सोमवार, 8 सितंबर 2014

युग धर्म के अनुसार परिवर्तन अवश्यम्भावी

युग धर्म के अनुसार परिवर्तन अवश्यम्भावी 


धर्म बन जाया करता है। जब भारत वर्ष में शांति का काल था, सर्वत्र उन्नति और आत्मविकास की बातें होती थीं तो यही देश जीवेम् शरद: शतं-का उपासक था। तब यहां शतायु होने का आशीर्वाद मिलता भी था और दिया भी जाता था। परंतु जब परिस्थितियों ने करवट ली और हर क्षण देशधर्म के लिए बलिदानियों और बलिदानों की आवश्यकता अनुभव होने लगी, तो इस देश का युग धर्म परिवर्तित हो गया। ‘आल्हा’ के रचयिता ने तब इस शतायु होने के आशीर्वाद को लेने-देने वाले राष्ट्र के लिए कह दिया कि-‘‘तीस वर्ष तक क्षत्रिय जीवे, आगे जीने को धिक्कार।’’
इसका अभिप्राय था कि वह यौवन उस समय व्यर्थ ही माना जाता था जो तीस वर्ष तक जीवन जीने के उपरांत भी देश धर्म के काम नही आया हो। बात स्पष्ट थी कि अपना यौवन देश धर्म पर न्यौछावर करना उस समय के हर हिंदू वीर का राष्ट्रधर्म था। आज हम ‘इजराइल’ की देशभक्ति का उदाहरण तो देते हैं, परंतु हमने इतिहास में अपने लिए कभी झांक कर नही देखा कि हमने अपने अस्तित्व की रक्षार्थ कितना गौरवमयी संघर्ष किया है? देश धर्म के लिए सांस्कृतिक मूल्यों में यथावश्यक संशोधन कर लिया और जीवन की शताधिक होने की कामना को तीस वर्ष तक सीमित कर लिया… वह भी इस शर्त पर कि यदि यह जीवन तीस वर्ष तक देश धर्म के काम नही आया तो धिक्कार है। ‘आल्हा’ का कवि युगधर्म को भी स्पष्ट कर रहा है और कविधर्म का निर्वाह भी कर रहा है। दोनों ही बातें अनुकरणीय हैं।
तनिक कल्पना करो कि जिस देश का यौवन शास्त्रार्थ के लिए तैयार होकर आत्मा को जीवन मरण के चक्र से मुक्त कराने की युक्ति और उपाय खोजा करता था, उसका यौवन केवल अब देश की मुक्ति के उपायों में लग गया, केवल इसलिए कि यदि देश मुक्त हो गया तो जीवन्मुक्त होने की साधना तो तब भी कर लेंगे। जिस देश की बहनें अपने भाई के, पत्नी अपने पति के, और माता अपने पुत्र के चिरायुष्य की कामनाएं किया करती थीं उसी देश की बहनें अपने भाई को, पत्नी अपने पति को और मां अपने पुत्र को शत्रु से युद्ध करने के लिए सहर्ष भेजने लगीं और वो भी इस शर्त पर कि पराजित होकर तो लौटना ही नही है। चाहे जीवन ना रहे, पर पराजय का अभिशाप लेकर मत लौटना। ऐसी कामना वाला देश भला कायरों का देश कैसे हो सकता है? ऐसे देश के विजय, वीरता और वैभव को निरी कायरता कहकर और कलंकित ना किया जाए, तो ही अच्छा है।
बन गये भाग्यविधाता
किसी कवि ने कितना अच्छा चित्रण किया है :-
ग्राम ग्राम से निकल निकलकर
ऐसे युवक चले दल के दल।
अपने शयनागार बंद कर,
दिये नवोढ़ाओं ने तत्क्षण।
बांध दिये पतियों की कटि में,
असिकलाईयों में रण कंकण।
मां ने कहा दूध की मेरे,
लज्जा रखना रण में हे सुत।
प्रिये ने कहा लौटना घर को
आर्य पुत्र तुम विजयश्री युत।।
ग्राम ग्राम से निकल निकलकर
ऐसे युवक चले दल के दल।।
युवकों के ये दल के दल थे भारत भाग्य विधाता। पर दुर्भाग्य इस देश का कि जो इस देश के भाग्य के विनाशक थे उन्हें आज तक यहनं ‘भाग्यविधाता’ कहकर महिमामंडित किया जा रहा है।
भारत के इन वास्तविक भाग्यविधाताओं ने रजिया सुल्ताना के पश्चात छह वर्षों में गुलामवंश के निर्बल शासकों के काल में अपनी शक्ति का संचय करते हुए अपने लक्ष्य को बेधने का हरसंभव प्रयास किया।
रजिया के दुर्बल उत्तराधिकारी
रजिया सुल्ताना के पश्चात दासवंश के अगले शासक के रूप में मुइजुद्दीन बहरामशाह ने गद्दी संभाली। इसने लगभग दो वर्ष तक शासन किया। कुचक्रों और षडय़ंत्रों के जाल में फंसकर यह शासक शीघ्र ही परलोक चला गया। तब इजुद्दीन किशलू खां कुछ समय के लिए सुल्तान बना। पर वह भी अति दुर्बल शासक सिद्घ हुआ तो उसके पश्चात अलाउद्दीन मसऊद शाह (1242-46) गद्दी पर बैठा। ये सारे के सारे ही दरबारी षडयंत्रों के शिकार बने और बिना किसी अपनी विशेष पहचान के ही संसार से चले गये या पदच्युत कर दिये गये।
तेज हुआ स्वतंत्रता संघर्ष
इस काल के लिए डा. शाहिद अपनी पुस्तक ‘भारत में तुर्क एवं गुलाम वंश का इतिहास’ में हमें बताते हैं कि कटेहर तथा बिहार में राजपूतों ने विद्रोह (स्वतंत्रता आंदोलन) तेज कर दिया और बिहार में राजपूतों का स्वतंत्र राज्य बन गया।’’
इस उद्धरण में स्वतंत्र राज्य बन गया इस शब्दावली पर ध्यान देने की आवश्यकता है। थोड़ा सा गंभीरता से विचारने पर पता चलता है कि इस प्रकार की शब्दावली कोई भी लेखक तभी अपनाता है, जब विद्रोह का अंतिम लक्ष्य स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना ही होता है। सल्तनत काल का हर मुस्लिम लेखक यद्यपि बड़ी सावधानी से लिखता है और वह नही चाहता कि उसकी लेखनी से हिंदुओं की वास्तविकता कहीं स्पष्ट हो, परंतु इसके उपरांत भी सच तो स्पष्ट हो ही जाता है। ऐसे ही तत्कालीन लेखकों के संदर्भों को अपनी लेखनी का आधार बनाकर डा. शाहिद आगे लिखते हैं-‘मसऊद के शासन काल की एक महत्वपूर्ण घटना 1243 ई. में जाजनगर के राय द्वारा बंगाल पर आक्रमण था। इस आक्रमण से बंगाल में बड़ी गड़बड़ी फेेल गयी। इसलिए 1244 ई. में मलिक तुगरिल पूर्वीय प्रांतों में शांति स्थापित करने के लिए नियुक्त किया गया। यद्यपि आरंभ में तुगरिल को पराजित होना पड़ा, परंतु जब अवध से उसकी सहायता के लिए कुछ और सेना भेज दी गयी, तब वह विपक्षियों को भगा सका।’’
डा. शाहिद जिस बात को यहां बता रहे हैं वो ये है कि जाजनगर के राय द्वारा भी तुर्क सुल्तान को कड़ी चुनौती दी गयी और उसके विद्रोही दृष्टिकोण ने स्पष्ट कर दिया कि कभी भी कुछ भी संभव है। राय के विद्रोही रूप को शांत करने में ही सुल्तान को कठोर संघर्ष करना पड़ा था।
दोआब में स्वतंत्रता संघर्ष
इसी समय उत्तर प्रदेश के गंगा यमुना के दोआब में भी स्वतंत्रता आंदोलन ने गति पकड़ी ली थी। अलीगढ़ से 13 मील पूर्व की ओर जलाली और मैनपुरी से 28 मील दूर सिरसागंज और करहल सडक़ पर स्थित दतौली या दिहुली गांव हैं। यहां पर भी भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन छिड़ गया था। जिसके विषय में हमें ‘तबकाते नासिरी’ से साक्षी मिलती है कि इन दोनों स्थानों पर हुए विद्रोह को शांत करने के लिए 1244-45 ई. में उलुग खां (बलबन) ने प्रस्थान किया। उसने भारत के इस आंचल के इन स्वतंत्रता सेनानियों को वहां पहुंचकर कठोर दण्ड दिया था।
परंतु हिंदू वीरों का उत्साह देखिए कि उन्होंने भी हार नही मानी और बलबन के दिल्ली लौटते ही कुछ कालोपरांत ही विद्रोह का झण्डा पुन: फहरा दिया। तब अगले वर्ष ही बलबन को सुल्तान अलाउद्दीन मसऊद शाह की ओर से एक बड़ी सेना लेकर पुन: इन विद्रोहियों को पाठ पढ़ाने के लिए चलना पड़ा। तब कन्नौज के तलसन्दा नामक गांव में विद्रोहियों ने एक किले में स्वयं को बंद कर लिया। दो दिन तक उन्हें तुर्क सेना से लोहा लेना पड़ा। परंतु अंत में बलबन सफल हो गया। यह घटना 1248 ई. की है। उस किले पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। जिसमें अनेकों हिंदू वीरों को अपने प्राणोत्सर्ग करने पड़े। हम अपने वीरों के प्राणोत्सर्ग को स्वतंत्रता की देवी की प्यास बुझाने वाला एक स्तवनीय कार्य ही मानते हैं। इसलिए उनके प्राणोत्सर्ग को उनकी दुर्बलता न मानकर उसे उनके बलिदानी स्वभाव का परिचायक ही माना जाना चाहिए। दिल्ली की सल्तनत के इस काल में 1246 ई. में गद्दी पर नासिरूद्दीन महमूद बैठा। इसका जन्म 1228 ई. में हुआ था। वह इल्तुतमिश का ही एक पुत्र था। इस सुल्तान ने 20 वर्ष तक राज्य किया। जिससे लगता है कि जैसे सल्तनत को जीवन दान मिला, या भारत में अपने स्थायित्व का अवसर मिला, परंतु यह एक भ्रांति ही है, क्योंकि हिंदू प्रतिरोध इन बीस वर्षों में भी शांत नही हो सका, अपितु वह अशांत ही रहा और स्थान-स्थान पर अपनी सुदृढ़ उपस्थिति की अनुभूति कराता रहा।
हिंदू वीर दलकी मलकी का संघर्ष
जिस समय दास वंश अपनी रक्तिम और षड्यंत्रकारी राजनीति की दलदल में फंसा अस्थमा रोग से पीड़ित हो रहा था और नित नये सुल्तान उसके रोग के उपचारक बनकर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हो रहे थे, उसी समय कलिंजर तथा कड़ा के बीच के प्रदेश के शासक दलकी मलकी ने अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर ली थी। ‘तबकाते नासिरी’ का लेखक इसे दलकी मलकी लिखता है, जबकि अतहर अब्बास रिजवी इसको दलकी ओमलकी पढ़ते हैं। एडवर्ड थॉमस के विचार से यह चंदेल राजा त्रलोक्य मल्ल का दूसरा नाम है। परंतु हमें यहां इस राजा के नाम या वंश के विषय में चर्चा नहीं करनी है। यहां चर्चा का विषय है केवल उसकी वीरता जिसने तत्कालीन विदेशी सत्ता को हिलाने या नाकों चने चबाने का कार्य किया था।
दलकी मलकी ने उत्तर प्रदेश के दक्षिणी और मध्य प्रदेश के उत्तरी भागों के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर अपना शक्तिशाली राज्य स्थापित कर लिया था।
दलकी मलकी यह जानता था कि इस प्रकार के शक्तिशाली राज्य की स्थापना करने का परिणाम क्या होगा? कदाचित वह यह भी जानता होगा कि परिणाम केवल इस्लामी सत्ता से संघर्ष तक ही सीमित ना रहेगा, अपितु यह आत्मबलिदान तक भी जा सकता है। उधर तुर्क शासक भी यह जानते थे कि हिंदुस्तान में किसी भी भारतीय शासक का उभरना या शक्तिशाली होना उनके लिए कितना घातक सिद्घ हो सकता है? इसलिए तुर्क शासक नासिरूद्दीन महमूद ने अपने विश्वसनीय सेनापति उलुग खान (बलबन) के नेतृत्व में एक विशाल सेना इस हिंदूवीर को पाठ पढ़ाने के लिए भेज दी।
‘तबकाते नासिरी’ का लेखक हमें बताता है कि उलुग खान के इस क्षेत्र में पहुंचने पर इस हिंदू राजा ने मुस्लिम सेना का जमकर प्रतिरोध किया, फलस्वरूप प्रात: से सांय तक चलने वाले दोनों पक्षों के घोर संघर्ष में मुसलमानों को कोई सफलता नही मिल सकी।
मुस्लिम सेना के लिए यहां अत्यंत कड़ी परीक्षा का काल था। उसके लिए दलकी मलकी एक चुनौती बन गया था कि जिसका वह समाधान तो खोजना चाहती थी, परंतु समाधान मिल नही रहा था।
दलकी मलकी ने इस स्थिति में रहकर भी रात्रि में मुस्लिम सेना की आंखों में धूल झोंककर ऊंची पहाड़ियों में जाकर छिप जाना उचित माना। मिनहाज का कथन है कि रात्रि में राजा उस स्थान के पीछे हटकर पहाड़ी पर भागकर एक सुरक्षित एवं दुर्गम स्थान पर चला गया, जहां पर मुसलमानी सेना का पहुंचना असंभव हो गया। राजा ने अपने आपको और अपनी सेना को सुरक्षित कर लिया, पर उसकी प्रजा ने अपने स्तर पर हार नही मानी, उसका प्रतिरोध निरंतर जारी रहा। राजा और उसकी सेना का अपराजित होकर छिप जाना और प्रजा का इस प्रकार विद्रोही बने रहना मुस्लिम शासकों के लिए बड़ी अदभुत पहेली बन गयी थी। वे लोग इस पहेली का कोई समाधान भी नही खोज पाये थे। तब कहा जाता है कि उलुग खान ने अपनी सेना में उत्साह भरने के लिए इस्लाम के ब्रहमास्त्र ‘जेहाद’ का आश्रय लिया। जिससे उसके सैनिकों ने दूने उत्साह से संघर्ष किया और दलकी मलकी की प्रजा पर विजय प्राप्त की। बलबन को 1500 घोड़े और बड़ी धन संपत्ति प्राप्त हुई। मिनहाज का कथन है कि दलकी मलकी के परिजनों को भी यहां मुस्लिम सेना ने बंदी बना लिया था। यहां पर एक आशंका उत्पन्न हो सकती है कि राजा दलकी मलकी स्वयं भयभीत हो गया, और वह स्वेच्छा से युद्धक्षेत्र से भाग गया। परंतु इस आशंका के साथ-साथ कुछ अन्य बातों पर भी विचार किया जाना उचित और अपेक्षित है। जैसे राजग दलकी मलकी अपनी सेना सहित पीछे हटा तो वह उस समय हटा जब उसकी सेना को विजय मिल रही थी, इस बात को किसी भी मुस्लिम लेखक ने अस्वीकार नही किया है। दूसरे वह जहां जिस सुरक्षित स्थल पर जाकर छिपा, वहां तक उसका पीछा करने का साहस या उसे खोज निकालने का प्रयास बलबन ने नही किया। क्योंकि वह जानता था कि पहाड़ी के दुर्गम स्थलों पर जाने का परिणाम क्या होगा? कदाचित राजा इसी सोच के साथ आगे पहाडिय़ों में जा छिपा होगा कि तुझे और तेरी सेना को खोजते हुए जब शत्रु पहाडिय़ों में पहुंच जाए, तो उसको वहीं घेरकर समाप्त कर दिया जाए। राजा की यह रणनीति सफल नहीं हो सकी और शत्रु ने नीचे रहकर ही राजा की प्रजा के साथ संघर्ष कर अपनी ‘जीत’ का ध्वजदण्ड गाड़ दिया। तब प्रजा को राजा की रणनीति से जो क्षति पहुंची थी, उसे लेकर राजा स्वाभाविक रूप से दुखी हुआ होगा, तब उसने नीचे आकर राज कार्य को पुन: संभालना उचित नही समझा हो-यह भी संभव है। इन बातों का कोई ठोस प्रमाण तो हमारे पास नही है, परंतु इतना निश्चित है कि राजा ने अपने भुजबल से विदेशी सत्ता को हिला अवश्य दिया। बलबन युद्घ से घबराकर चुप चला आया। यद्यपि इस हिंदूवीर शासक की शक्ति को इस युद्घ में आघात लगा। पर यह भी स्मरण रखने की बात है कि राजा तो ‘आघात’ के लिए पहले से ही तत्पर था, लेकिन बलबन को जो आघात लगा, (अपमानित सा होकर उसे लौटना पड़ा) उसके लिए वह संभवत: पहले से तैयार नही था। एक दिन के युद्ध से ही उसे दलकी मलकी के दलबल और भुजबल का अनुभव हो गया था।

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