सोमवार, 18 अगस्त 2014

भारतीय शिक्षा का सत्य स्वरुप

भारतीय शिक्षा का सत्य स्वरूप 

हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिये कि अंग्रेजों ने इस देश में योजनापूर्वक लम्बे समय तक इस बात का प्रयास किया, कि इस देश का राष्ट्रीय समाज अपने इतिहास, संस्कृति तथा सभ्यता को पूरी तरह भुला दे. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये, उन्होंने शिक्षा की एक योजना बनाई. इस योजना के अंग्रेज मूलपुरुष ने कहा था, कि भारत में काले अंग्रेजों का निर्माण करना है. इसी प्रकार की स्वत्वशून्य शिक्षा की रचना, हमारे देश में चलती रही.

अंग्रेजों की इस कूटनीति को, उस समय हमारे देश के जानकार लोगों ने पहचाना था. इसीलिये देश की स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान अंग्रेजी शिक्षा का विरोध भी होता रहा था. पराधीनता के उस काल में, इसलिये स्वत्व और स्वाभिमान का आवेश था. राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से कुछ प्रयत्न भी प्रारम्भ हुये थे. उसी परम्परा के आधार पर शिक्षा-दीक्षा के लिये समाज प्रयत्नशील रहा था. परन्तु परकीय शासन समाप्त होते ही, यह स्वत्व की प्रेरणा लुप्त हो गई. हमारा जीवन, परानुकरण के दुश्चक्र में फँस गया. अपने ‘स्व’ का विस्मरण ही नहीं हुआ, अपितु हम उसका निषेध तक करने लगे. रहन-सहन, चारित्र्य, कर्तव्यबोध, वैचारिक भूमिका आदि किसी भी दिशा में देखें, तो हम पायेंगे कि यहाँ  विवेकशून्य अन्धानुकरण मात्र चल रहा है.

अपनेपन का विस्मरण और विदेशियों की अन्धी नकल के फेर में पड़कर हम अपने जीवन के मूलगामी सिद्धान्तों को भी भुलाते जा रहे हैं. इसीलिये शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझने में भी असमर्थ हो रहे हैं. बड़े-बड़े लोगों के मुँह से सुनने को मिलता है, कि शिक्षा रोजगारोन्मुख होनी चाहिये. ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपनी आवश्कतायें पूरी करता है. पैसा कमाता है. इसका अर्थ यह हुआ, कि शिक्षा मनुष्य को पैसा कमाने योग्य बनाती है. शिक्षा का यह अर्थ अत्यन्त निकृष्ट है.

शिक्षा का वास्तविक अर्थ है मनुष्य को जीवन के अन्तिम लक्ष्य की ओर उन्मुख करना. वास्तव में शिक्षा तो वह है, जिसके द्वारा मनुष्य उत्तरोत्तर अपनी उन्नति करता हुआ जीवन के सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त कर सके. यह कुरुक्षेत्र की भूमि है. कौरव-पांडवों का युद्ध, इसी भूमि पर हुआ बताया जाता है. युद्ध प्रारम्भ होने के दिन श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता द्वारा धर्मवृत्ति का उपदेश करते हुए अर्जुन को प्रेरित किया था. इसी उपदेश के अन्तिम भाग में मनुष्य-जीवन के लक्ष्य के विषयों में इस प्रकार का उल्लेख आया है -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु.

मामेवैष्यसि सत्यं त प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ..

‘मन्मना’ याने अपने याने अपने अन्तःकरण में मुझे पूरी तरह समा लें, अपना अन्तःकरण मेरे रंग में रंग लें. ‘मद्भक्तो’ अर्थात् मेरा भक्त याने जो विभक्त नहीं, उसे भक्त कहते हैं. इसलिये मुझसे विभक्त मत रहना.‘मद्याजी’ मेरे लिये यज्ञरूप जीवन चला और ‘मां नमस्कुरु’ याने वह नमस्कारपूर्वक मुझे समपर्ण कर दे.

यहाँ पर ‘मुझे’ अथवा ‘मन्मना’ का जो शब्द-प्रयोग हुआ है, वह श्रीकृष्ण जी ने व्यक्तिगत रूप से स्वयं के बारे में किया है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं. यहाँ श्रीकृष्ण नामक कोई व्यक्ति नहीं, अपितु सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय की जो मूल शक्ति भगवान के रूप में है, उसके लिये कहा गया है – ‘मन्मना भव’.

शिक्षा का अर्थ है मनुष्य को जीवन के इस अन्तिम लक्ष्य की ओर उन्मुख करना, तैयार करना. इस अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आवश्यक है, कि मनुष्य में अनेक प्रकार के सद्गुण हों. ये सद्गुण सहसा नहीं आयेंगे. इनके लिये प्रयत्न करना होगा. इसीलिये इन गुणों के संस्कार बचपन से ही अपने जीवन में करते रहने की आवश्यकता रहती है.  इन सद्गुणों का उल्लेख कई बार हमारे समाज-जीवन में होता रहता है. सच्चाई से रहना, किसी के बारे में अपने अन्तःकरण में द्वेष की, घृणा की भावना न रखना, काया, वाचा, मनसा, पवित्र रहना, काम-कंचन के सब प्रकार के व्यामोह से दूर रहना, अपने-आप को पूरी तरह काबू में रखना, इस प्रकार अन्तःकरण को विशाल बनाना कि पूरा विश्व ही मेरा परिवार है, इस विशाल मानव-समाज की सेवा में स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर देना, इस समर्पण में भी कोई स्वार्थ मन में आने न देना आदि संस्कार बहुत आवश्यक हैं.

सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानने की विशाल भावना में यह तथ्य अन्तर्भूत है. भारतीय जीवनदृष्टि की विशेषता है, कि विश्व के प्रत्येक भू-भाग में रहने वाला समाज अपने वैशिष्ट्य

से जीवन यापन करे. अपनी परम्परागत जीवन-प्रणाली को अपने देश में चलाने से, वह समाज उस देश के साथ सम्बद्ध रहता है. देश और समाज की इस सम्बद्ध भावना के फलस्वरूप, राष्ट्र के रूप में वे जगत् के सामने उपस्थित होते हैं, इसीलिये हमारी यह मान्यता है कि प्रत्येक राष्ट्र का अपना वैशिष्ट्य है और वह वैशिष्ट्य बना रहना विश्व की प्रगति में नितांत आवश्यक है. विश्व के विभिन्न मानव-समुदायों की इन जीवन-विशेषताओं को समाप्त करने का अर्थ होगा मनुष्य के हाथ, पैर, कान, नाक आदि सभी अवयवों को तोड़-मरोड़कर केवल मांस के एक गोले के रूप में देखना. क्या मनुष्य का ऐसा रूप हमें ग्राह्य लगेगा? यह बात अखिल जगत् के मानव के लिये कल्याणकारी कदापि नहीं हो सकती. इसलिये ऐसी स्थिति उत्पन्न करना ही विशालता की ओर जाना है कि विश्व के सभी मानव-समुदाय अपनी-अपनी विशेषताओं से अखिल मानवता का पोषण करें और जगत् को बहुविध विशेषताओं से पूर्ण देखकर आनन्द का अनुभव करें. सभी राष्ट्रों को अपने वैशिष्ट्य का आविष्कार करते हुए तथा उन विशेषताओं का सब प्रकार से संवर्धन करते हुए आपस  में मित्रता, प्रेम एवं बन्धुता से रहना चाहिये. सम्पूर्ण जगत् का हित साधनेवाला यह विचार अपने सामने रखकर चलना चाहिये. यह दृष्टि यदि नहीं रही, क्षुद्र स्वार्थवश आपस में मित्र-भाव का लोप हो गया, तो जगत् के राष्ट्र नित्य संघर्ष करते रहते हैं. आज विश्व में ऐसी स्थिति विद्यमान है. विभिन्न मानव-समुदायों की इन विविध विशेषताओं को नष्ट करने का प्रयत्न करने वाली विचारधारायें आज विश्व पर हावी हैं. वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये, विश्व में अन्य किसी को स्वतंत्र रहने देना नहीं चाहतीं. फलस्वरूप संघर्ष होते हैं. ऐसी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने पर किसी भी भू-भाग में रहने वाले एक वैशिष्ट्यपूर्ण मानव-समुदाय,जो राष्ट्र के रूप में संगठित रहता है, उसे अपना वैशिष्ट्य सुरक्षित रखना जरूरी है. अपनी राष्ट्रीय विशेषता को सुरक्षित रखते हुए जगत् के अन्य राष्ट्रों को अपनी इन विशेषताओं का अनुभव कराते हुए उसे रहना चाहिये ताकि विश्व के मानव-समुदायों की इन विविधताओं की विशेषताओं को नष्ट करने वाली विचारधारायें जगत् का विनाश करने से बाज आयें. यह नितान्त आवश्यक कार्य है. अपनी राष्ट्रगत् विशेषताओं को सुरक्षित रखना, मानव-कल्याण का ही कार्य है.

विश्व-कल्याण की भावना से प्रेरित यह दायित्व निभाना प्रत्येक जागरूक राष्ट्र का कर्तव्य है. हमें भी इसी उत्तरदायित्व की पार्श्र्वभूमि में, विश्व की वर्तमान संघर्षपूर्ण स्थिति में अपने राष्ट्र-जीवन को सुरक्षित रखने का विचार करना चाहिये. यह कार्य सरल नहीं है. इसे वही कर सकते हैं जो राष्ट्र की परम्परा को जानते हैं. अपने राष्ट्रीय पूर्वजों का समुचित आदर करना जानते हैं. राष्ट्र और मातृभूमि से नितान्त प्रेम करते हैं. अपने अन्तःकरण में इस विशुद्ध भाव को धारण करते हैं, कि राष्ट्र-हित के सामने व्यक्तिगत हित नाम की कोई चीज ही नहीं है.

जो सोचते है कि राष्ट्ररूपी भगवान् की पूजा करने के लिये जीवन का कोई भी पक्ष दुर्बल नहीं रहने देना है, इसलिये जीवन को पूर्ण पवित्र बनाने का जो प्रयत्न करते हैं, ऐसे व्यक्तियों की संगठित शक्ति द्वारा ही राष्ट्र के वैशिष्ट्य का रक्षण एवं संवर्धन होता है, और तभी संभव होता है इस संघर्षपूर्ण विश्व में राष्ट्र को अबाधित वैभवशाली बनाये रखना.

इस उद्देश्य और कार्य की पूर्ति के लिये, राष्ट्र में राष्ट्रभक्त और चरित्रवान् लोग तैयार करना नितान्त आवश्यक है. इसीलिये छात्रों-युवकों को कहा जाता है कि उन्हें राष्ट्र की जिम्मेवारी सँभालनी है. नित्य प्रति सभी लोग छात्रों को आवाहन् करते हैं-‘‘तुम्हारे ऊपर ही राष्ट्र का महल खड़ा होने वाला है. तुम्हारे कंधों पर ही प्रगति का मन्दिर बनेगा. तुम राष्ट्र के आधारस्तम्भ हो आदि.

जब मैं ऐसी घोषणाएँ सुनता हूँ, तो मेरे मन में विचार आता है कि आधारस्तम्भ कितने मजबूत होने चाहिये? निस्संदेह, इनमें किसी प्रकार का कीड़ा लगा हुआ नहीं होना चाहिये. यदि कोई कमजोरी रहेगी, तो सम्पूर्ण राष्ट्र-मन्दिर ढह जायेगा. इसलिये हमारे छात्र अतीव उत्तम होने चाहिये. तभी वे अपने कंधों पर मन्दिर को सुरक्षित रख सकेंगे. परन्तु इस सम्बन्ध में क्या आज की स्थिति सन्तोषजनक है? दिखाई देता है कि चारों ओर विपरीत भाव व्याप्त हैं. सभी लोग चारित्र्यहीनता के संकट की बात करते हैं. चरित्र-निर्माण का तरीका क्या है ?

चारित्र्य का प्रारम्भ तो ऊपर से होता है. समाज के श्रेष्ठ पुरुषों से प्रारम्भ होकर नीचे की ओर जाता है. परन्तु आज दिखाई यह देता है कि साधनसम्पन्न श्रेष्ठ वर्ग, अपने इस उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हैं. बड़े कहलाने वाले, चारित्रिक दृढ़ता का विचार तक करने के लिये तैयार नहीं हैं. तब क्या समाज की धारणा हो सकेगी ? राष्ट्र प्रगति कर सकेगा ? सुस्थिति बनेगी ? देश में शान्तिपूर्ण, सुख-समृद्धिपूर्ण जीवन की उपलब्धि हो सकेगी.

यही कारण है कि चरित्रगत ढीलापन चारों ओर फैल रहा है. इस स्थिति में तो छात्र को चरित्रवान् बनाने का कार्य और भी अधिक महत्व प्राप्त करता है. परन्तु क्या इस ओर किसी का ध्यान है? कहना होगा कि ध्यान नहीं है. हम विचार करें तो आज की शिक्षा-व्यवस्था में दिखाई देगा कि छात्र-वर्ग में अपने राष्ट्र-जीवन का कोई अभिमान नहीं है. हम उन्हें इस सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी देने की व्यवस्था नहीं करते. उन्हें विविध पहलुओं से ज्ञानवान् और स्वाभिमानी नहीं बनाते.  आज के विद्यार्थियों में इसी कारण स्वतः के जीवन के बारे में कोई अभिमान नहीं

हैं. उन्हें राष्ट्र-जीवन की कोई जानकारी नहीं है. राष्ट्र-पुरुषों की जीवनियाँ उन्हें ज्ञात नहीं. धर्म के श्रेष्ठ उद्गाताओं का, उनके द्वारा निर्मित प्रेरणाओं का उन्हें परिचय नहीं. किसी विद्यार्थी से यदि कहा कि अपने यहाँ हल्दीघाटी का एक बड़ा युद्ध हुआ है, तो पता चलेगा कि उसको हल्दीघाटी का श्रेष्ठ प्रसंग ही मालूम नहीं! उनसे बातचीत करते समय मुझे यही विदित होता है, कि अनेक छात्रों को हल्दीघाटी और उन जैसे अन्य राष्ट्रीय प्रसंगों के पराक्रम और पौरुष की जानकारी ही नहीं.

एक बार मैंने कुछ विद्यार्थियों से कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज के इतिहास के कालखंड में पावन-खिण्ड नामक एक स्थान का उल्लेख आता है, जहाँ अनोखे पराक्रम, देशभक्ति और समर्पण-भाव का बड़ा प्रेरक प्रसंग उपस्थित हुआ है. किन्तु मुझे दिखाई दिया कि जिन्हें मैं यह बता रहा था, उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं है. उनमें से एक ने पूछा कि यह स्थान किस बात के लिये प्रसिद्ध है ? मैंने बताया कि शिवाजी महाराज के साथी राष्ट्र-भक्तों ने जब देखा कि विशाल सेना लिये शत्रु चढ़ आया और अपने प्राणप्रिय नेता तथा पर्याय से राष्ट्र पर संकट आ उपस्थित हुआ है, तो उस आक्रमण को रोकने के लिये एक सँकरे पहाड़ी स्थान पर इन मुट्ठी भर राष्ट्रभक्तों ने शत्रु की विशाल सेना को रोक रखा और बारी-बारी से अपने बलिदान देते गये. इस प्रकार अपनी दृढ़ता और पराक्रम से उन्होंने शत्रु को उस स्थान से एक भी कदम आगे बढ़ने नहीं दिया. जब मैंने ऐसा बताया, तो उसने पूछा – ‘वह, क्या ऐसे प्रसंग कहीं अपने इतिहास में भी हैं? ये तो पुराने ग्रीक-इतिहास में थर्मोपायली नामक जो इतिहासप्रसिद्ध युद्ध हुआ था, वहाँ का प्रसंग है.’ कहने का मतलब यह कि उन्हें थर्मोपायली मालूम था, पर पावन-खिण्ड अथवा हल्दीघाटी मालूम नहीं थी. मैं अपने मन में सोचता रहा कि अपने स्वत्व का, स्वाभिमान का जिन पर कोई संस्कार ही नहीं, वे राष्ट्र के आधार स्तम्भ कैसे बनेंगे? छात्रों को शारीरिक शक्ति सम्पन्न बनाना यदि राष्ट्र का आधार मजबूत बनाना है, इन छात्रों को शक्तिशाली बनाना होगा. इन सुदृढ़ शक्तिशाली आधारस्तम्भों पर ही राष्ट्र का भव्य भवन निर्मित हो सकेगा. इसलिये प्रत्येक नवयुवक के निर्माण के विषय में सोचना चाहिये कि वह शक्तिशाली हो. इसका शरीर इतना बलवान हो, कि वह सभी प्रकार के उत्तरदायित्वों को वहन कर सके. उसी प्रकार मन और बुद्धि अत्यन्त मजबूत होनी चाहिये. इन सब शक्तियों को एकाग्रता और नियमपूर्वक वृद्धिंगत करना चाहिये. कुशाग्र बुद्धि, सर्वांगीण ज्ञान, परिपुष्ट शरीर, संस्कारयुक्त अन्तःकरण और राष्ट्र-सम्बन्धी विविध जानकारियों से भरा हुआ स्वाभिमानपूर्ण स्वावलम्बी मस्तिष्क का निर्माण युवकों में होना आवश्यक है.

मैं अनेक युवकों से पूछता हूँ कि भाई, शरीर को बलवान बनाने के लिये कुछ प्रयत्न करते हो? क्वचित् एकाध उत्तर ही ऐसा मिल पाता है, जिससे यह लगे कि वह शरीर को बलवान बनाने के लिये व्यायाम करता है. मलखम्भ और उसका व्यायाम देखकर मन में बड़ा प्रेम होता है. इसका अर्थ यही है कि मैंने बचपन में अपने शिक्षकों की प्रेरणा से ऐसे व्यायाम किये हैं, जिनका लाभ मुझे मिलता रहा. पिछले लगभग 40 वर्षों से लगातार मैं घूमता-फिरता रहा हूँ. खाना-पीना भी भगवान् की कृपा से तदनुरूप ही चलता हैं. निद्रा का तो कई बार कोई ठिकाना ही नहीं रहता. फिर भी इतने वर्षों से यह शरीर खड़ा है, कार्यक्षम है. मैं ऐसा समझता हूँ कि शरीर को पहले जो व्यायाम इत्यादि कर मजबूत बनाया था, उसी कारण यह शरीर कुछ कर सका. मैं सोचता हूँ कि हम लोग अपने शरीर केा सुदृढ़-बलवान नहीं बनायेंगे, तो राष्ट्र-कार्य भला किस प्रकार कर सकेंगे.

शारीरिक शक्ति के साथ चरित्र की शक्ति भी आवश्यक

शारीरिक शक्ति के साथ ही चरित्र की शक्ति भी आवश्यक है. हमारे जीवन में सादगी, निस्स्वार्थता, त्याग, सरलता, लगन, परिश्रमशीलता, तपस्या आदि सद्गुण निर्माण होने चाहिये. चरित्र की यह शक्ति, मनुष्य के अन्दर उसके द्वारा किए जाने वाले सतत् चिन्तन से प्राप्त होती है. चिन्तन का आधार राष्ट्र के प्रति प्रखर भक्ति ही है. भक्तिवान अंतःकरण ही चरित्रवान होगा. मातृभूमि की भक्ति हृदय में जागृत होगी, तो सद्गुणों को अर्जित करने की चेष्टायें प्रारम्भ होने में विलम्ब नहीं लगेगा. इसलिये राष्ट्र के प्रति भक्ति और उस भक्ति को सार्थकता प्रदान करने वाला चरित्र इन दोनों का चिन्तन नित्य करते रहना चाहिये. विभिन्न कार्यक्रमों और अध्ययन के माध्यम से, अपनी मातृभूमि का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न होना चाहिये. ऐसा करते समय स्वाभाविक ही उन महापुरुषों के जीवन-प्रसंगों में हमें अनेक सद्गुण दिखाई देंगे. इस प्रकार हमें न केवल सद्गुण प्राप्त करने की प्रेरणा मिलेगी वरन् उन्हें पा सकने के लिये प्रयत्नों की दिशा भी हम समझ सकेंगे.

आज यदि हम अपने चारों ओर देखें, तो हमें पता चलेगा कि भ्रष्टाचार का बड़ा बोलबाला है. बड़े-बड़े लोग सार्वजनिक जीवन के आदर्शों से कोसों दूर हैं. आम चर्चा है कि देश में चरित्रहीनता का संकट है. यह सब इतना व्यापक है कि इसके सम्बन्ध में बोलने में भी मुझे संकोच होता है. अभी कल-परसों की बात है, एक स्थान पर धर्मयुग साप्ताहिक का एक अंक पढ़ रहा था. उसमें एक लेखक द्वारा इस बात का वर्णन किया गया था कि व्यापार बढ़ाने के लिये लोग किस-किस प्रकार से स्त्री का उपयोग करते हैं. लाइसेन्स-परमिट देने का कार्य करने वाले बड़े अधिकारियों को प्रसन्न करने के लिये स्त्री का प्रयोग करने की बातें उस लेख में कही गयीं हैं. राजनीतिक क्षेत्र के भी कुछ उदाहरण दिये हैं. उसने लिखा है कि विरोधी पक्ष के भेद निकालकर उन्हें परास्त करने के लिये भी ऐसी बातों का उपयोग किया जाता है. इस प्रकार का व्यापार है. स्त्रियों के चित्रों का खूब उपयोग होता दिखाई देता है.

यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ, कि सेफ्टी रेजर-ब्लेड के विज्ञापन के लिये भी एक स्त्री का क्या वास्ता? परन्तु मनुष्य की विषय-वासना को उभाड़कर उसे कर्तव्यभ्रष्ट और सन्मार्गभ्रष्ट करने का प्रयत्न दिन-पर-दिन बढ़ता हुआ दिखाई देता है. इस प्रकार मनुष्यों को कर्तव्यभ्रष्ट करने के लिये अपनाये गए अनेक उदाहरण उस लेखक ने दिये हैं, जिनका अधिक उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं. आज ऐसे अनेक कार्य हो रहे हैं, जिनके चारों ओर भ्रष्टाचार फैलता जा रहा है. मनुष्य पर यह भीषण आक्रमण है. कई बार हम तलवार, बन्दूक आदि शस्त्रास्त्रों के वार से रक्षा की बात सोचते हैं. परन्तु भ्रष्टाचार के जो प्रयत्न होते हैं, उनसे रक्षा करना बहुत कठिन होता

है. अब इनका क्षेत्र, जैसा मैंने पहले कहा, काफी बढ़ा हुआ है. इसलिये इन विविध प्रकार के प्रलोभनों के प्रहारों को पहचान कर उनके साथ टकराने और उन पर विजय प्राप्त कर लेने का सामर्थ्य हममें होना चाहिये.

आज की परिस्थितियों में चरित्र के सम्बन्ध में विचार करते समय हमें निश्चयपूर्वक ऐसी शक्ति अर्जित करनी चाहिये, कि जिससे इन प्रलोभनों का हम पर कोई असर न हो. पद और प्रतिष्ठा के प्रलोभनों के सहारे ऐसे प्रहार कितनी कुशलता से किये जाते हैं, इसका एक उदाहरण मैं बताता हूँ. पिछले दिनों मैंने एक पत्रिका पढ़ी, जिसमें फ्रान्स की एक संस्था द्वारा हमारी प्रधानमंत्री की बड़ी चतुराई से प्रशंसा की गई है. पत्रिका में उस संस्था द्वारा चण्डीगढ़ नगर की बहुत प्रशंसा की गई है.

चण्डीगढ़ में पाण्डवों के काल का चण्डी का मंदिर है, इसलिये उसका नाम चण्डीगढ़ है. परन्तु पुराना चण्डीगढ़ अब नहीं है. सब-कुछ वहाँ नया बना है. इस नये चण्डीगढ़ के वास्तुशास्त्री की यदि फ्रान्सीसी संस्था ने तारीफ की है, तो कोई विशेष बात नहीं. परन्तु मैं जब सोचता हूँ तो मुझे लगता है, चण्डीगढ़ में प्रशंसा करने लायक कुछ भी नहीं. मुझे चण्डीगढ़ की रचना कभी अच्छी नहीं लगी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और बाद में राजस्थान के राज्यपाल डॅा. सम्पूर्णानन्द जैसे विद्वान ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में नगर-रचना करने वाले प्रान्तीय अधिकारियों से बात करते हुए कहा था कि आप लोग अपने प्रान्त के नगर अच्छे बनाना, परन्तु उत्तर प्रदेश में चण्डीगढ़ मत बनाना. उन्होंने कहा था कि मैं चण्डीगढ़ देखने गया. मुझे वह बहुत फैला-फैला हुआ मुर्दे के समान दिखाई दिया. इस कारण मुझे पसन्द नहीं आया. सम्पूर्णानन्द विविध शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता रहे हैं. उनकी उक्ति में सच्चाई है.

अब इस फ्रान्सीसी पत्रिका में ऐसे चण्डीगढ़ की प्रशंसा होना केवल इसलिये तो समझा जा सकता था कि उसका वास्तुशास्त्री फ्रान्सीसी था, परन्तु उसने प्रशंसा करते समय उस समय के अपने देश के प्रधानमंत्री पं. नेहरू जी का भी प्रशंसात्मक उल्लेख किया है. साथ ही यह निष्कर्ष भी निकाला है कि ऐसे सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व वाले नेहरू जी की सुकन्या, आज भारत की प्रधानमंत्री हैं. इस प्रकार इंदिरा गांधी जी का भी बड़ा गौरव गान किया है. जब वह मैंने पढ़ा, तो मुझे लगा कि ये लोग राजनीति में बड़े मँजे हुये हैं. कोई भी बहाना बनाकर व्यक्ति से सम्बन्ध जोड़ने और अपना काम निकालने का यह तरीका है. मराठी में एक कहावत है- ‘मधाचे बोट

लावणे’ याने शहद में उंगली डुबोकर दूसरे के मुँह पर लगा देना. ऐसा करने से सहज ही जीभ ललचाकर बाहर आयेगी ही. मनुष्य की दुर्बलता का उपयोग करने की दृष्टि से यह चतुराई का

प्रयोग है. मैं आशा करता हूँ कि अपने देश के उच्चपदस्थ बड़े-बड़े लोग और अपनी प्रधान-मंत्री जी भी इस प्रकार के प्रलोभन से भरी उनकी चतुराई को ठीक-ठीक समझ सकेंगे. कभी फिसलेंगे नहीं, और अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखेंगे.

इस प्रकार के प्रलोभन देने के प्रयोग विश्व भर में चल रहे हैं. बार-बार जब प्रशंसा के पुल बाँधे जाते हैं, तो मनुष्य को वास्तविकता समझा पाना कठिन हो जाता है और वह जाल में फँसता है. इन प्रलोभनों को पहचानने की ओर उनसे टकराने की शक्ति तथा उन पर विजय प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय, बचपन से ही प्रत्येक व्यक्ति को सिखाने की आवश्यकता है. प्रलोभनों से पथभ्रष्टता और स्वार्थों से भ्रष्टाचार इन दोनों ही प्रकार की आपत्ति टाल सकने योग्य चारित्र्य का विकास होना जरूरी है.

प्रत्येक छात्र के मस्तिष्क में यह बात अच्छी तरह बैठा देनी होगी कि मैं अपने राष्ट्र की सेवा करूँगा. राष्ट्र में ज्ञान-विज्ञान की विविध धाराओं को पुष्ट करूँगा. आधुनिक जगत् में प्रगति के जो-जो मार्ग दिखाई दे रहे हैं, उन सबका गहरा अध्ययन कर आगे बढ़ूँगा. अपने स्वार्थ का लेशमात्र भी विचार नहीं करूँगा.

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