गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

वैलेंटाइन डे की कथा

वैलेंटाइन डे की कथा

मित्रो यूरोप (और अमेरिका) का समाज जो है वो रखैलों (Kept) में विश्वास करता है पत्नियों में नहीं, यूरोप और अमेरिका में आपको शायद ही ऐसा कोई पुरुष या मिहला मिले जिसकी एक शादी हुई हो, जिनका एक पुरुष से या एक स्त्री से सम्बन्ध रहा हो और ये एक दो नहीं हजारों साल की परम्परा है उनके यहाँ | आपने एक शब्द सुना होगा "Live in Relationship" ये शब्द आज कल हमारे देश में भी नव-अिभजात्य वगर् में चल रहा है, इसका मतलब होता है कि "बिना शादी के पती-पत्नी की तरह से रहना" | तो उनके यहाँ, मतलब यूरोप और अमेरिका में ये परंपरा आज भी चलती है.

खुद प्लेटो (एक यूरोपीय दार्शनिक) का एक स्त्री से सम्बन्ध नहीं रहा, प्लेटो ने लिखा है कि "मेरा 20-22 स्त्रीयों से सम्बन्ध रहा है" अरस्तु भी यही कहता है, देकातेर् भी यही कहता है, और रूसो ने तो अपनी आत्मकथा में लिखा है कि "एक स्त्री के साथ रहना, ये तो कभी संभव ही नहीं हो सकता, It's Highly Impossible"| तो वहां एक पत्नि जैसा कुछ होता नहीं | और इन सभी महान दार्शनिकों का तो कहना है कि "स्त्री में तो आत्मा ही नहीं होती" "स्त्री तो मेज और कुर्सी के समान हैं, जब पुराने से मन भर गया तो पुराना हटा के नया ले आये " | तो बीच-बीच में यूरोप में कुछ-कुछ ऐसे लोग निकले जिन्होंने इन बातों का विरोध किया और इन रहन-सहन की व्यवस्थाओं पर कड़ी टिप्पणी की | उन कुछ लोगों में से एक ऐसे ही यूरोपियन व्यक्ति थे जो आज से लगभग 1500 साल पहले पैदा हुए, उनका नाम था - वैलेंटाइन | और ये कहानी है 478 AD (after death) की, यानि ईशा की मृत्यु के बाद |

उस वैलेंटाइन नाम के महापुरुष का कहना था कि "हम लोग (यूरोप के लोग) जो शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं कुत्तों की तरह से, जानवरों की तरह से, ये अच्छा नहीं है, इससे सेक्स-जनित रोग (veneral disease) होते हैं, इनको सुधारो, एक पति-एक पत्नी के साथ रहो, विवाह कर के रहो, शारीरिक संबंधो को उसके बाद ही शुरू करो" ऐसी-ऐसी बातें वो करते थे और वो वैलेंटाइन महाशय उन सभी लोगों को ये सब सिखाते थे, बताते थे, जो उनके पास आते थे, रोज उनका भाषण यही चलता था रोम में घूम-घूम कर |

संयोग से वो चर्च के पादरी हो गए तो चर्च में आने वाले हर व्यक्ति को यही बताते थे, तो लोग उनसे पूछते थे कि ये वायरस आप में कहाँ से घुस गया, ये तो हमारे यूरोप में कहीं नहीं है, तो वो कहते थे कि "आजकल मैं भारतीय सभ्यता और दशर्न का अध्ययन कर रहा हूँ, और मुझे लगता है कि वो परफेक्ट है, और इसिलए मैं चाहता हूँ कि आप लोग इसे मानो", तो कुछ लोग उनकी बात को मानते थे, तो जो लोग उनकी बात को मानते थे, उनकी शादियाँ वो चर्च में कराते थे और एक-दो नहीं उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई थी |

जिस समय वैलेंटाइन हुए, उस समय रोम का राजा था क्लौड़ीयस, क्लौड़ीयस ने कहा कि "ये जो आदमी है-वैलेंटाइन, ये हमारे यूरोप की परंपरा को बिगाड़ रहा है, हम बिना शादी के रहने वाले लोग हैं, मौज-मजे में डूबे रहने वाले लोग हैं, और ये शादियाँ करवाता फ़िर रहा है, ये तो अपसंस्कृति फैला रहा है, हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है", तो क्लौड़ीयस ने आदेश दिया कि "जाओ वैलेंटाइन को पकड़ के लाओ ", तो उसके सैनिक वैलेंटाइन को पकड़ के ले आये |

क्लौड़ीयस नेवैलेंटाइन से कहा कि "ये तुम क्या गलत काम कर रहे हो ? तुम अधमर् फैला रहे हो, अपसंस्कृति ला रहे हो" तो वैलेंटाइन ने कहा कि "मुझे लगता है कि ये ठीक है" , क्लौड़ीयस ने उसकी एक बात न सुनी और उसने वैलेंटाइन को फाँसी की सजा दे दी, आरोप क्या था कि वो बच्चों की शादियाँ कराते थे, मतलब शादी करना जुर्म था | क्लौड़ीयस ने उन सभी बच्चों को बुलाया, जिनकी शादी वैलेंटाइन ने करवाई थी और उन सभी के सामने वैलेंटाइन को 14 फ़रवरी 498 ईःवी को फाँसी दे दिया गया |

पता नहीं आप में से कितने लोगों को मालूम है कि पूरे यूरोप में 1950 ईःवी तक खुले मैदान में, सावर्जानिक तौर पर फाँसी देने की परंपरा थी | तो जिन बच्चों ने वैलेंटाइन के कहने पर शादी की थी वो बहुत दुखी हुए और उन सब ने उस वैलेंटाइन की दुखद याद में 14 फ़रवरी को वैलेंटाइन डे मनाना शुरू किया तो उस दिन से यूरोप में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है | मतलब ये हुआ कि वैलेंटाइन, जो कि यूरोप में शादियाँ करवाते फ़िरते थे, चूकी राजा ने उनको फाँसी की सजा दे दी, तो उनकी याद में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है | ये था वैलेंटाइन डे का इतिहास और इसके पीछे का आधार |

अब यही वैलेंटाइन डे भारत आ गया है जहाँ शादी होना एकदम सामान्य बात है यहाँ तो कोई बिना शादी के घूमता हो तो अद्भुत या अचरज लगे लेकिन यूरोप में शादी होना ही सबसे असामान्य बात है | अब ये वैलेंटाइन डे हमारे स्कूलों में कॉलजों में आ गया है और बड़े धूम-धाम से मनाया जा रहा है और हमारे यहाँ के लड़के-लड़िकयां बिना सोचे-समझे एक दुसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं
और जो कार्ड होता है उसमे लिखा होता है " Would You Be My Valentine" जिसका मतलब होता है "क्या आप मुझसे शादी करेंगे" | मतलब तो किसी को मालूम होता नहीं है, वो समझते हैं कि जिससे हम प्यार करते हैं उन्हें ये कार्ड देना चाहिए तो वो इसी कार्ड को अपने मम्मी-पापा को भी दे देते हैं, दादा-दादी को भी दे देते हैं और एक दो नहीं दस-बीस लोगों को ये ही कार्ड वो दे देते हैं |

और इस धंधे में बड़ी-बड़ी कंपिनयाँ लग गयी हैं जिनको कार्ड बेचना है, जिनको गिफ्ट बेचना है, जिनको चाकलेट बेचनी हैं और टेलीविजन चैनल वालों ने इसका धुआधार प्रचार कर दिया | ये सब लिखने के पीछे का उद्देँशय यही है कि नक़ल आप करें तो उसमे अकल भी लगा लिया करें | उनके यहाँ साधारणतया शादियाँ नहीं होती है और जो शादी करते हैं वो वैलेंटाइन डे मनाते हैं लेकिन हम भारत में क्यों ??????

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

वसंतोत्सव

वसंतोत्सव

वसंत की शीतोष्ण वायु जैसे ही तन मन का स्पर्श करती है, समस्त मानवता शीत की ठिठुरी चादर छोड़ कर हर्षोल्लास मनाने लगती है। वैदिक काल से वर्तमान काल तक प्रत्येक युग के भारतीय साहित्य में वसंत के मनबहलावों का मनोरंजक वर्णन प्राप्त होता है। इनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में वसंत में 'वन विहार' 'झूला दोलन', (झूले पर झूलना), 'फूलों का शृंगार' और 'मदन उत्सव' मनाने की अदभुत परंपरा थी।

'अवदान कल्पलता' नामक ग्रंथ में वाराणसी के राजा कलभु के सपरिवार वसंतकालीन - विहार और वन केलि का वर्णन है। कहा गया है कि वह देर तक क्रीडा कौतुक कर, थक कर सो गया। इसी बीच उसकी प्रिय रानी मंजरी फूल तोड़ती हुई दूर निकल गयी। वहाँ महामुनि क्षांतिवादिन तपस्या कर रहे थे। उन्हें देख कर वह ठगी-सी रह गई। तभी राजा उसे ढूँढता हुआ वहाँ आ पहुँचा और रानी को उस अवस्था में देखकर क्रोध से पागल हो गया। उसने मुनि के हाथ पैर कटवा दिए। फलस्वरूप राज्य में भारी अकाल पड़ा। बाद में मुनि ने राजा को इस आपत्ति से उबारा।

'पिंड नियुक्ति' में चंद्रानना नगरी के राजा चंद्रवतंस के वसंत विहार के संबंध में एक रोचक कथा मिलती है। नगरी के पूर्व तथा पश्चिम में सूर्योदय तथा चंद्रोदय नाम के दो बगीचे थे। राजा ने वसंत काल में क्रीडा कौतुक के अभिप्राय से सूर्योदय उद्यान में विहार का निश्चय कर के घोषणा करवाई कि उस दिन नागरिक सूर्योदय उद्यान में न जाएँ। सूर्योदय उद्यान पर पहरे लगा दिए गए। रात में अचानक राजा को प्रात:कालीन धूप का ख्याल आया अत: यात्रा का कार्यक्रम सूर्योदय उद्यान के स्थान पर चंद्रोदय उद्यान में परिवर्तित कर दिया गया।

चंद्रोदय उद्यान में अंत:पुर की रानियों को राजा के साथ क्रीडा कौतुक करते हुए अनजाने ही अनेक नागरिकों ने देख लिया। इन नागरिकों को पहरेदारों ने पकड़ लिया। दूसरी ओर कुछ नागरिक जो पहले ही सूर्योदय उद्यान में राजा के क्रीडा कौतुक को देखने जा छिपे थे, वे भी पकड़ लिए गए। अंत में जिन्होंने राजाज्ञा का उल्लंघन किया था वे दंडित किए गए, शेष छोड़ दिए गए।

जातक ग्रंथों में राजा शुद्धोदन की रानियों द्वारा लुंबिनी उद्यान में शालभंजिका पर्व मनाने का बड़ा सुंदर वर्णन है। कपिलवस्तु और देवदह नगरों के बीच सघन शालवन में वसंत के स्पर्श के कारण प्रत्येक पत्र और पुष्प में सिहरन हो रही थी। हर शाख नवपल्लवित किसलय व पुष्पों से झुक गई थी। ऐसा मोहक दृष्य देख देवियाँ रह न सकीं और महादेवी सहेलियों सहित वसंत विहार को निकलीं। एक मंगलमय शाल वृक्ष की टहनी को पकड़ने के लिए उन्होंने हाथ उठाया तो वह स्वयं ही झुक गई। महादेवी ने उसे थाम लिया। ऐसी अवस्था में महादेवी को प्रसव पीड़ा का अनुभव हुआ।

'शिशुपाल वध' महाकाव्य में रैवतक पर्वत पर यादवों की वन केलि का खूब विस्तृत वर्णन है। 'नाया धम्म कहाओ' नामक प्राकृत भाषा के ग्रंथ में चंपा नगरी के दो संपन्न व्यापारी पुत्रों जिनदत्त और सागर दत्त की देवदत्ता नामक अत्यंत सुंदर और संपन्न गणिका के साथ उद्यान यात्रा का विस्तृत और शृंगारिक वर्णन है।

'पद्मचूड़ामणि' में कुमार गौतम की रनिवास सहित उद्यान यात्रा का मनोरम वर्णन मिलता है। संक्षेप में- मन बहलाव के लिये स्त्रियाँ कभी फूल पत्तियाँ चुनतीं, कभी उनके गहने बनातीं, कभी अशोक पर पैरों से प्रहार करतीं और कभी मौलश्री पर सुरा के कुल्ले करतीं। कभी केशों को फूलों से सजातीं, आम की कोपलें तोड़तीं, शेफाली और सिंदुवार के तिलक लगातीं ओर कभी प्रियतम के कानों में फूल खोंस कर उसे हृदय से लगातीं।

'जैन हरिवंश' का कथन है कि उद्यान यात्राएँ वन विहार और सैर सपाटे प्राय:वसंत काल में ही होते थे, जबकि स्त्री पुरुष एक साथ एकत्र होकर मद्यपान करते थे। फूलों को चुनने और सजाने से संबंधित अनेक प्रकार के वसंतकालीन मनोरंजन भारतीय साहित्य में मिलते हैं।

कलिदास के 'मालविकाग्निमित्र' नाटक में महादेवी धारिणी ने मालविका को पाँव के प्रहार से अशोक वृक्ष को पल्लवित कुसुमित करने का कार्य सौंपा और सफल हो जाने पर मुँह माँगा पुरस्कार देने का वचन दिया।

बाणभट्ट की 'कादंबरी' में कादंबरी अपनी सखियों से कहती है कि जिस अशोक वृक्ष को लात मार कर मैंने पाला था उसकी कोपलें कोई न तोड़े।

'पद्मपुराण के उत्तरखंड में 'कुंकुम क्रीडा' का वर्णन हुआ है। कश्मीर की प्रशंसा में कहा गया है कि केसर की प्रचुर उपज होने के कारण वहाँ घर के आँगनों में केसर इस प्रकार उड़ता है कि उनसे सूर्य और चंद्र मंडल भी लाल हो जाते हैं।

जैनों के 'उत्तर पुराण' में वसंतकाल में झूले पर झूल कर मन बहलाने का वर्णन मिलता है। 'जैनहरिवंश' में लिखा गया है कि झूलते समय नागरिक हिंदोल राग गाते थे।

'कुमार पाल चरित' में 'दोला उत्सव' का सजीव और शृंगारिक वर्णन है - एक ही झूले पर बैठ कर पति पत्नी बेधड़क गीत गा रहे थे। स्त्रियाँ मदमत्त थीं, उनके नूपुर झूले की गति के साथ बज रहे थे। जब कभी वे अपने पैरों से अशोक वृक्षों को छू देतीं उनकी कलियाँ खिलने लगतीं।

संस्कृत साहित्य में माघ शुक्ला पंचमी को मदनोत्सव के रूप में मनाए जाने के सुंदर वर्णन मिलते हैं। श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका में मदनोत्सव का बड़ा ही सजीव वर्णन है। नागरिकों ने इतना अधिक सुगंधित केसर और कुंकुम बिखराया कि संपूर्ण नगर सोने सा पीला हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि छठी शताब्दी से ही उत्तर भारत में मदनोत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा था। इसको मनाते समय लोग वय, लिंग और सामाजिक स्थिति को भुला देते थे। केशों को पुष्पों से सजा कर वे हल्दी चावल और कुंकुम का चूर्ण बिखराते तथा रंग खेलते।

भास के 'चास्र्दत्त' नाटक में 'कामदेवानुयान' नामक एक जलूस का वर्णन है, जिसमें कामदेव के एक चित्र के साथ संगीत नृत्य करते हुए अनेक नागरिक सम्मिलित होते हैं।

राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' और भोजराज के 'सरस्वती कंठाभरण' में माघ शुक्ला पंचमी के दिन मनाए जाने वाले सुवसंतक या मदनोत्सव का उल्लेख मिलता है। इन वर्णनों में पिचकारी से रंग डालने और कीचड़ फेंकने के वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान होली जैसा उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता था और तब से रंग और गुलाल का यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा तक चलता रहता था।

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

हिन्दू राष्ट्रनीति के उन्नायक - छत्रपति शिवाजी महाराज

हिंदू राष्ट्रनीति के उन्नायक - छत्रपति शिवाजी महाराज


हिंदू पद पादशाही के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को हुआ था। यह अजीब संयोग है कि 19 फरवरी को शिवाजी का जन्मदिवस है तो 20 फरवरी (1707) औरंगजेब का मृत्यु  है। आजीवन औरंगजेब को नाकों चने चबाने वाले शिवाजी महाराज के कारण ही मुगल साम्राज्य की नींव हिली और औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात ये साम्राज्य भर भराकर गिरने लगा।
हिंदू राष्ट्रनीति के उन्नायक:
शिवाजी महाराज हिंदू राष्ट्रनीति के उन्नायक थे। बाद में चलकर वीर सावरकर ने राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण का जो मंत्र हिंदू राष्ट्रनीति (राजनीति नही) का मूल आधार घोषित किया वह चिंतन वास्तव में उन्हें शिवाजी महाराज से मिला था। शिवाजी महाराज ने अपने राज्याभिषेक (6 जून 1674) के अवसर पर हिंदू पद पादशाही की घोषणा की थी। वह देश में हिंदू राजनीति को स्थापित कर देश से विदेशियों को खदेड़ देना चाहते थे। उनकी राजनीति का मूल आधार नीति, बुद्घि तथा मर्यादा-ये तीन बिंदु थे। रामायण, महाभारत, तथा शुक्रनीतिसार का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया था। इसलिए अपने राज्य को उन्होंने इन्हीं तीनों महान ग्रंथों में उल्लेखित राजधर्म के आधार पर स्थापित करने का पुरूषार्थ किया। वह राष्ट्रनीति में मानवतावाद को ही राष्ट्रधर्म स्वीकार करते थे। शुक्र नीति में तथा रामायण व महाभारत में राजा के लिए 8 मंत्रियों की मंत्रिपरिषद का उल्लेख आता है। इसलिए शिवाजी महाराज ने भी अपने राज्य में 8 मंत्रियों का मंत्रिमंडल गठित किया था। अष्टप्रधान,
मंत्रिमंडल इस प्रकार का था-
पेशवा-मुख्य प्रधान या मंत्री
मुजुमदार-आमात्य
सुरनिस-सचिव
वाकनिक-मंत्री
सरनौबत-सेनापति
दुबीर-सुमंत
न्यायाधीश-प्राड़विवाक, जज
पंडित राव-धर्माधिकारी या दानाध्यक्ष। शेजवलकर का मानना है कि ये अष्टï प्रधान की कल्पना शिवाजी ने ‘शुक्रनीतिसार’ से ही ली थी, क्योंकि उन्हें इस ग्रंथ का पता था। ऐसे ग्रंथों को आधार बनाकर ही हिंदू पद पादशाही की कल्पना की जा सकती है।
इतिहासकारों की मक्कारी
अंग्रेज इतिहासकारों व मुस्लिम इतिहास कारों ने शिवाजी को अपना सांझा शत्रु माना है। इसलिए उन्होंने शिवाजी को औरंगजेब की नजरों से देखते हुए पहाड़ी चूहा या एक लुटेरा सिद्घ करने का प्रयास किया है। अत्यंत दुख की बात ये रही है कि इन्हीं इतिहास कारों की नकल करते हुए कम्युनिस्ट और कांग्रेसी इतिहासकारों ने भी शिवाजी के साथ न्याय नही किया। छल, छदम के द्वारा कलम व ईमान बेच देने वाले इतिहासकारों ने शिवाजी के द्वारा हिंदू राष्ट्रनीति के पुनरूत्थान के लिए जो कुछ महान कार्य किया गया उसे मराठा शक्ति का पुनरूत्थान कहा गया ना कि हिंदू शक्ति का पुनरूत्थान। ऐसे ही हमें पंजाब में सिख शक्ति का उत्थान होता दिखाया जाता है, जबकि हिंद की चादर कहे जाने वाले गुरूओं का मंतव्य उस समय हिंदुत्व की रक्षा के लिए स्वयं को और अपने शिष्यों (सिक्खों) को सौंप देना था। स्वार्थी इतिहासकारों का मंतव्य तभी पूर्ण हो सकता था जब हमें टुकड़ों में (मराठा, राजपूत, गुर्जर, सिक्ख आदि) दिखाया जाता है।
यदि ये लोग हिंदू समाज के लिए इन सारे प्रयासों को जागरण के रूप में पेश करते तो उनका यह कार्य तत्कालीन राजसत्ताओं के लिए कष्ट कर हो सकता था।
शिवाजी की नीति
शिवाजी की नीति धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करने की थी। खानखां जैसे इतिहास कार ने भी उनके लिए ये कहा है कि शिवाजी के राज्य में किसी अहिंदू महिला के साथ कभी कोई अभद्रता नही की गयी। उन्होंने एक बार कुरान की एक प्रति कहीं गिरी देखी तो अपने एक मुस्लिम सिपाही को बड़े प्यार से दे दी। याकूत नाम के एक पीर ने उन्हें अपनी दाढ़ी का बाल प्रेमवश दे दिया तो उसे उन्होंने ताबीज के रूप में बांह पर बांध लिया। साथ ही बदले में उस मुस्लिम फकीर को एक जमीन का टुकड़ा दे दिया। ऐसी ही स्थिति उनकी हिंदुओं के मंदिरों के प्रति थी। वह काल वोट की राजनीति का काल नही था, इसलिए कहीं कोई तुष्टिïकरण नही था, कहीं उनके राज्य में किसी का अनुचित उत्पीडऩ नही था। यही था वास्तविक धर्मनिरपेक्ष राज्य। आज की राजनीति तो इस राज्य का अर्थ ही नही समझ पायी है।
शिवाजी की इस नीति की प्रशंसा कई इतिहासकारों ने की है, और ये माना है कि शिवाजी की इस प्रकार की नीति के कारण ही उनके खिलाफ कभी उनके किसी मुस्लिम सिपाही ने बगावत नही की।
शुद्घि पर बल दिया
शिवाजी का मुस्लिम प्रेम अपनी प्रजा के प्रति एक राजा द्वारा जैसा होना चाहिए, उस सीमा तकराष्ट्रधर्म के अनुरूप था। इसका अभिप्राय कोई तुष्टिकरण नही था। इसी आदर्श को कालांतर में सावरकर ने हिंदू राज्य में स्थापित करने पर बल दिया। शिवाजी इसके उपरांत भी हिंदू संगठन पर विशेष बल देते थे। इसलिए उन्होंने निम्बालकर जैसे प्रतिष्ठित हिंदू को मुसलमान बनने पर पुन: हिंदू बनाकर शुद्घ किया। साथ ही निम्बालकर के लड़के को अपनी लड़की ब्याह दी। नेताजी पालेकर को 8 वर्ष मुस्लिम बने हो गये थे-शिवाजी ने उन्हें भी शुद्घ कराया और पुन: हिंदू धर्म में लाए। ऐसे और भी कितने ही उदाहरण उनके विषय में दिये जा सकते हैं।
शिवाजी का बौद्घिक चातुर्य
राजा जय सिंह की विश्वासघात भरी बातों में फंसकर शिवाजी महाराज 1666 में आगरा स्थित औरंगजेब के लालकिले आ गये। उन्हें बहुत बड़े सम्मान का भरोसा जयसिंह की ओर से दिया गया था, लेकिन आगरा में ऐसा कुछ न पाकर शिवाजी को वास्तविकता को जानने में देर न लगी। औरंगजेब ने उन्हें पांच हजारी मनसबदारों की पंक्ति में बैठाने का निर्देश दिया। जिसे देखकर शिवाजी बिगड़ गये। इसके पश्चात उन्हें नजरबंद कर दिया गया। फिर औरंगजेब उन्हें मारने की योजना बनाने लगा। औरंगजेब के इस इरादे की सूचना राजा यशवंत सिंह के लड़के कुंवर रामसिंह ने शिवाजी को दे दी। तब शिवाजी ने बौद्घिक चातुर्य से काम लिया, पहले अपने को बीमार घोषित कराया फिर एक दिन स्वस्थ होने की खुशी में फल और मिठाई बांटने की आज्ञा बादशाह से प्राप्त की। अमीर उमरावों व बड़े-बड़े पदाधिकारियों को मिठाई भिजवाना आरंभ किया गया। बड़े-बड़े टोकरों में मिठाई भर-भरकर बाहर जाने लगी। जब दरबाजों पर टोकरों की रोक-टोक समाप्त हो गयी तब चुपके से अपने बेटे शम्भाजी को पहले एक टोकरे में बैठाकर बाहर निकाल दिया फिर स्वयं निकल गये और अपने बिस्तर में अपने एक हमशक्ल साथी को लिटा दिया और स्वयं बैरागी गुसाईयों की एक टोली के साथ दाढ़ी मूंछ कटाकर उनके साथ काशी के लिए चल दिये। काशी में एक मुगल सेनापति ने उक्त मंडली रोक ली। स्वयं को फिर फंसा देखकर यहां एक मुगल सैनिक से सांठगांठ की और उसे दो बेशकीमती हीरे देकर वहां से भी निकल भागे। ये था शिवाजी का बौद्घिक चातुर्य। ऐसा ही चातुर्य उन्होंने अफजल खां का वध करते समय 1659 में दिखाया था। कई इतिहासकारों ने उन पर यहां हत्या का आरोप लगाया है। लेकिन इस घटना का उल्लेख करते हुए मीर आलम लिखता है कि अफजलखां ने शिवाजी को बगलगीर करके मजबूती से पकड़ा और अपनी कटार से उस पर वार किया। शिवाजी ने पलटकर उस पर बाघनख और बिच से हमला किया। सरकार ने भी शिवाजी के कृत्य को आत्मरक्षा में उठाया गया कदम सिद्घ किया है। हिंदू राष्ट्रनीति का तकाजा भी यही है कि दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करो।
शिवाजी की मर्यादा
किसी भी मस्जिद को किसी सैनिक अभियान में शिवाजी ने नष्ट नही किया। इस बात को मुस्लिम इतिहासकारों ने भी खुले दिल से सराहा है। गोलकुण्डा के अभियान के समय शिवाजी को यह सूचना मिल गयी थी कि वहां का बादशाह शिवाजी के साथ संधि चाहता है, इसलिए उस राज्य में जाते ही शिवाजी ने अपनी सेना को आदेश दिया कि यहां लूटपाट न की जाए अपितु सारा सामान पैसे देकर ही खरीदा जाए। बादशाह को यह बात प्रभावित कर गयी। जब दोनों (राजा और बादशाह) मिले तो शिवाजी ने बड़े प्यार से बादशाह को गले लगा लिया। शिवाजी ने गौहरवानो नाम की मुस्लिम महिला को उसके परिवार में ससम्मान पहुंचाया। उनके मर्यादित और संयमित आचरण के ऐसे अनेकों उदाहरण हैं अपने बेटे सम्भाजी को भी एक लड़की से छींटाकशी करने के आरोप में सार्वजनिक रूप से दण्डित किया था।
शिवाजी क्योंकि हिंदू यह बादशाही के माध्यम से देश में ‘हिंदू राज्य’ स्थापित करना चाहते थे इसलिए उन्होंने हिंदू राष्ट्रनीति के उपरोक्त तीनों आधार स्तंभों (नीति, बुद्घि और मर्यादा) पर अपने जीवन को और अपने राज्य को खड़ा करने का प्रयास किया।
विशाल हिंदू राज्य के निर्माता
शिवाजी महाराज ने जनपद गौतमबुद्घ नगर को तहसील दादरी में स्थित एक बड़े मंदिर का जीर्णोद्घार कराया था। यह मंदिर आज भी है। ऐसे कार्य उन्होंने देश में अन्मत्र स्थानों पर भी बड़ी संख्या में कराये। उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित किया, परंतु युद्घों में लगातार रत रहने से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था और पचास वर्ष की आयु में 15 अप्रैल 1680 में वह चले गये। उनके पश्चात हिंदू शक्ति निरंतर मजबूत होती गयी और अठारहबीं शताब्दी के मध्य में जब अब्दाली और नादिरशाह के आक्रमणों से मुगल साम्राज्य हिला गया तो मराठों ने दिल्ली पर भी अधिकार कर लिया था। अठारहवीं शदी के उत्तरार्ध में और 1857 की क्रांति से 50-60 वर्ष पूर्व मराठा शक्ति हिंदू शक्ति के रूप में सबसे बड़ी शक्ति भारतवर्ष में थी। संबंद्घ चित्र में मराठा राज्य को देखकर यह अनुमान स्वयं लगाया जा सकता है। यह क्षेत्र लगभग अकबर के साम्राज्य से कुछ ही छोटा है। लेकिन यहां चाटुकारों ने अकबर को महान बताया है और शिवाजी को पहाड़ी चूहा कहा है। तथ्यों को झुठलाकर मूर्ख बनाने की इतिहासकारों यह प्रवृत्ति देश के लिए दुर्भाग्य पूर्ण है।
नोएडा में लगे भव्य प्रतिमा
शिवाजी के वंशजों ने आज के नोएडा, गौतमबुद्घ नगर, गाजियाबाद, बुलंदशहर, दिल्ली सारे एनसीआर पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था। नोएडा फिल्म सिटी सेंटर के पास स्थित गरूड़ध्वज (स्थानीय भाषा में गडग़ज) उन्हीं का विजय स्तंभ बताया जाता है। आज नोएडा इन ऐतिहासिक प्रमाणों को निगल रहा है और दम तोड़ते इस इतिहास की ओर किसी का ध्यान नही है। अच्छा हो कि ऐसे स्थानों पर शिवाजी महाराज की प्रतिमा लगाकर उन्हें सम्मान देकर इतिहास को सहेजने का कार्य किया जाए। आज की राजनीति को शिवाजी से बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है, उनके आदर्श जीवन और व्यवहार आज की दिशाहीन राजनीति सचमुच सही दिशा ले सकती है। इसीलिए उन्हें सावरकर ने अपना आदर्श माना था। उनकी जयंती के अवसर पर उनके व्यक्तिगत और कृतित्व का सही मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
सरकारी स्तर पर…
कि हम अंग्रेजों के सभी तंत्र को समाप्त कर अपना नया तंत्र बनाते। नये कानून बनाते। लेकिन जैसे अंग्रेज छोड़कर गये थे। उस शासन व्यवस्था पर हमारे काले अंग्रेजों ने शासन शुरू कर दी। जोकि अभी तक चल रही है। थानो से लेकर कार्यालय तक लूट मची हुई है। जिसको जहां मौका मिल रहा वहीं लूट का अध्याय शुरू हो जाता है। अंग्रेजी की समझ बहुत कम भारतीयों को है। उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय से लेकर उच्च स्तर पर सभी कार्य अंग्रेजी में हो रहे है। देश आजाद तो हुआ 1947 में लेकिन कानून 1860 के ही चल रहे है। और हमारी सरकारे कहती है कानून अंग्रेजों का है तो क्या हुआ शासन तो भारतीयों का है। अगर शासन भारतीयों का है तो फिर भारतीयों को उनके अधिकार क्यों नहीं दिये जा रहे। हम मनमोहन, प्रणब मुखर्जी और अपने देश के सरकार के हर उस शख्स से पूछना चाहते है कि बताओं इंटरनेट पर सभी सरकारी वेबसाइटे, देश के सभी कानून, देश की सभी व्यवस्था हिन्दी, तमिल, तेलुगु बोलने वाले के लिए है या 6 करोड़ की जनंसख्या वाले ब्रिटेन के लिए। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर सभी की वेबसाइटे पहले अंग्रेजी में क्यो खुलती है? और उसमें उपलब्ध दो तिहाई सामग्रियां आखिर हमारे देश की आठवीं अनुसूची में उपलब्ध भाषाओं में आखिर क्यों नहीं है। क्या सरकार सिर्फ अंग्रेजी भाषियों के लिए है या अन्यों के लिए भी। सैकड़ों प्रकार के टैक्स और शुल्क हिन्दी और अन्य आठवी अनुसूची भाषी देते है तो फिर सबके साथ ये अन्याय क्यो?

क्यों जबरदस्ती हमारे देश के होनहारों पर अंग्रेजी थोपी जा रही है। अभी कुछ समय पहले एक आई.ए.एस से मेरी हिन्दी अंग्रेजी को लेकर चर्चा हो रही थी। ये आइएएस महोदय अंग्रेजी के तारिफों के पुल बांधे जा रहे थे। फिर मैंने अंग्रेजी की एक कविता उन्हें दी और कहा इसका अर्थ बताइयें फिर क्या था, वह आइ.ए.एस. महोदय बगले झांकने लगे। भाषा जानना और उसकी आत्मा को समझना दो अलग पहलु है। हिन्दी हमारी आत्मा में बसती है। लेकिन अंग्रेजी को हम अनुवाद करके ही समझते है। हां अगर 1 अरब 25 करोण में एक से डेढ़ करोण लोग अच्छी अंग्रेजी वाले है भी तो उनकी वजह से 1 अरब 24 करोण लोगों पर अंग्रेजी थोपना प्रजातंत्र के सिद्धान्त के अनुसार क्या न्यायोचित माना जायेगा? जब देश के सबसे कठिन परीक्षा पास करने वाले अधिकारियों का ये हाल है तो फिर आम जनता की स्थिति का आंकलन स्वत: किया जा सकता है। आज भी सरकारी कार्यालयों में इतने नियम है कि उन्हें समझने के लिए सालों लग जाते है। भाषा के चलते आ रहे समस्याओं के समाधान हेतु राजभाषा नियम 1976 बनाया गया था लेकिन इसका समुचित अनुपालन आज तक नहीं हो पा रहा। आज भी हमारी सरकार की सभी वेबसाइटे अंग्रेजी की शोभा बढ़ा रही है। आखिर आम जनता अंग्रेजी को क्यो पढ़े। भाषा की समस्या ही मुख्य समस्या है इस देश में। देश में क्या हो रहा है उसकी समझ आम जनता के परे है। सब रट्टा मार प्रतियोगिता करने में भागे जा रहे हैं। हमारे बगल में चाइना दिन-दूनी रात चैगूनी कर रहा है और वहां सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है। जापान निरन्तर उन्नती कर रहा है और उसके यहां भी सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है और भी अनेको देश है जो निज भाषा का प्रयोग कर उन्नती की अग्रसर है। लेकिन हमारी सरकार का अंग्रेजी मोह नहीं छुट रहा। हमारे देश के होनहार बच्चों को अंग्रेजी की चक्की में पीसा जा रहा है। एक तरफ संभ्रान्त, रसूखदार और ऊँचे तबके के लोग शुरू से ही अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा की चक्की का आंटा खिला रहे है तो दूसरी तरफ हमारी केन्द्र सरकार संविधान की दुहाई देकर प्राथमिक स्तर तक बच्चों को अंग्रेजी नहीं पढ़ा रही। क्योंकि हमारे संविधान का अनुच्छेद 350 (क) में प्राविधान है कि- “प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालको को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्थाा करने का प्रयास करेगा।”

संविधान के अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के विकास के लिए निदेश दिये गये है और कहा गया है कि “संघ का कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।” लेकिन सीधा प्राविधान होने के बाद भी हमारी सरकारे आज तक अन्य भारतीय भाषाओं की उन्नति की जगह अंग्रेजी भाषा की उन्नती करती जा रही है। और ऐसा सिर्फ सरकारी मांग की वजह से हो रहा है। क्योंकि हमारी सरकार और उनके द्वारा बुलायी गयी हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनीय अंग्रेजी के जानकारों को खोज रही है। अत: हमारी जनता भी अंग्रेजी के पीछे दीवाना हो चुकी है। अगर आजादी पश्चात् ही आठवी अनुसूची की भाषाओं में ही कार्य किया जाता तो ऐसी स्थिति नहीं उभरती। समूचे देश की एक भाषा अगर चुनना ही था तो हिन्दी चुन ली जाती। और अगर अन्य आठवी अनुसूची से सम्बन्धित भाषाओं का विवाद उत्पन्न होता तो तमिल को अंग्रेजी की जगह तमिल हिन्दी दी जाती। राज्यस्तर की भाषा का चयन राज्य की भाषा के अनुसार किया जाता तो कितना अच्छा रहता।