रविवार, 8 सितंबर 2013

वैदिक ग्रंथों में ईश्वर का स्वरुप

वैदिक ग्रंथों में ईश्वर का स्वरूप

वैदिक मत अर्थात वेद के मत को ही स्वमत मानने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में अपने मत के विषय में लिखते हैं , प्रश्न- तुम्हारा मत क्या हैं? उत्तर- वेद, अर्थात जो जो वेद में करने और छोड़ने की शिक्षा की हैं, उस उसका हम यथावत करना, छोड़ना मानते हैं, जिस लिए वेद हमको मान्य हैं, इसलिए हमारा मत वेद हैं. ऐसा ही मानकर सब मनुष्यों को विशेषत: आर्यों को ऐकमत्य होकर रहना चाहिए. स्वामी दयानंद जब प्रचार के लिए धर्म क्षेत्र में उतरे तो उन्होंने पाया की वेद में ईश्वर का जो  एकेश्वरवाद, अजन्मा,सर्वव्यापक,अनादी, नित्य, अनंत, सर्व शक्तिमान  स्वरुप हैं उसका स्थान बहुदेवतावाद,अवतारवाद, मूर्ति पूजा, अज्ञानी ईश्वर ने ले लिया हैं.इसीलिए स्वामी दयानंद ने तीव्र वेग से फैल रहे पाखंड का खंडन किया और वेदों में वर्णित ईश्वर के सत्य स्वरुप को सामान्य जन के लिए प्रस्तुत कर अज्ञान रुपी अंधकार का नाश किया और ज्ञान रुपी प्रकाश का प्रचार किया.स्वामी दयानंद की सभी मान्यतों का अधर केवल और केवल वेद ही हैं.
आइये वेदों में वर्णित ईश्वर के सत्य स्वरुप को जाने.
१. ईश्वर एक ही हैं.
वेद के सायण आदि आचार्यों के भाष्यों तथा उनके आधार पर लिए गए पाश्चात्य विद्वानों के वेदों के अनुवादों को पढने से पाठकों ने वेद जगत के कर्ता- धर्ता और नियन्ता एक ईश्वर को मानने के स्थान पर अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र आदि अनेक देवी देवताओं को मानने लगे. स्वामी दयानंद ने स्पष्ट रूप से घोषणा की वेद एकेश्वरवादी हैं न की बहुदेवतावादी.
वेदों में एकेश्वरवाद के प्रमाण
१. ऋग्वेद १.१६४.४६ – उसी एक परमात्मा को इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्या, सुपर्ण, गरुत्मान, यम और मातरिश्वा आदि अनेक नामों से कहते हैं.
२. यजुर्वेद ३२.१- अग्नि, आदित्य, वायु, चंद्रमा, शुक्र, ब्रह्मा, आप: और प्रजापति- यह सब नाम उसी एक परमात्मा के हैं.
३. ऋग्वेद १०.८२.३ और अथर्ववेद २.१.३- वह परमात्मा एक हैं और सब देवों के नामों को धारण करने वाला हैं, अर्थात सब देवों के नाम उसी के हैं.
४. ऋग्वेद २.१ सूक्त में अग्नि शब्द को ज्ञानस्वरूप परमात्मा का वाचक के रूप में संबोधन करते हुए कहाँ गया हैं की हे अग्नि, तुम इन्द्र हो, तुम विष्णु हो, तुम ब्रह्मणस्पति, वरुण, मित्र, अर्यमा, त्वष्टा हो. तुम रूद्र, पूषा, सविता, भग, ऋभु , अदिति, सरस्वती,आदित्य और ब्रह्मा हो.
५. अथर्ववेद १३.४ (२), १५-२०- जो व्यक्ति इस परमात्मा देव को एक रूप में विद्यमान जनता हैं, जो की वह न दूसरा हैं, न तीसरा हैं और न चौथा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह पांचवा हैं, न छठा हैं और न सांतवा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह न आठवां हैं, न नवां हैं और न दसवां हैं ऐसा जानता हैं, वह सब कुछ जानता हैं. वह चेतन और अचेतन संपूर्ण रहस्य को जन लेता हैं. उसी परमात्मा देव में यह सारा जगत समाया हुआ हैं. वह देव अत्यंत सहन शक्ति वाला हैं. वह एक ही हैं, अकेला ही वर्तमान हैं, वह एक ही हैं.
इस प्रकार वेदों में अनेक प्रमाण केवल एक ईश्वर के हैं  बहुदेवतावाद का स्पष्ट खंडन हैं.
२. ईश्वर अजन्मा, अनादी, नित्य सर्वव्यापक और अनंत हैं.
वेदों में परमात्मा को कभी जन्म न लेने वाला, कभी उत्पन्न न होने वाला, सदा से वर्तमान रहने वाला, स्वयंभू , अपने स्वरुप में सदा विद्यमान रहने वाला जिससे उसका आदि या आरंभ और अंत कभी नहीं हो सकता बताया गया हैं. स्वामी दयानंद की यह मान्यता वेदों के आधार पर ही बनी हैं.
१. ऋग्वेद १.६७.३- हे ज्ञानस्वरूप परमात्मा,आप अज हो, अजन्मा हो, अपने पृथ्वी और धुलोक को धारण किया हुआ हैं.
२. ऋग्वेद ६.५०.१४ में परमात्मा को सारे जगत का एकमात्र रक्षक बताते हुए उसे अज अर्थात अजन्मा भी कहा हैं.
३. ऋग्वेद १.१७४.३ मंत्र में कहा हैं की हे परमऐश्वर्याशाली परमात्मन. आप अज हो अर्थात अजन्मा हो.
४. ऋग्वेद १.१०२.८ में कहाँ गया हैं की हे परमात्मन आप सनात अर्थात सदा से ही उत्पन्न हो, सदा से हे विद्यमान हो.
५. ऋग्वेद २.१६.१ में ईश्वर को सनात अर्थात सदा से वर्तमान कहा गया हैं .
६. ऋग्वेद २.१६.१ में ईश्वर को सदा ही ईश्वर को युवा रहने वाला अर्थात परमात्मा कभी वृद्ध नहीं होता, वह सदा ही जरा रहित अजर रहता हैं.वह बाल्य अवस्था और वृद्ध अवस्था यस अन्य किसी प्रकार की जीर्णता या क्षीणता से रहित होता हैं.
७. इसी भांति ऋग्वेद १.६६.१, १.१४०.७, १.१४१.२ , ३.२५.५, तथा ७.८८.६ में ईश्वर को नित्य कहाँ गया हैं.
८. यजुर्वेद ४०.८ में ईश्वर को स्वयंभू अर्थात जो सदा से अपने स्वरुप में वर्तमान हैं कहाँ गया हैं.
९. अथर्ववेद १०.८.१२ मंत्र में ईश्वर को अनंत अर्थात सर्वव्यापक कहाँ गया हैं.
१०. यजुर्वेद ३२.८ – वह विभु , सर्वव्यापक,परमात्मा विश्व ब्रह्माण्ड के सब उत्पन्न पदार्थो में ओत-प्रोत होकर व्यापक हैं.
इस प्रकार जो लोग ईश्वर को वेद विरुद्ध अवतार लेने वाला, बाल लीला दिखाने वाला, वृद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त होने वाला, एक स्थान पर रहने वाला अर्थात कैलाश या क्षीर सागर में विराज करने वाला, अज्ञान रूप से राक्षसों को वरदान देकर ईश्वर से भी ज्यादा शक्तिशाली बनाने वाला आदि मानते हैं वे स्पष्ट रूप से वेदों के विरुद्ध चलकर अंधकार में हैं.
३.केवल एक ईश्वर ही उपास्य देव हैं और मूर्ति पूजा और अवतारवाद वेद संगत नहीं हैं.
आज हिन्दू समाज मुख्यत: मूर्ति पूजक समाज बन गया हैं, छोटे छोटे पत्थरों को ईश्वर की मूर्ती समझ कर पूजने से लेकर, बड़े बड़े मंदिरों में अनेकों स्वर्ण-मोती जड़ित मूर्तियों से लेकर मूर्ति पूजा का आधुनिक स्वरुप उन मुसलमानों की कब्रों का पूजन बन गया हैं जो भारत पर आक्रमण करने आये थे और हमारे वीर पूर्वजों के हाथों दोज़ख में पंहुचा दिए गए थे.कोई मूर्तियों को ईश्वर पर ध्यान केन्द्रित करने का साधन बताता हैं तो कोई यह तर्क देता हैं की प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात ईश्वर स्वयं मूर्तियों में विराजमान हो जाते हैं.हमारी छोटी सी शंका सदा यहीं रहती हैं की क्यों मूर्ति में विराजमान ईश्वर मुसलमानों के आक्रमण के समय अपनी रक्षा नहीं कर पाते हैं. या तो सोमनाथ की तरह विध्वंश के शिकार हो जाते हैं अथवा काशी विश्वनाथ की तरह कुँए में छुपा दिए जाते हैं.वेदों में केवल और केवल एक ही ईश्वर की उपासना का विधान हैं.
स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाह्स के सप्तम सम्मुलास में प्रश्नोत्तर के रूप में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं.
प्रश्न- वेदों में जो अनेक देवता लिखे हैं, उसका क्या अभिप्राय हैं?
उत्तर- देवता दिव्या गुणों से युक्त होने के कारण कहाते हैं, जैसे की पृथ्वी परन्तु इसको कहीं ईश्वर वा उपासनीय नहीं माना हैं.
ऋग्वेद भाष्य मंत्र १.१६४.३९ में यहीं भाव इस प्रकार दिया हैं- उस परमात्मा देव में सब देव अर्थात दिव्य गुण वाले सुर्यादी पद्यार्थ निवास करते हैं, वेदों का स्वाध्याय करके उसी परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए. जो लोग उसको न जानते, न मानते और उसका ध्यान नहीं करते , वे नास्तिक मंदगति, सदा दुःख सागर में डूबे ही रहते हैं.
ऋग्वेद ६.४५.१६ में भी अत्यंत स्पष्ट शब्दों में कहाँ गया हैं की हे उपासक, जो एक ही हैं, उस परम ऐश्वर्या शाली प्रभु की ही स्तुति उपासना करो.
ऋग्वेद १०.१२१.१-९ ईश्वर को हिरण्यगर्भ और प्रजापति आदि नामों से पुकारते हुए कहाँ गया हैं की सुखस्वरूप और सुख देने वाले उसी प्रजापति परमात्मा की ही समर्पण भाव से भक्ति करनी चाहिए.
स्वामी दयानंद जी मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे. मूर्ति पूजा के विरुद्ध उनका मंतव्य वेदों में मूर्ति पूजा के विरुद्ध आदेश होने के कारण बना. सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में उन्होंने मूर्ति पूजा के विषय में लिखा की “वेदों में पाषाण आदि मूर्ति पूजा और परमेश्वर के आवाहन-विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं हैं. ” एक स्थल पर स्वामी जी ने मूर्ति पूजा की १६ हानियाँ भी गिनाई हैं.स्वामी जी की मूर्तिपूजा के विरोध में प्रबल युक्ति यह हैं की परमात्मा निराकार हैं, उसका कोई शरीर नहीं हैं, शरीर रहित निराकार परमात्मा की भला कैसे कोई मूर्ति हो सकती हैं? इसलिए मूर्ति को ईश्वर मानकर उसकी पूजा करना नितांत अज्ञानता की बात हैं.
यजुर्वेद ३२.३ – “न तस्य प्रतिमा अस्ति “अर्थात उस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं हैं का प्रमाण मूर्ति पूजा के विरुद्ध आदेश हैं.
वैदिक काल में निराकार ईश्वर की पूजा होती थी जिसे कालांतर में मूर्ति पूजा का स्वरुप दे दिया गया.
श्री रामचंद्र जी महाराज और श्री कृष्ण जी महाराज जो उत्तम गुण संपन्न आर्य पुरुष थे उन्हें परमात्मा का अवतार बनाकर उनकी मूर्तियाँ बना ली गयी.
ईश्वर जो अविभाजित हैं उनके तीन अंश कर ब्रह्मा, विष्णु और महेश पृथक पृथक कर दिए गए. यह कल्पना भी वेद विरुद्ध हैं.उनकी पृथक पृथक पत्नियों की भी कल्पना कर दी गयी. आगे सूर्य, गणेश, हनुमान, भैरव, काली. चंडी आदि की भी कल्पना कर उनकी मूर्तियाँ बना दी गयी जो की वेद विरुद्ध थी.स्वामी दयानंद ने अवतारवाद को भी वेद विरुद्ध मान कर उनका खंडन किया हैं.
यजुर्वेद ४०.८ मन्त्र में परमात्मा का वर्णन इस प्रकार किया गया हैं
“वह सर्वत्र व्यापक हैं, वह सब प्रकार से पवित्र हैं, वह कभी शरीर धारण नहीं करता, इसलिए वह अव्रण हैंअर्थात उनमें फोड़े-फुंसी और घाव आदि नहीं हो सकते, वह शरीर न होने से नस नाड़ी के बंधन से भी रहित हैं, वह शुद्ध अर्थात रजोगुण आदि से पृथल हैं, पाप उसे कभी बींध नहीं सकता अर्थात किसी प्रकार के पाप उसे कभी छु भी नहीं सकता, वह कवि अर्थात सब पदार्थों का गहरा क्रांतदर्शी ज्ञान रखने वाला हैं, वह मनीषी अर्थात अत्यंत मेधावी हैं अथवा जीवों के मानों की बातों को भी जानने वाला हैं, वह परिभू अर्थात पापियों का पराभव करने वाला हैं, स्वयंभू हैं अर्थात स्वयंसिद्ध हैं. उसका कोई कारण नहीं हैं , वह अनादिकाल से कल्प कल्पान्तारों में सृष्टि के पदार्थ की यथावत रचना करता आ रहा हैं” यजुर्वेद के इस मंत्र में परमात्मा का कोई भौतिक शारीर होने की बात का इतने प्रबल शब्दों में निषेध कर दिया गया हैं की इसे पढने के बाद ईश्वर को मानव रूप में अवतार लेना केवल दुराग्रह मात्र हैं.
इस प्रकार वेदों की साक्षी से यह प्रमाणित हो जाता हैं की ईश्वर एक हैं,निराकार हैं,अजन्मा हैं,नित्य हैं, अवतार नहीं लेता.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें