मंगलवार, 7 जनवरी 2014

दर्शनों और ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद-महिमा

दर्शनों और ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद-महिमा

दर्शनकारों ने मुक्तकण्ठ से वेद की महिमा वर्णित की है। वैशेषिकदर्शन में गया कहा है-

                तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् ।। वैशोषिक. 10.1.3

ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं।

                बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। वैशेषिक. 6.1.1

वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है। उसमें  सृष्टिक्रम-विरुद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं। अतः वह ईश्वरीय ज्ञान है।

सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं। महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है-

                न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात् ।। सांख्य. 5.46

वेद पौरुषेय (पुरुषकृत) नहीं हैं। क्योेंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरुषेयत्व सिद्ध ही है।

निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम् ।। सांख्य. 5.51

वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं।

मन्त्र और आयुर्वेद के प्रमाण के समान आप्तजनों के वाक्यों के प्रामाणिक होने से वेद की भी प्रामाणिकता है। परमेश्वर परम-आप्त है तथा वेद असत्य, परस्पर विरोध और सृष्टिक्रम के विरुद्ध बातों से रहित है। अतः वेद परम-प्रमाण है।

योगदर्शनकार महर्षि पतञ्जलि का कथन है-

    स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् । योग. 1.26

वह ईश्वर नित्य वेद-ज्ञान को देने के कारण सब पूर्वज गुरुओं का भी गुरु है। अन्य गुरु काल के मुख में चले जाते हैं। परन्तु वह काल के बन्धन से रहित है।

वेदान्तदर्शन में वेद का गौरव निम्न शब्दों में प्रकट किया गया है-

                शास्त्रयोनित्वात् । वेदान्त. 1.1.3

ईश्वर शास्त्र=वेद का कारण है। अर्थात्‌ वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है। इस सूत्र पर शङ्कराचार्य का भाष्य पठनीय है। यहॉं उसका हिन्दी रूपान्तर दिया जा रहा है-

""ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है। क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके, ऐसा सम्भव नहीं है।''

                एक अन्य सूत्र में कहा गया है-

                अत एव च नित्यत्वम् । वेदान्त. 1.3.29

इसी कारण से (परमात्मा से वेद की उत्पत्ति हुई है) वेद नित्य हैं। मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है-

                चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः।। मीमांसा. 1.1.3

जिसके लिए वेद की आज्ञा हो वह धर्म और जो वेदविरुद्ध हो वह अधर्म है।

एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं-

नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात् ।। 1.3.18

शब्द नित्य है, नाशरहित है। क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता।

इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वतः प्रमाणता का वर्णन करते हैं।

ब्राह्मणग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्व का प्रदर्शन करने वाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहॉं तैत्तिरीयब्राह्मण 3.10.11.3 की एक आख्यायिका दी जा रही है-

""महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए 300 वर्ष पर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये, तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा- "यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगे?' भरद्वाज ने उत्तर दिया कि मैं उस आयु को भी ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करूँगा। तब इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान-राशिरूप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्‌ठी भरकर भरद्वाज से कहा कि ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं। इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। अनन्ता वै वेदाः। वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने 300 वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है, तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। 300 वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्ठी ज्ञान प्राप्त किया है।''

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