सोमवार, 17 मार्च 2014

होली

गौरवमयी भारतवर्ष की तरफ से शुभ होली 
होली 


होली भारत का प्रमुख त्योहार है। होली जहाँ एक ओर सामाजिक एवं धार्मिक है, वहीं रंगों का भी त्योहार है। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। इसमें जातिभेद-वर्णभेद का कोई स्थान नहीं होता। इस अवसर पर लकड़ियों तथा कंडों आदि का ढेर लगाकर होलिकापूजन किया जाता है फिर उसमें आग लगायी जाती है। पूजन के समय मंत्र उच्चारण किया जाता है।
प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है। पुराणों में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्नि स्नान करती और जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्निस्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु होलिका जल गयी, प्रह्लाद बच गये। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।
यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था। जैमिनि, 1।3।15-16 के अनुसार  भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि 'होलाका' सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए।काठकगृह्य  73,1 में एक सूत्र है 'राका होला के', जिसकी व्याख्या टीकाकार देवपाल ने यों की है- 'होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका (पूर्णचन्द्र)  देवता है।' राका होलाके। काठकगृह्य (73।1)।' इस पर देवपाल की टीका यों है: 'होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होला के राका देवता। यास्ते राके सुभतय इत्यादि। अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य रूपों में की है। 'होलाका' उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र , 1।4।42  में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि  ने काल, पृ. 106 बृहद्यम का एक श्लोक उद्भृत किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी अर्थात आलकज की भाँति  कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है।'वराह पुराण में आया है कि यह 'पटवास-विलासिनी'  अर्थात  चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली है। (लिंगपुराणे। फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बालविकासिनी। ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकर्विभूतये।। 
वाराहपुराणे। फाल्गुने पौर्णिमास्यां तु पटवासविलासिनी। ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये॥ हेमाद्रि (काल, पृ. 642)। 
इसमें प्रथम का.वि. (पृ. 352) में भी आया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-बालवज्जनविलासिन्यामित्यर्थ:)

जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से 'होलाका' का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवंभविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। अत: होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्ती भरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंगअबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है। कुछ प्रदेशों में यहरंग युक्त वातावरण 'होलिका के दिन' ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिये जाते हैं और बहुत दिनों तक चलते रहते हैं; होलिका के पूर्व ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (कीचड़) भी फेंकते हैं। (  वर्षकृत्यदीपक (पृ0 301) में निम्न श्लोक आये हैं- 
'प्रभाते बिमले जाते ह्यंगे भस्म च कारयेत्। सर्वागे च ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत्॥
सिन्दरै: कुंकुमैश्चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्। गीतं वाद्यं च नृत्यं च कृर्याद्रथ्योपसर्पणम् ॥ 
ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: वह गन्तव्यं फाल्गुन्यां च युधिष्ठिर ॥')  कही-कहीं दो-तीन दिनों तक मिट्टी, पंक, रंग, गान आदि से लोग मतवाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग मचाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। वास्तव में यह उत्सव प्रेम करने से सम्बन्धित है, किन्तु शिष्टजनों की नारियाँ इन दिनों बाहर नहीं निकल पातीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि लोग भद्दी गालियाँ न दे बैठें। श्री गुप्ते ने अपने लेख  हिन्दू हॉलीडेज एवं सेरीमनीज'(पृ. 92  में प्रकट किया है कि यह उत्सव ईजिप्ट, मिस्र या ग्रीस, यूनान से लिया गया है। किन्तु यह भ्रामक दृष्टिकोण है। लगता है, उन्होंने भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है, दूसरे, वे इस विषय में भी निश्चित नहीं हैं कि इस उत्सव का उद्गम मिस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए।

हेमाद्रि ने  व्रत, भाग 2, पृ0 174-19 भविष्योत्तर , 132।1।51 से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और 'होलाका' क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है।
प्रह्लाद को गोद में बिठाकर बैठी होलिका
कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिवने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतुका आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्नमन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन 'अडाडा' या 'होलिका' कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।' (पुस्तक- धर्मशास्त्र का इतिहास-4 | लेखक- पांडुरंग वामन काणे | प्रकाशक- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान)

होलिका दहन पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुन पूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं।
राधा-कृष्ण की छवि में ब्रजवासी, बरसाना
इसी 'अलाव को होली' कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्य व संगीत का आनन्द लेते हैं।

होली और राधा-कृष्ण की कथा

भगवान श्रीकृष्ण तो सांवले थे, परंतु उनकी आत्मिक सखी राधा गौरवर्ण की थी। इसलिए बालकृष्ण प्रकृति के इस अन्याय की शिकायत अपनी माँ यशोदा से करते तथा इसका कारण जानने का प्रयत्न करते। एक दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को यह सुझाव दिया कि वे राधा के मुख पर वही रंग लगा दें, जिसकी उन्हें इच्छा हो। नटखट श्रीकृष्ण यही कार्य करने चल पड़े। आप चित्रों व अन्य भक्ति आकृतियों में श्रीकृष्ण के इसी कृत्य को जिसमें वे राधा व अन्य गोपियों पर रंग डाल रहे हैं, देख सकते हैं। यह प्रेममयी शरारत शीघ्र ही लोगों में प्रचलित हो गई तथा होली की परंपरा के रूप में स्थापित हुई। इसी ऋतु में लोग राधा व कृष्ण के चित्रों को सजाकर सड़कों पर घूमते हैं। मथुरा की होली का विशेष महत्त्व है, क्योंकि मथुरा में ही तो कृष्ण का जन्म हुआ था।
होली और ढूंढी की कथा 
भविष्यपुराण में वर्णित है कि सत्ययुग में राजा रघु के राज्य में माली नामक दैत्य की पुत्री ढोंढा या धुंधी थी। उसने शिव की उग्र तपस्या की। शिव ने वर माँगने को कहा। उसने वर माँगा- प्रभो! देवता, दैत्य, मनुष्य आदि मुझे मार न सकें तथा अस्त्र-शस्त्र आदि से भी मेरा वध न हो। साथ ही दिन में, रात्रि, में शीतकाल में, उष्णकाल तथा वर्षाकाल में, भीतर-बाहर कहीं भी मुझे किसी से भय नहीं हो।' शिव ने तथास्तु कहा तथा यह भी चेतावनी दी कि तुम्हें उन्मत्त बालकों से भय होगा। वही ढोंढा नामक राक्षसी बालकों व प्रजा को पीड़ित करने लगी। 'अडाडा' मंत्र का उच्चारण करने पर वह शांत हो जाती थी। इसी से उसे 'अडाडा' भी कहते हैं। इस प्रकार भगवान शिव के अभिशाप वश वह ग्रामीण बालकों की शरारत, गालियों व चिल्लाने के आगे विवश थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि होली के दिन ही सभी बालकों ने अपनी एकता के बल पर आगे बढ़कर धुंधी को गाँव से बाहर धकेला था। वे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए तथा चालाकी से उसकी ओर बढ़ते ही गये। यही कारण है कि इस दिन नवयुवक कुछ अशिष्ट भाषा में हँसी मजाक कर लेते हैं, परंतु कोई उनकी बात का बुरा नहीं मानता।
होली की प्राचीन कथाएं 
  • एक कहानी यह भी है कि कंस के निर्देश पर जब राक्षसी पूतना श्रीकृष्ण को मारने के लिए उनको विषपूर्ण दुग्धपान कराना शुरू किया लेकिन श्रीकृष्ण ने दूध पीते-पीते उसे ही मार डाला। कहते हैं कि उसका शरीर भी लुप्त हो गया तो गाँव वालों ने पूतना का पुतला बना कर दहन किया और खुशियाँ मनायी। तभी से मथुरा मे होली मनाने की परंपरा है।
  • एक अन्य मुख्य धारणा है कि हिमालय पुत्री पार्वती भगवान शंकर से विवाह करना चाहती थी। चूँकि शंकर जी तपस्या में लीन थे इसलिए कामदेवपार्वती की मदद के लिए आए। कामदेव ने अपना प्रेमबाण चलाया जिससे भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई। शिवशंकर ने क्रोध में आकर अपनी तीसरा नेत्र खोल दिया। जिससे भगवान शिव की क्रोधाग्नि में जलकर कामदेव भस्म हो गए। फिर शंकर जी की नज़र पार्वती जी पर गई। शिवजी ने पार्वती जी को अपनी पत्नी बना लिया और शिव जी को पति के रूप में पाने की पार्वती जी की आराधना सफल हो गई। होली के अग्नि में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकात्मक रूप से जलाकर सच्चे प्रेम के विजय के रूप में यह त्योहार विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
  • मनुस्मृति में इसी दिन मनु के जन्म का उल्लेख है। कहा जाता है मनु ही इस पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मानव थे। इसी दिन 'नर-नारायण' के जन्म का भी वर्णन है जिन्हें भगवान विष्णु का चौथा अवतार माना जाता है।सतयुग में भविष्योतरापूरन नगर में छोटे से लेकर बड़ों को सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियाँ लग गई। वहाँ के लोग द्युँधा नाम की राक्षसी का प्रभाव मान रहे थे। इससे रक्षा के लिए वे लोग आग के पास रहते थे। सामान्य तौर पर मौसम परिवर्तन के समय लोगों को इस तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं, जिसमें अग्नि राहत पहुँचाती है। ‘शामी’ का पेड़ जिसे अग्नि-शक्ति का प्रतीक माना गया था, उसे जलाया गया और अगले दिन सत्ययुगीन राजा रघु ने होली मनायी।
इस तरह देखते हैं कि होली विभिन्न युगों में तरह-तरह से और अनेक नामों से मनायी गयी और आज भी मनाई जा रही है। इस तरह कह सकते हैं कि असत्य पर सत्य की या बुराई पर अच्छाई पर जीत की खुशी के रूप में होली मनायी जाती है। इसके रंगों में रंग कर हम तमाम खुशियों को आत्मसात कर लेते हैं।

साहित्य में होली की झलक

संस्कृत शब्द 'होलक्का' से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में 'होलक्का' को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था। बंगाल में होली को डोल यात्रा या झूलन पर्व,दक्षिण भारत में कामथनम, मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ में ’गोल बढ़ेदो’ नाम से उत्सव मनाया जाता है और उत्तरांचल में लोक संगीत व शास्त्रीय संगीत की प्रधानता है। 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली', 'कुमार सम्भव' सभी में रंग का वर्णन आया है। कालिदास रचित 'ऋतुसंहार' में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। 'भारवि', 'माघ' जैसे संस्कृत कवियों ने भी वसन्त और होली पर्व का उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है। 'पृथ्वीराज रासो' में होली का वर्णन है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली को लेकर कई मस्ती भरे पद लिखे हैं जिनमें प्रकृति और धरती माता के होली खेलने के भावों को प्रकट किया गया है। 

होली बसंत व प्रेम-प्रणव का पर्व है तथा धर्म की अधर्म पर विजय का प्रतीक है। यह रंगों का, हास-परिहास का भी पर्व है। यह वह त्योहार है, जिसमें लोग 'क्या करना है, तथा क्या नहीं करना' के जाल से अलग होकर स्वयं को स्वतंत्र महसूस करते हैं। यह वह पर्व है, जिसमें आप पूर्ण रूप से स्वच्छंद हो, अपनी पसंद का कार्य करते हैं, चाहे यह किसी को छेड़ना हो या अज़नबी के साथ भी थोड़ी शरारत करनी हो। इन सबका सर्वोत्तम रूप यह है कि सभी कटुता, क्रोध व निरादर बुरा न मानो होली है की ऊँची ध्वनि में डूबकर घुल-मिल जाता है।बुरा न मानो होली है की करतल ध्वनि होली की लंबी परम्परा का अभिन्न अंग है।



 हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक , वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक, वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों का  परिचायक , वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होने वाली प्रसन्नता का प्रतीक होली की हार्दिक मंगलमय शुभ कामनाएं और अनंत बधाई !

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