शनिवार, 21 सितंबर 2013

रसायन शास्त्र और धातु, आसव, तत्व - सब पुरातन भारतीयों की ही आविष्कार हैं

रसायन शास्त्र और धातु, आसव, तत्व - सब पुरातन भारतीयों की ही आविष्कार हैं

रसायन शास्त्र का सम्बन्ध धातु विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान से भी है। वर्तमान काल के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय ने ‘हिन्दू केमेस्ट्री‘ ग्रंथ लिखकर कुछ समय से लुप्त पुरातन रसायनशास्त्र को पुनः लोगों के सामने लाया। रसायन शास्त्र एक प्रयोगात्मक विज्ञान है। खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व परस्पर परिवर्तन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि में आवश्यक औषधियों का निर्माण इसके द्वारा होता है।

पूर्व काल में अनेक रसायनज्ञ हुए, उनमें से कुछ की कृतियों निम्नानुसार हैं।
नागार्जुन-रसरत्नाकर, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक

वाग्भट्ट - रसरत्न समुच्चय
गोविंदाचार्य - रसार्णव
यशोधर - रस प्रकाश सुधाकर
रामचन्द्र - रसेन्द्र चिंतामणि
सोमदेव- रसेन्द्र चूड़ामणि

रस रत्न समुच्चय ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-

(१) महारस (२) उपरस (३) सामान्यरस (४) रत्न (५) धातु (६) विष (७) क्षार (८) अम्ल (९) लवण (१०) लौहभस्म।

महारस (१) अभ्रं (२) वैक्रान्त (३) भाषिक (४) विमला (५) शिलाजतु (६) सास्यक (७)चपला (८) रसक

उपरस :- (१) गंधक (२) गैरिक (३) काशिस (४) सुवरि (५) लालक (६) मन: शिला (७) अंजन (८) कंकुष्ठ

सामान्य रस- (१) कोयिला (२) गौरीपाषाण (३) नवसार (४) वराटक (५) अग्निजार (६) लाजवर्त (७) गिरि सिंदूर (८) हिंगुल (९) मुर्दाड श्रंगकम्‌

इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।
अम्ल का भी वर्णन है। द्वावक अम्ल (च्दृथ्ध्ड्ढदद्य ठ्ठड़त्ड्ड) और सर्वद्रावक अम्ल (ठ्ठथ्थ्‌ ड्डत्द्मद्मदृथ्ध्त्दढ़ ठ्ठड़त्ड्ड)

विभिन्न प्रकार के क्षार का वर्णन इन ग्रंथों में मिलता है तथा विभिन्न धातुओं की भस्मों का वर्णन आता है।

प्रयोगशाला- ‘रस-रत्न-समुच्चय‘ अध्याय ७ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं- (१) दोल यंत्र (२) स्वेदनी यंत्र (३) पाटन यंत्र (४) अधस्पदन यंत्र (५) ढेकी यंत्र (६) बालुक यंत्र (७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र (८) विद्याधर यंत्र (९) धूप यंत्र (१०) कोष्ठि यंत्र (११) कच्छप यंत्र (१२) डमरू यंत्र।

प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।

पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।

पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।

धातुओं को मारना:- विविध धातुओं को उपयोग करने हेतु उसे मारने की विधि का वर्णन किया गया है। प्रयोगशाला में धातुओं को मारना एक परिचित विधि थी। गंधक का सभी धातुओं को मारने में उपयोग होता था। अत: ग्रंथ में गंधक की तुलना सिंह से की गई तथा धातुओं की हाथी से और कहा गया कि जैसे सिंह हाथी को मारता है उसी प्रकार गंधक सब धातुओं को मारता है।

जस्ते का स्वर्ण रंग में बदलना-हम जानते हैं जस्ता (झ्त्दत्त्‌) शुल्व (तांबे) से तीन बार मिलाकर गरम किया जाए तो पीतल (एद्धठ्ठद्मद्म) धातु बनती है, जो सुनहरी मिश्रधातु है। नागार्जुन कहते हैं-

क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥
(रसरत्नाकार-३)

धातुओं की जंगरोधी क्षमता-गोविन्दाचार्य ने धातुओं के जंगरोधन या क्षरण रोधी क्षमता का क्रम से वर्णन किया है। आज भी वही क्रम माना जाता है।

सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥
(रसार्णव-७-८९-१०)

अर्थात्‌ धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।

तांबे से मथुर तुप्ता
(ड़दृद्रद्रड्ढद्ध द्मद्वथ्द्रण्ठ्ठद्यड्ढ) बनाना-
ताम्रदाह जलैर्योगे जायते
तुत्यकं शुभम्‌।

अर्थात्‌ तांबे के साथ तेजाब का मिश्रण होता है तो कॉपर सल्फेट प्राप्त होता है।

भस्म:- रासायनिक क्रिया द्वारा धातु के हानिकारक गुण दूर कर उन्हें राख में बदलने पर उस धातु की राख को भस्म कहा जाता है। इस प्रकार मुख्य रूप से औषधि में लौह भस्म (क्ष्द्धदृद), सुवर्ण भस्म (क्रदृथ्ड्ड), रजत भस्म (च्त्थ्ध्ड्ढद्ध), ताम्र भस्म (क्दृद्रद्रड्ढद्ध), वंग भस्म (च्र्त्द), सीस भस्म (ख्र्ड्ढठ्ठड्ड) प्रयोग होता है।

वज्रसंधात (ॠड्डठ्ठथ्र्ठ्ठदद्यत्दड्ढ क्दृथ्र्द्रदृद्वदड्ड)-वराहमिहिर अपनी बृहत्‌ संहिता में कहते हैं-
अष्टो सीसक भागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मया कथितो योगोऽयं विज्ञेयो वज्रसड्घात:॥

अर्थात्‌ एक यौगिक जिसमें आठ भाग शीशा, दो भाग कांसा और एक भाग लोहा हो उसे मय द्वारा बताई विधि का प्रयोग करने पर वह वज्रसङ्घात बन जाएगा।
आसव बनाना-

चरक के अनुसार ९ प्रकार के आसव बनाने का उल्लेख है।

१. धान्यासव - ङदृदृद्यद्म
२. फलासव-क़द्धद्वत्द्यद्म
३. मूलासव-क्रद्धठ्ठत्दद्म ठ्ठदड्ड द्मड्ढड्ढड्डद्म
४. सरासव-ज़्दृदृड्ड
५. पुष्पासव-क़थ्दृध्र्ड्ढद्धद्म
६. पत्रासव-थ्ड्ढठ्ठध्ड्ढद्म
७. काण्डासव-द्मद्यड्ढथ्र्द्म (च्द्यठ्ठड़त्त्द्म)
८. त्वगासव-एठ्ठद्धत्त्द्म
९. शर्करासव-च्द्वढ़ड्ढद्ध

इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के गंध, इत्र सुगंधि के सामान आदि का भी विकास हुआ था।

ये सारे प्रयोग मात्र गुरु से सुनकर या शास्त्र पढ़कर नहीं किए गए। ये तो स्वयं प्रत्यक्ष प्रयोग करके सिद्ध करने के बाद कहे गए हैं। इसकी अभिव्यक्ति करते हुए अनुमानत: १३वीं सदी के रूद्रयामल तंत्र के एक भाग रस कल्प में रस शास्त्री कहता है।

इति सम्पादितो मार्गो द्रुतीनां पातने स्फुट:
साक्षादनुभवैर्दृष्टों न श्रुतो गुरुदर्शित:
लोकानामुपकाराएतत् सर्वें निवेदितम
सर्वेषां चैव लोहानां द्रावणं परिकीर्तितम् -
(रसकल्प अ.३)

अर्थात् गुरुवचन सुनकर या किसी शास्त्र को पढ़कर नहीं अपितु अपने हाथ से इन रासायनिक प्रयोगों और क्रियाओं को सिद्धकर मैंने लोक हितार्थ सबके सामने रखा है।
प्राचीन रसायन शास्त्रियों की प्रयोगशीलता का यह एक प्रेरणादायी उदाहरण है।

धातु विज्ञानं का चमत्कार

धातु विज्ञान का भारत में प्राचीन काल से व्यावहारिक जीवन में उपयोग होता रहा है। यजुर्वेद के एक मंत्र में निम्न उल्लेख आया है-

अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च में पर्वताश्च में सिकताश्च में वनस्पतयश्च मे हिरण्यं च मेऽयश्च में श्यामं च मे लोहं च मे सीस च में त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्‌ (कृ.यजु. ४-७-५)

मेरे पत्थर, मिट्टी, पर्वत, गिरि, बालू, वनस्पति, सुवर्ण, लोहा लाल लोहा, ताम्र, सीसा और टीन यज्ञ से बढ़ें।

रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति ग्रंथों में भी सोना (सुवर्ण, हिरण्य), लोहा (स्याम), टिन (त्रपु), चांदी (रजत), सीसा, तांबा, (ताम्र), कांसा आदि का उल्लेख आता है।

धातु विज्ञान से सम्बंधित व्यवसाय करने वाले कुछ लोगों के नाम-
कर्मरा- कच्ची धातु गलाने वाले
धमत्र - भट्टी में अग्नि तीव्र करने वाले
हिरण्यक - स्वर्ण गलाने वाले
खनक - खुदाई कर धातु निकालने वाले।

चरक, सुश्रुत, नागार्जुन ने स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह, अभ्रक, पारा आदि से औषधियां बनाने की विधि का विस्तार से अपने ग्रंथों में वर्णन किया है। केवल प्राचीन ग्रंथों में ही विकसित धातु विज्ञान का उल्लेख नहीं मिलता, अपितु उसके अनेक प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। कुछ उदाहरण-

(१) जस्ता- (झ्त्दड़) धातु विज्ञान के क्षेत्र में जस्ते की खोज एक आश्चर्य है। आसवन प्रक्रिया (क़्त्द्मद्यत्थ्ठ्ठद्यत्दृद द्रद्धदृड़ड्ढद्मद्म) के द्वारा कच्चे जस्ते से शुद्ध जस्ता निकालने की प्रक्रिया निश्चय ही भारतीयों के लिए गर्व का विषय है। राजस्थान के ‘जवर‘ क्षेत्र में खुदाई के दौरान ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में इसके निर्माण की प्रक्रिया के अवशेष मिले हैं। मात्र दस फीसदी जस्ते से पीतल सोने की तरह चमकने लगता है। जवर क्षेत्र की खुदाई में जो पीतल की वस्तुएं प्राप्त हुई हैं उनका रासायनिक विश्लेषण करने पर पाया गया कि इनमें जस्ते की मात्रा ३४ प्रतिशत से अधिक है, जबकि आज की ज्ञात विधियों के अनुसार सामान्य स्थिति में पीतल में २८ प्रतिशत से अधिक जस्ते का सम्मिश्रण नहीं हो पाता है।

जस्ते को पिघलाना भी एक जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि सामान्य दबाव में यह ९१३०से. तापक्रम पर उबलने लगता है। जस्ते के आक्साइड या कच्चे जस्ते से शुद्ध जस्ता प्राप्त करने के लिए उसे १२०००से. तापक्रम आवश्यक है, लेकिन इतने तापक्रम पर जस्ता भाप बन जाता है। अत: उस समय पहले जस्ते का आक्साइट बनाने के लिए कच्चे जस्ते को भूंजते थे, फिर भुंजे जस्ते को कोयला व अपेक्षित प्रमाण में नमक मिलाकर मिट्टी के मटकों में तपाया जाता था तथा ताप १२०००से पर बनाए रखा जाता था। इस पर वह भाप बन जाता था, परन्तु भारतीयों ने उस समय विपरीत आसवनी नामक प्रक्रिया विकसित की थी। इसके प्रमाण जवर की खुदाई में मिले हैं। इसमें कार्बन मोनोआक्साइड के वातावरण में जस्ते के आक्साइड भरे पात्रों को उल्टे रखकर गर्म किया जाता था। जैसे ही जस्ता भाप बनता, ठीक नीचे रखे ठंडे स्थान पर पहुंच कर धातु रूप में आ जाता था और इस प्रकार शुद्ध जस्ते की प्राप्ति हो जाती थी। जस्ते को प्राप्त करने की यह विद्या भारत में ईसा के जन्म से पूर्व से प्रचलित रही।

यूरोप के लोग १७३५ तक यह मानते थे कि जस्ता एक तत्व के रूप में अलग से प्राप्त नहीं किया जा सकता। यूरोप में सर्वप्रथम विलियम चैम्पियन ने जस्ता प्राप्त करने की विधि व्रिस्टल विधि के नाम से पेटेंट करवाई और यह नकल उसने भारत से की, क्योंकि तेरहवीं सदी के ग्रंथ रसरत्नसमुच्चय में जस्ता बनाने की जो विधि दी है, व्रिस्टल विधि उसी प्रकार की है।

(२) लोहा- (क्ष्द्धदृद) इतिहास में भारतीय इस्पात की श्रेष्ठता के अनेक उल्लेख मिलते हैं। अरब और फारस में लोग भारतीय इस्पात की तलवार के लिए लालायित रहते थे। अंग्रेजों ने सर्वाधिक कार्बन युक्त इस्पात को बुट्ज नाम दिया। प्रसिद्ध धातु वैज्ञानिक तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. अनंतरमन ने इस्पात बनाने की सम्पूर्ण विधि बताई है। कच्चे लोहे, लकड़ी तथा कार्बन को मिट्टी की प्यालियों में १५३५०से. ताप पर गर्म कर धीरे-धीरे २४ घण्टे में ठण्डा करने पर उच्च कार्बन युक्त इस्पात प्राप्त होता है। इस इस्पात से बनी तलवार इतनी तेज तथा मजबूत होती है कि रेशम को भी सफाई से काट देती है।

१८वीं सदी में यूरोपीय धातु विज्ञानियों ने भारतीय इस्पात बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु असफल रहे। माइकेल फैराडे ने भी प्रयत्न किया, पर असफल रहा। कुछ ने बनाया तो उसमें वह गुणवत्ता नहीं थी।

श्री धर्मपाल जी ने अपनी पुस्तक क्ष्दड्डत्ठ्ठद द्मड़त्ड्ढदड़ड्ढ ठ्ठदड्ड द्यड्ढड़ण्ददृथ्दृढ़न्र्‌ त्द द्यण्ड्ढ ड्ढत्ढ़ण्द्यड्ढड्ढदद्यण्‌ ड़ड्ढदद्यद्वद्धन्र्‌ में यूरोपीय लोगों ने जो प्रगत लौह उद्योग के प्रमाण दिए हैं, उनका उल्लेख किया है। सितम्बर, १७१५ को डा. बेंजामिन हायन ने जो रपट ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भेजी, उसमें वह उल्लेख करता है कि रामनाथ पेठ (तत्कालीन मद्रास प्रान्त में बसा) एक सुन्दर गांव है। यहां आस-पास खदानें हैं तथा ४० इस्पात की भट्टियां हैं। इन भट्टियों में इस्पात निर्माण के बाद उसकी कीमत २ रु. मन पड़ती है। अत: कम्पनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।

दूसरी रपट मेजर जेम्स फ्र्ैंकलिन की है जिसमें वह सेंट्रल इंडिया में इस्पात निर्माण के बारे में लिखता है। इसमें वह जबलपुर, पन्ना, सागर आदि स्थानों की लौह खदानों का वर्णन करता है तथा इस्पात बनाने की प्रक्रिया के बारे में वह कहता है चारकोल सारे हिन्दुस्तान में लोहा बनाने के काम में प्रयुक्त होता है। जिस भट्टी (क़द्वद्धदठ्ठड़ड्ढ) का उल्लेख करता है, उसका निर्माण किया गया है। उसमें सभी भाग बराबर औसत १९-२० क्द्वडत्द्य (क्द्वडत्द्य-लम्बाई मापने की प्राचीन इकाई, लगभग १८ इंच इसका माप था) के थे। और १६ छोटी क्द्वडत्द्य के थे। वह इस फर्नेस को बनाने की विधि का वर्णन करता है। फर्नेस बनाने पर उसके आकार को वह नापता है तो पूरी भट्टी में वह पाता है कि एक ही प्रकार की नाप है। लम्बाई सवा ४ भाग तो चौड़ाई ३ भाग होगी और मोटाई डेढ़ भाग। आगे वह लिखता है (१) गुडारिया (२) पचर (३) गरेरी तथा (४) अकरिया-ये उपांग इसमें लगाए जाते हैं। बाद में जब भट्टी पूरी तरह सूख जाती है तो उसे काम में लाया जाता है। भट्टी के बाद धोंकनी (एथ्दृध्र्‌) उसका मुंह (ग़्दृन्न्न्न्थ्ड्ढ) बनाने की विधि, उसके बाद भट्टी से जो कच्चा लोहा निकलेगा उसे शुद्ध करने की रिफायनरी का वर्णन करता है। फिर उससे इस्पात बनाने की प्रक्रिया तथा मात्रा का निरीक्षण उसने ३० अप्रैल, १८२७ से लेकर ६ जून, १८२७ तक किया। इस बीच ४ फरनेस से २२३५ मन इस्पात बना और इसकी विशेषता गुणवत्ता तथा विभिन्न तापमान एवं परिस्थिति में श्रेष्ठता की वह मुक्तकंठ से प्रशंसा करता है। उस समय एक मन की कीमत पौने बारह आना थी। सवा ३१ मन उ १ इंग्लिश टन।

मेजर जेम्स फ्र्ैंकलिन सागरमिंट के कप्तान प्रेसग्रेव का हवाला देते हुए कहता है कि भारत का सरिया (लोहा) श्रेष्ठ स्तर का है। उस स्वीडन के लोहे को भी वह मात देता है जो यूरोप में उस समय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था।

तीसरी रपट कैप्टन डे. कैम्पबेल की है जो १८४२ की है। इसमें दक्षिण भारत में लोहे के निर्माण का वर्णन है। ये सब रपट कहती हैं कि उस समय देश में हजारों छोटी-छोटी इस्पात निर्माण की भट्टियां थीं। एक भट्टी में ९ लोगों को रोजगार मिलता था तथा उत्कृष्ट प्रकार का सस्ता लोहा बनता था। वैसा दुनिया में अन्य किसी देश में संभव नहीं था। कैम्पबेल ने रेलगाड़ी में लगाने के लिए बार आयरन की खोज करते समय बार-बार कहा, यहां का (भारत का) बार आरयन उत्कृष्ट है, सस्ता है। इंग्लैण्ड का बढ़िया लोहा भी भारत के घटिया लोहे का मुकाबला नहीं कर सकता। उस समय ९० हजार लोग इन भट्टियों में काम करते थे। अंग्रेजों ने १८७४ में बंगाल आयरन कंपनी की स्थापना कर बड़े पैमाने पर उत्पादन चालू किया। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे गांव-गांव में बनने वाले इस्पात की खपत कम होती गई और उन्नीसवीं सदी के अन्त तक स्वदेशी इस्पात बनना लगभग बंद हो गया। अंग्रेजों ने बड़े कारखाने लगाकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी की कमर तोड़ दी। इसका दु:खद पक्ष यह है कि भारतीय धातु प्रौद्योगिकी लगभग लुप्त हो गई। आज झारखंड के कुछ वनवासी परिवारों में इस तकनीक के नमूने मात्र रह गए हैं।

दिल्ली स्थित लौह स्तंभ एक चमत्कार
नई दिल्ली में कुतुबमीनार के पास लौह स्तंभ विश्व के धातु विज्ञानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। लगभग १६००० से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना था। इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहते हैं। १०५० में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा लाया गया।
इस स्तंभ की ऊंचाई ७३५.५ से.मी. है। इसमें से ५० सेमी. नीचे है। ४५ से.मी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफार्म है। इस स्तंभ का घेरा ४१.६ से.मी. नीचे है तथा ३०.४ से.मी. ऊपर है। इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी। स्तंभ का कुल वजन ६०९६ कि.ग्रा. है। १९६१ में इसके रासायनिक परीक्षण से पता लगा कि यह स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डा. बी.बी. लाल इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के २०-३० किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। माना जाता है कि १२० कारीगरों ने पन्द्रह दिनों के परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया। आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता। सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है। इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है। स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त ५० से ६०० माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन याने १ मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है।

(३) पारा (ग्ड्ढद्धड़द्वद्धद्धन्र्‌) यूरोप में १७वीं सदी तक पारा क्या है, यह वे जानते नहीं थे। अत: फ्र्ांस सरकार के दस्तावेजों में इसे दूसरी तरह की चांदी ‘क्विक सिल्वर‘ कहा गया, क्योंकि यह चमकदार तथा इधर-उधर घूमने वाला होता है। वहां की सरकार ने यह कानून भी बनाया था कि भारत से आने वाली जिन औषधियों में पारे का उपयोग होता है उनका उपयोग विशेषज्ञ चिकित्सक ही करें।
भारतवर्ष में लोग हजारों वर्षों से पारे को जानते ही नहीं थे अपितु इसका उपयोग औषधि विज्ञान में बड़े पैमाने पर होता था। विदेशी लेखकों में सर्वप्रथम अलबरूनी ने, जो ११वीं सदी में भारत में लम्बे समय तक रहा, अपने ग्रंथ में पारे को बनाने और उपयोग की विधि को विस्तार से लिखकर दुनिया को परिचित कराया। पारे को शुद्ध कर उसे उपयोगी बनाने की विधि की आगे रसायनशास्त्र सम्बंधी विचार करते समय चर्चा करेंगे। परन्तु कहा जाता है कि सन्‌ १००० में हुए नागार्जुन पारे से सोना बनाना जानते थे। आश्चर्य की बात यह है कि स्वर्ण में परिवर्तन हेतु पारे को ही चुना, अन्य कोई धातु नहीं चुनी। आज का विज्ञान कहता है कि धातुओं का निर्माण उनके परमाणु में स्थित प्रोटॉन की संख्या के आधार पर होता है और यह आश्चर्य की बात कि पारे में ८० प्रोटॉन-इलेक्ट्रान तथा सोने में ७९ प्रोटॉन-इलेक्ट्रान होते हैं।

(४) सोना-चांदी (क्रदृथ्ड्ड-च्त्थ्ध्ड्ढद्ध) ए.डेल्मर अपनी पुस्तक ॠ क्तत्द्मद्यदृद्धन्र्‌ दृढ घ्द्धड्ढड़त्दृद्वद्म ग्ड्ढद्यठ्ठथ्द्म-१९०२ ग़्ड्ढध्र्‌ ज्ञ्दृद्धत्त्‌ में उल्लेख करता है कि सिन्धु नदी के उद्गम स्थल पर दो त्द्मथ्ठ्ठदड्ड हैं जिनका नाम ड़ण्द्धन्र्द्मड्ढ ठ्ठदड्ड ॠढ़न्र्द्धड्ढ है और जहां स्वर्ण और रजत के कण वहां की सारी मिट्टी में प्राप्त होते हैं।
ऋग्वेद के छठे मंडल के ६१वें सूक्त का सातवां मंत्र सरस्वती और सिन्धु को हिरण्यवर्तनी कहता है।

रामायण, महाभारत, श्रीमद्‌ भागवद्‌, रघुवंश, कुमारसंभव आदि ग्रंथों में सोने व चांदी का उल्लेख मिलता है। स्वर्ण की भस्म बनाकर उसके औषधीय उपयोग की परम्परा शताब्दियों से भारत में प्रचलित रही है।

इसी प्रकार सोने, तांबे (क्दृद्रद्रड्ढद्ध) तथा शीशे (ख्र्ड्ढठ्ठड्ड) के उपयोग के संदर्भ-अथर्ववेद, रसतरंगिणी, रसायनसार, शुक्रनीति, आश्वालायन गृह्यसूत्र, मनु स्मृति में मिलते हैं। रसरत्न समुच्चय ग्रंथ में अनेक धातुओं को भस्म में बदलने की विधि तथा उनका रोगों के निदान में उपयोग विस्तार के साथ लिखा गया है। इससे ज्ञान होता है कि धातु विज्ञान भारत में प्राचीन काल से विकसित रहा और इसका मानव कल्याण के लिए उपयोग करने के लिए विचित्र विधियां भारत में विकसित की गएं।

केरल का धातु दर्पण
डा. मुरली मनोहर जोशी केरल में पत्तनम तिट्टा जिले में आरनमुड़ा नामक स्थान पर गए तो वहां उन्होंने पाया कि वहां के परिवारों में हाथ से धातु के दर्पण बनाने की तकनीक है। इन हाथ के बने धातु दर्पणों को जब उन्होंने विज्ञान समिति के अपने मित्रों को दिखाया तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि ये दर्पण मशीन से नहीं अपितु हाथ से बने हैं और सदियों से ये दर्पण भारत से निर्यात होते रहे हैं। हम कभी अपने छात्रों को यह नहीं बताते कि हमारे यहां ऐसी तकनीक है कि अभावों में जीकर भी परम्परागत कला लुप्त न हो जाए, इस भावना के कारण आज भी वे इसे छोड़ने को तैयार नहीं। देश को ऐसे लोगों की चिंता करना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें