बुधवार, 28 अगस्त 2013

जयतु राष्ट्रम - वैदिक ग्रंथों में राष्ट्र

जयतु राष्ट्रम - वैदिक ग्रंथों में राष्ट्र


हमें सर्वप्रथम वैदिक ऋषियोंं की वाणी में राष्ट्रीयता का गौरव गान सुनाई
देता है। विश्व को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का राजमार्ग प्रदर्शित
करने वाले, आत्मा और परमात्मा का सत्यस्वरूप प्रतिपादित करने वाले
तथा ज्ञान, विज्ञान के आलोक से वसुधा को आलोकित करने वाले, वेदों मे
यत्र-तत्र सर्वत्र, राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित होता रहा है। तथा लौकिक
कवियों की कृतियों में भी अभिव्यंजित राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित
होता रहा है। परन्तु लौकिक कवियों की अभिव्यंजित राष्ट्रीयता में
तथा वैदिक संहिताओं में अभिव्यक्त राष्ट्रीयता में एक मौलिक अन्तर यह है,
कि लौकिक कवियों का राष्ट्र प्रेम अपने-अपने राज्यों अथवा देशों और
स्वदेशीय प्रजा के कल्याण तक सीमित है, जबकि वैदिक संहिताओं
का राष्ट्र-प्रेम सम्पूर्ण वसुधा को और प्राणीमात्र को अपने आंचल में
समेटे हुए है। ‘‘यत्र विश्वं भवत्येक नीडम’’ की व्यापक दृष्टि वेदों में सर्वत्र
परिलक्षित होती है। वेदों में अनेक स्थानों पर अपनी मातृभूमि की रक्षा में
सर्वस्व समर्पण का सन्देश दिया गया है। वेदों में अनेक स्थानों पर
अपनी मातृभूमि की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई है, जिसे पढ़कर या सुनकर
प्रत्येक देशवासी के हृदय में अपने देश के लिए, गौरव का भाव पनपता है।
वैदिक ट्टषि अपनी मातृभूमि के वन-पर्वत, सरित-सागर आदि के सौन्दर्य
पर मुग्ध हैं, वहां निवास करने वाली प्रजा के सांस्कृतिक जीवन पर भी वे
मुग्ध हैं। भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी, भिन्न-भिन्न प्रकार की वेशभूषा धारण
करने वाले लोगों को देखकर, उनका मन मयूर प्रसन्नता से नृत्य करने
लगता है। अथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त इस दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व साहित्य में
अनुपम है। इस सूक्त में राष्ट्र-प्रेम की ऐसी धारा प्रवाहित हो रही है,
जिसके अवगाहन से रोम-रोम में राष्ट्रीयता हिलोरंे लेने लगती है। अथर्ववेद
का ट्टषि अपनी जन्म-भूमि के प्रति दिव्य भावों के स्फुरण के लिये
कहता है- ‘यही वह भूमि है जिसमें हमारे पूर्वजों ने नाना प्रकार के महान
कार्य किये। यहीं पर देवों ने असुरों को पराजित किया। यहीं गौ आदि अमृत
तुल्य दुग्ध प्रदान करने वाले, अश्वादि द्रुतगति से दौड़ने वाले पशुओं
का और मुक्त गगन में उड़ने वाले पक्षियों का सुन्दर निवास है। ऐसी यह
मातृभूमि, हमें तेज और ऐश्वर्य से परिपूर्ण कर दे।’
‘यस्यां पूर्वे पूर्वजना वि चक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन्।
गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु।।’ (अथर्व.
12/1/5)
यह मातृभूमि कितनी श्रेष्ठ है जिसकी रक्षा देवों के समान कुशल विद्वान
राजा और प्रजा सदैव जागरूक रहकर बिना प्रमाद के करते हैं।
‘यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिं पृथिवीमप्रमादम्’ (अथर्व.
12/1/7)
सम्पूर्ण विश्व में स्वर्णाक्षरों में अंकित किये जाने योग्य, वह वाक्य जिसके
प्रत्येक वर्ण में देश-प्रेम का ज्वालामुखी छिपा हुआ है, इसी पृथ्वी सूक्त में
है-
‘माता भूमिः फत्रो{हं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु।’
भूमि को माता कहकर फकारना और पर्जन्य अर्थात् मेघ को पिता कहकर
सम्मानित करना, एक ऐसा सिद्धांत है जिससे हमारे नीति निर्माता बहुत
कुछ सीख सकते हैं। आज जो हमारे राष्ट्र में कृषि की महत्ता पर बड़े-बड़े
सेमिनार हो रहे हैं, कृषिनीति की तैयारियां हो रही हैं, उसका सूत्ररूप वेदों में
विद्यमान है।
‘विश्वस्वं मातरमाषधीनां ध्रुवां भूमि पृथिवीं धर्मणा धृताम्।
शिवा स्योनामनुचरेम विश्वहा।’ (अथर्व. 12/1/17)
भूमिसूक्त में भावप्रवण प्रार्थना करते हुए निवेदन किया गया है- हे
मातृभूमि! तुम से जो गन्ध उत्पन्न हो रहा है, जिस गन्ध
को औषधियां धारण करती हैं, जिसको जल धारण कर रहे हैं, जिसको सुन्दर
युवक और युवतियां प्राप्त कर रहे हैं, उस अपने गन्ध से मुझ को भी सुन्दर
गन्ध वाला बना दे और कोई भी हमसे द्वेष न करे।
‘यस्ते गन्धः पृथिवि संबभूव यं बिभ्रत्योषधयो यमापः।
यं गन्धर्वा अप्सरश्च भेजिरे तेन मा सुरभि कृणु। मा नो द्विक्षत
कश्चन।’ (अथव. 12/1/23)
हमारे राष्ट्र की यह भूमि स्थल रूप में देखने पर केवल शिलाओं, पत्थरों और
धूल-मिट्टी का ढ़ेर प्रतीत होती है, किन्तु राष्ट्रवासियों द्वारा सम्यक्
प्रकार से धारण किये जाने पर तथा इसे प्राणो से भी प्रिय समझ लेने पर,
यही धरती राष्ट्रवासियों को आश्रय देने वाली मातृभूमि बन जाती है और
हम सबको धारण कर लेती है। इस मां के वक्षः स्थल में हिरण्यादि पदार्थ
छिपे हुए है। यह अपने भक्तों को इन सुवर्णादि से परिपूर्ण कर देती है,
ऐसी मातृभूमि को हम नमन करते हैं-
‘शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमि संधृता धृता।
तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः।।’ (अथर्व 12/1/26)
ग्रीष्म, वर्षा, शरद वसन्त, हेमन्त और शिशिर ये 6 ट्टतुएं
इसकी शोभा बढ़ाती हैं। इस भूमि पर यजुर्विद यज्ञीय-स्तूपों का निर्माण
करते हैं, ब्राह्मण ऋग्वेद के मन्त्रों एवं सामवेद के मधुर गान से
परमात्मा की अर्चना करते हैं। इसी भूमि में हम मानव गाते हैं, नाचते हैं।
योद्धा युद्ध करते हैं, शोर मचाते हैं, दुन्दुभि बजाते हैं, ऐसी यह
पृथ्वी माता हमारे शत्रुओं को मार भगावें और हमें शत्रुरहित कर देवें-
‘यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति भूम्यां मर्त्या व्यैलबाः।
युध्यन्ते यस्यामाक्रन्दो यस्यां वदति दुन्दुभिः।
सा नो भूमिः प्रणुदतां सपत्नानसपन्न मां पृथिवी कृणोतु।’ (अथर्व.
12/1/41)
अथर्ववेद के अतिरिक्तं ऋग्वेद, यजुर्वेद में वर्णित राष्ट्रीयता के दिव्य भाव
हृदय आनन्द विभोर कर देते हैं।
एक देश में जन्म लेने वाले हम सब देशवासियों में एक रागात्मक सुदृढ़
बन्धुता का उदय होता है, जिससे प्रेरित होकर हम लोग छोटे-बड़े
(ज्येष्ठत्व, कनिष्ठत्वश् का भेदभाव भूलकर और सभी एक
ही धरती माता की गोद से उत्पन्न हुए हैं (पृश्निमातरःश्, ऐसा मानकर
अपनी मातृभूमि के विकास एवं रक्षा में पूर्ण शक्ति से लगने में ही गौरव
अनुभव करते हैं-
‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय।’ (ऋग्वेद
5/60/5)
अनेक पाश्चात्य चिन्तकों तथा उनके अनुगामी, भारतीय राजनीति शास्त्र के
लेखकों का विचार है कि राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता भारत को पश्चिम की देन
है, किन्तु वैदिक संहिताओं का अध्ययन करने पर, यह धारणा सर्वथा भ्रान्त
एवं मिथ्या प्रतीत होती है। वेदों में राष्ट्र की परिकल्पना स्पष्ट रूप से
उपलब्ध होती है। राष्ट्र शब्द वेद के अनेक मन्त्रों में प्राप्त होता है।
राष्ट्र के सर्वविध कल्याण के लिये राष्ट्र भृत् यज्ञ का वर्णन (यजुर्वेद
के 9.10 अध्याय में) विस्तार से किया गया है। यहां तक कि विवाह संस्कार
के अवसर पर भी राष्ट्रभृत यज्ञ का विधान किया गया है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें