रविवार, 2 मार्च 2014

आर्यों की भारत में घुसपैठ के झूठ की जड़


आर्यों की भारत में घुसपैठ के झूठ की जड़

आर्यों की भारत में घुसपैठ के झूठ की जड़

(एक) मूल कारण है, एशियाटिक सोसायटी।  
कितने वर्षों से यह प्रश्न मुझे सता रहा था। प्रश्न था, कि कहां से यह “आर्यन इन्वेज़न ऑफ इंण्डिया” का झूठ फैलाया गया?  इसके पीछे कौनसा उद्देश्य और कौन सी शक्तियां काम कर रही थीं? भारतीय मानस को इसने, ऐसे विषैले झूठ से सराबोर कर दिया कि आज तक इस कुटिल धारणा से सामान्य भारतीय जानकार, मुक्त नहीं हो पाया है। जाने अनजाने हम अपने ही देश में पराए होते चले गए; विभाजित होते चले गए।
==>इस झूठ का  कारण है, एशियाटिक सोसायटी। 
जो एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगाल, १७८६ में विलियम जोन्स ने स्थापी थीं,  उसी की लन्दन शाखा में आगे, १८६६ में, जो षड्यंत्र रचा गया, वही इस मिथ्या-अवधारणा का कारण है।
प्रत्येक वर्ष एशियाटिक सोसायटी अपनी बैठकों के वृत्तान्तों का वार्षिक (Yearly Reports of Society’s Proceedings) संचयन प्रकाशित किया करती थीं।अनुमान है, कि, उन्हीं वृत्तान्तोंमें से इस झूठ को पकड़ा गया है। यह है, आर्य-अतिक्रमण’ का  झूठ। प्राकृत रिसर्च इन्स्टिट्यूट, वैशाली, बिहार के, डॉ. डीएस त्रिवेदी ने इस झूठ का स्फोट किया। संक्षेप में मैं इसी वृत्तान्त का आधार लेकर आलेख प्रस्तुत करता हूं।
डॉ.त्रिवेदी नें एक बड़े झूठ का भंडाफोड़ कर, क्रान्तिकारी सच्चाई को उजागर  किया है। यह जानकारी डॉ. त्रिवेदी नें अंग्रेज़ी शोधपत्रों में १९९२ में छपवाई, परिणाम, वह छपी तो सही, पर छपकर ही रह गयी।
(दो) इसे हिंदी में छपना चाहिए था।
ऐसे महत्त्वपूर्ण शोधपत्रों के  कम से कम, संक्षिप्त समाचार, भारतीय संचार माध्यमों मे छपने चाहिए। हिंदी में छपते तो कुछ तो हमारा समाज जाग्रत होता, कुछ जानकारी पाता, तो मानसिक रीति से मुक्त भी होता। फिर प्रादेशिक भाषाओं में भी फैल जाता। ऐसी जानकारी, भारतीय मानस को शनैः शनैः ही स्वतंत्र होने में सहायता अवश्य करती। उन पत्रों में उन्हें कई गुना परिश्रम करना पडता है। डॉ. त्रिवेदी ने अंग्रेज़ को रंगे हाथ पकडा है। रक्त रंजित हाथ है और छुरी भी है।
बाकी शोधपत्र  भी ढेरों लिखे गए हैं, पर वे सारे परोक्ष भी हैं, और अंग्रेज़ी में भी होते हैं। सुई खोई है, घास की गंजी में, पर ढूंढ़ते हैं हम उसे अंग्रेज़ी के दीप तले।इस लिए भी हम स्वतंत्र नहीं हो रहे।
(तीन) कड़वे रस में डुबा गुलाब जामुन
सोचता हूं कि यदि गुलाब जामुन को शक्कर के बदले, कड़वे रस में  डुबाया जाए तो वह पूरा का पूरा कड़वा हो जाएगा। बस वैसे ही भारतीय मानस को अंग्रेज़ आत्म-द्वेष, स्वभाषा-द्वेष, स्व-संस्कृति द्वेष, इत्यादि के कड़वे अंग्रेज़ी रस में सराबोर कर चला गया है। अंग्रेज़ी के सारे पुरस्कर्ता जब संसद में बोलते हैं, तो ग्लानि से मन भर जाता है।
सबेरे से रात तक, जो भी सोचता हूं तो अपनी सोच पर ही संदेह होता है। कहीं मेरी ही मानसिकता से निकलता हुआ चयन, दास्यता की, गुलामी की अभिव्यक्ति तो नहीं?
इतने सारे कुटिल मिशनरियों की, प्राच्यविदों की, विद्वानों की सेना हमें आत्मद्वेष से भरकर गयी है कि भारत मानसिक रीति से यदि स्वतंत्र हो जाए तो उसे संसार का आठवां आश्चर्य मानूंगा। जब हमारे विद्वान ही ब्रेनवॉश्ड (जान बूझकर लिखा) हुए हैं तो सामान्य जन की क्या कहें? जान लीजिए कि, आप-हम-भारत आज भी स्वतंत्र नहीं है। और ऐसे “ब्रेन वॉश्ड विद्वान” ही जब शिक्षक होते हैं, तो बालकों को भी क्या पढ़ाएंगे?  

(चार) लन्दन, रॉयल एशियाटिक सोसायटी की १८६६ की गुप्त बैठक

भारत को मतिभ्रमित (ब्रेन वॉश) करने के लिए, एक गुप्त बैठक १० अप्रैल १८६६ में, लन्दन की, रॉयल एशियाटिक सोसायटी में हुयी थी। वहां षड्यंत्र रचा गया था। जिसके अंतर्गत भारत में ’आर्य-अतिक्रमण’ के झूठे सिद्धान्त को तैराया गया था। उद्देश्य था उसके  परिणामस्वरूप भारत की प्रजा अंग्रेज़ों को परदेशी ना मानें। आर्य बहार से घुसे और अंग्रेज़ भी बहार से घुसे। दोनों का भारत पर समान अधिकार है; यह प्रमाणित करना।
A Secret meeting was held in the Royal Asiatic Society on April 10 1866, London when a conspiracy was hatched to induct the theory of Aryan Invasion of India, so that no Indian may say that the English are foreigners. “India was, ruled all along by outsiders and so the country must remain a slave under the Christian benign rule.”( The British wanted to justify their rule in India. To that end they tried to show all people here are outsiders,)
इस गुप्त बैठक में, इसाई पादरी एडवर्ड थॉमस ने ’आर्यन इन्वेज़न थियरी’ [ आर्य घुसपैठ का सिद्धान्त ] का  कपोलकल्पित सिद्धान्त  प्रस्तुत किया। लॉर्ड स्ट्रेंगफोर्ड बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे।
धीरे-धीरे सुझाया गया कि तथाकथित आदिवासी, द्राविडी, आर्य, हूण, शक, राजपूत, और इस्लामपंथी इत्यादि, गुट अलग अलग ऐतिहासिक कालावधि में, भारत में, घुसकर शासन करते रहे हैं। इस प्रकार दिखाया गया कि जब भारत, सदा परदेशी घुसपैठियों से ही शासित हुआ है तो अंग्रेज़ी शासन से भारत को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। भारतीयों को स्वतंत्रता की मांग करने का भी कोई कारण नहीं है।
(डॉ. डी, एस. त्रिवेदी, प्राकृत रिसर्च इन्स्टिट्यूट, वैशाली, बिहार)
” A clever clergyman Edward Thomas spelled the theory with Lord Strangford in the chair. Slowly and Slowly it was suggested that the so-called aborigines, Dravidians, Aryans, Hunas, Sakas, Rajputs and Muslims came at different epochs and ruled the country. Thus it was suggested that the country had been ruled by the foreign invaders and so there is nothing wrong if the Britishers are ruling the country. And, therefore, Indians had no right to demand independence.”
{Dr. D. S. Triveda, Professor, Prakrit Research Institute, Vaisali,Bihar}
(पांच) डॉ. अम्बेडकर का निरीक्षण-विश्लेषण 
एक अलग और तर्क शुद्ध प्रमाण डॉ. अम्बेडकर भी, वेदों का अध्ययन करने के पश्चात प्रस्तुत करते हैं।
डॉ. अंबेडकरजी कहते हैं:
“आर्यों की भारत में घुसपैठ’ का सिद्धांत एक मन गढंत झूठी कहानी है। ऐसा झूठ आवश्यक था, एक दूसरे झूठ को पुष्ट करने के लिए। यह दूसरा झूठ, जो उन्हें वास्तव में प्रमाणित करना था; वह था:
====>” इन्डो-जर्मेनिक जाति शुद्ध आर्य वंश का प्रतिनिधित्व करती  है;” इस झूठ को प्रस्थापित करने के लिए, फिर भारत में आर्यों की घुसपैठ आवश्यक हो गयी। भारत में तथाकथित “इंडो जर्मेनिक आर्य” घुसकर आए बिना, जर्मन जाति का भारत से संबंध कैसे जुड़ता?  और इसलिए ऐसा झूठा सिद्धान्त फैलाया गया। इस  सिद्धान्त को प्रस्थापित करने के लिए फिर अन्य तर्क-कुतर्क भी लड़ाए गये।<==
– डॉ. अंबेडकर जी के उद्धरण का भावानुवाद है यह।
(छः)  आर्य, दास और दस्युं — डॉ. अम्बेडकर 
डॉ. अम्बेडकर जी ही आगे लिखते हैं।
(१) वेदों में  आर्य शब्द है, पर उस नाम से किसी प्रजाति का उल्लेख नहीं होता।
{वेदों में आर्य शब्द प्रयोग अवश्य है। उसका अर्थ होता है, उच्च संस्कारित व्यक्तित्व —जैसे  कृण्वन्तु विश्वं आर्यं –का अर्थ होता है, हम विश्व को संस्कारित कर ऊंचे उठाएंगे। —लेखक}
(२) वेदों में, आर्य प्रजाति की भारत में घुसपैठ का कोई प्रमाण नहीं है। और मूल निवासी दासों और दस्युओं पर विजय प्राप्त किए जाने का भी, कोई प्रमाण नहीं है।
(३) आर्यों, दासों  और दस्युओं में कोई प्रजातिगत भेद की पुष्टि  करता प्रमाण भी नहीं मिलता।
वैदिक आर्य, दास और दस्युओं से अलग रंग के थे इस की पुष्टि भी वेदों में नहीं मिलती।
यदि *मानवमिति* नामका कोई विज्ञान माना जाता है, जिसके आधारपर मनुष्य की प्रजाति सुनिश्चित की जा सकती है……..(और उसके उपयोग से)  यदि ब्राह्मण आर्य प्रजाति का प्रमाणित होता है, तो अस्पृश्य भी आर्य प्रजाति का ही प्रमाणित होगा। और  यदि ब्राह्मण द्राविड प्रजाति का प्रमाणित होता है, तो अस्पृश्य भी द्राविडी  प्रजाति का ही प्रमाणित होगा।
* मानवमिति* एक शास्त्र है। जैसे भूमिति का अर्थ होता है, भू (भूमि) को  (मापन का) मापने का  विज्ञान; उसी प्रकार मानवमिति का अर्थ = मनुष्यके शरीर और अंगों का मापन कर उसकी प्रजाति सुनिश्चित करने का शास्त्र। अंग्रेज़ी में इसे  Anthropometry कहा जाता है। और माना जाता है कि हिटलर ने इसी का उपयोग कर जर्मनियों को भारत से जोड़ने का प्रयास किया था। शरीर के अंगों का अनुपात (प्रमाण ) इस में मह्त्व का होता है, रंग नहीं।
(सात) विवेकानंदजी की चुनौती
सबसे पहले, स्वामी विवेकानन्दजी ने इस आर्य-अतिक्रमण’ के झूठे सिद्धान्त  को चुनौती दी थी। उन्हों ने कहा था “ये सिद्धांत निरी मूर्खता है।”
“किस वेद में, वेद के किस सूक्त में, आप को आर्यों के, परदेश से यहां आकर भारत में बसने की बात का उल्लेख या प्रमाण मिलता हैं? कहां से ऐसी झूठी कल्पना करने के लिए भी आप को, प्रमाण प्राप्त होता है कि यहां के वनवासी आदिवासियों का नरसंहार किया गया था? आप को ऐसे मूर्खतापूर्ण ढपोसले से क्या मिलने वाला है?
आपकी सारी रामायण की पढ़ाई वृथा है, बेकार है। उसमें जो है ही नहीं, उस विषय में क्यों झूठी कपोल कथा खड़ी कर  रहे हो?”
(आठ) युरोप और भारत की सभ्यता का अंतर
विवेकानंद जी आगे कहते हैं;
“युरप की सभ्यता का उद्देश्य है अन्य सभी का जड़मूल से, नाश; मात्र अपने और अपने ही सुखी-जीवन के लिए। अन्यों का संहार कर अपनी समृद्धि का स्वप्न पश्चिम देखता है। पर हमारी आर्य संस्कृति का लक्ष्य है, सभी को अपने स्तर से भी ऊपर उठाकर, संस्कारित करना।
युरोपियन सभ्यता का साधन है तलवार;  हमारा साधन है, वर्ण व्यवस्था।
यह वर्ण व्यवस्था ही संस्कृति की ऊर्ध्व गामिनी सीढ़ी है। प्रत्येक को ऊंचा उठनेका अवसर उपलब्ध है। प्रत्येक (व्यक्ति और जाति )अपने आप को ऊपर उठाती चली जाए, अपने ज्ञान और और संस्कार के आधार पर। ऐसे संस्कारित होने को ही आर्यत्व माना गया है और सभी को ऐसे संस्कारित करने की घोषणा है, ॥ऋण्वन्तु विश्वं आर्यं॥ { Ref: Castes Culture and Socialism-Vivekaanand}
युरोप में हर जगह बलवान की विजय और दुर्बल की मृत्यु है।
पर इस भारत भूमि पर, प्रत्येक सामाजिक नियम, दुर्बल की रक्षा के लिए गढ़ा जाता है। हमारी समानता हर कोई को, ऊंचे स्तर पर उठाकर उस स्तर पर समानता का आदर्श रखती है। हमारी जातिका सदस्य सभी के साथ रहते हुए  ऊपर उठता है, अपनी उन्नति में सभीको सहभागी बनाकर।
सभीके लिए आदर्श है, ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य। { Castes Culture and Socialism-Vivekaanand} 

(नौ ) पश्चिम की जाति धन पर आधारित है। 

युरोपीय अमरिका में कोई निर्धन बस्ती का वासी यदि धनी हो जाता है, तो, तुरंत उस बस्ती से उठकर धनिकों की बस्ती में घर खरिदकर अलग हो जाता है।जिन के साथ वह रहकर समृद्ध हुआ, उनसे ही अलग हो जाता है। पर, हमारे यहां जाति का सदस्य यदि उन्नति कर लेता है, तो वह अपनी जाति के साथ साथ ऊपर उठता है। साथ जाति को भी ऊपर उठाता है। {अम्बेडकर जी का ही उदाहरण लीजिए।} उनका त्याग कर, अलग होकर धनिकों के साथ रहने नहीं चला जाता। यह सभी को ऊपर उठाना, संस्कारित करना, यही है, ॥कृण्वन्तु विश्वं आर्यं॥ इसी लिए विवेकानंद जी कहते हैं, हमारा साधन है, वर्ण व्यवस्था। हमने अपनी स्वतंत्रता के लिए संहार नहीं किया। यह “कृण्वन्तु विश्वम आर्यम” की प्रक्रिया (जो शतकों तक चलती है) की सफलता का परिचायक है। {यह सब कुछ आप पृष्ठ १४० के आस पास “कास्ट्स ऑफ माइंड” में देख पाएंगे।} जिसका अर्थ, सारे विश्व को “आर्य” अर्थात सुसंस्कृत बनानेसे है, न कि किसी भेद-भाव की दूषित मनो वृत्ति से।
(दस) समन्वयकारी विचारधारा। ऋण्वन्तु भारतं आर्यं।
भारत (हिंदुत्व) की विचार-धारा समन्वय कारी है। हमारे बीच असंख्य देवी देवता, कुछ तो वनवासी, आदिवासी समाज की प्रथाएं, पहाड पत्थर की पूजा, नाग-पूजा, वृक्ष-पूजा, हमारे देवी देवताओं के वाहन रूपी चूहा, हंस, बाघ, सिंह, हाथी के मुख वाले देव, वानर-मुख वाले देव, इत्यादि इत्यादि इसी समन्वयकारी “कृण्वन्तु विश्वम्‌ आर्यम्‌” की अभिव्यक्ति है। जब हमारे पूरखें किसी वनवासी क्षेत्र में गए और वहां के लोगों को वन्य वस्तुओं के प्रति आदर भाव से प्रेरित पाया, तो उन्होंने उनका , गोरे लोगों की भांति संहार नहीं किया, पर उनके भी देवी देवताओं को सम्मानपूर्वक अपने असंख्य देवों के गणों में सम्मिलित कर लिया।
हमारा “एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति” भी हमें काम आता है। यह है समन्वयकारी परम्परा।
हमारी इसी सहिष्णुता के आयाम का अतिरेक कभी कभी हमारे दुर्गुण में परिवर्तित हुआ है। इसे ही “सदगुण-विकृति” कहा जाता है।
हजार वर्ष के परदेशी थपेड़ों से शिथिलता अवश्य आयी है। उसी के परिणामस्वरूप समाज में विकृतियाँ भी घुस चुकी है। इन विकृतियों को दूर करना हर जगे हुए भारतीय का काम है।
घोष है, ।ऋण्वन्तु विश्वं आर्यं। साथ साथ-ऋण्वन्तु भारतं आर्यं।

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