शनिवार, 4 अप्रैल 2015

तुगलक वंश के अंतिम क्षणों तक सल्तनत को मिली हिंदू-चुनौती

तुगलक वंश के अंतिम क्षणों तक सल्तनत को मिली हिंदू-चुनौती

हम भारतीयों के दुर्भाग्य का सबसे दु:खद पहलू यह है कि हमारे देश का प्रचलित इतिहास इस देश की माटी से हमें नही जोड़ता। विदेशी इतिहासकारों ने इस पावन देश की पावन माटी से किसका संबंध है, यह प्रश्न भी उलझा दिया है-ये कह कर कि यहां जो भी लोग रहते हैं वे सभी विदेशी हैं। प्रश्न को इस प्रकार उलझा देने से विदेशी षडय़ंत्रकारियों को एक लाभ अवश्य हुआ कि उनकी शिक्षा-पद्घति (अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली) के अनुसार शिक्षित हुआ भारतीय व्यक्ति अपने विषय में ही आत्महीनता से ग्रसित हो गया। जबकि सच यह है कि भारत हिंदू (आर्य) का देश है। भारत हिंदू की शरणस्थली है।

भारत की प्राचीनता का वर्णन वायु पुराण में है

हमें वायु पुराण से ज्ञात होता है कि स्वायम्भुव मनु के अधीन यह पृथ्वी समुद्र से (एटलांटिक सागर) समुद्र (पैसिफिक) तक बसी हुई थी। जिसे हम जम्बू द्वीप के नाम से पुकारा करते हैं (किसी शुभ कार्य के अवसर पर यज्ञादि कराते समय पंडित लोग जिस संकल्प मंत्र का उच्चारण करते हैं, उसमें ‘जम्बूद्वीपे’ शब्द आता है) वह यूरेशिया (यूरोप-एशिया) के लिए प्रयुक्त किया गया है।

गुरूदत्त जी अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास’ के पृष्ठ 120-121 पर हमें बताते हैं कि उस समय स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भूखण्ड (जम्बूद्वीप) को बसाया हुआ था।….प्रियव्रत की एक कन्या थी। उस कन्या के दस पुत्र थे। जिनके नाम थे-अग्नीन्ध्र, वपुष्मान, मेधा, मेधातिथि, विभु, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, हव्य, सवन और सर्व। इनमें से सात को सात द्वीपों के राजा (धर्म स्थापित करने वाले) नियुक्त कर दिया था। इन सात द्वीपों में से अग्नीन्ध्र को, जो प्रियव्रत का दायाद (कन्या का गोद लिया हुआ पुत्र) था, उसे जम्बूद्वीप का धर्म शासक बना दिया। उसके भी कई संतानें हुई परंतु जो सबसे बड़ा था उसका नाम नाभि था।

भारत बसाने वाला भरत कौन था?

नाभि बहुत तेजस्वी था। इसने मेरू देवी से पुत्र उत्पन्न किया। उसका नाम ऋषभ था। वह एक श्रेष्ठ राजा माना जाता था। ऋषभ का पुत्र भरत हुआ जो अपने पिता का सबसे बड़ा पुत्र था। पिता ने भरत को हिमवान (हिमालय) पर्वत से दक्षिण का वर्ष (क्षेत्र) दे दिया। भरत ने भी अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर स्वयं संन्यास ले लिया। जो देश भरत ने अपने पुत्र को दिया, वह भारतवर्ष कहलाया।’’

यह भारतवर्ष-भरत का क्षेत्र-‘भरत खण्डे’ है

यह घटना इतनी प्राचीन है कि वर्तमान विश्व के इतिहास ने अभी उस काल की कल्पना तक नही की है या उसे कल्पना जानबूझकर करने नही दी गयी है। सारे विश्व पर जब हमारा धर्म का शासन (राजा का अर्थ भी धर्म-नैतिक और मानवीय नियमों का व्यवस्थापक ही होता है) स्थापित था तो संपूर्ण भूमंडल पर आर्यों का ही वास था और आर्यों का ही राज था। इसलिए किसी देश से आकर यहां बसने का कोई प्रश्न ही नही है, ना ही कोई यहां (संपूर्ण भूमंडल को यदि आर्यावत्र्त माना जाए तो) बाहर गया। पूर्ण में से पूर्ण निकालने से भी पूर्ण पूर्ण ही रहता है, इसलिए देश में से देश में ही देश बस जाने से (संपूर्ण भूमंडल जब एक देश था) कोई बाहर-भीतर कैसे आ जा सकता है?

हमें सनातन से अवगत नही कराया गया

इस सनातन देश को सनातन सत्य से अवगत नही कराया गया। इसीलिए इसकी पृथ्वी को माता मानने, गंगा को माता मानने, गाय को माता मानने और वनस्पतियों में पीपल, तुलसी आदि को उनके दिव्य औषधीय गुणों के कारण पूजने (अधिक सम्मान देने जैसी मान्यताओं का उपहास उड़ाया गया और इस सर्वाधिक वैज्ञानिक देश को अंध विश्वासी, पाखण्डी और अज्ञानी लोगों का देश बना दिया गया, ऐसा प्रचारित किया गया)

हिन्दुओं की वीरता भी उपहास का पात्र बना दी गयी

इसी प्रकार ंिहंदुओं की वीरता भी उपहास का पात्र बना दी गयी, जो हिंदू वीर अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ते मरते और कटते रहे, स्वाभाविक रूप से उनकी वीरता और स्वतंत्रता की भावना का सम्मान होना अपेक्षित था, परंतु ऐसा ना करके उन्हें संसार का निरीह प्राणी दिखाया गया। उनके विषय में इस प्रकार तथ्य स्थापित किया गया कि मानो उनसे अधिक अज्ञानी  और मूर्ख जाति उस भूमंडल पर और कोई नही है। उनका मूल्य गाजर मूली से भी सस्ता हो गया। इसलिए उनके बलिदानों का कोई मूल्य नही समझा गया।

तैमूर ने भी यही किया

तैमूर आया और इस निरीह प्राणी को काटकर चला गया। मानो उसने पृथ्वी की संतान मानव जाति पर बहुत बड़ा उपकार लाखों हिंदुओं को समाप्त करके कर दिया था। हिंदुओं के प्रतिरोध को कहीं भी उल्लेखित कर यह स्पष्ट नही किया गया कि हिंदू ने विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सनातन वैदिक संस्कृति की रक्षार्थ और ‘जम्बूद्वीप व भरतखण्ड’ की वैदिक परंपराओं और वैदिक धर्म की सुरक्षार्थ कितनी वीरता का परिचय देकर अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया था?

एक लाभ यह हुआ

भारत पर तैमूर लंग के आक्रमण से एक लाभ भी हुआ। यह सर्वमान्य सत्य है कि भारत में जिस समय तैमूर एक आक्रांता के रूप में आया था तो यहां उसने हिंदू को लूटा और मुस्लिम सल्तनत को और भी अधिक दुर्बल बना दिया। यह भी सत्य है कि तैमूर का प्रतिरोध जितना हिंदू ने किया उतना कोई भी मुस्लिम शासक नही कर पाया, यद्यपि उसने मुस्लिम शासकों को (मुस्लिम नागरिकों को नही) भी अपने आक्रमण और हिंसा का लक्ष्य बनाया था। इससे भारत में मुस्लिम शासकों की शक्ति का पतन हुआ और इस्लाम का ब्रदरहुड-बिरादरीवाद-भ्रातृत्व का भी सच सबको पता चल गया। इतिहासकारों का मानना है कि तैमूर ने भारत में हिंदुओं के विनाश के लिए कोई विशेष कार्य नही किया। अपितु तत्कालीन परिस्थितियों में उसने भारत पर आक्रमण कर उत्तरी भारत की मुस्लिम सल्तनत को ही दुर्बल बनाने का काम किया, जो हिंदू राज्यों के लिए एक वरदान सिद्घ हुआ। तुगलक सुल्तानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाकर हिंदू राज्यों की स्वतंत्रता का जो बीज प्रस्फुटित हुआ था, तैमूर ने अपने आक्रमण से अनजाने में ही उसे पल्लवित, पोषित और पुष्पित हो जाने का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध करा दिया।

(संदर्भ : सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध पृष्ठ 346)

बुझते दीपक की लौ बढ़ गयी

तैमूर लंग के आक्रमण के समय दिल्ली का तुगलक वंश अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था। उसका इतना भी साहस नही रह गया था कि तैमूर या उसके सैनिकों से चूं भी कह सकता। दिल्ली का सुल्तान नासिरूद्दीन नुसरत शाह दिल्ली के सत्ता षडय़ंत्रों और इकबाल खां के विश्वास घात के कारण दिल्ली को ही छोडक़र दोआब की ओर भाग गया था। दिल्ली वीरान हुई पड़ी थी, हिंदू विहीन दिल्ली पर किसी मुस्लिम का भी अधिकार करने का साहस नही हो रहा था। तैमूर के चले जाने के पश्चात नासिरूद्दीन नुसरत शाह किसी प्रकार पुन: दिल्ली पर अपना अधिकार स्थापित करने में सफल हो गया। यद्यपि सुल्तान के लिए संकट अभी टला नही था उसे ज्ञात था कि बुलंदशहर (तत्कालीन वरन) में निवास कर रहा इकबाल खां उसके लिए कोई भी संकट खड़ा कर सकता है। इसलिए सुल्तान ने इकबाल खां को समाप्त करने के लिए शिहाब खां को बरन भेजा।

वास्तव में नासिरूद्दीन नुसरत शाह जैसे नाममात्र के सुल्तान के द्वारा दिल्ली पर पुन: अधिकार कर लेना शमशान पर अधिकार करने के समान था। इससे थोड़ी देर के लिए तुगलक वंश के बुझते हुए दीपक की लौ अवश्य ऊंची हो गयी, पर यह इतना प्रकाश उत्कीर्ण नही कर पाया कि फिर से अपने साम्राज्य को अपनी दृष्टि से एक पल के लिए देख सके।

बुलंदशहर के हिंदुओं ने मिटा दिया था शिहाब को

समकालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि जब शिहाब खां इकबाल खां को समाप्त करने के लिए बरन की ओर जा रहा था, तो मार्ग में हिंदुओं ने एक रात्रि में उस पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी और जो सेना इकबाल खां को मिटाने के लिए चली थी वह भी हिंदू वीरों की भेंट चढ़ गयी। सुल्तान तो इकबाल खां को समाप्त कराना चाहता था, परंतु इसके विपरीत उसका शिहाब खां ही अपनी सेना सहित समाप्त हो गया।

क्षेत्रीय मुस्लिमों का असहयोग

बुलंदशहर के हिंदुओं का प्रतिरोध हमें बताता है कि हिंदू उस समय प्रत्येक मुस्लिम अधिकारी शासक से दुखी था और वह इसके लिए चाहे जो कोई मुस्लिम अधिकारी उसे मिले, उसे ही समाप्त करना अपना कत्र्तव्य और राष्ट्रधर्म मानता था। इसका एक तात्कालिक कारण यह भी हो सकता है कि तैमूर के आक्रमण और अत्याचारों के समय इस देश के प्रत्येक मुसलमान ने या तो तैमूर का समर्थन किया था, या उसके आक्रमण के प्रति मौन रहे थे, क्योंकि उनके लिए यह भूमि परायी थी और यह देश भी पराया था, इसलिए यहां के निवासियों पर भी यदि किसी प्रकार का अत्याचार हो रहा था तो मुस्लिम ने यहां का निवासी होने के उपरांत भी अपने हिंदू भाईयों की सुरक्षा या उनका सहयोग करना उचित नही माना था। अत: बुलंदशहर के हिंदू वीरों की दृष्टि में शाहिब खां केवल एक मुस्लिम अधिकारी था, जिसे नष्ट करना ही उनके लिए उचित था।

राय हरसिंह पर आक्रमण

1401 ई. में इस इकबाल खां ने पुन: दिल्ली पर आक्रमण किया और वहां से सुल्तान नासिरूद्दीन मेवात की ओर भाग गया। इकबाल खां दिल्ली पर शासन करने लगा। इकबाल खां एक दुर्बल शासक था, जो नवस्थापित हिंदू राज्यों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में असफल रहा था। उसने कटेहर के हिंदू शासक राय हरसिंह पर आक्रमण किया और उसे परास्त कर अपने अधीन लाना चाहा। हरसिंह ने शत्रु का सामना करने के स्थान पर उस समय उससे समझौता कर लिया, परंतु उसके पश्चात उसने सुल्तान को कर देना बंद कर दिया, जिसके कारण सुल्तान ने कटेहर पर पुन: आक्रमण किया। कटेहर राज्य पर किये गये आक्रमण की यह घटना नवंबर 1399 ई. की है।

राय सुमेरसिंह ने किया संघर्ष

इटावा के राय सुमेरसिंह की वीरता और स्वतंत्रता प्रेमी भावना का उल्लेख हम पूर्व में भी कर चुके हैं। राय सुमेरसिंह अपने साथ जमींदारों की एक अच्छी शक्ति रखता था। हिंदू जमींदारों पर उसकी देशभक्ति और स्वतंत्रता प्रेमी भावना का प्रभाव भी अच्छा था, इसलिए जब-जब राय सुमेरसिंह को इन जमींदारों की आवश्यकता पड़ती थी-ये अपने सैन्य-बल सहित राय के साथ आ खड़े होते थे।

दिसंबर जनवरी (‘तारीखे फरिश्ता’ के अनुसार) 1400-1401 ई. में सुल्तान ने जौनपुर की ओर प्रस्थान किया। इस प्रस्थान की सूचना पाते ही राय सुमेर सिंह के कान खड़े हो गये और उसने मुस्लिम सेना से टक्कर लेने का निर्णय लिया। इकबाल की सेना जब काली नदी के तट पर पटियाली के समीप पहुंची तो इटावा के इस शेर नेे अपने कई जमींदार साथियों और उनके रणबांकुरों के साथ मिलकर सुल्तान की सेना पर आक्रमण कर दिया। सेना का मार्ग रोककर उससे युद्घ किया गया। पहले दिन का युद्घ अनिर्णीत रहा तो दूसरे दिन पुन: युद्घ आरंभ हुआ। हिंदुओं की सेना ने पर्याप्त शौर्य का प्रदर्शन किया, परंतु परास्त हो गयी। ‘तारीखे फरिश्ता’ के अनुसार इकबाल खां ने हिंदू सेना का पीछा इटावा के किले तक किया और इन हिंदुओं की निर्मम हत्या कर दी। जबकि अनेकों को बंदी बना लिया गया।

नही जीत पाया इकबाल

हिंदू सेना हार गयी परंतु जीता इकबाल खां भी नही क्योंकि उसने पराजित हिंदू सेना का पीछा किले तक किया, लेकिन किले पर अधिकार नही कर सका और कन्नौज की ओर चला गया। हिंदुओं ने प्रतिरोध किया, बलिदान  दिये और पुन: अपने किले में आकर अपनी अगली योजना के लिए शक्ति संचय के कार्य में लग गये। तात्कालिक उद्देश्य मुस्लिम शक्ति को दुर्बल करना था, जिसमें हिंदू वीर सफल भी रहे।

ढुलमुल प्रतिबद्घता को हिंदू ने माना

हिंदू दीर्घकाल से उन लोगों पर विश्वास करना अपने लिए घातक मानता आया है, जिनकी प्रतिबद्घता ढुलमुल या तदर्थवादी रही। यह वर्तमान इतिहास की एक भयानक विसंगति है कि यह हमें ढुलमुल या तदर्थवादी प्रतिबद्घताओं के प्रति भी समर्पित रहने के लिए प्रेरित करता है, विवश और बाध्य करता है। जबकि हमारे मध्यकालीन इतिहास के स्वतंत्रता सैनानियों का दृष्टिकोण शुद्घ हिंदुत्व निष्ठ था और उन्होंने ढुलमुल या तदर्थवादी प्रतिबद्घता को कभी अपनी ओर से विश्वास के योग्य नही माना।

हिन्दुओं के लिए था राष्ट्र प्रथम

यही कारण है कि हमारे हिंदू वीरों की सेना में कोई सैन्य टुकड़ी ऐसी नही मिलती जो मुस्लिम सैनिकों से बनी हो। जिनका धर्मांतरण हो गया, उनका मर्मांतरण होना हमारे स्वतंत्रता सैनानियों ने स्वयं मान लिया। यद्यपि कई बार मुस्लिम सैनिकों से (नव धर्मांतरित या किसी कारण सेे भी हिंदू सेना का सहयोग कर रहे मुस्लिम सैनिक) हमने धोखा भी खाया, परंतु यह क्रम पुन: पुन: नही दोहराया गया। हमने नव धर्मांतरित मुस्लिमों को कई बार सहयोग किया और उन्होंने हमें कई बार सहयोग भी दिया। परंतु ये सब बातें हमारे तत्कालीन हिंदू वीरों की रणनीति की मुख्यधारा नही कही जा सकतीं। उन्होंने प्रतिबद्घताओं को निर्विवाद परखकर ही उनका सम्मान किया। इससे स्पष्ट है कि उनके लिए राष्ट्र प्रथम था, राष्ट्र का धर्म प्रथम था। शेष बातें उसके पश्चात आती थीं।

ग्वालियर ने नही जाने दी अपनी स्वतंत्रता

ग्वालियर ने अभी शीघ्र ही अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की थी जिसे समाप्त करने के लिए शत्रु की गिद्घ दृष्टि उस पर लगी हुई थी। इकबाल खां ने ग्वालियर को पुन: दिल्ली सल्तनत के अधीन लाने के लिए 1402 ई. में प्रयास किया। वास्तव में अपने साम्राज्य की सिमटती सीमाओं से सुल्तान भी प्रसन्न नही था, इसलिए वह भी अपने साम्राज्य को पूर्व की स्थिति में लाने हेतु प्रयासरत था, इसलिए इकबाल खां ने ग्वालियर के मस्तक को झुकाने का प्रयास किया। ग्वालियर के तोमर नरेश बीरसिंह देव ने अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्घि कर ली थी, इसलिए उसे अधिक शक्ति संपन्न न बनने देना सुल्तान और दिल्ली के लिए आवश्यक था। इतिहासकारों ने ऐसी भी शंका व्यक्त की है कि 1401 ई. में इटावा पर किये गये इकबाल खां के आक्रमण के समय राय सुमेर सिंह और अन्य हिंदू जमींदारों की संभवत: तोमरों ने भी सहायता की थी, इसलिए प्रतिशोधात्मक कार्यवाही करते हुए इकबाल खां ने ग्वालियर पर आक्रमण किया था।

वीर राजा बीरमदेव

उस समय ग्वालियर का राजा बीरमदेव था। जो कि क्षत्रियोचित गुणों से संपन्न था। जब इकबाल खां ने इस राजा बीरमदेव के दुर्ग  का घेरा डाला तो राजा के क्षत्रियोचित गुणों से इकबाल खां प्रभावित हुआ। घेरा चलता रहा, परंतु मुस्लिम सेना का साहस बीरमदेव के दुर्ग पर आक्रमण करने का नही हुआ। मुस्लिम लेखकों ने इकबाल खां और बीरमदेव के मध्य किसी प्रकार के युद्घ का उल्लेख नही किया है। ऐसी परिस्थितियों में सुल्तान की सेना को ग्वालियर से लौटने के लिए क्यों विवश होना पड़ा-यह विचारणीय है। निस्सन्देह मुस्लिम सेना ने अपनी शक्ति का अनुमान कर लिया होगा कि हम शत्रु का सामना करने की स्थिति में नही हैं।

ग्वालियर पर पुन: आक्रमण

ग्वालियर से लौटी सुल्तानी सेना ने अगले वर्ष ही पुन: इस शहर पर आक्रमण कर दिया। धौलपुर में इस बार दोनों सेनाओं का संघर्ष हुआ। बीरमदेव ने इस बार खुले मैदान में इकबाल खां की चुनौती को स्वीकार किया। संघर्ष जमकर हुआ। बीरमदेव और उसकी शेष सेना धौलपुर का दुर्ग छोडक़र ग्वालियर चली आयी। बीरमदेव ने धौलपुर छोड़ते समय वहां का दुर्ग दुर्गरक्षकों को सौंप दिया था और उन दुर्गरक्षकों ने किले में मुस्लिम सेना को प्रवेश करने से रोकने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार ग्वालियर हड़पने के इकबाल खां के दोनों बार के प्रयास असफल रहे। इकबाल खां ने 1403 ई. में दूसरी बार ग्वालियर पर आक्रमण किया था।

इकबाल खां के विरूद्घ एकजुट हुई हिंदू शक्ति

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि इकबाल खां ने इटावा और ग्वालियर जैसे राज्यों पर आक्रमण करके उनसे शत्रुता बढ़ा ली थी। राय सुमेर सिंह और बीरमदेव उस समय हिंदू शक्ति का नेतृत्व कर रहे थे, इसलिए इन्होंने इकबाल खां  के विरूद्घ हिंदू शक्ति का धु्रवीकरण करने का प्रयास किया। जिसमें उन्हें सफलता भी मिली। कई रायों ने मिलकर 1404-05 में इटावा के सुमेर सिंह की सहायता उस समय की जब इकबाल खां ने इटावा पर पुन: आक्रमण कर दिया। इन रायों ने लगभग चार माह तक इकबाल खां की सेना के घेराव का प्रतिरोध इटावा के दुर्ग के भीतर से किया। अंत में दोनों पक्षों में संधि हो गयी। यहिया का कथन है कि राय ग्वालियर ने 4 हाथी देकर संधि कर ली थी। मात्र चार हाथी लेकर ही इकबाल खां दिल्ली चला आया यह बात संदेहास्पद है। संभावना यही है कि यह बात केवल आत्मतुष्टि के लिए मुस्लिम इतिहासकारों ने लिख दी है-अन्यथा इकबाल खां को पराजित होकर या अपमानित होकर ही दिल्ली लौटना पड़ा था।

हिंदू देते रहे चुनौती

इस इस प्रकार अपमान और पराजय को झेल रहे हिंदू समाज ने निरंतर तुगलक वंश के शासन काल के अंतिम क्षणों तक अपनी चुनौती को धारदार बनाये रखा। 1414 ई. में दिल्ली में नये राजवंश ‘सैयद वंश’ की स्थापना हो गयी। 

सोमवार, 30 मार्च 2015

हमारे जीवन की हैं चार गतियाँ

हमारे जीवन की हैं चार गतियाँ 


यज्ञ अपने आप में एक व्यवस्था का नाम है। किसी याज्ञिक परिवार में यज्ञ करते समय जितनी सुंदर व्यवस्था से या अव्यवस्था से लोग बैठे हों, उसे देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये लोग परिवार में कैसी व्यवस्था को लागू करके रहते हैं। ‘सूय्र्याचन्द्रमसाविव’ का आदर्श यदि किसी परिवार ने अपना लिया है तो कोई किसी के कार्य में हस्तक्षेप नही करता है, और अपने-अपने मर्यादा पथ में सब शांति से भ्रमण करते हैं-अर्थात अपने-अपने कार्यों का संपादन करते रहते हैं, सर्वथा वैसे ही जैसे सूर्य और चंद्रमा अपने-अपने मर्यादा पथ में भ्रमण करते हैं। ऐसा याज्ञिक परिवार यज्ञ पर भी शांति से बैठता है। पर जहां एक दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति लोगों की होती है, वहां यज्ञ पर भी लोग ब्रह्मा के नेतृत्व में न चलकर यज्ञ की मर्यादा को तोड़ते रहते हैं। विपरीत दिशा में बैठा व्यक्ति याज्ञिक व्यक्ति के कार्य घृतादि डालने में कमी निकालेगा, तो दूसरी ओर से कोई मंत्रोच्चारण में कमी निकालेगा, तो तीसरी ओर से कोई समिधाओं के रखने-रखाने या घृत व सामग्री आदि के कार्यों में नियत व्यक्ति के अधिकार में हस्तक्षेप करेगा। ऐसे व्यक्ति व्यक्तिगत जीवन में भी किसी दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करने के अभ्यासी होते हैं।

यज्ञ में हम जब जल प्रसेचन करते हैं तो उस समय भी कई बार याज्ञिकों को जल प्रसेचन को लेकर गलती करते देखा जाता है। कुछ लोग चम्मच से जल लेकर फटाफट मंत्रोच्चारण करते हुए नियत दिशाओं में यज्ञ कुण्ड के बाहर जल छिडक़ते चले जाते हैं। उनकी शीघ्रता बताती है कि वह केवल याज्ञिक औपचारिकता की पूर्ति कर रहे हैं, उनके भीतर यज्ञ के लिए कोई श्रद्घाभावना नही है, जबकि यज्ञ का मूल श्रद्घा है। इसी प्रकार कुछ लोग जल को एक साथ एक स्थान पर पहले पूरब में फिर पश्चिम में और उसके पश्चात उत्तर में फिर यज्ञ कुण्ड के चारों ओर डाल देते हैं। जल प्रसेचन की यह विधि और प्रक्रिया भी दोषपूर्ण है।

वास्तव में मनुष्य स्वयं एक यज्ञ है, जिसका शरीर एक कुण्ड है और उस कुण्ड में आत्मा एक ज्योति है। इस आत्मा रूपी ज्योति को निरंतर चमकाये रखने के लिए ही यज्ञ किया जाता है। अर्थात यज्ञ आत्मा के आसपास एकत्र हो गये मलादि दोषों को जलाकर नित्य प्रति भस्म करने की एक पावन परंपरा है।

ऋषि-महर्षियों की मान्यता रही है कि मनुष्य जीवन की चार गतियां हो सकती हैं। पहली गति है-अंधकार से प्रकाश की ओर  चलना। अंधकार से  प्रकाश की ओर चलना व्यक्ति को अपना जीवन ध्येय सुनिश्चित करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य जीवन की यह सर्वोत्तम गति है। ‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’ में उपनिषद का ऋषि इसी उत्तम गति के अपनाने के लिए मानव समाज को प्रेरित करता है। इसके पश्चात दूसरा मार्ग है-प्रकाश से अंधकार में चलना। यह पहले मार्ग का विपरीत मार्ग है। संसार में ऐसे लोग भी होते हैं जो पहले अच्छे मार्ग पर चलते रहे-परंतु किसी भी कारण से कालांतर में मार्ग भटक गये और प्रकाश से अंधकार की ओर चले गये। पहले बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि का सेवन  नही करते थे, परंतु कुसंगति के कारण कालांतर में करने लगे-और फिर सुधर नही पाये।

इसके पश्चात तीसरा मार्ग है- प्रकाश से प्रकाश में चलते रहना। ऐसे लोग भी संसार भी होते हैं जो शुभकार्यों में लगे रहते हैं और प्रकाशोपासक बने रहकर ही जीवन को व्यतीत कर देते हैं, ऐसी पुण्यात्माएं संसार में मनुष्य के रूप में महात्मा कहलाती हैं, और संसार के लोगों के लिए जीवन पुष्प बिखेरती चलती हैं। ये महान आत्माएं जिन लोगों के जीवन में अंधकार होता है, उनके जीवन से अंधकार को मिटाकर प्रकाश भरती चलती हैं। संसार को सन्मार्ग पर चलाने के लिए प्रेरित करने वाली ये दिव्यात्माएं अपने सत्कार्यों से जाने के पश्चात भी लोगों का मार्गदर्शन करती रहती हैं।

चौथी गति है-अंधकार से अंधकार में चलना। ऐसे लोग भी संसार में होते हैं, जो दुष्टता के कार्यों से जीवन का आरंभ करते हैं और   उन्हीं में  लगे रहकर जीवन पार कर देते हैं। ये दुष्टात्माएं संसार में विध्वंस का खेल खेलती हैं, और शांति प्रिय लोगों के जीवन को भी समाप्त करने या उनमें अशांति का विष घोलने में इन्हें कोई आपत्ति नही होती।

यज्ञ में जब हम जल प्रसेचन करते हैं, तो उसमें हमें यही बताया जाता है कि हम हर स्थिति परिस्थिति में प्रकाश के पुजारी बनें। जल शांति और शीतलता का प्रतीक है, शांति व्यवस्था का दूसरा  नाम है, और शीतलता हमारी विवेकशक्ति को बढ़ाती है। इस प्रकार जल प्रसेचन का अर्थ है कि हम शांतिपूर्वक विवेकशक्ति के उपासक बनें। मेधाशक्ति वाले हों। कहा भी गया है-‘‘बुद्घिर्यस्य बलं तस्य’’ अर्थात जिसके पास बुद्घि है, बल उसी के पास है। अपने बुद्घि बल से ए.पी.जे. कलाम जैसे लोग देवता की श्रेणी में पहुंच जाते हैं और उनके बुद्घिबल के सामने लोग झुकते हैं। इसलिए शांतिपूर्वक विवेक शक्ति बढ़ाकर प्रकाशोपासक होकर हम अपने जीवन में प्रकाश करें-यह जल प्रसेचन का अर्थ है। प्रसेचन का अर्थ सींचना है-छिडक़ना नही। इसलिए जल को यज्ञ कुण्ड के बाहर फेंककर छिडक़ना नही है अपितु यज्ञ कुण्ड को सींचना है, उसी में जल प्रसेचन करना है।

हमारे लिए पूर्व दिशा प्रकाश की दिशा है, इसी प्रकार उत्तर की दिशा भी प्रकाश की दिशा है। इसी दिशा में सप्तऋषि मण्डल तथा धु्रव तारा स्थित होते हैं। दक्षिण की दिशा घोर अंधकार की दिशा है, जबकि यज्ञ कुण्ड में पश्चिम की दिशा का एक कोना दक्षिण के घोर अंधकार से तथा दूसरा उत्तर के प्रकाश से जुड़ा है, पर फिर भी पश्चिम को अंधकार की दिशा ही माना जाता है।

अब जब हम पूर्व दिशा में ‘ओ३म् अदिते अनुमन्यस्व’ से जल प्रसेचन करते हैं तो जल को पूरब दिशा के दक्षिणी कोने से उत्तर की ओर डालना चाहिए। इसका अभिप्राय है कि अंधकार से प्रकाश की ओर चलना। इससे जीवन की एक गति पूर्ण होती है, जो हमें हमारे जीवन ध्येय के प्रति समर्पित करती है। हमारी संस्कृति का मूलाधार है अंधकार से प्रकाश की ओर चलना। इसलिए हमारे जल प्रसेचन की क्रिया में भी पहले यही कहा जाता है कि हम अंधकार से प्रकाश की ओर चलें। दूसरी बार हम यज्ञ कुण्ड की पश्चिम दिशा में ‘अनुमते अनुमन्यस्व’ से जल प्रसेचन करते हैं। यहां भी हम दक्षिण से उत्तर की ओर चलते हैं। बात साफ है कि यहां भी हम अंधकार (दक्षिण) से प्रकाश  (उत्तर) की ओर बढ़ रहे हैं। इसी प्रकार उत्तर में भी पश्चिम (अंधकार) से पूरब (प्रकाश) की ओर चलते हैं। अब चौथी बार हम केवल दक्षिण में जल नही डालते, क्योंकि हमें अंधकार से अंधकार में नही रहना है। इस बार हम पूरब दिशा में यज्ञ कुण्ड के मध्य से आरंभ कर दक्षिण की ओर बढ़ते हैं और पश्चिम से उत्तर होते हुए पूरब के उसी मध्य बिन्दु पर आ जाते हैं जहां से जल प्रसेचन प्रारंभ किया था। इसका अभिप्राय है कि हमें जीवन में प्रकाश से प्रकाश में ही रहना है। हमें किसी भी स्थिति में दक्षिण के घोर अंधकार का उपासक नही बनना है। यदि चूकें कहीं हो भी गयीं हैं तो पूरब के प्रकाश को पकडक़र उसी के सहारे दक्षिण (अंधकार काल) से निकलकर पुन: उसी मार्ग पर आ जावें, जहां से मार्ग भटके थे। किन्हीं कारणों से बीड़ी, सिगरेट, मद्यमांस अण्डे आदि का सेवन करने,  जुआ खेलने या अन्य प्रकार के दुव्र्यसन हमारे भीतर प्रवेश कर भी गये हैं तो उन्हें छोडऩे के लिए संकल्पित होकर पूरब से यात्रा प्रारंभ की और पूरब में ही आ गये। मानो दुर्गुणों को छोड़ते जाने के संकल्प का पुन: नवीनीकरण हो गया। इसी को कहते हैं-‘यद भद्रं तन्नासुव’।

किसी कवि ने कहा है-‘‘कवि करोति काव्यानि रसं जानाति पंडित:’’ अर्थात कवि कविता लिखता है और पंडित अर्थात सुधीजन उसका आनंद लूटते हैं। इसी बात को यज्ञ के जल प्रसेचन की प्रक्रिया से सीखा जाता है-विद्वानों ने, कवियों ने हमारे लिए जल प्रसेचन की व्यवस्था करके मानो एक कविता लिख दी है उसका आनंद लूटना हमारे वश में है। हम उसे लूटें और जितना चाहें लूटें। इस लूट से लाभ ही लाभ होगा। कहीं भी किसी को तनिक भी कष्ट नही होगा, अपितु आनंद बढ़ता जाएगा, जीवन पुष्प कभी मुरझाएगा नही। विवेकशाक्ति का दीपक कभी बुझेगा नही। हम औपचारिकता से निकलें और श्रद्घा के साथ यज्ञ करें, हमारे हृदय के आनंद में वृद्घि होती जाएगी। जल प्रसेचन का यही याज्ञिक अर्थ है।

मंगलवार, 24 मार्च 2015

भारत में सर्वत्र हुआ था तैमूर का व्यापक प्रतिरोध

भारत में सर्वत्र हुआ था तैमूर का व्यापक प्रतिरोध




दिल्ली यूं तो अब से पूर्व कई विदेशी आक्रांता या बलात् अधिकार कर दिल्ली के सुल्तान बन बैठे शासकों के आतंक और अत्याचार का शिकार कई बार बन चुकी थी, पर इस बार का विदेशी आक्रांता और भी अधिक क्रूरता की वर्षा करने के लिए आ रहा था। हिंदू प्रतिरोध यद्यपि निरंतर जारी था, परंतु दिल्ली पर नियंत्रण स्थापित कर पुन: हिंदू राज्य स्थापित करने की सारी चेष्टाएं निष्फल जा रही थीं।

दिल्ली नही थी सुरक्षित

मुगलों ने दिल्ली सल्तनत के अब तक के इतिहास में अनेकों बार भारत के भू-भाग को हथियाने के लिए आक्रमण किये, परंतु वे अभी तक असफल रहे थे। दिल्ली का तुगलक वंश लड़खड़ा रहा था, और अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था। ऐसे समय में दिल्ली को पूर्णत: सुरक्षित नही कहा जा सकता था। देश का बहुसंख्यक हिंदू दिल्ली को पुन: प्राप्त नही कर पा रहा था और बलात दिल्ली के शासक बने विदेशी तुर्कों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। जिनके विनाश की कामना यहां का बहु संख्यक वर्ग हिंदू चौबीसों घंटे किया करता था।

सत्ता और जनता में थी दूरी

कहने का अभिप्राय है कि दिल्ली के साथ सत्ता तो थी पर जनता नही थी और जनता के पास सत्ता नही थी। इसलिए सत्ता और जनता में दूरी थी एकात्मकता नही थी, समरूपता नही थी। इतिहास के इस सच को लोगों ने उपेक्षित करते हुए हमें यह समझाने का प्रयास किया है कि हम परस्पर फूट से ग्रस्त थे और विदेशी हमारी पारस्परिक फूट का लाभ उठाने मेंं सफल रहे।

हम मानते हैं कि इस प्रकार के कथन में सत्यांश हो सकता है, परंतु यह पूर्ण सत्य नही हो सकता। हमारी फूट का आधार जनता और सत्ता के मध्य का ऊपरिलखित अंतद्र्वद्व ही था।

हिन्दू की दयनीय स्थिति

इस देश के मूल निवासी हिन्दू से उसके मौलिक अधिकार छीन लिये गये थे और देश के आर्थिक संसाधनों से उसका प्रथम अधिकार छीनकर मुस्लिमों को दे दिया था, हिंदू जितना ही अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करता था, उसे उतना ही दलन, दमन, शोषण और उत्पीडऩ की चक्की में क्रूरता से पीसा जाता था।

हिन्दू की मानसिकता…..

सत्ता के इस क्रूर स्वरूप से हिंदू मुक्त होना चाहता था और सत्ता उसे अपने शिकंजे में कसे रखना चाहती थी। इसलिए देश के मुस्लिम शासकों पर यदि कोई अन्य विदेशी मुस्लिम शासक हमला करता था तो उस समय हमारे देश का हिंदू उस विदेशी नये हमलावर के विरूद्घ अपने देश के शासक वर्ग के साथ नही होता था। इसका कारण ये था कि एक तो हिंदू को यह भली प्रकार ज्ञात था कि आने वाले आक्रांता के शासल काल में भी उसके साथ अन्याय और अत्याचार का वर्तमान क्रम ही चलते रहना है, दूसरे जिस सत्ता को वह स्वयं उखाड़ देना चाहता है, उसको विदेशी के विरूद्घ सहायता देना हिंदू उचित नही मानता था, विशेषत: तब जब विदेशी आक्रांता का अंतिम उद्देश्य भी हिंदुस्थान के क्रूर शासन का अंत करना ही था।

सत्ता कभी राष्ट्र नही हो सकती

कुछ लोगों ने भारतवर्ष के हिंदू समाज की अपने शासक वर्ग (मुस्लिम सुल्तानों) के प्रति अपनायी गयी ऐसी नीति की ये कहकर आलोचना की है कि भारतवर्ष में कभी राष्ट्रवाद की भावना नही रही। हम इस प्रकार की आलोचना को समालोचना न मानकर केवल ‘निंदा वचन’ मानते हैं और‘निंदा वचनों’ में कभी ईमानदारी नही हो सकती। ऐसे ‘निंदा वचन’ कहने वाले लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि सत्ता के साथ विद्रोह‘राष्ट्र के साथ विद्रोह’ कभी नही हो सकता। कारण कि सत्ता कभी राष्ट्र नही हो सकती। सत्ता को राष्ट्र के साथ समरूप होना चाहिए।

सत्ता खो देती है राष्ट्र की निष्ठा

जो सत्ता राष्ट्र के मूल्यों का वध करने लगती है, वह सत्ता राष्ट्र के निवासियों की और राष्ट्र की निष्ठा खो देती है। इसलिए राष्ट्र की परिभाषा के नियामक तत्वों में उस राष्ट्र की सत्ता या शासक वर्ग का उस राष्ट्र के राष्ट्रीय मूल्यों सम्प्रभुता और निवासियों के मौलिक अधिकारों के प्रति संवेदनशील होना अनिवार्य है। जो शासक वर्ग लोक की मान्यता प्राप्त नही कर पाता है वह शासन कभी ‘लोकमान्य’ नही हो सकता। भारत के मुस्लिम शासकों को यहां के लोगों की मान्यता कभी नही मिली, इसलिए लोक से बहिष्कृत तिरस्कृत और उपेक्षित सत्ता या शासक वर्ग के किसी भी प्रकार के समर्थन की आवश्यकता नही थी। अत: इतिहासकारों को भारत के लोगों के द्वारा अपने तत्कालीन शासक वर्ग का सहयोग न करने को यह कहकर आलोचना से बचने का प्रयास करना चाहिए कि भारतीयों में कभी राष्ट्रवादिता की भावना थी ही नही।

तैमूर बढ़ता आ रहा था

ऐसी परिस्थितियों में दिल्ली की ओर तैमूर बढ़ता जा रहा था। अपनी जीवनी में वह कहता है-‘‘दिल्ली पर मेरे अंतिम हमले से पूर्व मुझे यह बताया गया कि हिंदुस्तान में प्रवेश करने से आज तक हम लोगों ने एक लाख हिंदुओं को कैद किया है ये सभी कैदी मेरे पड़ाव में थे। मैंने अपने दरबारियों से परामर्श किया कि इन कैदियों का क्या किया जाए? उन लोगों ने बताया कि युद्घ के दिन एक लाख कैदियों को सामान के पास नही छोड़ा जा सकता। उस पर इन बुत परस्तों और इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र छोड़ देना युद्घ के नियमों के विरूद्घ होगा। उन लोगों का यह परामर्श मुझे युद्घ के नियमों और नीति के अनुकूल लगा। मैंने सारे पड़ाव के लिए घोषणा कर आदेश जारी किया कि जो कोई व्यक्ति इस आदेश को न मानेगा उसका वध कर दिया जाएगा और उसकी सारी चीजें ऐसी सूचना देने वाले को दे दी जाएंगी। इस्लाम के गाजियों को जब इस आदेश की जानकारी हुई तो उन लोगों ने अपनी अपनी कटारें खींच ली, और अपने अपने कैदियों की हत्या कर दी। मौलाना नासिरूद्दीन उमर मेरा परामर्शदाता और उच्च शिक्षित व्यक्ति था, उसने अपने जीवन में एक चिडिय़ा को भी नही मारा होगा अब उसी ने मेरी आज्ञा का पालन करने के लिए अपनी तलवार से 15 मूत्र्ति पूजक हिंदुओं की हत्या कर दी थी, जो उसकी कैद में थे।’’

उन एक लाख हिंदुओं को हमारा प्रणाम

स्वंय तैमूर की जीवनी के इस उद्घरण से स्पष्ट है कि दिल्ली में प्रवेश पाने से पूर्व अब तक के एक लाख हिन्दू बंदियों को कितनी निर्ममता से मृत्यु के घाट उतार दिया गया। हमारे वह निहत्थे और असहाय हिंदू पूर्वज कितने आत्माभिमानी, स्वाभिमानी और बलिदानी भावना से ओत प्रोत थे, जिन्होंने तैमूर की तलवार के अत्याचारों के सामने झुककर अपना धर्मांतरण स्वीकार नही किया और बड़ी सहजता से मृत्यु को गले लगा लिया। किसी से मिलने की उनकी इच्छा ना तो पूछी गयी और ना ही उन्होंने किसी से मिलने की इच्छा व्यक्त की, क्योंकि मिलने की इच्छा व्यक्त करना भी उस समय दुर्बलता थी और शत्रु को अपने ऊपर और भी अधिक अत्याचार करने के लिए प्रेरित करना था।

मरने वालों की प्रार्थना होती थी….

एक एक हिंदू के सामने अपने दूसरे भाई का सिर कटकर एक बार हवा में उड़ता और धांय से पृथ्वी पर आ गिरता। देखने वाला केवल अपने ईश्वर को स्मरण करता और उससे केवल यही प्रार्थना करता कि-‘‘हे दयानिधे! मुझे अपने धर्म पर अडिग रखना  मैं किंचित भी डगमगाऊं नही और अपने सर्वोत्कृष्ट बलिदान को देकर आपके श्रीचरणों में स्थान पाऊं।’’

 ईश्वर-अल्लाह का अंतर

तैमूर और उसकी सेना का अल्लाह उन्हें ‘काफिरों’ को मारने की प्रेरणा दे रहा था तो हमारा ईश्वर हमें निज धर्म की रक्षा के लिए मरने की प्रेरणा दे रहा था। जो लोग ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ कहकर उस शक्ति को एक ही मानते हैं, उन्हें यहां ईश्वर और अल्लाह के मध्य का अंतर स्वत: स्पष्टहो जाना चाहिए।

तैमूर का दिल्ली में प्रवेश

17 दिसंबर 1398 को तैमूर की सेना ने दिल्ली में प्रवेश किया। दिल्ली की हिंदू जनता को नये आक्रांता के अत्याचारों की भनक लग चुकी थी कि उसने किस प्रकार एक लाख हिंदू कैदियों को दिल्ली में प्रवेश पाने से पूर्व ही ‘शकुन’ बनाने के लिए समाप्त करा दिया है। इसलिए उसने भी अपने आपको युद्घ करने और मरने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार कर लिया। कुछ लोगों ने भयभीत होकर दिल्ली को छोड़ दिया तो कुछ ने तैमूर के अत्याचारों से बचने के लिए अपने परिवार सहित किसी भी प्रकार से आत्महत्या का मार्ग अपना लिया।

अब क्या खाक मुसलमां होंगे

यह मुहावरा हमें अक्सर सुनने ेको मिलता है कि ‘अब आखिर में क्या खाक मुसलमां होंगे?’ यह उन हिंदू वीरों का ही एक उद्घोष था जो मध्यकालीन भारत के स्वतंत्रता सैनानी थे और अंतिम क्षणों तक अपने धर्म की रक्षा  के लिए कृत संकल्प रहते थे। उनसे मृत्यु के अंतिम क्षणों में कई बार जब ‘इस्लाम या मौत’ में से एक को चुनने की बात कही जाती थी तो वे अक्सर यही बात कहा करते थे कि जिस धर्म की रक्षार्थ (हिंदुत्व) पूरा जीवन संघर्ष में लगा दिया और उस समय मृत्यु से भय नही लगा, तो अब दो चार पलों के जीवन के लिए अंतिम क्षणों में क्या मुसलमां होंगे? हमारे वीर पूर्वजों की वीरता और शौर्य का प्रतीक यह मुहावरा बड़ी सरलता से कह दिया जाता है। जबकि इसके पीछे हमारी शौर्य परंपरा की एक गौरवमयी गाथा है। उसकी ओर हमारा ध्यान नही जाता क्योंकि प्रचलित इतिहास ने हमारी गौरव गाथा को विलुप्त करने का हरसंभव प्रयास किया है, और उसी प्रयास के तले दबकर यह मुहावरा भी अपनी गौरवगाथा की पुण्य आभा से हीन हो चुका है।

दिल्ली के रक्तपात की कहानी

दिल्ली में प्रविष्ट होकर तैमूर और उसकी सेना ने किस प्रकार का तांडव मचाया उसे अपने शब्दों में न रखकर तैमूर के शब्दों में ही लिखा जाना उचित होगा। तैमूर लिखता है-

सिपाही हिंदुओं को पकडऩे के लिए जब आगे बढ़े तो बहुतों ने अपनी तलवारें खींच लीं। (इसका अभिप्राय है कि हिंदुओं ने तैमूर का प्रतिरोध किया) इस लड़ाई से लगी हुई आग सभी कुछ जलाती हुई सीरी से लेकर पुरानी दिल्ली तक फैल गयी। क्रोधित होकर तुर्क काटने-लूटने में लग गये हिंदुओं (आत्मरक्षार्थ और निज धर्म को बचाने के लिए) ने अपने घरों में अपने हाथ से आग लगा दी, अपनी स्त्रियों तथा बच्चों को उसमें जला दिया, फिर लडऩे दौड़े और मारे गये। हिंदुओं ने लड़ाई में बड़ी फुर्ती और वीरता दिखाई। (इतने भयंकर रक्तपात के मध्य भी हिंदुओं की फुर्ती और वीरता को शत्रु से प्रशंसा मिलना उनके शौर्य की गौरवमयी गाथा का सुंदर चित्रण है) बृहस्पतिवार और शुक्रवार की सारी रात लगभग15 हजार तुर्क काटने, लूटने और विनाश करने में लगे रहे। शुक्रवार की प्रात: मेरी सेना मेरे नियंत्रण से बाहर हो गयी। शहर में जाकर उन लोगों ने कुछ भी सोच-विचार नही किया। काटने, लूटने और (हिंदुओं का) विनाश करने में लग गये। सारे दिन मारकाट (भयंकर स्तर पर) चलती रही। लूट इतनी अधिक थी कि हर व्यक्ति (तुर्क सैनिक) के पास 50 से 100 कैदी थे, जिनमें स्त्रियां पुरूष और बच्चे सभी थे। हीरे, जवाहरात, माणिक,मोती, सोने, चांदी के गहने अशर्फी, सोने चांदी के टंके, सोने चांदी के बर्तन, कीमती कपड़े और रेशम आदि का लूट का बहुत अधिक सामान हाथ लगा। …मुसलमानों के रहने के लिए सारा शहर खाली हो गया।’’

हिंदू ने दिखायी अपनी देशभक्ति

तैमूर के इस वर्णन पर यदि समीक्षा की जाए तो स्पष्ट होता है कि शहर के वीर हिंदुओं ने जहां तुर्क सेना के अत्याचारों का डटकर सामना किया वहीं आत्महत्या करना या पूरे परिवार को अग्नि के समर्पित करने और पलायन आदि करके शहर को खाली करने की घटनाएं भी अपरिमित स्तर पर हुई होंगी तभी तो तैमूर को यह लिखना पड़ा कि सारा शहर ही खाली हो गया था।

हिंदुओं का साहस दर्शनीय था

हिंदुओं ने अपने चारों ओर शवों को देखा उन्हें यह भी पता था कि दिल्ली में उनका रक्षक अब ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नही था, परंतु इसके उपरांत भी उनका साहस दर्शनीय था। उनका एक दल बड़ी वीरता और साहस के साथ आगे बढ़ा और दिल्ली जामा मस्जिद के पास मुस्लिमों पर आक्रमण करने के लिए एकत्र हो गया। तैमूर आगे लिखता है-‘‘बहुत से हिंदू हथियार और राशन लेकर दिल्ली की मस्जिद-ए-जामी (जामा मस्जिद) में जमा हो गये और बचाव की तैयारी कर रहे हैं। मेरे कुछ सिपाही उधर जा रहे हैं। हिंदुओं ने (आक्रमण कर) उन लोगों को घायल कर दिया। मैंने तुरंत अमीर शाह मलिक और अली सुल्तान तबाची को काफिरों और मूर्ति पूजकों से अल्लाह के घर को खाली करवाने का आदेश दिया। उन लोगों ने काफिरों पर हमला करके सभी को समाप्त कर दिया। इसके बाद पुरानी दिल्ली लूट ली गयी।’’

दिल्ली बन गयी भूतों का बसेरा

इस प्रकार हिंदुओं के साहस को दंडित किया गया और दिल्ली  हिंदू विहीन हो गयी। सारी दिल्ली भूतों का बसेरा बन चुकी थी। कटी हुई लाशें,सिसकते हुए जीवन, मंडराते हुए गिद्घ और कौवे, मानव शवों पर झगड़ते कुत्ते और सर्वत्र शवों के सडऩे की दुर्गंध इस सबके मध्य भी तुर्क सेना हिंदू आवासों में स्त्रियों के आभूषणों को खोजने और यदि कहीं उनके सौभाग्य से कोई हिंदू स्त्री मिल जाए तो उसका शील भंग करने की अमानवीय कार्यवाहियों में लगे हुए थे। मानवता कहीं दूर-दूर तक भी दृष्टिगोचर नहीं हो रही थी, सर्वत्र दानवता का नग्न नृत्य हो रहा था। जब उन शवों से सड़ती दुर्गंधित राजधानी दिल्ली में मुस्लिमों के लिए ठहरना भी कठिन हो गया और जब उन्हें इस बात का पूर्ण विश्वास हो गया कि अब दिल्ली में लूट के लिए शेष कुछ भी नही बचा है, तो उन्होंने दिल्ली को उस समय छोडऩा ही उचित समझा।

तैमूर ने किया दिल्ली का वर्णन

तैमूर लिखता है-‘‘मैंने दिल्ली के निवासियों के और अधिक विनाश में और रूचि नही ली। सवार होकर मैं नगरों के चारों ओर (घोड़े पर) घूमा। सीरी एक गोलशहर है। इसके भवन ऊंचे-ऊंचे हैं। यह नगरी चारों ओर से किलेबंदी से घिरी हुई है। पुरानी दिल्ली में भी एक ऐसा ही सुदृढ़ दुर्ग है। (इस दुर्ग से तैमूर का अभिप्राय लालकिले से लिया जा सकता है) परंतु यह श्री के दुर्ग से बड़ा है।’’

लौटते हुए तैमूर का हिन्दू शक्ति ने किया प्रतिरोध

हिंदुओं का साहस भी देखने योग्य था। ऐसे कितने ही संघर्ष हुए हैं, जब हिंदुओं ने अपने किसी राजा की या सेनापति की प्रतीक्षा न करके हिंदुत्व और मां भारती की सेवा के लिए स्वयं को एक ऐसे दल के रूप में एकत्र किया, जिसका नेता कोई स्थानीय साधारण व्यक्ति बन जाता था और तुर्क सेनाओं पर प्राणों की चिंता किये बिना ही टूट पड़ता था। ऐसे वीरता पूर्ण हिंदू कृत्यों का वर्णन हम पूर्व के कई पृष्ठों पर कर चुके हैं।

अब तैमूर के समय में भी हिंदुओं ने अपनी वीरता का वही इतिहास दोहराया। तैमूर जब हिंदुस्तान से स्वदेश लौट रहा था, तो उसने अपना यात्रामार्ग ऐसे स्थलों से चुना जो उसे हिंदुओं से सुरक्षित रख सके। मुहम्मद हबीब के अनुसार तैमूर ने पिछले समय के मंगोल अनुभव से प्रेरित होकर  हिमालय पर्वत और शिवालिक पर्वत माला के मध्य का क्षेत्र चुना।

स्टडीज इन इण्डो मुस्लिम हिस्ट्री खण्ड 1 पृष्ठ 356 के अनुसार तैमूर गंगा नदी के किनारे-किनारे तुगलुकपुर की ओर बढ़ा (यह गांव मुजफ्फर नगर से सत्रह मील उत्तर पूर्व में है) जब वह तुगलुकपुर से 5 कोस की दूरी पर पहुंचा तो उसे सूचना प्राप्त हुई कि मार्ग में एक स्थान पर हिंदू उसके प्रतिरोध के लिए एकत्र हो गये हैं।

दिल्ली की पीड़ा से दुखी था हिंदू

हिंदू के रोम-रोम में दिल्ली की पीड़ा बोल रही थी उन तक दिल्ली और दूसरे स्थानों पर तुगलक के अत्याचारों और हिंदू विनाश की पीड़ादायक कहानी किसी न किसी रूप में पहुंच चुकी थी। इसलिए उन्हेंाने देश से लौटते हुए तैमूर पर वीरतापूर्वक आक्रमण किया। इन लोगों ने कम संख्या में होने के उपरांत भी मुस्लिमों से घोर संघर्ष किया और अपना प्राणोत्सर्ग कर देश के बलिदानी इतिहास में अपनी देशभक्ति के कार्य को अमर कर दिया। इन वीर हिंदुओं के बलिदान हो जाने पर मुस्लिम सेना ने इनकी स्त्रियों और बच्चों को कैद कर लिया। परंतु आग तो आग होती है,वह भी यदि जंगल में फेेल जाए तो बुझनी असंभव हो जाती है। यही स्थिति प्रतिरोध की थी। हिंदू प्रतिरोध की अग्नि एक स्थान पर शांत होती तो दूसरे स्थान पर जा लगती।

हिंदुओं का दूसरा प्रतिरोध

तुगलुकपुर के हिंदुओं के बलिदान की सुर्खियां सूख भी नही पायी थीं कि थोड़ी देर में ही तैमूर को पुन: सूचना मिली कि कुछ दूरी पर हिंदू एक बार पुन: एकत्रित हो रहे हैं और उनका मुस्लिम सेना से युद्घ अपरिहार्य है।

‘मुलफुजात-ए-तैमूरी’ के अनुसार 13 जनवरी 1399 को तैमूर की सेना और हिंदुओं के मध्य भयंकर संग्राम हुआ। इस संग्राम में हिंदू पराजित हुए और भाग खड़े हुए।

हरिद्वार ने भी किया प्रतिरोध

हरिद्वार ने अपने जन्मकाल से ही हिंदू समाज का मार्गदर्शन किया है। यह हिंदुओं की धर्म नगरी कही जाती है। हमारा धर्म-‘कर्म और विज्ञान’ का समुच्चय कहा जाता है। अत: हरिद्वार के लिए यह भला कैसे संभव था कि जब सारे देश में ही सर्वत्र प्रतिरोध की बयार बह रही थी तो वह शांत रह जाता?

हिंदू समाज की सुरक्षा के लिए तब हरिद्वार आगे आया। हरिद्वार अपने लिए यह कैसे कहलवा सकता था कि वह केवल धार्मिक सहिष्णुता की आत्मघाती उपदेशात्मक शैली का अवलंबन करते हुए सही समय पर कत्र्तव्य से च्युत हो गया और उसने हिंदुओं में शौर्य का भाव भरकर अपने धर्म की रक्षा के लिए प्रेरित नही किया? हरिद्वार ने अपना धर्म समझा और विदेशी आततायी को दंडित करने का निर्णय लिया।

वहां (तैमूर की जीवनी के अनुसार) बड़ी संख्या में हिंदू एकत्र हो गये। जब तैमूर हरिद्वार पहुंचा तो उसे हिंदुओं के विषय में जानकारी मिली कि उसे यहां भी इन लोगों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। अत: उसने अपनी अन्य सेना के आने की प्रतीक्षा की। रविवार के दिन पीर मुहम्मद और सुलेमान शाह के नेतृत्व में आसपास युद्घ के  लिए भेजी गयी तैमूर की शेष सेना भी आ पहुंची, जिससे उत्साहित होकर तैमूर ने उसी दिन मध्यान्ह और सायंकाल की नमाज के मध्य आगे बढक़र हिंदुओं पर धावा बोल दिया। ‘मुल फुजात-ए-तैमूरी’ के अनुसार हिंदुओं को यहां भी पराजित होना पड़ा। परंतु अगले ही दिन पुन: एक बार हिंदू शक्ति ने बड़ी प्रबलता के साथ मुस्लिम सेना पर आक्रमण कर दिया। यह अलग बात है कि  हिंदुओं को पुन: पराजित होना पड़ा।

पराजयें भाग्य का निर्णय नही करती हैं

हम पुन: यही दोहराएंगे कि युद्घ में पराजय अर्थ नही रखती युद्घ के लिए उत्साह और साहस महत्वपूर्ण होता है। पराजय यदि हमारे भाग्य का निर्णय करती तो ऐसी पराजयें तो पूर्व में कितनी ही बार मिल चुकी थीं, परंतु हमारे भाग्य का निर्णय तो हमारा उत्साह और साहस कर रहे थे और ये दोनों सौभाग्य से हमारे साथ थे। आश्चर्य की बात थी कि शत्रु इनसे सैकड़ों वर्षों से लड़ता आ रहा था पर इन्हें परास्त नही कर पाया था।

आगे भी मिला प्रतिरोध

हिंदुओं के इसी उत्साह और साहस के चलते 24 जनवरी को शिवालिक की पहाडिय़ों की ओर उसे रामरतन सिंह की सेना से और नगरकोट में हिंदुओं की एक टुकड़ी से भारी संघर्ष करना पड़ा। इसी प्रकार जम्मू में भी उसे हिंदू चुनौती का सामना करना पड़ा।

अंत में हम यही कहेंगे कि तैमूर के आक्रमण के समय भी हिंदू ने पराजय नही मानी, अपना सब कुछ हो करके भी निज राष्ट्र और निज धर्म की रक्षा करना उसने सर्वोपरि कत्र्तव्य माना। ऐसे वीर समाज का शत-शत अभिनंदन।

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

फीरोजशाह तुगलक के काल में भी चले स्वतंत्रता आंदोलन

फीरोजशाह तुगलक के काल में भी चले स्वतंत्रता आंदोलन


सिमट गया  साम्राज्य

अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में सल्तनत साम्राज्य पर्याप्त विस्तार ले गया था, वह तुगलक काल में सिमटकर छोटा गया। अफगानिस्तान और आज के पाकिस्तान का बहुत बड़ा भाग, जम्मू कश्मीर, राजस्थान का बहुत बड़ा भाग, उत्तराखण्ड, नेपाल, भूटान, सिक्किम, बंगाल और सारा पूर्वाेत्तर भारत, उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र और कर्नाटक महाराष्ट्र से आगे का सारा भारत स्वतंत्र था या हो गया था। अब तक अधिकांश भारत के स्वतंत्र  होते हुए भी दिल्ली के सुल्तानों को हिंदुस्तान का बादशाह हमारा इतिहास घोषित करता है। इतिहास की यह घोषणा सत्य, तथ्य और कथ्य के विपरीत है।

फीरोजशाह तुगलक बन गया सुल्तान

मुहम्मद-बिन-तुगलक की मृत्यु 20 मार्च 1351 ई. में हुई। उसके पश्चात दिल्ली के राज्य सिंहासन पर फीरोजशाह तुगलक बैठा। यह 22 मार्च की घटना है। निजामुद्दीन अहमद ने यह तिथि 23 मार्च की अर्थात एक दिन पश्चात की दी है। फीरोजशाह के शासनकाल को मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल की अपेक्षा  दुर्बल माना गया है।

‘‘मुहम्मद-बिन-तुगलक के अराजकतापूर्ण शासन में जहां बड़े बड़े हिंदू राजा अपने को स्वतंत्र करने में लगे थे, वहीं  फीरोज के दुर्बल शासन में छोटे-छोटे हिंदू सामंत  और जागीरदारों ने भी लाभ उठाया और स्वयं को शक्तिशाली बनाकर तुगलक सुल्तानों के लिए सिर दर्द बन बैठे। इसमें इटावा के चौहान रूहेलखण्ड के कटेहरिया, अवध के छोटे-छोटे सामंत और तिरहुत के हिंदू आदि प्रमुख थे।’’

(संदर्भ: सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध)

वास्तव में कभी कभी प्रचलित इतिहास को पढक़र ऐसा लगता है कि हमारे हिंदू  पूर्वजों ने अंतत: इतने  दीर्घ काल तक स्वतंत्रता संघर्ष के लिए ऊर्जा प्रेरणा और प्रोत्साहन कहां से प्राप्त किये? उन्होंने लंबा  संघर्ष करने की अपेक्षा शीघ्र ही पराजय क्यों न स्वीकार कर ली? इन प्रश्नों  पर हम पूर्व में भी प्रकाश डालते आये हैं। यहां  मात्र इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि स्वतंत्रता आंदोलन में स्थानीय या क्षेत्रीय या प्रांतीय लोगों को अपने-अपने स्तर पर मिलने वाली सफलता किसी अन्य क्षेत्र या प्रांत या राज्य के लोगों को प्रेरित, प्रोत्साहित  और ऊर्जान्वित करती थी, जैसे दक्षिण में विजयनगर राज्य की स्थापना हुई तो उसने अपने अन्य पड़ोसियों को भी स्वतंत्रता के लिए  प्रेरित किया। राजस्थान में राणा  हमीर ने मेवाड़ को स्वतंत्र कराया और अपने राज्य का विस्तार किया तो राणा के इस कार्य ने अन्य राजाओं को भी प्रेरित किया। जिससे एक भाव पूरे देश में बन गया कि सल्तनत की दासता सदा के लिए नही हो सकती, प्रयास करेंगे तो इसे मिटाया भी जा सकता है। दूसरे समकालीन विश्व इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो चारों ओर उस समय साम्राज्य विस्तार के लिए दूसरों की स्वतंत्रता के अपहरण  करने की धूम  मची थी। यद्यपि भारतीयों ने दूसरों की स्वतंत्रता का अपहरण कर जनसंहार करना सर्वथा त्याज्य ही माना, परंतु सैकड़ों वर्ष से चारों ओर स्वतंत्रता के अपहरण की रक्षा के लिए तो प्रेरित होते ही जा रहे थे, इसलिए लड़ाकू भी होते जा रहे थे। यद्यपि हमारा मानना है कि भारतीय लोग प्राचीन काल से ही स्वतंत्रता प्रेमी और मानवाधिकारों की रक्षा  के लिए रण सजाने वाले रणबांकुरे रहे थे, पर अब परिस्थितियों में व्यापक परिवर्तन आ गया था, इसलिए उन्होंने परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल भी स्वयं को ढाल लिया था।

फीरोजशाह नही हो पाया सफल

फीरोजशाह तुगलक के काल में केवल छह युद्घों के होने का प्रमाण मिलता है। उसकी इच्छा थी कि अब से पूर्व जितने क्षेत्र सल्तनत के अधिकार से निकल कर स्वतंत्र हो गये हैं, उन्हें पुन: विजित किया जाए, पर वह अपने इस सपने को साकार नही कर पाया। अनेक इतिहासकारों ने उसे अयोग्य शासक के रूप में स्थापित किया है।

राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही फीरोजशाह तुगलक ने अपना प्रथम सैनिक अभियान बंगाल विजय के लिए 1353-54 ई. में किया। वहां का शासक उस समय शमसुद्दीन था। जिसने मुहम्मद बिन तुगलक के विरूद्घ विद्रोह कर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। फीरोज के आगमन की सूचना पाकर शमसुद्दीन ने स्वयं को इकदला के दुर्ग में कैद कर लिया। उसका  सुल्तान से संघर्ष हुआ, कुल मिलाकर युद्घ का परिणाम सुल्तान के प्रतिकूल ही रहा और वह बंगाल की स्त्रियों के विलाप से द्रवित होकर अपनी सेना सहित दिल्ली लौट गया।

दूसरी बार सुल्तान ने बंगाल पर 1359 ई. में  आक्रमण किया उस समय वहां का शासक शमसुद्दीन का लडक़ा सिकंदर था। सिकंदर ने पिता का अनुसरण करते हुए युद्घ किया। युद्घ का परिणाम केवल ये आया कि सिकंदर ने सुल्तान को सुनारगांव देकर संधि कर ली। इस प्रकार सुल्तान के ये दोनों सैनिक अभियान निष्फल सिद्घ हुए।

हिंदू राज्य जाजनगर पर विजय

बंगाल से लौटते हुए सुल्तान ने हिंदू राज्य जाजनगर उड़ीसा पर आक्रमण किया। यहां पर उसके आक्रमण का उद्देश्य मंदिरों का विध्वंस कर लूटपाट के माध्यम से धन संग्रह करना ही था।  दूसरे, सुल्तान अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, उसके लिए आवश्यक था कि हिंदुओं के छोटे-छोटे राज्यों को हड़प कर वह अपने साम्राज्य में मिला ले। सुल्तान फीरोज के समय जाजनगर बहुत समृद्घ था, उसकी समृद्घि को देख-देखकर सुल्तान के मुंह में बार-बार पानी आता था। शाही सेना को देखकर वहां का राय एक टापू की ओर भाग गया। फीरोज की सेना के लिए अब लूटपाट करने का अच्छा अवसर था, इसलिए मंदिरों (जगन्नाथ मंदिर विशेषत:) को लूट-लूटकर उन्हें विध्वंस करने का तांडव आरंभ हो गया। जितना हो सकता था उतना नरसंहार कर निर्दोष हिंदुओं का रक्त बहाया गया। अंत में जाजनगर के राय ने  अधीनता स्वीकार कर वार्षिक कर देने की बात मानकर सुल्तान को दिल्ली भेज दिया। तत्पश्चात सुल्तान ने वीर भूमि के हिन्दू राजा पर धावा बोल दिया और उसे भी परास्त कर दिल्ली लौट गया।

सुल्तान के बंगाल अभियान के विषय में पी.एन. ओक महोदय का निष्कर्ष है कि वहां सुल्तान   जीता नही था, अपितु उसे भागना पड़ा था और शमसुद्दीन ने उसका पीछा करते-करते उसे बहुत दूर तक छकाया था।

उनका मानना है कि बंगाल अभियान के समय हिंदुओं के घरों को जलाने एवं लूटने की परंपरा का अक्षरश: पालन किया गया। सुल्तान ने एक-एक हिंदू के सिर के लिए चांदी का एक टका घोषित कर दिया था। सारी सेना इस काम में जुट गयी, और कटे मुण्डों का ढेर सुल्तान के सामने लग गया। कटे हुए सिरों की संख्या 1,80,000 थी।

इसका अभिप्राय है कि बंगाल अभियान के समय हमारे वह हिंदू लोग जिन्होंने धर्मांतरण करने के स्थान पर सिर कटाना उचित माना, उनकी संख्या एक लाख अस्सी हजार थी। ये वह लोग थे जो स्वतंत्रता के लिए जिये और जब समय आया तो मौन रहकर अपना सिर अपने धर्म के लिए देकर संसार से चले गये। आज हिन्दू की सहिष्णुता और उदारता की दुहाई देकर इन धर्म प्रेमियों और स्वतंत्रता प्रेमी पूर्वजों को और उनके बलिदानों को भुलाने की बातें की जाती हैं, और हम उन बातों को ही  उचित मान लेते हैं, तो ऐसा देखकर दुख होता है। हमारी इस प्रवृत्ति को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में आत्मघाती बताते हुए ए.ए.ए. फैजी साहब लिखते हैं-‘‘इस दिखावटी एकता के धोखे में हमें मजहबों के परस्पर विरोधों के प्रति आंखें नही मूंद लेनी चाहिए। पुराने धर्म-ग्रंथों के उद्घरण दे देकर प्रतिदिन भारत वासियों की सांस्कृतिक एकता और सहिष्णुता का बखान नही करते रहना चाहिए। यह तो अपने आप को नितांत धोखा देना है। इसका राष्ट्रीय स्तर पर त्याग किया जाना चाहिए।’’

(एम.आर.ए बेग की पुस्तक मुस्लिम डिलेमा इन  इंडिया पृष्ठ-27)

जाजनगर अभियान के विषय में हमें अफीफ बताता है-‘‘जाजनगर (जगन्नाथपुरी) के हिंदू राजा अदम उस समय नगर से बाहर गये हुए थे, अत: फीरोज ने उनके राजभवन पर अधिकार कर लिया। हिंदू राजाओं की ये परंपरा रही है कि वे अपने दुर्गों में कुछ न कुछ नया भाग बनाते जोड़ते रहे हैं। इसलिए वे दुर्ग बहुत विशाल हो गये थे। कुछ निवासियों को बंदी बनाया गया शेष भाग गये। प्रत्येक प्रकार के पशुओं की संख्या इतनी अधिक थी कि कोई भी उनके लिए छीना झपटी करता था। भेड़ों को गिना नही जा सका था, और प्रत्येक पड़ाव पर असंख्य भेड़ें काटी जाती थीं। एक लाख लोगों ने भागकर चिल्का झील में शरण ली थी काफिर हिन्दुओं के रक्त से सुल्तान ने इस द्घीप को रक्तपूर्ण कर दिया। बच्चों वाली गर्भवती स्त्रियों को हथकडिय़ों और बेडिय़ों से जकड़ दिया गया और हिंदुओं का पूर्णत: विनाश कर दिया गया।’’

हिन्दू सेना ने लिया प्रतिशोध

जब चारों ओर अमानवीयता और दानवता का तांडव नृत्य हो रहा था और सुल्तान हिन्दू का विनाश कर उसे मिटाने लगा हुआ था, तब कुछ देरी से पहुंची हिंदू सेना ने प्रतिरोध और प्रतिशोध की ऐसी होली मचाई कि सुल्तान जो कि दो वर्ष सात माह से लखनौटी और जगन्नाथपुरी में रह रहा था। हिंदू सेना की मारामारी से इतना भयभीत हुआ कि मात्र 73 हाथियों और कुछ सैनिकों के साथ राजधानी दिल्ली की ओर भाग लिया, आक्रमण और हिंदू प्रतिरोध इतना भारी था कि सुल्तान को यह आक्रमण एक आक्रमण ना दीखकर भारी और ऐसी विनाशकारी आंधी जैसा लगा जिसमें आंखों में धूल भर जाने से व्यक्ति मार्ग तक भूल जाता है। अफीफ लिखता है-‘‘मार्गदर्शक मार्ग भूल गये सेना पहाड़ों पर चढ़ती-उतरती थक कर चूर हो गयी। न रास्ता मिलता था, न दाना। छह महीने तक सुल्तान का कोई भी समाचार दिल्ली नही पहुंचा (अर्थात कोई सूचना देने या लेने वाला भी नही रहा) छह माह के पश्चात जब वह दिल्ली पहुंचा तो उसने खुदा का शुक्रिया अदा किया।’’

जगन्नाथपुरी के मंदिर के विषय में

यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि जगन्नाथपुरी उड़ीसा का प्रसिद्घ मंदिर अपने निर्माण काल से ही संपूर्ण देशवासियों के लिए श्रद्घा और सम्मान का पात्र रहा है। कभी यहां बौद्घ मंदिर था। जिसके जीर्ण-शीर्ण होने पर ययाति केसरी नामक राजा ने यहां नौवीं शताब्दी में श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण कराया। कालांतर में गंगदेव चौड़ ने 12वीं शताब्दी में उसे और भी अधिक भव्यता प्रदान की। राजा अनंग भीमदेव ने भी 12वीं शताब्दी के अंत में इस मंदिर को और भव्य बनाने में राजकीय सहयोग प्रदान किया। इस प्रकार राजकीय संरक्षण मिलने से जगन्नाथपुरी का मंदिर हिंदू समाज के लिए बहुत ही श्रद्घेय हो गया था।

इस मंदिर को काला पहाड़ (जो धर्मांतरित मुसलमान था) ने भी अपने प्रतिशोध और क्रोध का भाजन बनाया था, उसके पश्चात भी एक नही अनेक बार इस मंदिर का विध्वंस किया गया, परंतु हिंदुओं की आस्था विनाश पर प्रबल रही और विध्वंस किये गये मंदिर का पुन: पुन: उद्घार किया जाता रहा।

हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार इस क्षेत्र का नाम उड्डियन पीठ था (उसी से उड़ीसा शब्द बना) और कालांतर में इसे शंख क्षेत्र भी कहा गया। 1122 और 1137 ई. में यहां आचार्य रामानुज भी पधारे थे।

इतना गौरवपूर्ण अतीत जिस जगन्नाथपुरी का रहा, उसकी रक्षा के लिए हिंदू सेना का गठन किया जाना हिंदुओं के लिए अनिवार्य था, इसलिए हिंदू सेना में अपने प्रबल आक्रमण से सुल्तान की शाही सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। इस प्रकार बंगाल और उड़ीसा का सुल्तान का अभियान असफल ही रहा।

नगरकोट पर आक्रमण (1360 ई.)

मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में नगरकोट ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। नगरकोट के निवासियों की स्वतंत्रता की ऐसी भावना सुल्तान को शूल की भांति चुभ रही थी। अत: वह नगरकोट की जनता को उसकी करनी का दण्ड देना चाहता था। फलस्वरूप 1360 ई. में उसने नगरकोट पर आक्रमण कर दिया। जिससे कि नगरकोट कांगड़ा हिमाचल के हिदुओं की स्वतंत्रता प्रेमी भावना को समूल नष्ट किया जा सके।

इतिहासकार फरिश्ता लिखता है-‘‘सुल्तान ने यहां के प्रसिद्घ ज्वालामुखी मंदिर की प्रतिमा को चूर-चूर कर कटी हुई गायों के मांस में मिला दिया और इस मिश्रण को नगर के सभी ब्राह्मणों की नाक के पास बांध  प्रधान प्रतिमा को उपहार स्वरूप मदीना भेज दिया।’’

नगरकोट कांगड़ा मध्यकालीन भारत के सबसे सुदृढ़ दुर्गों में से एक था। मुहम्मद तुगलक के शासन काल के अंतिम वर्षों में नगरकोट के राजा ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। उसे पुन: अपने अधीन बनाने के लिए फीरोज ने सन 1360 ई. में आक्रमण कर दिया। यह भी संभव है कि नगरकोट के सुविख्यात ज्वालामुखी के मंदिर ने, जहां प्रतिवर्ष असंख्य हिंदू तीर्थ यात्री जाया करते थे और मूर्ति पर बहुमूल्य भेंट चढ़ाते थे, धर्मांध फीरोज को आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया हो। सुल्तान ने नगरकोट को घेर लिया और लगभग छह माह तक घेरा डाले रहा। प्रदेश की खूब लूटमार की गयी और ज्वालामुखी के मंदिर को ध्वस्त किया गया।

छह माह के घेरे के पश्चात अंत में नगरकोट के शासक ने आत्मसमर्पण कर दिया।

(संदर्भ: तुगलक कालीन भारत)

अधिकांश इतिहासकारों ने नगरकोट पर सुल्तान के  आक्रमण की परिणति पर यही निष्कर्ष निकाला है किवह स्वयं भी छह माह तक डेरा डाले रखकर दुखी हो लिया था और हिंदू राजा के आत्मसमर्पण के पश्चात उसने किले पर अधिकार न करके यहां से सम्मानपूर्वक निकल जाना ही उचित समझा। उसने राजा को मैत्रीपूर्ण अधीनता में लाना ही समयानुकूल समझा। इसके पीछे सुल्तान को हिन्दू प्रतिरोध का भय था। वह नही चाहता था कि हिंदू राजा को पुन: एक चुनौती बनने का अवसर प्रदान किया जाए, इसलिए आत्मतुष्टि के लिए प्रसन्न होकर सुल्तान दिल्ली लौट गया। इससे स्पष्ट है कि जाजनगर और नगरकोट अभियानों से सुल्तान को कोई लाभ नही हुआ, क्षति अवश्य उठानी पड़ी। इसका परिणाम ये आया कि सुल्तान जहां कहीं और अपने विजय अभियान चला सकता था, नही चला पाया या चलाये भी तो उन पर जाजनगर और नगरकोट का मनोवैज्ञानिक प्रभाव रहा।

हिन्दू शासक रूपचंद

जिस समय नगरकोट पर फीरोज तुगलक ने आक्रमण किया था, उस समय वहां का शासक रूपचंद था। रूपचंद  के विषय में अफीफ हमें बताता है कि उसने स्वयं को दुर्ग में सुरक्षित कर लिया था। किले की घेराबंदी के विषय में अफीफ लिखता है-

‘‘घेरे पर घेरे अपितु दस घेरे डाल दिये गये। दोनों ओर से मंजनीकें लग गयीं तथा अरादे द्वारा पत्थर चलने लगे। मंजनीक के पल्लों से दोनों ओर से पत्थर हवा में धक्के खाते थे और चूर्ण हो जाते थे। छह मास तक सुल्तान फीरोजशाह की सेना किले को घेरे रही। दोनों ओर के पहलवान तथा वीर अपनी-अपनी शक्ति आजमाते थे।’’

वास्तविकता कुछ और थी

कहानी चाहे जो रही, परंतु वास्तविकता ये थी कि नगरकोट का दुर्ग इतना सुदृढ़ था कि उसे जीत पाना संभव नही था। इसलिए सुल्तान का कैसे ही सम्मान सुरक्षित रह जाए, इसलिए ऐसी कहानी गढऩे का कार्य किया गया कि जिससे हिंदू शासक की दुर्बलता झलके और सुल्तान उस पर भारी दिखाई दे। इस बात की पुष्टि ‘शशफतेह-ए-कांगड़ा’ का लेखक यह कहकर करता है कि सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक से लेकर अब तक (अकबर के शासन काल तक) बड़े-बड़े शक्तिशाली शासकों ने इस दुर्ग पर 52 बार घेरा डाला किंतु कोई इसे जीत नही सका।’’

इलियट: खण्ड 6, आगरा 1971 पृष्ठ-394, से स्पष्ट होता है कि सुल्तान को नगरकोट अभियान में असफलता ही मिली और राजा से भेंट हो जाने को ही उसने पर्याप्त मान लिया।

इस प्रकार स्पष्ट है कि नगरकोट अपनी स्वतंत्रता को बचाये रखने में सफल रहा था।

इटावा के चौहानों का स्वतंत्रता संग्राम

फीरोज शाह तुगलक के काल में जनता की भावनाओं का नेतृत्व छोटे-छोटे मुखिया मुकद्दम लोगों तक के हाथ में पहुंच गया था। स्वतंत्रता की ज्योति को जलाये रखने के लिए जहां जैसे बन पड़ता, लोग अपने मुखिया के नेतृत्व में एकत्र होते और स्वतंत्रता संघर्ष आरंभ कर देते। इटावा के चौहानों का स्वतंत्रता   संग्राम छोटे-छोटे सामंतों का संग्राम था, जिनके पीछे जनबल खड़ा था-जब हर व्यक्ति  अपने आप में एक सैनिक बन जाए। स्मरण रहे कि वीर सावरकर ने इसी भावना से हिंदुओं के सैनिकीकरण की बात कही थी। जब प्रत्येक व्यक्ति सैनिक बन जाता है, तो नेता खोजने की आवश्यकता नही पड़ती है, नेता वहीं उत्पन्न हो जाता है जहां दस बीस या सौ पचास सैनिक उपस्थित हों। उनका लक्ष्य होता है-स्वतंत्रता प्राप्ति। इसलिए वे पद या नेतृत्व के प्रश्न पर नही लड़ते अपितु अपने शत्रु के विरूद्घ एकमत और एकजुट होकर लड़ते हैं। हमारे 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम की अनूठी बात है ये। जिसे एक बार नही कितनी ही बार अब से पूर्व हमारी वीर स्वतंत्रता प्रेमी हिन्दू जनता ने सिद्घ किया था। अब बारी थी-इटावा के चौहानों की।

.….जो बन गये मटकी का पानी

अपने मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानियों की बलिदानी परंपरा को देखकर जो प्रसन्नता होती है, उस पर एक दृष्टांत उपस्थित करना उपयुक्त समझता हूं। कहते हैं कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने एक दिन अपने महाबुद्घिमान परंतु कुरूप प्रधानमंत्री चाणक्य से कहा कितना अच्छा होता यदि आप गुणवान होने के साथ-साथ रूपवान भी होते।

सम्राट की यह बात पास ही खड़ी महारानी ने भी सुनी और इससे पूर्व कि चाणक्य सम्राट को कोई उत्तर देते रानी ने स्थिति को संभालते हुए कहा-

‘‘रूप तो मृगतृष्णा है, व्यक्ति की पहचान तो उसके बौद्घिक कौशल और गुणों से होती है। रूप से व्यक्तित्व की पहचान कदापि नही हो सकती।’’

सम्राट ने रानी की ओर आश्चर्य से देखते हुए कहा-‘‘आप स्वयं कितनी रूपवती हैं, पुनश्च आपके मुख से मैं ये क्या सुन रहा हूं? आप कैसी बातें कर रही हैं?’’

तत्पश्चात सम्राट ने महारानी से प्रश्न करते हुए कहा-‘‘क्या संसार में ऐसा कोई उदाहरण है जहां गुण के समक्ष रूप नीरस जान पड़े।’’

इस पर महामति चाणक्य ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-‘महाराज, ऐसे तो अनेकों उदाहरण हैं।’

चाणक्य ने कहा-‘‘पहले आप थोड़ा जल लेकर आंतरिक शांति का अनुभव करें, तब बात करेंगे।’’ चाणक्य ने सम्राट को दो गिलास बारी-बारी से अलग-अलग पात्रों का जल पिलाया। तब चाणक्य ने  सम्राट से कहा-‘‘महाराज! पहले गिलास का पानी इस सोने के घड़े का था, और दूसरे गिलास का पानी इस काली मिट्टी की मटकी का था। अब आप बतावें, किस गिलास का पानी आपको मीठा और रूचिकर लगा?’’ सम्राट ने चाणक्य की बात का उत्तर देते हुए कहा-‘‘हे महामते! मटकी के जल से भरे गिलास का जल अधिक शीतल, रूचिकर और तृप्तिदायक लगा।’’

निकट ही खड़ी महारानी ने चाणक्य के बुद्घि चातुर्य को समझकर सम्राट से कहा-‘‘महाराज! हमारे प्रधानमंत्री ने अपने बुद्घि चातुर्य से आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया है। भला यह सोने का सुंदर घड़ा किस काम का, जिसका जल बेस्वाद लगता है। जबकि काली मिट्टी से बनी यह मटकी कुरूप होते हुए भी जल की गरिमा बढ़ाने वाली है, इसमें गुण छिपे हैं जिससे पानी को पीकर तृप्ति मिलती है। अब आप ही बतलावें कि बड़ा कौन है?’’

राजा की समझ में आ गया था कि रानी क्या कहना चाहती है?

हमारे स्वतंत्रता सेनानी मध्यकाल में ‘मटकी का पानी’ ही बन गये थे, जिसे पीकर इस देश की आत्मा को तृप्ति मिली और हमें स्वतंत्रता मिली। अस्तु।