर अरबी अक्रमंकारियों की कृती लिखा और हम भोले भारतीयों ने उसी को सच मान लिया । इतना तो सोच लेते कि जो हज़ारों साल से इस भारत भूमि में रह रहे हैं, उनके कोई भवन, महल, किला हैं कि नहीं ? जिन विदेशी आक्रमक अरब वासियों को भारत के सारे वास्तु का निर्माता बतला रहे हैं उन्हों ने अपने देश में ऐसे कितने, कौनसे भवन बनाए ? वहाँ क्यूँ नहीं बनाए ? इसी प्रकार हमारा इतिहास झूठ, विकृतीकरण व विदेशी षड्यंत्रों का शिकार है. कथित भारतीय इतिहासकार भी यूरोपीय झूठे लेखकों के लिखे पर संदेह योग्य स्वाभिमानी व दूरद्रष्टा नहीं थे । ऐसे ही लोगों द्वारा 1857 के महान स्वतन्त्रता संग्राम के सत्य को दबाया, छुपाया गया है ।

अतः यदि सदीप्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के सच्चे इतिहास को जानना है तो वीर सावरकर के लिखे 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ना होगा ।

इतना तो हम सब को समझने का प्रयास करना ही चाहिए कि हमारे सही, सच्चे इतिहास में कुछ ऐसी ताकत है कि जिस से हम संसार का सिरमौर बन सकते हैं, अपनी ही नहीं तो दुनिया की समस्याओं को हल कर सकते हैं ।तभी तो अंग्रजों ने १०० साल से अधिक समय तक अथक प्रयास करके हमारे अतीत को विकृत किया । किसी अज्ञात विद्वान ने कहा है कि यदि किसी देश को तुम नष्ट करना चाहते हो तो उसके अतीत को नष्ट करदो, वह देश स्वयं नष्ट हो जाएगा । क्या हमरे साथ यही नहीं हुआ और आज भी हो रहा है ?

तो आईये हम अपने अतीत को सुधारने के क्रम में अपने उन शहीदों को याद करें जो इस लिए बलिदान हो गये कि हम सुखी, स्वतंत्र रह सकें ।10 मई के दिन 1857 की अविस्मर्णीय क्रान्ति और उसके क्रांतिकारियों की याद में अपनी आँखों को नम हो जाने दें और सकल्प लें कि उनके बलिदानों से प्ररेणा लेकर हम आज के इन विदेशी आकाओं के पिट्ठुओं से देश को स्वतंत्र करवाने के लिए संघर्ष करेंगे, भारत को भिखारी बना रहे बेईमानों के चुंगल से स्वतंत्र होने के लिए एक जुट होकर कार्य करेंगे । विश्वास रखें कि हमारे सामूहिक संकल्प से सबकुछ सही होने लगेगा. ध्यान रहे कि हमें टुकड़ों में बांटने के षड्यंत्र अब सफल न होने पाए।

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

मोहनदास करमचंद गाँधी एक स्वाधीनता सेनानी नहीं वरण वीर इंग्लिश सैनिक था

मोहनदास करमचंद गाँधी एक स्वाधीनता सेनानी नहीं वरण वीर इंग्लिश सैनिक था

बोअर युद्ध १८९९ दक्षिण अफ्रिका
क्या आप इस सैनिक को जानते है! क्या? आपने नही पहचाना?
अरे ये तो वो है जिनका जन्म दिवस आप आज मना रहे है! आप जानते है इनकी महानता इन्होने भारत वासीयो के मनमे अंग्रेजो के प्रती अहिंसा की भावना निर्माण की! क्या आप जानते है इनको?
ये बड़े महान अहिसवादी थे! इन्होने जिस बोअर युद्ध में (१८९९) एक अहिंसक (?) सैनिक का कार्य किया था वो अद्वितीय है! अंग्रेज और दक्षिण अफ्रिका के बोअर गण राज्यों में जो भयानक युद्ध १८९९ में हुआ वह कुविख्यत है अंग्रेजो के अत्याचारों के लिए! इस युद्ध में अंग्रजो की सारे विश्व भर में निर्भात्सना हुई, क्यों की अंग्रेजी सैनिको ने युद्ध में अगणित अफ़्रीकी प्रजाजनों को मृत्यु के घाट उतार दिया, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार करके उन्ही क़त्ल कर दिया! अंग्रेजो की इस बदनाम सेना में ये अहिंसावादी क्या कर रहे थे? अब ये अहिंसात्मक लढाई थी? सब कुछ क्या बताना पड़ेगा? समझदार के लिए एक संकेत ही बहुत है!
और एक महत्वपूर्ण बात सुनिए! ये चित्र भारत सरकार द्वारा संचालित सैनिक समाचार नामक पत्रिका में प्रसारित हुए है! जब इस चित्रों को देख के बवाल खड़ा हुआ तो लोगों को मुर्ख बनाने के लिए एक कुतर्क दिया गया! ये महात्मा युद्ध में अहिंसक सैनिक थे! जो युद्ध फसे घायल अंग्रेजी सैनिको को युद्ध भूमि से बाहर निकलते थे! आप सोचिए सैनिक फिर वो कोई भी कार्य करता हो चाहे धोबी का या रसोइये का कभी अहिंसक होता है?
ये महान आत्मा महात्माजी गांधीजी, केवल अंग्रेजो के अब्युलंस कोर्प नामक टुकड़ी के लिए सेवा नहीं दे रहे थे! किन्तु इन्होने युद्ध में अंग्रजो की सहायता करने के लिए एक स्वतंत्र सेना स्वयसेवको की टुकड़ी खड़ी की थी! युद्ध काल में इस निस्पृह सेवा से प्रसन्न हो कर अंग्रेज सरकार ने महान आत्मा महात्माजी गाँधीजी को कैसर-ए-हिंद का पुरस्कार दिया था! क्या आप जानते है ये क्या पुरस्कार है! ये पुरस्कार उस समय का अंग्रेजो का सर्वोच्च पुरस्कार था मानो परमवीर चक्र!!!!!
फिर आप कहोगे की गांधीजीने अंग्रजो के विरोध में अपना पहला आन्दोलन तो दक्षिण अफ्रिका में किये था, फिर ये अंग्रेजो की सेना में क्या कर रहे है! तो वो ये बात है की १९४७ के उपरांत किस की सत्ता भारत में आई? और एसी पक्षपाती सत्ता के चलते ये सब लोगों के सामने आ सकता है क्या? पर वो बेचारे ये क्या जानते थे के आगे चल कर इंटरनेट का अविष्कार होगा और फेस बुक चलेगी!
हमें बताया ये गया के अंग्रेजो ने हमरे भगवान स्वरूप महात्माजी का अपमान किया, उनके पास १ श्रेणी के रेल डिब्बे की टिकिट होने के उपरांत उन्हें अपमान पूर्वक उतारा गया! महात्माजी के भीतर इस अपमान से स्वाभिमान जागा और उन्होंने अहिंसा और असहकार की लड़ाई अंग्रजो के विरुद्ध छेद दी! एक मिनिट रुकिय क्या आप जानते है जिस समय ये घटना घटी ऐसा हमे बताया जाता है, उस समय दक्षिण अफ्रिका में अंग्रजी शासन था और वहा की रेलवे में केवल गोरो को प्रवेश था जिसका अरक्ष्ण लन्दन से किया जाता था! जब प्रथम श्रेणी गोरो के लिए आरक्षित होती थी तो हमारे महात्माजी के पास उसकी टिकिट आयी कैसे? ये मूल भुत प्रश्न उठता है!
कुछ इतिहासकारो का कहना है की ये घटना काल्पनिक है और भारत में क्रांति की अग्नि को दबाने के लिए अंग्रेज सुरक्षा छिद्र (सेफ्टी वाल्व) का निर्माण करना चाहते थे! ये घटना उसी की कड़ी है! ६५ बरसो तक हम ठगे गए अब समय है इसे शेअर करके जागने का!
सन्दर्भ:
http://en.wikipedia.org/wiki/File:Gandhi_Boer_War_1899.jpg
http://en.wikipedia.org/wiki/Second_Boer_War
http://en.wikipedia.org/wiki/Gandhi_Under_Cross_Examination
http://en.wikipedia.org/wiki/Gandhi_Behind_the_Mask_of_Divinity

रविवार, 26 जनवरी 2014

गणराज्य से स्वराज्य तक

गणराज्य से स्वराज्य तक

आज गणतंत्र दिवस है। वह दिन जो गण के नाम समर्पित है।  जो गण का अपना, अपने लिए और अपने द्वारा संचालित है। आम गण का अपना ही जब सब कुछ है फिर गण का कोई वजूद कहीं क्यों नहीं दिख रहा है? गण के नाम पर जो कुछ हो रहा है, हुआ है और होने वाला है उसे देखकर कहीं नहीं लगता कि सब कुछ गण के लिए समर्पित है, गण  की आराधना के लिए है और गण की प्रतिष्ठा के लिए हो रहा है।

गण राष्ट्र का बीज तत्व है। यह नींव है जो जितनी ज्यादा ताकतवर होगी, टिकाऊ और मजबूत होगी, उतना ही राष्ट्र समृद्ध और शक्तिशाली होगा। पर आज गण की प्रतिष्ठा कितनी और कैसी है, इस बारे में हमें किसी को कुछ बताने की जरूरत कभी नहीं पड़ती।

लगता है जैसे गण सिर्फ वादों और नारों का हिस्सा हो कर रह गया है जहाँ उसके लिए ही जीने और मरने की कसमें जरूर खायी जाती हैं ंपर भुगतना सब कुछ गण को ही पड़ता है। गण गौण हो गया है और तंत्र हावी। लगता है जैसे तंत्र पर प्रतिष्ठित अधीश्वर गण में से न हो कर स्वयंभू गणाधीश हो चले हैं जिन पर अब न गण का  बस चलता है न किसी और का।

गण का दम निकाल कर जो हालत होने लगी है उसे गण ही जानता है।  दशकों बाद भी गण को आज तंत्र की शरण में जाने की विवशता है। फिर गण कभी नियति की मार से ठिठुरने लगता है तो कभी अपनों की। जाने कितने वर्षों से ढेर सारे  फण्डों और प्रलोभनी हवाओं से गण को भरमाया जा रहा है,  फिर भी गण को इतने बरसों की यात्रा पूरी करने के बाद भी यह अहसास नहीं हो पाया है कि वह जिस डगर पर है वह सही और सलामत तो है।

गण ने अपनी पिछली पीढ़ियों को भी देखा है और आज को भी भुगत रहा है। गण आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को लेकर भी आशंकित और भयभीत रहने लगा है। आज गण अन्यमनस्क और भुलभुलैया वाले दौर से गुजर रहा है जहाँ उसे हर कहीं परफ्यूम की चित्त हर लेने वाली महक और सुनहरी रोशनी के साथ सब्जबागों की झलक तो देखने को मिलती है लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा है कि  आखिर कौन सा रास्ता वास्तविकता से भरा हुआ है।

कई झुनझुनों और आकर्षण बिखेरते खिलौनों के साथ बहुरुपियों और जोकरों की तरह बैठे महान-महान स्वनामधन्यों की भीड़ अपने हुनर से करामाती करिश्मों का मायाजाल बिछाए बैठी है।  हर डगर पर गण को भरमाने का पूरा इंतजाम है।  और गण है कि बेचारा इन तिलस्मों में ही उलझ कर पूरी जिन्दगी अनिर्णय की स्थिति में पड़ा रहता है और अन्ततः गणतंत्र की प्रतिष्ठा का मिथ्या जयगान करते हुए लौट पड़ता है जहाँ  से आया था ।

गण को खुद को अहसास होता है कि आजादी के बाद उसकी हालत तरस खाने लायक होती जा रही है। कभी वह अधमरा दिखता है तो कभी मरा हुआ। कभी बेहोशी तो कभी मदहोशी के आँचल में सुप्तावस्था के संग।

गण के भाग्य में चप्पल घिसना और चक्कर काटते रहना ही बदा हुआ है।  रोजाना अधीश्वरों के आगे-पीछे घूमने और परिक्रमा करते रहने वाला गण-गण जिस तरह रोजाना इनके डेरों के चक्कर काटने को विवश हो गया है उससे तो यही लगता है कि हमारा गणतंत्र एक दिन का न होकर साल भर चलता है। जहाँ अधीश्वर एसी रूम्स में बैठकर गण के उत्थान पर चिंतन-मनन करते हैं और गण खुली हवा में घूमता हुआ इनके बारे में चिंतन करता है।

भारतवर्ष के गणराज्य या गणतांत्रिक राष्ट्र घोषित होने के बाद से ही यह सब कुछ होता रहा है। डण्डे और झण्डे बदलते रहे हैं, आदमियों की आकृति बदलती रही है, डेरों का रंग-रूप बदलता रहा है पर बेचारे गण को कभी नहीं लगता कि कुछ बदल भी ग  या    है।

आज भी गण को लगता है जैसे सब कुछ ठहरा हुआ है। हालांकि गण की तकदीर सँवारने के लिए पिछले वर्षों से ईमानदार प्रयास भी होते रहे हैं पर लगातार बढ़ती जा रही जनसंख्या के दौर में हर बार ये उपाय भी बौने होते जाते हैं।

इतना सब कुछ होते रहने के बावजूद गण को मलाल है तो इसी बात का कि उसके नाम पर जो कुछ हो रहा है उससे गण की बजाय तंत्र ही मजबूत होता जा रहा है, गण के पल्ले कुछ खास अब तक भी नहीं दिखता। गणतंत्र के इतने वर्षों बाद भी आम आदमी को यह महसूस नहीं हो पाया है कि तंत्र गण के लिए ही है। बल्कि यक्ष   प्रश्न यह होता जा रहा है कि गण और तंत्र के बीच खाई निरन्तर आकार बढ़ाती जा रही है।

कभी-कभी तो गण को गोबर गणेश भी मान लिया जाकर वो सब कुछ हो जाता है जो गण के लिए तकलीफदायी    है। भारतीय गण सदियों से सहिष्णु, सहनशील और उदार रहा है और इसी का परिणाम यह रहा कि हमें दासत्व भी भोगना पड़ा।

पर आज हम मुक्त हैं और हमारा अपना ही सब कुछ है। फिर भी गण की पूरी तरह प्राण-प्रतिष्ठा हम क्यों नहीं कर पा रहे हैं, यह   सवाल हर किसी के मन-मस्तिष्क में गहरे तक उतरा हुआ है। भारतीय इतिहास में हमेशा यही होता रहा है कि जब-जब गण के सामथ्र्य को भुलाने की चेष्टा की जाती रही है, एक सीमा तक गण बर्दाश्त करता चला जाता है लेकिन जब गण के सब्र का बाँध कभी-कभार टूट जाता है तब सारे तटों को अपने साथ बहा ले जाता है।

यह बात जब तक तंत्र के अधीश्वरों की समझ में नहीं आएगी तब तक हमारा गणतंत्र अधूरा और उद्विग्न रहेगा तथा गणतंत्र के नाम पर स्वार्थों की पूर्ति का उन्माद यौवन पाता रहेगा।  भारतवर्ष  दुनिया की वह महान शक्ति है जो संसार भर को बदलने का सामथ्र्य र खती है।

ऎसे में गण की कद्र हो तथा तंत्र ईमानदारी के साथ गण की सेवा को सर्वोपरि मानें तो जल्द ही भारतवर्ष  फिर अपना प्राचीन गौरव प्राप्त कर सकता है। गण को भी देश हित में सोचना होगा और तंत्र को भी। आज का गणतंत्र दिवस यही कहता है।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

पुरातन भारतीय संस्कृति में राष्ट्रधर्म और विधान का राज्य

पुरातन भारतीय संस्कृति में राष्ट्रधर्म और विधान का राज्य

पुरातन भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था का संचालन सरकारी कानून से नहीं बल्कि प्रचलित नियमों जिसे ‘धर्म’ के नाम से जाना जाता था, के द्वारा होता था। धर्म ही वह आधार था जो समाज को संयुक्त एवं एक करता था तथा विभिन्न वर्गों में सामंजस्य एवं एकता के लिए कर्तव्‍य-संहिता का निर्धारण करता था।

राष्ट्रधर्म के बारे में प्रचलित शास्त्रोक्त कहावत् -’ जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” के अंर्तगत जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढकर बताया गया है। मातृभूमि को स्वाधीन रखने का ऋग्वेद में स्पष्ट आहवन है- यतेमहि स्वराज्ये। भारतवर्ष में ऋग्वेद में ‘गणांना त्वां गणपति’ आया है। गण और जन ऋग्वेद में हैं। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म से आदर्श गणतंत्र की परिभाषा पूछी। भीष्म ने (शातिपर्व 107.14) बताया कि भेदभाव से गण नष्ट होते हैं।अथर्ववेद (6.64.2) में समानो मंत्र: समिति: – - समानं चेतो अभिसंविशध्वम्॥ मनुष्यों के विचार तथा सभा सबके लिए समान हो कहा गया है। एक विचार एवं सबको समान मौलिक शक्ति मिलने की बात कही है। विधान के राज्य की संक्षिप्त परिभाषा भी यही है। गण के लिए आंतरिक संकट बड़ा होता है- आभ्यंतर रक्ष्यमसा बाह्यतो भयम्, बाह्य उतना बड़ा नहीं। गणतंत्र के मूल शब्द गण की अवधारणा अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य और आचार्य पाणिनी के जमाने में भी वर्णित है। उस काल में समाज के प्रतिनिधियों के दलों को गण कहा जाता था और यही मिलकर सभा और समितियां बनाते थे।

किसी ऐसे काल्पिनक छोटी शासन व्यवस्था में भी, सभी फैसले बहुसंख्यक वोट से हो, ऐसा संभव नहीं। जनता का शासन तभी संभव है जब बहुसंख्यक समाज अपने मत द्वारा ऐसा विधान बनाए जिसका पालन प्रत्येक व्यक्ति के उपर, पुलिस और न्यायालय द्वारा कराया जाए अलोकतांत्रिक तानाशाह अपने मर्जी को संविधान और कानून द्वारा जनता पर थोप सकते हैं। जो समाज राष्ट्रों के निर्माण के पूर्व किसी प्राकृतिक नियम या मर्यादा को तरजीह देती हैं और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील है वे विधान के द्वारा निर्मित राज्य का सर्मथन करती हैं।एक निरंकुश तानाशाह कानून के नियमों से लैस होकर मानवाधिकारों की अवहेलना करता है।। किसी श्रेष्ठ कानून की संरचना के लिए विधि के विधान की आवश्यकता होती है। विधान के राज्य के बिना स्थिर बडे लोकतांत्रिक सरकार की कल्पना नहीं की जा सकती। स्थायित्व और निरन्तरता की खूबियाँ और राष्ट्र को अक्षुण्ण रखने की चाह के कारण ही विधान के राज्य को भेदभाव फैलाने वाले राजनेताओं के शासन पर प्राथमिकता मिलती है। गलती से या जानबूझकर कोई भी व्यक्ति नियंत्रण के अभाव में कानून का अनुपालन नहीं करना चाहता है। इसी प्रकार शासनाध्यक्ष या सांसद संविधान को अंगीकृत और आत्मार्पित करने की शपथ लेने के बावजूद, अपने स्वार्थवश या राजनैतिक कारणों से उसका गलत अर्थ निकालते हैं या उसकी अवहेलना करते हैं।

विधि का विधान सरकारों में वैद्यता स्थापित कर स्थिरता लाती है। मानवाधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रजातंत्र ये तीन मुख्य कारण/उद्देश्य हैं जिसके लिए जनता शासकों के शासन को सहन एवं सहयोग करती है। एक सरकार जो विधि बनाने में विधान के नियमों को नजरअंदाज करती है, वह न केवल इन तीन मूल्यों में कटौती करती है बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न करती है। जब विधान राज्य करता है तो कोई विशिष्ट आज्ञा दायित्व निर्वाहन के बीच नहीं आती। क्यूकिं हमे जनता की चिंता है इसलिए हम विधान के नियमों को प्रभावी तरीके से लागू और कार्यान्वित होते देखना चाहते हैं। कानून और कर्तव्य का रिश्ता यहाँ उत्तारदायित्व का होता है।

समान्य परिभाषा में विधान राज्य या धर्मराज्य एक ऐसा तंत्र है जहाँ कानून जनता में सर्वमान्य हो; जिसका अभिप्राय(अर्थ) स्पष्ट हो; तथा सभी व्यक्तियों पर समान रुप से लागू हो। ये राजनैतिक और नागरिक स्वतंत्रता को आदर्श मानते हुए उसका समर्थन करते है, जिससे कि मानवाधिकार की रक्षा में विश्व में अहम् भूमिका निभाई गई है। विधान के राज्य एवं उदार प्रजातंत्र में अतिगम्भीर सम्बन्ध है। विधान का राज्य व्यक्तिगत अधिकार एवं स्वतत्रंता को बल देता है, जो प्रजातांत्रिक सरकार का आधार है। सरकारें विधान के राज्य की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए जनता के अधिकारों के प्रति सचेत रहती हैं, वहीं एक संविधान,जनता में कानून की स्वीकृति पर निर्भर करता है। विधि एवं विधान के राज्य में कुछ खास अन्तर हैं- जो सरकारें प्राकृतिक नियम, मर्यादा, व्यवहार विधि को आर्दश मानते हुए, किसी प्रकार के पक्षपात नहीं करती तथा न्याय के संस्थानों को प्राथमिकता देती हैं,वे विधान द्वारा स्थापित होती हैं।

भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में स्वदेशी विचारधारा, राष्ट्र के संस्कृतिक गौरव और उसकी भावना की अहम् भूमिका रही है। स्वाधीनता का अर्थ राष्ट्रपिता के निगाह में राष्ट्र के समाजिक जीवन जो प्रशासनिक व्यवस्था, आर्थिक विकास और तत्कालीन धार्मिक झुकाव को दर्षाती है, सभी को हिन्दूस्तानी विचारों और जीवन के सर्वांगीण विकास से सुशोभित करना था। इंग्लैण्ड मे पढ़े और दक्षिण और दक्षिण अफ्रीका में कानून तथा राजनीति में कार्यरत राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने राष्ट्र के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष आम आवाम का परिधान स्वदेशी धोती को अपनाया। गाँधीजी का देहान्त 30 जनवरी 1948 को हुआ। संविधान पर विचार – विमर्स 5 नवम्बर 1948 से शुरू हुआ। 26 जनवरी 1950 को उसका भारतीय गणराज्य के रूप में लागु कर दिया गया।

किसी राष्ट्र के जीवन में देखने के लिए एक वातायन होता है साहित्य, जो उस राष्ट्र के धर्म, कला, संस्कृति और मानवीय मूल्यो का भी सर्जक होता है। संविधान का स्थान इसमें प्रथम है।संविधान केवल एक लिखीत दस्तावेज नहीं वह राष्ट्र के सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों का मार्गदर्शक भी होता है। स्वदेशी आंदोलन से मिली स्वतंत्रता के बाद निर्मित भारतीय संविधान के ज्यादातर तत्व विदेशी स्त्रोतों से है। बहुत कम ही बातें हैं जो भारतीय संस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हैं जिसे संविधान में शामिल किया गया है। जबकि यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है, विश्व की सबसे पुरानी गणराज्य बिहार के लिच्छवी( वैशाली) में कार्यरत थी। संविधान की संरचना के ढाँचे का अधिकतर अंश औपनिवेशिक दासता के दिनों में पारित, भारत सरकार अधिनियम 1935 से बना है, जिसे दुर्भाग्‍यवश निरन्तरता और स्थिरता के आधार पर अपनाना जरूरी समझा गया। संविधान का भाग 3 में अंकित दार्शनिक भाग जो मौलिक अधिकारों से संबधित है का कुछ भाग, संघात्मक शासन प्रणाली, न्यायपालिका, अमेरिकन संविधान से शामिल किया गया है। भाग 4 में अंकित राज्य के नीति निर्देशक तत्व आयरलैंड से, 4अ में वर्ण्0श्निर् ात मूल कर्तव्‍य सोवियत संघ से, राजनैतिक भाग जिसमे विधायिका और कार्यपालिका के संबन्ध और मंत्रीमंडल के उत्तारदायित्व, प्रक्रिया एवं विशेषाधिकार हैं ब्रिटेन से,गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था फ्रांस से, संघ और राज्यो का शक्तिविभाजन कनाडा से, जर्मनी से आपात उपबंध, आस्टे्रलिया से समवर्ती सूची। इन सबके बावजुद ब्रिटेन, यूरोपीय संघ तथा अन्य राष्ट्र मे मौजूद विधान के राज्य के सिद्धांन्त भारतीय संविधान में पुर्ण रुप से लागू नहीं हैं, इसमें समता का सिद्धांन्त प्रमुख है। कार्यपालिका और नौकरशाह के अधिकार आम जनता से अधिक हैं।

कहने को तो हम गणतंत्र है, पर इस गणतंत्र से गण गायब है, जनतंत्र से जन गायब है तथा तंत्र की तानाशाही है। जन और गण की भूमिका केवल मत देने तक रह गयी आज भी भारतीय गणराज्य की सफलता भारतीय एकता और संप्रभुता के समक्ष चुनौतियां अपनी जटिलता के साथ पूरी तरह मौजूद है। भारतीय गणतंत्र को भारत के अंदरूनी शक्तियों ने ही खोखला किया है। कानून व्यवस्था रस्म आदायगी ही रह गयी है। न्यायपालिका जो संविधान की जिम्मेवार संरक्षक है, के न्यायालयों में लम्बित लाखों मुकदमों में ‘न्याय में देरी के कारण अन्याय है।’ आज की राजनीतिक सोच विभिन्न क्षेत्रों, जातियों,वर्गो को अलग पहचान की ओर ले जा रही है। मजहबी तथा क्षेत्रीय अलगावाद देशतोड़क हैं तो भी तुष्टीकरण और वोटबैंक की रणनीति के तहत सेकुलर हैं। समान नागरिक सहिता राष्ट्र के नीति निर्देशक संवैधानिक तत्व हैं। जम्मू कश्मीर विषयक संवैधानिक सुधार अनुसूची 370 अस्थाई था, लेकिन स्थाई है। अलकायदा, लश्कर-ए-तैयबा और आईएसआई आदि विदेशी आंतकवादियों का घुसपैठ आज भी जारी है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे राष्ट्र के विरूद्ध युद्ध बताया है। असम, अरूणाचल, मेघालय, मिजोरम, मण्0श्निापुर, त्रिपुरा, नगालैण्ड़, सिक्किम पर चीन अपनी काक दृष्टि लगाए हुए है।अरूणाचल को तो वह अपने राष्ट्र का हिस्सा ही मानता है। इसपर चीनी रणनीतिकार झान लुई का स्वप्न -भारत को 25-30 भागों में करने का है। आज भी इन पूर्वोत्तार राज्यों में स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस जनता के बीच नहीं मनाई जाती। अल्पसंख्यकवाद राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है पर वोटबैक र्है। जो राजनीतिक दल राज्यों में भाषा,जाति और क्षेत्र का लगाकर बने हैं वे अखिल भारतीय सोच कहाँ से लाएगें।

कश्मीर के कल्हण राजतंरगिणी में भारत की सनातन संस्कृति का इतिहास है। धर्मातरण के शताब्दियों बाद वही समाज आज स्वायत्ताता के राष्ट्र विरोधी बात कर रहा है, यह स्वायत्तता जम्मू, लद्दाख को नहीं चाहिए। इससे तो मजहबी संगठन के तर्क, कि धर्मातरण राष्ट्रातरण है को ही बल मिलता है। आजादी के बाद तथाकथित राजनेता ने मुसलमान समाज को जोड़ने का नहीं मजहबी खौफ दिखाकर तोड़ने और वोटबैंक बनाने का काम किया है। जो आज स्वायत्तता की बात करते हैं वह कल का अलगावादी है। कश्मीरी संगठन हुर्रियत और पूर्वोत्तार राज्यों के उल्फा का इस मामले में समान एजेड़ा है। आज सोवियत यूनियन का हश्र हमारे सामने है, जहाँ राजनीतिक महत्वाकांक्षा कि लड़ाई में राष्ट्र को ही खंडित कर दिया गया। आर्थिक तंगी झेल रहे सोवियत यूनियन को सुधारवादी र्गोबाच्योव के मानवीय मूल्यों पर आधारित व्यवस्था देना प्रारंभ किया, लेकिन येल्तसिन के रुस के राष्ट्रपति बनने और र्गोबाच्योव के नीचा देखनेकि लालसा ने सोवियत यूनियन को ही विभाजित कर दिया।

अल्पसंख्यकवाद, आरक्षणवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद और साम्प्रदायिकतावाद के कारण उत्पन्न भेदभाव से गण नष्ट हो रहे हैं।

संविधान के निर्माता भी सांस्कृतिक क्षमता से परिचित थे। 221 पन्नों के संविधान के कुल 22 भाग थे, तथा इसके हस्तलिखीत प्रति में भारतीय संस्कृति के प्रतिक राष्ट्रभाव वाले 23 चित्र थे। मुखपृष्ठ पर राम और कृष्ण तथा भाग एक में सिन्धु घाटी सभ्यता की स्मृति अंकित थी। नागरिकता के मैलिक अधिकार वाले पृष्ट पर श्री राम की लंका विजय, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों वाले पन्ने पर कृष्ण अर्जुन उपदेश वाले चित्र थे। वास्तव मे यह भारतीय संस्कृति के विकास का इतिहास है। अपने आखिरी भाषण में डा. अम्बेड़कर ने प्राचीन भारतीय परंपरा की याद दिलाते हुए कहा था – एक समय था जब भारत गणराज्यों से सुसज्जित था यह बात नहीं कि भारत पहले संसदीय प्रकिया से अपरिचित था। यहाँ वैदिक काल से ही एक परिपूर्ण गणव्यवस्था थी।

हिन्दु समाज प्राचीन काल से ही अपनी प्रजा या समाज को षिक्षित करना अपना मौलिक कर्तव्य समझती थी। यही वह आधार था जिसपर ‘हिन्दु संस्कृति’ स्थापित थी। शिक्षा का अर्थ मनुष्य की आन्तरिक, रचनात्मक मानसिक विकास और आत्मिक इच्छापूर्ति के लिए उपयुक्त प्रणाली नियम, विधि और व्यवस्था विकसित करना था। शिक्षा को संविधान में उचित स्थान नहीं दिया गया और इसे मौलिक अधिकारों में भी नहीं शामिल किया गया। ऋग और अथर्ववेद एवं महाभारत में राज्यों और गणराज्यों के सिद्धांन्तों को संविधान में यथोचीत स्थान नहीं मिला है।

आधुनिक भारत में विधान के राज्य के अभाव में महत्वपूर्ण आर्थिक एवं गैर आर्थिक संस्थानों यथा – निगम, बैंक, श्रम संगठनों, कर प्रणाली, प्रबन्धक संस्थायें में अपारदर्शिता, अक्षमता और स्वार्थपरक शक्तियाँ सर उठाने लगी हैं। जिसके फलस्वरूप लोकतंत्र के चारों स्तंम्भों – विधायिका,न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया भी खोखली होती जा रही हैं।

जाति, मजहब, राजनीति और क्षेत्रीय आग्रह समाज को तोड़ते हैं संस्कृति ही इन्हें जोड़ती है। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म को जो उपदेश गणतंत्र के बारे में दिया था उस उपदेश को आज के राजनेताओं को गंभीरता से लेते हुए राष्ट्र की एकता और अखंड़ता सुनिश्चित करने के लिए विधान के राज्य के सिद्धांन्तों को पूणरूपेण लागु कर देना चाहिए। एक नई व्यवस्था और कानून जो भारतीय संस्कृति पर निर्मित हो, विधान का राज्य, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, लोकतांत्रिक मूल्यों से सुसज्जित हो आज के भारत की आवश्यकता है।